Udhada hua svetar - 3 in Hindi Moral Stories by Sudha Arora books and stories PDF | उधड़ा हुआ स्वेटर - 3

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उधड़ा हुआ स्वेटर - 3

उधड़ा हुआ स्वेटर

सुधा अरोड़ा

(3)

एक बेटी माँ कहती है दूसरी ‘मॉम‘, और दोनों उस पर जान छिड़कती हैं. फिर भी शिवा बादलों के साये से बाहर नहीं आ पाती. बीता हुआ वक्त सामने अड़कर खड़ा हो जाता है. शिवा ने चाहा आज वह खुलकर मुस्कुरा ले. ‘थैंक्यू’ - उसने बेटी का माथा चूमा और कमरे में सोने चली गई.

अगले रोज वह पार्क में गई तो बूढ़ा नियत जगह पर पहले से ही बैठा था. शिवा पास गई तो वह एक ओर सरक कर उसके बैठने की जगह बनाने लगा. शिवा ने कहा- ‘‘पहले चक्कर लगा आऊँ.’’

‘‘आज रिवर्स कर लो. पहले बेंच, फिर सैर!’’

शिवा कुछ अनमनी-सी जैसे उसके इंगित से परिचालित हो बैठ गई. बूढ़े ने अपनी जेब में हाथ डाला, अपना वॉलेट निकाला और उसे ऐसे खोला जैसे बंद फूलों की पंखुड़ियाँ खोल रहा हो- ‘‘देखो, यह है मेरी वाइफ़- बिंदा!’’

शिवा ने देखा, सफेद-सलेटी बालों में एक खूबसूरत-सी औरत की तस्वीर. उसके चेहरे के पीछे के बैकग्राउंड से जितने फूल झाँक रहे थे उससे कहीं ज़्यादा उसके चेहरे पर खिले थे. बूढ़े ने सफ़ेद प्लास्टिक पर चढ़ी धूल की महीन-सी परत को उँगलियों से ऐसे पोंछा जैसे अपनी बिंदा के माथे पर आए बालों को लाड़ से पीछे सरका रहा हो.

‘‘बहुत खूबसूरत है!’’ शिवा ने कहा और अपने भीतर एक टीस को महसूस किया. फिर तस्वीर धुँधली हो गई और जाने कैसे उस साफ़ चौकोर प्लास्टिक शीट के नीचे उसने अपना अक्स देखा जो नीचे से झाँकने की कोशिश कर रहा था. पर आँखों की नमी जैसे ही छँटी- वहां बिंदा थी, अपने भरे-पुरे अहसास के साथ! मटमैली-सी शिवा उसके सामने खड़ी थी.

‘‘सुंदर है न?’’ बूढ़े ने फिर पूछा और इस बार धूल-पुँछी तस्वीर को निहारता रहा.

‘‘बहुत!’’ शिवा होंठों को खींचकर मुस्कुराई और अपने में सिमट गई.

शुरू जनवरी की ठंडक हवा में थी. सुबह और रात को एक हल्के से स्वेटर के लायक. बूढ़े ने भी आज एक स्वेटर पहन रखा था. झक सफेद कुरता और क्रीज़ किया हुआ सफेद पायजामा. लेकिन स्वेटर जैसे किसी पुराने गोदाम से धूल झाड़कर निकाला हो. नीचे के बॉर्डर में कुछ फंदे गिरे हुए और फंदों के बीच से बिसूरता दिखता छेद. यह स्वेटर किसी भी तरह बूढ़े की पूरी पोशाक से मेल नहीं खा रहा था.

शिवा सैर और प्राणायाम निबटा कर अपनी बेंच पर आ जमी. बूढ़ा आकर पास खड़ा हो गया.

‘‘बैठने की इजाज़त है या...?’’

‘‘आइये न!’’ शिवा बेंच पर थोड़ा सरक गई. बूढ़े के बैठते ही उसकी निगाह स्वेटर पर गई.

‘‘उधड़ गया है...यह स्वेटर.’’ शिवा ने झिझकते हुए कहा.

‘‘हाँ, बहुत पुराना है. एंटीक पीस!’’

‘‘इसको ठीक क्यों नहीं करवा लेते हैं! एक फंदा गिर जाए तो फंदे उधड़ते चले जाते हैं.’’

‘‘ऐसे ही ठीक है यह.’’ बूढ़े ने उधड़ी हुई जगह पर अपनी पतली-पतली उँगलियाँ ऐसे फेरीं जैसे किसी घाव को सहला रहा हो.

‘‘किसने बुना? आपकी...?’’

‘‘हाँ, मेरी वाइफ़ बिंदा ने बिना था यह स्वेटर मेरे लिए.... शादी के बाद. बाद में बेटे-बेटियों, नाती-पोतों के लिए स्वेटर बिनती रही. इस बार सर्दियाँ आने से पहले गरम कपड़ों का ट्रंक खोला तो यह हाथ आ गया. कितना सुंदर डिज़ाइन है न!’’ बूढ़े ने जैसे अपने आप से कहा.

