Udhada hua svetar - 2 in Hindi Moral Stories by Sudha Arora books and stories PDF | उधड़ा हुआ स्वेटर - 2

Featured Books
Categories
Share

उधड़ा हुआ स्वेटर - 2

उधड़ा हुआ स्वेटर

सुधा अरोड़ा

(2)

‘‘ओह!’’ बूढ़े ने अकबकाकर सिर हिलाया- हैरानी में और उससे ज्यादा घबराहट में. यह औरत झूठ भी तो बोल सकती थी. लेकिन सच है, उसने सोचा, ऐसे खुलासे अजनबियों के सामने यकायक हो उठते हैं.

‘‘आप जो प्राणायाम करती हैं न उसमें एक एडीशन करता हूँ.’’ बूढ़े ने ऐसे इत्मीनान से कहा जैसे औरत के अपनी ज़िंदगी के खुलासे को उसने तवज्जो दी ही नहीं. ‘‘देखिये, ओssम् तो आप करती ही हैं, उसके पहले का हरी ई ई ई ..... खींचकर उसी अंदाज़ में करिए! इससे वायब्रेशंस यहाँ ब्रह्मतालू पर होते हैं जहाँ छोटे बच्चों के सिर पर टप-टप होती देखी होगी, वहाँ! ओssम् से तो कनपटियों के पास- दिमाग़ के दाईं बाईं ओर की नसें रिलैक्स होती हैं, पर इन दोनों से तो पूरा दिमाग़- आपका ब्रह्मांड!’’

‘‘आप योग प्रशिक्षक हैं या यह आपका इन्वेंशन है?’’ शिवा उसके बयान का अंदाज़ देखकर हल्की हो आई, जैसे किसी साथ चलते ने रास्ते के उस पत्थर को, जिससे टकराकर वह गिरने ही वाली थी, हटाकर रास्ते को साफ और सुरक्षित कर दिया हो.

‘‘थैंक्यू सो मच. कल से इसे भी करूँगी.’’

‘‘ओके. चलूँ मैं अब?’’

बूढ़े ने ऐसे पूछा जैसे उसके ‘नहीं’ कहने से वह कुछ और प्राणायाम विधियाँ बताने के लिए रुक जाएगा.

शिवा ने हाथ जोड़ कर एक बार और थैंक्यू कहा. उसके ‘थैंक्यू’ में ‘आप चलें अब’ का सौजन्य संकेत भले ही शामिल था, पर उसने पाया कि वह उसे काफी देर तक जाता हुआ देखती रही-- जब तक बूढ़े की आकृति घुमावदार रास्ते का मोड़ लेकर आँख से ओझल नहीं हो गई.

0

घर लौटकर आज शिवा ने व्हाइट सॉस में ब्रोकोली बनाई और बनाते हुए सोचती रही कि शायद साल भर हो गया इसे बनाए. वही हुआ-- छोटी बिटिया काम से लौटी और जैसे ही खाना मेज़ पर देखा, बोली- ‘‘वा---ऊ ! आज क्या है मॉम, किसी का बर्थ डे है?’’ फिर सिर खुजाते हुए याद करने लगी– ‘‘मुझे तो याद नहीं आ रहा.’’

‘‘नहीं रे. ऐसे ही मन हुआ बनाने का!’’ शिवा ने झेंपते हुए कहा. बेटी ने फुर्सत से उँगलियाँ चाटने की आवाज़ को भी नहीं रोका, एटीकेट्स के चलते खाने की मेज़ पर जिसकी मनाही थी. खिली हुई मुस्कान के साथ बोली- ‘‘तो मन से कहो कभी-कभी ऐसा हो जाया करे.’’ शिवा मंद-मंद मुस्कराती रही. बेटी कितना खयाल रखती है उसका. ऑफ़िस के टेंशन कभी उससे शेअर नहीं करती. अपनी दोस्तों से जब फोन पर बात करती है तभी उसके जॉब के तनाव उस तक पहुँचते हैं. जब-तब छुट्टी के दिन किसी अच्छी फ़िल्म की दो टिकटें ले आती है और अपनी दोस्तों के साथ न जाकर अपनी माँ के साथ एक वीकएंड बिताती है. और वह है कि बरसों इस इंतज़ार में रही कि बेटी का किसी से अफेयर हो जाए तो कम से कम इसकी शादी तो वह भर आँख देख ले. एक लड़का उसे पसंद आया भी, पर जब तक शिवा उसे पसंद कर अपने घर का हिस्सा बनाने को तैयार हुई वह लड़का बेटी की ही एक दोस्त पर रीझ बैठा और बेटी को पैरों के एग्ज़ीमा का महीनों इलाज करना पड़ा. शिवा ने बेटी की शादी के सुनहरे सपनों से तौबा कर ली और खाली वक्त में दोनों माँ-बेटी स्क्रैबल खेल कर या सुडोकू के खाने भर कर संतुष्ट होती रहीं. तब से जिंदगी एक व्यवस्थित पटरी पर चल रही थी.

