Mere hisse ki dhoop - 1 in Hindi Moral Stories by Zakia Zubairi books and stories PDF | मेरे हिस्से की धूप - 1

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मेरे हिस्से की धूप - 1

मेरे हिस्से की धूप

ज़किया ज़ुबैरी

(1)

गरमी और उस पर बला की उमस!

कपड़े जैसे शरीर से चिपके जा रहे थे। शम्मों उन कपड़ों को संभाल कर शरीर से अलग करती, कहीं पसीने की तेज़ी से गल न जाएँ। आम्मा ने कह दिया था, "अब शादी तक इसी जोड़े से गुज़ारा करना है।"

ज़िन्दगी भर जो लोगों के यहाँ से जमा किए चार जोड़े थे वह शम्मों के दहेज के लिए रख दिये गए – टीन के ज़ंग लगे संदूक में कपड़ा बिछा कर। कहीं लड़की की ही तरह कपड़ों को भी ज़ंग न लग जाए।

अम्मा की उम्र इसी इन्तज़ार में कहाँ से कहाँ पहुँच गई कि शम्मों के हाथ पीले कर दें। शादी की ख़ुशियाँ तो क्या, बस यही ख़्याल ख़ुश रखता था कि शम्मों अपने डोले में बैठे तो बाक़ी लड़कियाँ जो कतार लगाए प्रतीक्षा कर रही हैं, उनकी भी बारी आए। अम्मा के फ़िक्र और परेशानी तभी तो ख़त्म हो सकते है।

शम्मों को देखने तो कई लोग आए मगर किसी ने पक्के रंग की शिकायत की तो किसी को शम्मों की नाक चिपटी लगी। यहाँ तक कि किसी किसी तो शम्मों की बड़ी बड़ी काली आँखें भी छोटी लगीं। हर ग्राहक के जाने के बाद शम्मों अपने आपको घंटों टूटे हुए आइने में देखा करती।

कभी अपनी नाक को चुटकी से पकड़ पकड़ कर ऊँचा और पतला करती या कभी आँखें खींच खींच कर और बड़ा करने का प्रयास करती। और नहीं तो साबुन से रगड़ रगड़ कर मुँह ही घिसना शुरू कर देती। फटे तौलिये से, जिसके रोंए पोंछ पोंछ कर झड़ चुके थे, जूते की तरह चमकाने की कोशिश करती। इस सारी प्रक्रिया से थक जाती तो गहरी साँस लेते हुए धम से पलंग पर गिर जाती।

बेचारा पलंग – इसे पलंग कहना इलज़ाम ही माना जा सकता था। हाँ इसे झिलंगा कहा जा सकता था। उसके लेटते ही पलंग ज़मीन से जा लगता। शायद अम्मा ने पलंग भी शम्मों के जन्म के आसपास ही ख़रीदा होगा। बेचारा अभी भी झकोले दे रहा था।

शम्मों घन्टों बेसुध सी पड़ी रहती और बेचैन मां को इधर से उधर चलता फिरता देखती रहती। इसी तरह पड़े पड़े आंख लग जाती जब तक कि मच्छर आक्रमण न कर देते। सारे मच्छर एक सुर में भुनभुनाते हुए जब हमला करते तो कभी अपने कानों पर हाथ मारती या कभी दुपट्टे से मुँह ढाँपने का प्रयास करती। दुपट्टे के बड़े बड़े सुराख़ों से तांक झाँक करते हुए मच्छर एक बार फिर शम्मों को बेचैन कर देते।

काश! उसके घूंघट से भी कोई ऐसे ही ताक-झांक करता। वह शरमाती, लजाती, इक़रार के अन्दाज़ में इन्कार करती और फिर..... फिर अपने आपको किसी को सौंप देती। किन्तु वह कब आएगा? क्या उसके सपने बिना किसी राजकुमार के आए ही टूट जाएँगे?

