Life embrace us in Hindi Poems by Mukteshwar Prasad Singh books and stories PDF | ज़िन्दगी गले लगा ले तू

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ज़िन्दगी गले लगा ले तू



जिन्दगी गले लगा ले तू
ख़ामोशी के आग़ोश में समाती दुनियाँ
कहीं माँ -बाप तो कहीं कराहती मुनियां
राष्ट्रीय नहीं अन्तर्राष्ट्रीय भय सिसकियाँ
देश देश लांघती मौत से लड़ती ज़िन्दगियाँ

हर चेहरे के ख़्वाब हो रहे तार तार,
वायरस की मार चारों ओर हाहाकार।
आदमी की जान संग लुढ़का बाज़ार,
दवा की खोज और मंदी की ललकार।

सरकारें परेशान ,मिला भारत का उपहार,
बीमारी से बचाव में काम आया "नमस्कार"।

(२)
जीना
कोरोना कोरोना ,छूओ ना छूओ ना
सबको है जीना ,सबको है जीना!
कैसी तेरी हरकत ,मौत से डरो ना।
अपनों से अपनों को, दूर करो ना।
बडे बेरहम हो ,बड़े बेशर्म हो
छोटे बड़ों के ,नाकों में दम हो।
ओ मानव के शत्रु ,मेरी भी सुनो ना!

हमने ना हारा है ,ना सीखा है रोना,
लगा ली है कर्फ़्यू ,अपने ही घरों में,
घरों में ही रहके ,कोरोना से बचके,
निकलेगा भारत संकल्प है अट

(३)
डर
पहचाना डर ,पहचाने लोग,
आया कहाँ से लगकर ये रोग!
रहें दूर -दूर अपनों को छोड,
आइसोलेशन करता भैया निरोग!

लॉकडाउन जाना ,होता है क्या,
कोरोना वाइरस ,खाता है क्या ?
भारत में हो रहा बहु विविध उपाय,
जनता सतर्क रोग लगने न पाय!

चीन अमेरिका इटली इरान,
फ़्रांस मलेशिया इंग्लैंड जापान,
लाशें ही लाशें विश्व हुआ वीरान,
मौत का तांडव है ,लुटता जहान!

कोरोना की तबाही ताने है कृपान ,
घर की चहारदीवारी बचायेगी जान,
घरों से ना निकलें ना खाने जाएँ पान,
प्रधानमंत्री की अपील हर नागरिक लें मान।

रचित-८.३५ रात्रि,दिनांक २४/०३/२०२०

(४)
शक्तिमान
जप तप की अनगिन कड़ियाँ ,
छठ नवरात्र रामजनम की घड़ियॉं ,
तन मन में ख़ुशियों की लड़ियाँ ,

विपदा बीच भगवान खड़े हैं,
भक्त गण शक्तिमान बने हैं।
पूजा पाठ और ईश आराधना,
मंत्र श्लोक के कवच जड़े हैं।
भारत भू पर आकर वो दुष्ट,
लक्ष्मण रेखा के पार खड़े हैं।

माँ दुर्गा और सूर्य शक्ति से,
राम हनु की संयुक्त भक्ति से,
भयमुक्त इंसान डटे हैं,
राम रहीम नानक ईशु के,
एकजुट संतान तने हैं ,
घर में सुरक्षित अनमोल ज़िन्दगियाँ ,
छठ नवरात्र रामजनम की घड़िय

रचित-१/४/२०२०,९.३५ पूर्वा०

(५)
भगवान
सामने इंसान है-
देश में हिन्दू चिकित्सकों की तुलना में
मुसलमान चिकित्सक नगण्य हैं,
कभी सुना हैकि हिन्दू चिकित्सकों ने
बीमार मुसलमानों का ईलाज नही किया है ?
कभीसुना है,नगण्य ही सही
मुसलमान चिकित्सकों ने हिन्दुओं को रोका है,
ऐसा इसलिए कि उनके सामने इंसान है।
वो ना हिन्दू है ना मुसलमान है।