‘‘हूँ.’’ शिवा बस सिर हिलाकर और मुस्कुरा कर रह गई. कह नहीं पाई कि आखिर आपकी बिंदा की उँगलियों ने बिना है, सुंदर तो होगा ही!

‘‘मेरी बिंदा मुझसे दो साल बड़ी ही थी, पर कोई कह नहीं सकता था कि..... इस उम्र में भी तुम सोच नहीं सकतीं कि वह कितनी खूबसूरत लगती थी.’’

‘ज़रूर लगती होगी.’ शिवा ने कहा नहीं, सिर्फ सोचा- जिसको अपने पति से इतना प्रेम मिलता रहा हो उसे हर उम्र में खूबसूरत दिखने से भला कौन रोक सकता है!

शिवा अपने मटमैलेपन में खो गई थी. लग रहा था एक बार फिर संवाद के सारे सूत्र यहाँ आकर समाप्त हो गए हैं. अब आगे जुड़ नहीं सकते. बिंदा की उजास पूरे माहौल को चमका रही थी.

तभी उसे अपने सन्नाटे से उबारती बूढ़े की आवाज़ उसे सुनाई दी- ‘‘आपकी दो बेटियाँ हैं न? शादी नहीं की उन्होंने?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘दो में से किसी एक ने...?’’

‘‘हाँ, दो में से किसी ने भी नहीं!’’ शिवा ने एक-एक शब्द पर ज़ोर देकर कहा और मुस्कुराहट को होंठों के एक सिरे पर उभरने से पहले ही झटक दिया- जैसे मखौल उड़ा रही हो किसी का.

‘‘क्यों भला? ऐनी ग्रजेज़ अगेंस्ट मैरेज?’’

‘‘हाँ, वे कहती हैं नो मैन इज़ वर्थ अ वुमैन!’’ (कोई भी मर्द औरत के लायक नहीं होता)

‘‘कौन-सी बेटी कहती है? बड़ी या....?’’

‘‘दोनों!’’ सवाल के पूरा होने से पहले ही उसने जवाब दे दिया. बोलते हुए शिवा को लगा वह अपनी कुढ़न बेवजह इस बूढ़े तक क्यों पहुचा रही है.

‘‘अजीब बात है!’’ बूढ़े के चेहरे पर असमंजस था.

‘‘वैसे दे आर ओपन टु इट! कोई सही मिल गया तो....!’’ उसने ‘सही’ को दोनों हथेलियों की तर्जनी हिलाकर इन्वर्टेड कॉमा में होने का संकेत दिया, और अपनी तल्खी को छिपाने में कामयाब हो गई.

‘‘ह्म्म.....वेटिंग फॉर मिस्टर राइट. ....आय टेल यू दिस जेनेरेशन इज़ गोइंग हेवायर.’’ (यह पीढ़ी बदहवास हुई जा रही है.)

‘‘नो, दे आर मोर एक्यूरेट अबाउट देअर च्वॉयसेज़. (नहीं, वे अपने चुनाव के बारे में ज्यादा आश्वस्त हैं) वो अपने कान का पर्दा फटने देने के लिए तैयार नहीं हैं.’’ शिवा ने महसूस किया कि उसका अपने पर से नियंत्रण छूट रहा है और वह मुस्कुराहट के वर्क में अपने स्वर के तंज को बेरोकटोक उस ओर पहुँचने दे रही है. मुस्कुराहट भी इतनी तल्ख होकर बहुत से राज़ खोल सकती है उसने पहली बार जाना.

‘‘ओह यस, ऑफकोर्स! आय नो! मेरा बेटा कभी मेरी बहू को डाँटता था तो बिंदा उसे झिड़क देती थी- खबरदार जो मेरी बहू से ऊँची आवाज़ में बोले. आदर्श सास थी बिंदा, जिसमें माँ होने का ही प्रतिशत ज्यादा था! कभी बहू से रार-तकरार नहीं. मेरी बहू भी अपने पति की हर शिकायत अपनी सास से ऐसे करती जैसे वह माँ हो उसकी.’’ बूढ़ा एकाएक रुका- ‘‘सॉरी, मैं बहुत बोलता हूँ न बिंदा के बारे में?’’

‘‘कोई बात नहीं, मुझे सुनना अच्छा लगता है!’’ शिवा ने डूबते स्वर में कहा.

बूढ़े ने शिवा के चेहरे पर उदासी की लकीर खिंचती देख ली और उसके कंधे पर हाथ रखा- ‘‘लाइफ़ नेवर स्टॉप्स लिविंग शिवा!’’ बूढ़ा कंधा थपथपाकर चला गया- ‘‘सी यू टुमॉरो! चीअर अप!’’