सुबह बेटी के टिफिन में गाजर के पराँठे के साथ लहसुन का अचार रखना शिवा नहीं भूली और बेटी ने रात की ब्रोकोली के एवज में गले में बाँहें डालकर विदा ली- ‘‘आज भी कल की तरह कुछ डैशिंग बना लेना मॉम! मूड न हो तो मैं चायनीज़ लेती आऊँगी. जस्ट गिव मी अ टिंकल!’’ शिवा की मुस्कान आँखों की कोरों तक खिंच गई.

बेटी को भेजकर उसने पार्क का रुख किया. अपनी उसी बेंच पर सैर के चक्कर पूरे करने के बाद वह बैठी थी. पाँच-दस मिनट वह राह तकती रही, फिर दूर से बूढ़ा आता हुआ दिखा. झक सफेद कुरता-पाजामा पास आकर ठिठक गया. उसने मुस्कुराकर देखा तो वह बेंच की एक ओर बैठ गया, लेकिन बैठते ही उठ कर दूसरी ओर जाते बोला- ‘‘ओह, मैं भूल गया था कि आपको इस कान से सुनाई नहीं देता.... मेरी वाइफ़ भी एक कान से थोड़ा कम सुनती...’’

शिवा सकते में आ गई- क्या? उसे झटका लगा- जैसे कोई उसके दिमाग़ की सारी शिराओं को अस्तव्यस्त कर रहा था- ‘‘क्या आप....?’’

बूढ़ा अटका- ‘‘अरे नहीं-नहीं, आप गलत सोच रही हैं, मैंने उस पर कभी हाथ नहीं.... मैं तो....’’

शिवा ने सूखी आवाज़ में अटपटाकर पूछा- ‘‘तो फिर आपको कैसे मालूम कि हाथ उठाने से कान का पर्दा फट जाता है?’’

बूढ़े ने गला खँखारा- ‘‘मेरी बीवी एक एनजीओ में मदद करने जाती थी. बताती थी कि डोमेस्टिक वायलेंस की शिकार अस्सी प्रतिशत औरतों के कान के पर्दे फटे होते हैं. लेकिन उसे हियरिंग की प्रॉब्लम थी. उसने हियरिंग एड लगा रखा था.’’

शिवा ने सशंकित निगाहों से बूढ़े को आर-पार देखा. वह जैसे आश्वस्त नहीं थी- ‘‘यहाँ...? किस एनजीओ में?’’

‘‘नहीं नहीं, हम मुंबई में नहीं रहते.’’

शिवा की आवाज़ में थकन थी- ‘‘नए आए हैं इस इलाके में?’’

‘‘नहीं, पहले भी आ चुके हैं कई बार. बेटा यहाँ रहता है. हम तो आसनसोल रहते हैं.....रहते थे. माय वाइफ पास्ड अवे....छह महीने पहले.’’ बूढ़ा बोलते-बोलते रुका और उसने आँखें झुका लीं. झुकाने से ज़्यादा फेर लीं कि आँखों की नमी कोई देख न ले.

‘‘ओह सॉरी!... सॉरी!’’

‘‘.....तो बेटा जिद करके अपने साथ ले आया- पापा अकेले कैसे रहेंगे. यहाँ पोते-पोतियाँ, नौकर-चाकर, ड्राइवर-माली सब हैं. चहल-पहल है. पर....’’

‘‘आपकी बीवी....बीमार थीं?’’

‘‘बस दस दिन. ....कभी बताया ही नहीं उसने कि तकलीफ है उसे कहीं. डॉक्टर के पास जाने को तैयार ही नहीं. अपनी डॉक्टर खुद थी वो. खुद ही आयुर्वेदिक-होमियोपैथिक खाती रहती थी. चूरन चाटती रहती थी. जिस दिन उल्टी में खून के थक्के निकले उस दिन कहा. लास्ट स्टेज में बीमारी डिटेक्ट हुई. उसने कभी शिकायत ही नहीं की. पता ही नहीं चला कि कैंसर पूरे पेट से होता हुआ लंग्स तक पहुँच गया है. उसके माँ-बाबा दोनों कैंसर से गुज़र गए थे. जब कैंसर डिटेक्ट हो गया तो कहती थी- आशी, मुझे ज्यादा याद मत करना, नहीं तो वहाँ भी चैन से रह नहीं पाऊँगी. बिंदा मुझे आशी कहती थी.’’