हम भगवान की पूजा ,
खुदा की इबादत करते हैं
फिरभी दर्घटनाओं में मरते भी रहते हैं
क्या भगवान और अल्लाह मरने से बचा लेते हैं
जबकि अपनी लम्बी आयु की कामना करते हैं
पर पूजा और सजदा बंद नहीं करते हैं क्यों-
हमारी आस्था में एक रहस्य छिपा है,
हमारे अंदर जो असुरक्षा का भाव है,
उससे बच निकलने के लिए ईश्वर ही छांव है,
प्रार्थना पवित्रता और आस्था अनुशासन है,
नैतिक और अनैतिक में भेद बताता है।
भगवान हिन्दू में और
खुदा मुसलमान में भेद नहीं करता।
जिस तरह चिकित्सक हिन्दू मुसलमान में
भेद नहीं करता ।

रचित-२/४/२०२०,८ बजे सुबह

(६)
उलझन
काटे ना कटे पल क्षण,हँसे ना हँसे मन,
उदास उदास मौसम,उदास उदास उपवन!
पशु पक्षियां मौन ,सुलझे ना उलझन.
घरों में कटते दिन,झरोखों के पार गगन।
सूनी सूनी सड़कें ,निर्भय बिचरते हिरण,
थरथराते लेम्पपोस्ट,ठिठके ठिठके पवन।
माँ का दिल हलकान,सूख गया चितवन,
अस्पताल बना वरदान, डाक्टर हैं भगवन।
आफत का समय,औरअफ़वाहों का चलन,
ग़ज़ब बुरा ये दिन, प्रशासन से भी जलन।
उदास उदास मौसम,उदास उदास उपवन।

रचित-२/४/२०२०,९ बजे रात्रि।

(७)
सुधबुध

छोटी सी चिड़ियाँ ,फुदकने लगी अँगना
अँगना में मैना ,लड़ा बैठी नैना।
सुधबुध खो बैठी ,नीन्द ना आवे रैना।
क्या खाना ,क्या सोना,
क्या हँसना ,क्या रोना,
चारों तरफ ढूँढती फिरे पाने को चैना।
ना उम्र ना समवय ,ना दोस्त ना संगवय,
प्यार की डोर में ,शाम और भोर में
बंध गयी तन्मय ,उम्र से नहीं विस्मय।
किसी से अब दोनों ज़रा भी डरे ना।
छोटी सी चिड़ियाँ ,फुदकने लगी अँगना ।

(८)
वर्दी

वर्दी की क़सम को हर हाल निभाना है,
फ़र्ज़ और ईमान का परचम लहराना है।

शान्ति और अहिंसा की हर राह दिखाना है,
सीमा के शत्रु आतंकियों को मार भगाना है।

है धर्म हमारी वर्दी!
है कर्म हमारी वर्दी!
कोई दाग ना इसपर आये,
यह धर्म निभाना है।
हम हैं भारत के रक्षक ,
यह कर्म निभाना है।

(९)

यादों की झोली
भूली बिसरी बातें
हर रोज मुझे डुलाती हैं।
अपनी यादों की झोली से
अनगिन चित्र दिखाती हैं।
चाहे-अनचाहे बरबस
उन चित्रों में खो जाता हूँ।
छुटपन की हर इक आदत
तरतीबी से सजाता हूँ।
...जाड़े के दिन थे वे,
मैट्रिक की जब तैयारी थी।
हर घण्टे दिन रात,
चलती खूब पढ़ाई थी।
पछुआ हवा के साथ घुली
माघ माह की ठिठुरन,
सर्द भोर की तन्हाई में,
उठकर पढना लिखना मजबूरन।
अंधेरे में टटोल टटोल
ढूंढ लेता सलाई तीली,
लालटेन की बत्ती जलती,
रोशनी मिलती पीली।
ले अंगराई बाहर आता,
सिर पर तीनडोरिया तारा देख,
साढ़े तीन अनुमान लगाता।
इसी भोर की ताजगी में
लगातार पढ़ता रहता।
चारों तरफ नीरवता रहती
साथ में कलम काॅपी होती।
और मेरे दादा की खांसी
तन्हाई में हिम्मत देती।
बीच-बीच में टोका टोकी-
‘‘पढ़ते हो कि सोते हो"
झपकी से मुक्ति देती।