कब तक इसी तरह इसी घर में अम्मा के बच्चों की देखभाल करती रहेगी? वह गहरी और बेफ़िक्र नींद भी न सो पाती क्योंकि अम्मा से अधिक स्वयं उसको अपने छोटे भाई बहनों का ख़्याल रहता। इसी तरह के हज़ारों ख़्यालों से उलझती रहती और न जाने कब नींद की गोद में पहुँच जाती। दिन भर बैल की तरह काम करके शरीर फोड़े की तरह दुख रहा होता। सोने में हलके हलके कराहने की आवाज़ आती रहती। आनन फ़ानन में मुर्गों की बांग मस्जिद के मुल्लाओं से मुक़ाबला करने लगती और शम्मों और ज़ोर से मुँह ढांप लेती; कानों को तकिए से दबा कर बन्द करने की नाकाम कोशिश करती। किन्तु तकिया भी पैबंदों की ज़्यादती और रुई की गुठलियों के कारण कानों को चुभता।
अम्मा की आवाज़ कानों में नश्तर की तरह चुभती, "उठ शम्मो बेटी! गुड्डु को ग़ुसलख़ाने ले जा, वरना सुबह होते होते बिस्तर भिगो देगा।" शम्मो लेटे लेटे सोचती कैसा बिस्तर? क्या एक बोसीदा चादर जो सुराख़ों की कसरत से जाली बन गई है, चादर कहलाए जाने कि हक़दार भी है? अगर गुड्डु भिगोने का प्रयास भी करे तो भिगो नहीं पाएगा, क्योंकि सब कुछ छन जाएगा। अम्मा की आवाज़ फिर से आती, "अरे शम्मों, उठ न बेटी, अभी तक पड़ी सोए जा रही है! सूरज सर पर चढ़ा आ रहा है, और तू है कि तेरी नींद ही नहीं टूटती। तेरी उम्र में तो तेरे समेत मेरे चार बच्चे हो चुके थे और अल्लाह रक्खे, आख़िरी दो तो तेरे ही लगते हैं। अब उठ भी जा बेटी, उठ जा!"
शम्मों यह सोचती रहती कि अम्मा ने अपनी शादी तो मज़े से कम उम्र में रचा ली; और अब मेरी बारी आयी है तो इन्हें कोई वर ही नहीं मिलता। फिर वह अपने पक्के रंग को दोष देने लगती। इसमें अम्मा का क्या दोष, यह तो अल्लाह की मर्ज़ी है।

बेचारी शम्मों! उसे क्या मालूम कि उसके सलोने हुस्न में जो कशिश है वह दुनियाँ के किसी और रंग में नहीं है। इस कृष्ण रंग में वह क़ूवत है जो मुहब्बत की गर्मी और दूसरों की मुसीबतें जज़्ब कर लेने की ताक़त रखता है। किन्तु इसके लिये राधा और मीरा जैसी मन की आँखों की ज़रूरत पड़ती है। हर आने वाला शम्मो की ऊपरी कमज़ोरियों को देखता; उसके मन के भीतर की थाह लेने की ज़रूरत महसूस नहीं करता।

बेचारी शम्मो! जब रात गए लेटती, कोठरी की छत से चूती बारिश की फुहारें उसको भिगोती रहती। वह बिस्तर के हर कोने, हर पट्टी में पनाह ले कर थक जाती तो उसके गले से गुनगुनाहट उभरने लगती –

अम्मा मेरे भइया को भेजो री कि सावन आया

अम्मा मेरे भइया को भेजो री कि सावन आया

कि सावन आया

कि सावन आया

कि सावन....…

और फिर पलंग की बेढंगी खुरदरी मोटी सी पट्टी से लिपट कर नींद के आग़ोश में गुम हो जाती। जवानी की नींद भी तो कितनी मस्त होती है। तमाम दुःख और दर्द सिमट कर नींद की भेंट चढ़ जाते हैं। अम्मा को शम्मों की बेसुध जवान नींद से खासी चिढ़ थी। पर अम्मा जैसे अपनी जवानी की नींद भूल ही गई थी। इसी नींद ने तो बच्चों की एक फ़ौज खड़ी कर दी थी।

अब्बा ने तो कभी अम्मा को बेसुध सोने का ताना नहीं दिया। वह तो ख़ुश होते थे जब अम्मा हाथ पैर ढीले छोड़ कर दुपट्टे की गठरी बना कर सिर के नीचे रख लेती और सो रहती। शरीर का हर अंग अब्बा को निमन्त्रण दे रहा होता। मां झिलंगे पलंग पर पड़ी बड़े सुर में ख़र्राटे ले रही होती और चंद महीनों बाद ही हम बड़े भाई बहनों को ख़ुशख़बरी सुनाती, "सुनो बच्चो, तुम्हारा नन्हा मुन्ना सा भाई या बहन आने वाला है। अब मुझे परेशान न करना और अपने तमाम काम आप ही करने की कोशिश करना, क्योंकि मुझसे अब नहीं होते यह काम काज। काम करूँ या बच्चे पैदा करूँ? मुझे गाय भैंस समझ लिया है तुम्हारे बाप ने! हर साल गाभिन कर देता है, जानवरों की तरह।"