बूढ़ा अपने पीछे बिंदा का अहसास छोड़ गया था- बिंदा ये थी, बिंदा वो थी. इन बोगनबेलिया के लहलहाते फूलों की तरह. इन हरे-हरे पत्तों से झुकी शाख की तरह. इन शाखों पर बहती दिसम्बर की भीनी-सी ठंडक लिए महक से भरी हवा की तरह. उस बूढ़े की साँस-साँस में बिंदा बसती थी. ...और एक शिवा थी, जिसे पति का प्रेम कभी मिला ही नहीं और हिटलर-पति की दहशत में कभी उसने अपनी ओर आँख खोलकर देखा तक नहीं. इन लहलहाते फूलों-पत्तों में एक अदना-सा ठूँठ! कितना बदसूरत-सा लगता है इस हरी-भरी आबादी के बीच! इस पार्क में जहाँ हँसते-खिलखिलाते जोड़े हाथ थामे जब सामने से निकल जाते हैं तो शिवा की हथेलियाँ अपने सूखेपन से अकड़ जाती हैं और उसके बाद धुँधली आँखों के सामने सारी हरियाली धुँधला जाती है.

बच्चों के लिए पीले चमकदार प्लास्टिक से बने खूबसूरत स्लाइड और गेम स्टेप्स के क्यूबिकल्स देखकर शिवा सोचती रही कि ज़िन्दगी हमारे लिए जापानी तकनीक के ऐसे सुरक्षित सैंड-पिट क्यों नहीं बनाती कि हम गिरें तो हमारे ओने-कोने लहूलुहान होने से बच जाएँ.

अतीत के धूसर सायों ने इस कदर छा लिया कि शाम को हरारत-सी महसूस होने लगी और अगले दिन बुखार हो आया. जब मन और दिमाग पर कोहरा छाता है तो शरीर पहले अशक्त होने लगता है, फिर अनचाहा तापमान सिर से शुरू होकर पूरी देह को गिरफ्त में ले लेता है. वह तीन दिन इस बुखार से लस्त-पस्त पड़ी रही. उसे लगा पार्क में जाकर बैठने की उसकी हिम्मत जवाब दे रही है.

छोटी बेटी का टिफिन तैयार कर अब वह अपने चाय के कप के साथ बाल्कनी में बैठी थी. इस बाल्कनी के साथ सुबह की बहुत सारी यादें जुड़ी थीं. कभी वह अपने पति और अपनी तीनों बेटियों के पिता के साथ इस बाल्कनी में बैठकर चाय पीते हुए भरसक इस कोशिश में रहती थी कि बेटियाँ रात का कोई भी निशान उसके चेहरे या गर्दन पर पढ़ न लें. इस कोशिश में वह अपने चेहरे पर एक मुस्कान को ढीठ की तरह अड़ कर बिठाए रखती, पर बेटियों के स्कूल, कॉलेज या नौकरी पर जाते ही वह मुस्कान अड़ियल बच्चे की तरह उसकी पकड़ से छूट भागती और वह ज़िन्दगी के गुणा-भाग में फिर से उलझ जाती. ..... अब मुस्कान के उस खोल की ज़रूरत नहीं रही, उसने सोचा और बग़ैर शक्कर की चाय के फीके घूँट गले से नीचे उड़ेलती रही. कमरे की ठहरी हुई हवा में नय्यारा नूर की आवाज़ में फ़ैज़ की नज़्म तैर रही थी-

जिस घड़ी सीनों में डूबे हुए दिन आस्तीनों में निहा हाथों की राह तकने लगे आस लिए जब न कोई बात चले जिस घड़ी रात चले जिस घड़ी मातमी सुनसान सियाह रात चले तुम मेरे पास रहो....

कब बेटी उससे कह कर चली गई- ओके मॉम, गोइंग! योर मॉर्निंग वॉक फ्रेंड इज़ कमिंग टु सी यू. आय हैव केप्ट द डोर ओपन! ( जा रही हूँ. आपके सुबह की सैर वाले फ्रेंड मिलने आ रहे हैं. मैंने दरवाज़ा खुला छोड़ दिया है!) उसने सुना तक नहीं.

अपनी कुर्सी के हत्थे पर एक झुर्रियों वाला हाथ देखकर शिवा चौंकी- ‘‘अरे, आप कब....’’

‘‘मैं यहाँ एक मिनट नहीं तो चालीस सेकेंड से तो खड़ा ही हूँ. तुम्हारी बेटी ने इंटरकॉम पर मेरा स्वागत किया और कहा- ममी ठीक हैं, चाय पी रही हैं, यू कैन गिव हर कम्पनी! .....लेकिन आप कहाँ खोई हैं मैम?’’ बूढ़े ने लाड़ भरे स्वर में कहा- ‘‘लॉस्ट इन द स्काई? आय हैव डिस्टर्ब्ड यू....परहैप्स...!’’ फिर रुक कर किंचित मुस्कुराते हुए वाक्य पूरा किया- ‘‘शायद मैंने आकर तुम्हारी दुनिया में खलल डाला!’’

शिवा ने आँखें ऊपर नहीं उठाईं.

बूढ़े ने अब धीमे से कहा- ‘‘मुझे लगा तुम कहीं बीमार न हो इसलिए देखने चला आया तुम्हें.’’

क्रमश...