लगातार पढ़ते पढ़ते
थोड़ा मन उचट जाता,
तभी सहपाठी की आहट पर
दरवाजे के बाहर आता,
अलाव की लहकती आग के पास
चादर ओढ़े ओढ़े फुस-फुस बतियाता।
फिर उठकर चलने से पहले,
घूरे को ऐसे ढ़ंक देता,
ताकि दादा जान ना पाये
किसी ने अलाव को उकट दिया।
गाँवों में भोर की यही पढाई
छात्रों को तीक्ष्णता देती।

सुबह की लाली दिखते ही
किताब कापी समेट सहेज कर
निकल पड़ता फिर नित्यक्रिया पर।
रोज रोज़ होता यूंही,
मेरे दिन का आगाज,
गांव से दो कोस दूर मेरा था
हाईस्कूल का मंज़िल आबाद।

दस बजे से पहले पहुँचना,
पैदल रोज आना जाना,
शरीर का हो जाता व्यायाम।
न बूशर्ट और ना पतलून,
पजामा कमीज वाला अफलातून,
स्कूल कक्षा में होता विश्राम।

पहले प्रार्थना, फिर हाजिरी,
शुरु होता पढ़ने का काम
शिक्षकों के शिक्षण से ही
मिलता भरपूर ज्ञान निष्काम।
गांवों की यह शिक्षा दीक्षा,

आज भी मेरे लिए वरदान,
ग्रामीण लिखाई पढ़ाई ही,
किया मेरा अस्तित्व निर्माण।

रचित-11.05.2019

(१०)
बर्सात की तन्हाई
बरसात में वह-
मेरे आँखों से आँखें यूँ टकरायी थी,
जैसे वर्षों की प्यास तृप्ति पायी थी।
निहारता रहा उसके हर अंग को,
तराशता रहा उसके रूप रंग को।
उसकी नैनों के टपकते तेज़ ,
मैं और मेरा अस्तित्व था निस्तेज।
पूरा रोम रोम सिहर उठा है ,
ना जाने क्यों लगता है
यह सच है या सपना है ,
किसी और की अमानत है या मेरा अपना है।
गुलाब की ख़ुश्बू वातावरण में फैल गयी,
अपनी मूरत मन में बनाकर निकल गयी।
मैं वहीं खड़ा अब भी बुत बना निहार रहा हूँ,
उस पुलकित पल की छवि सँवार रहा हूँ ।
किसी दिन मेरी तलाश पूरी ज़रूर होगी,
उसके अन्दर भी एक प्यास ज़रूर होगी ।
उसने मुझे भी तो जी भर के देखा है,
एक चाहत को उसके मन में देखा है।
तन्हाई में क्यों बादलों की दामिनी बीच,
अंगराई लेती उसकी तस्वीर बन गयी,
नाभी और उन्नत उरोजों के मध्य से टपकती
वर्षा की बूँदे मिल लकीर बन गयी।
तन पर चिपकी कंचुकी से झांकती मादकता,
फैलाकर अपनी बाँहें ।
बरबस उसके आने की आहट सुनाती है।
रात रात भर वर्षात में मुझे जगाती हैं।
जादुई नशा में नहायी ,वर्षात,
तुम और मेरी तन्हाई।
जवाँ हो उठी जीवन की सोयी ,
दबी आसनाई।
(११)

पीपल की पत्तियाँ

पीपल की चिकनी पत्तियों पर
बार बार फिसलते हवा के झोंके
डोलती पत्तियों के मध्य से
झांकती सूर्य किरणें ।

