आज जैसे ही उपयोगी थे पुराने नियम
कोरोना महामारी से दुनिया सिमटी बैठी है. इस महामारी ने दुनिया को नए सिरे से सोचने में मजबूर कर दिया है. अमेरिका, इटली, फ्रांस, जापान, स्पेन आदि देशों ने अपने गले मिलने व हाथ मिलाने वाले अपने समाज के सब से प्रचलित नियम बदल लिए हैं. एक समय था जब वे लोग हाथ मिलाना और गले मिलना अपनी शान समझते थे. वे आजकल दूर से ही नमस्ते करने लगे हैं.
मजबूरी में सही दुनिया को भारत के नियम व सामाजिक आचारव्यवहार को अपनाना पड़ रहा है. अन्यथा उन्हें डर है कि इस का पालन नहीं किया तो वे बेमौत मरे जाएंगे.
आज कोरोना के मरीजों को अलग रखा जा रहा है. उन की किसी भी चीजों को छूने से परहेज किया जा रहा है. कहा जा रहा है कि इस से विषाणु के संक्रमण का फैलने का खतरा होता है.
आज दुनिया यह समझ गई है कि उन्हें कोरोना की महामारी से बचना है तो अपने हाथ को बारबार धोनाचाहिए. अपने चेहरे के हाथ, मुंह, नाक, सिर आदि ढक कर रखना चाहिए. अन्यथा वे इस महामारी से बच नहीं पाएंगे.
अमिताभ बच्चन ने एक विडियों साझा कर के कहा है कि खुले में मलमुत्र त्याग नहीं करना चाहिए. यदि संक्रमित व्यक्ति ने खुले में मलमुत्र त्याग कर दिया तो इस से भी संक्रमण फैलने का खतरा बढ़ जाएगा. इसलिए हमें ऐसी आदतों से बचना होगा.
यही बात हमारे पुराणों में कही गई हैं.
घ्राणास्ये वाससाच्छाद्य मलमूत्रं त्यजेत् बुध:।
अर्थात हमारी वाधूलस्मृति 9 कहती है कि हमें नाक, मुंह तथा सिर को ढ़क कर, मौन रहकर मल मूत्र का त्याग करना चाहिए. यही बात आज हमें दुनिया भर के डॉक्टर और विद्वान समझा रहे हैं. हमें हमारे हाथ, नाक, कान, मुंह और आंख को संक्रमण से बचाना होगा तभी हम जिंदा रह पाएंगे.
हमारे पुराण इस संबंध में बहुत कुछ कहते हैं. पद्मपुराण सृष्टि 51/86 के इस श्लोक को देखिए—
न धारयेत् परस्यैवं स्नानवस्त्रं कदाचन। अर्थात् इस में कहा गया है कि हमें दूसरों के स्नान के वस्त्र यानी तौलिए इत्यादि का प्रयोग नहीं करना चाहिए. यह श्लोक हमें बताता है कि इस से हमें हानि हो सकती है. वही महाभारत अनु.104/86 की यह पंक्तियों हमें यही बात बताती है—
तथा न अन्यधृतं धार्यम्। अर्थात हमें दूसरों के पहने कपड़े कभी नहीं पहनने चाहिए.
वाधूलस्मृति 69 में लिखा है— स्नानाचारविहीनस्य सर्वा:स्यु: निष्फला: क्रिया:। अर्थात् स्नान और शुद्ध आचार के बिना सभी कार्य निष्फल हो जाते हैं.अतः सभी कार्य स्नान कर के शुद्ध हो कर करने चाहिए.
यह भारतीय परंपरा है. पुराने समय की महिलाएं बिना स्नानध्यान किए बिना अर्थात् नहाएधोए बिना खाना आदि नहीं बनाती थी. कहा जाता था कि ऐसा करने पर रसोई और घर में धन्यधान की कमी हो जाती है. ऐसी मान्यता थी. इस मान्यता के मूल में यही बीज कार्य करते थे.
वाधूलस्मृति 69 भी इसी बात का समर्थन करती है— स्नानाचारविहीनस्य सर्वा:स्यु: निष्फला: क्रिया:। अर्थात्— स्नान और शुद्ध आचार के बिना सभी कार्य निष्फल हो जाते हैं. अतः सभी कार्य स्नान कर के शुद्ध हो कर करने चाहिए. इस से सुफल प्राप्त होता है.
महाभारत अनु.104/52 कहता है— न चैव आर्द्राणि वासांसि नित्यं सेवेत मानव:। तथा गोभिलगृह्यसूत्र 3/5/24 के अुनसार — न आर्द्रं परिदधीत अर्थात्— हमें कभी गीले कपड़े नहीं पहनने चाहिए. यानी अच्छी तरह सूखे हुए कपड़े ही पहनना चाहिए.
मार्कण्डेय पुराण 34/52 में स्पष्ट लिखा है— अपमृज्यान्न च स्नातो गात्राण्यम्बरपाणिभि:। अर्थात्— स्नान करने के बाद अपने हाथों से या स्नान के समय पहने भीगे कपड़ों से शरीर को नहीं पोंछना चाहिए. जिस का सीधा मतलब है कि किसी सूखे कपड़े यानी तौलिए से शरीर को रगड़रगड़ कर पोंछना चाहिए.