‘‘आषी!’’ बूढ़े ने बिंदा की आवाज़ को याद करते अपने को पुकारा. पुकार के साथ ही चेहरे पर गहराते बादलों की धूसर छाया पसर गई- ‘‘हमेशा कहती थी कि मैं धीरे-धीरे मरना नहीं चाहती, बस चलती-फिरती उठ जाऊँ आपके कंधों पर.... वही हुआ. मेरे साथ वॉक करते-करते अचानक लड़खड़ा गई. मैंने बाँहों का सहारा दिया तो मेरी ओर ताकते एक हिचकी ली और बस. सब कहते हैं ऐसी मौत संतों को आती है.... पर जाने वाला चला जाता है, पीछे छूट जाने वालों के लिए ऐसी विदाई को झेलना आसान होता है क्या?’’ कहते हुए बूढ़े के चेहरे पर स्मृतियों में डूब जाने की जो रेखाएँ उभरीं संवाद वहाँ से आगे नहीं जा सकता था. चुप्पी में ही बग़ैर हाथ हिलाए विदा की मुद्रा में बूढ़ा उठा और चल दिया.

शिवा घर पहुँची तो साढ़े दस बज चुके थे. बातों-बातों में वह भूल ही गई थी कि शनिवार की सुबह बड़ी बिटिया न्यू जर्सी से फोन मिलाती है. शुक्रवार रात को वह फुर्सत से बात करती है क्योंकि शनिवार उसे काम पर जाना नहीं होता. जब फोन की लंबी-सी घंटी बजी तो उसे वार याद आ गया. फोन उसने लपक कर उठाया. उधर से खीझी हुई आवाज़ थी- ‘‘क्या माँ, फोन क्यों नहीं उठा रही हो?’’ शिवा ने अटकते हुए कहा- ‘‘आज ज़रा पार्क में देर हो गई.’’ उधर से सुरीले सुर में डाँट-डपट थी- ‘‘कितनी बार कहा है माँ, मोबाइल लेकर जाया करो.’’ मॉम से माँ बनी शिवा ने इतराकर कहा- ‘‘अपना वज़न उठा लूँ वही बहुत है.’’ उसके बाद आदतन उसने सारी दवाइयों के लिए पूछा- ‘‘कैल्शियम ले रही हो रेगुलर, या भूल जाती हो?’’ यह बेटी अब उसकी माँ के रोल में आ गई है. जैसे स्कूल से लौटे हुए बच्चे का कान पकड़ कर माँ पूरे दिन का ब्यौरा पूछती है कुछ-कुछ उसी अंदाज़ में यह उसकी खुराक, दवाइयों, मालिश और व्यायाम के बारे में दरियाफ्त करती है. खासियत यह कि फोन पर उसकी आवाज़ भर से वह पहचान जाती है कि माँ झूठ बोल रही है और दवा अक्सर भूल जाती है. उससे झूठ बोला ही नहीं जा सकता.

बेटी ने हाल में एक हिंदी फिल्म देखी थी जिसके बारे में बताती रही. बात के बीच में एकाएक उसने टोका- ‘‘अँ अँ..... कहाँ हो आप? डिस्ट्रैक्टेड क्यों हो? ध्यान कहाँ है?’’ फोन पर जैसे आईना लगा हो. सही वक्त पर माँ के हुंकारा न भरने पर दो सेकेंड मे बेटी पहचान जाती थी कि माँ कुछ और सोच रही है. देर तक दोनों फिल्म के बारे में बात करते रहे. फोन रखते हुए उसने पूछा- ‘‘और मैक कहाँ है?’’

‘‘कहाँ होगा भला- अपने रिहर्सल पर गया है.’’

‘‘आए तो उसे मेरा प्यार देना.’’ शिवा ने कहा.

बेटी एकाएक चहकी- ‘‘ओह, आप सुधर गई हो माँ. एकदम सेन वॉयस. नॉट सिनिकल एनी मोर.’’

शिवा मुस्कुराई. बहुत डाँट खाई है उसने मैक को लेकर. ‘माँ, आप ऐसे नाम लेती हो उसका जैसे आपका बड़ा लाड़ला दामाद है. और हो भी तो लाड़ को अपने तक रखो. ही इज़ नॉट माय हस्बैंड. और होने का कोई चांस भी नहीं है. ही इज़ अ गुड फ्रेंड. वो हमेशा रहेगा.’ लेकिन शिवा तो शिवा. कोंचती रही- इतने सालों से साथ हो, कितना आजमाओगे एक-दूसरे को, अब तो शादी कर लो. एकबार तो बेटी ने तल्खी से कह दिया था- ‘शादी करके अपना हाल देख-देख कर जी नहीं भरा अभी जो अपनी बेटी को शादी की सलाह दे रही हो.’ आज वही बेटी चहक कर बोल रही थी- ‘‘लव यू माँ. जाओ नाश्ता करो. मुझे भी बहुत नींद आ रही है. अब सोऊँगी. यू हैव अ नाइस डे.’’

शाम को छोटी बेटी चाइनीज़ खाने का पार्सल लेती हुए आई. शिवा की पसंद के मोमोज़ और उसकी अपनी पसंद का वेज हक्का और पनीर मंच्यूरिअन.

क्रमश...