शम्मो सोचती अम्मा को क्या फ़र्क पड़ता है। मज़े उड़ाती है आप और रोब मारती है हम पर। सारा काम तो मुझे ही संभालना पड़ता है। यह भी नहीं कि बच्चे सुन्दर ही पैदा कर दे, कि किसी राह चलते की हम पर नज़र पड़े तो मुस्कुरा ही दे। हम चार दिन तो उसको सोच सोच कर ख़ुश हो लेते। उसके ख़्वाब देख लिया करते। फ़िल्मी गाना गाते समय उसी से सब कुछ जोड़ लिया करते। यह सोचते ही शम्मों के शरीर में रोमांच हो उठा।

ऐसा लगता जैसे शम्मों बेचारी पर जवानी तो आई ही नहीं। सीधे बचपन से उठ कर प्रौढ़ा बन गई। जैसे किसी ज़हीन बच्चे को डबल प्रमोशन दे दी गई हो, और बच्चा अपने साथियों से बिछड़ जाने के दुःख में न तो रो सके और न ही आगे बढ़ जाने की ख़ुशी में हँस सके। ग़रीब की ज़िन्दगी भी कुछ यों ही आगे बढ़ती जाती है।

शम्मो को कभी समझ नहीं आया कि वह अपनी छोटी बहन रानी का क्या करे। वह उससे बस एक ही साल छोटी है। लेकिन उसके शरीर का उठान शम्मों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा ज़रख़ेज़, रंग ज़रा खिलता हुआ पर नक़्श वही नकटे, चिपटें। उसकी अदाएँ निराली थीं – न किसी से डर, न ख़ौफ़। बिन्दास – छोटी छोटी आँखों को टेढ़ी करके बात किया करती; बात बात पर खिलखिला कर हँस देती; और हँसते हुए झूल सी जाती। वो जो कपड़े पहने होती, ऊँचे नीचे, बेमेल से, कहीं कहीं से सिलाई खुले हुए उन कपड़ों से जवानी झांक रही होती। वह एक ऐसी बेरी थी जिसके कारण घर में कंकरों की आमद बनी रहती। मुहल्ले के हर लड़के को रानी जानती थी, हर लड़का उसका दोस्त था, उसका दीवाना था।

शम्मो इस मामले में भी उसकी मां का किरदार निभाती थी। ऊँच-नीच समझाती। पर रानी की चंचल तबीयत को कौन लगाम देता ? पारे की तरह अस्थिर और चंचल! घर के भीतर तो घुटन का माहौल तनाव पैदा करता। मां बेटियाँ चुप चुप, परेशान परेशान, हर समय लेक्चर। फ़िक्र यही रहती कि अगले वक़्त पकेगा क्या। रानी को यह सब बेकार लगता - बोरिंग! वह तो एक छलावा थी, कभी यहाँ कभी वहाँ। किस समय किसकी झुग्गी में बैठी बातें बघार रहीं होगी, यह मालूम करना मुश्किल हो जाता।
अम्मा कह कह कर थक गई थी, "रानी, तू नाक कटाएगी - नाक!" रानी एक नहीं सुनती। सारा दिन लड़के लड़कियों के साथ बाहर घूमना – खाना और खेलना, बस यही उसकी दिनचर्या थी। बेफ़िक्री की वजह से रंग निखरता जा रहा था और बदन गदराने लगा था। हफ़्तों पहले धुले बाल भी उलझे उलझे, काले काले, चमकदार हुए रहते थे। बदबू से क्या होता है ? बदबू भी तो जवान थी। जवानी की बदबू को गली के लड़के ख़ूब अच्छी तरह समझते थे। रानी का तो काम ही था हर वक़्त बोलते रहना – फ़िल्मी डायलॉग भी बोल लेती और गाने गाती लहक लहक कर।

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