विष्णुस्मृति 64 की पंक्तियां कहती है— न अप्रक्षालितं पूर्वधृतं वसनं बिभृयात्। अर्थात्— पहने हुए वस्त्र को बिना धोए पुनः न पहनें. इस का सीधा मतलब है कि पहना हुआ वस्त्र हमेशा धो कर ही पहनना चाहिए.
आज के समय में कोरोना संक्रमण, साफसफाई के अभाव में फैल रहा है. हिन्दू संस्कृति में जो रिवाज है वे बिना वजह नहीं बने हैं. इन के बनने में कोई न कोई मूल कारक विद्यमान है. एक उदाहरण देखे— मुस्लिम संस्कृति में एक रिवाज है. किसी व्यक्ति के मरने पर नहा कर जनाजे में जाने का रिवाज है. इस रिवाज से आज हमें बहुत हानि हो रही है. मरे हुए संक्रमित व्यक्ति से यह संक्रमण दूसरे व्यक्ति में तेजी से फैल रहा है.
हिन्दू संस्कृति कहती है— चिताधूमसेवने सर्वे वर्णा: स्नानम् आचरेयु:। वमने श्मश्रुकर्मणि कृते च. यानी विष्णुस्मृति 22 के अनुसार श्मशान में जाने पर, वमन होने/करने पर, और हजामत बनवाने पर स्नान कर के शुद्ध होना चाहिए. वही पद्मपुराण सृष्टि 51/88 में लिखा है— हस्तपादे मुखे चैव पञ्चार्द्रो भोजनं चरेत्। अर्थात् हाथ, पैर और मुंह धो कर भोजन करना चाहिए.
कोरोना बीमारी फैलने के बाद हमें यही सिखाया जा रहा है. हम बारबार हाथ धोए. इधरउधर हाथ न लगाए. किसी से हाथ न मिलाए. घर से बाहर न निकलें. ताकि हमें संक्रमण से बचा सकें. यही बात धर्मसिंधु 3 पू.आह्निक में लिखी है— लवणं व्यञ्जनं चैव घृतं तैलं तथैव च। लेह्यं पेयं च विविधं हस्तदत्तं न भक्षयेत्। अर्थात् नमक, घी, तैल, कोई भी व्यंजन, चाटने योग्य एवं पेय पदार्थ यदि हाथ से परोसे गए हों तो न खायें. ये चम्मच आदि से परोसने पर ही ग्राह्य होते हैं. यानी इन्हें साफसुथरे ढंग से परोसने पर खाना चाहिए.
पुराणों में ऐसे कई उदारहण है जो हमारी नित्य दिनचर्या को निर्धारित करने के लिए लिखे गए है. इस से सीधा यह मतलब निकलता है कि हमारे पुराणों में हमारी जोजो दिनचर्या निर्धारित थी, उस में जोजो भी नियम आदि बने हुए थे वे पूर्ण अनुभवसिद्ध और परिस्थितियों के अनुसार ही लिखे और वर्णित किए गए थे. जिन्हें हम बेकार के ढकोसले कह कर नकारते रहे हैं. मगर, कोरोना की इस महामारी ने स्वयं इन नियमों को सिद्ध कर दिया है. ये काम के नियम व दिनचर्या है.
वर्तमान में हम उन्हीं नियमों को अनुसरण करना पड़ रहा है. इन नियमों को हमारे पूर्वजों ने बरसों पहले बना दिया था. वे अपने अनुभव का निचौड़ था. जब कभी कोई कठिनाई और महामारी आई उन्हों ने उस के लिए नियम बना दिए थे. यही वजह है कि हिन्दू संस्कृति में शव को जलाने के बाद स्नान आदि कर के शुद्ध होने की परंपरा निर्मित की गई थी. जिस घर में किसी का देहांत हो जाता था वह सूतक के रूप में बारह दिन अलगथलग रहने की परंपरा बनाई गई थी.
आज दुनिया हमारे नमस्ते की परंपरा को अपना रही है. कल किसी ओर परंपरा को अपनाएगी. ताकि हम अनुभव के आधार पर कह सकें कि भारतीय संस्कृति में नियम अनुभव की भट्टी में तप कर निकले थे. वे प्रयोगजन्य साक्ष्य के परिणाम थे. इन्हें अपनाना व मानना मानवता के लिए सर्वथा लाभदायक है.
------------------------
13/04/2020
प्रमाणपत्र
प्रमाणित किया जाता है कि प्रस्तुत रचना मेरी मौलिक है. यह कहीं से ली अथवा चुराई नहीं गई है. इसे अन्यत्र प्रकाशन हेतु नहीं भेजा गया है.
ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’
अध्यापक, पोस्टआफिस के पास
रतनगढ- 485226 जिला-नीमच (मप्र)
मोबाइल नंबर -- 9424079675