सूर्य किरणों पर सवार होकर
अदृश्य शक्तियाँ आती हैं नीचे
प्राणियों में ज्ञान -कर्म का बोध कराने
पर इन शक्तियों को ग्रहण करना
कहाँ संभव होता है सबके लिए।

पीपल की चिकनी पत्तियाँ
उस पर निवास करती तैंतीस हज़ार देव देवियाँ
निहारती है मानव की जन्म से लेकर मृत्यु तक
की कुकृत्यों और सुकृतियां।
पीपल तले खेलते कूदते अबोध बालकों में
ढूँढती हैं भविष्य की विशिष्टियां।
फूँकते हैं प्राणवायु और करती रहती हैं
रक्त की शुद्धियां।
परन्तु ना जाने क्यों बड़े होने के साथ
परिवर्तित हो जाती हैं अबोधों की ज्ञानेन्द्रियाँ
सद्गुगुणों से अधिक
अवगुणों की हो जाती है वृद्धियां ।

शीतल पीपल की पत्तियाँ
सदा दूर करती हैं
मानव की विपत्तियाँ
रृषि मुनियों का जप तप
सदियों से साधना रत
पाने को ईश्वरीय शक्तियाँ।
गढ़ते हैं कल्याणकारी उक्तियाँ
करते हैं यज्ञ अनुष्ठान
हरने को दुख संताप
करते हैं उपाय
चाहे ग्रीष्म हो या वर्षात या कि हो सर्दियाँ ।
(१२)
अल्हड़ रूपसी
मोती सी दुधिया दाँत,हीरे सी चमकती आँख,
लाली लिए ओठ के ऊपर सुन्दर सुतवां नाक।

सुराहीदार सुडौल गर्दन,पर्वत से उभरे स्तन,
कमान सी कमर पर केशों के बलखाते फ़न ।

ऐसी एक रूपसी बाला,मन में मचाये हलचल।
जिया में उठती लहरें ,गाये गीत मचल मचल।

हर आहट में उसकी ख़ुश्बू ,हर साँस में तराना,
झरनों की तान जैसी,पायल का झुनझुनाना।

मासूमियत ऐसी कि झुकी नज़रों में मुस्कुराये,
उन्मुक्त चंचल अदाएं अल्हड़ घटा सी इठलाये

भींगा भींगा मौसम,भींगा भींगा तन।
वारीश के छींटे से बहक गया मन।

(१३)

हवा के झुले
तेज छिटकती बिजली
बादलों की गडगडाहट
हवा के झूले पर डोलती
वारिस की बूंदें आ बैठती है
चेहरे पर।
जलकणों से भीगता रोम रोम और सांसें
उतावली।
बार बार तेज चमक से चौंक
चुंधियाती आंखें मूंद जाती हैं बरबस,
मूंदी आंखों के अंदर डोलती एक कली,
बाहर आ गयी हैं।
वर्षों से यादों में ढंकी थी जो
जलबूंदों से सिंचित सजीव हो गयी हैं।
फैलने लगे हैं हाथ,
छूने को बिछरे हाथ।
भींगी रात की गहराई में खनकती
उमंगों भरी हंसी-
मचल जाता है बाहों में समाने को
बावली।
मुक्तेश्वर
(१४)
परम्परा
अहले सुबह बेटी के फोन कॉल पर
जीतिया व्रत शुरू करने उठी
तो चारों तरफ सन्नाटा था,
ना कोई शोर
ना बच्चों में दही चूड़ा खाने की होड़ थी।
वह भी कहाँ खायी कुछ
सिर्फ पान ,पानी और चाय।
पति उठ बैठे तो उन्हें भी एक खिल्ली पान ,
पर उनके चेहरे पर ना था मुस्कान।
वह को उदास था-
अचानक याद करने लगा ओठघनमा
और धमाचौकड़ी
बच्चे सब माँ के जगते ही
कैसे तीन बजे भोर में उठ जाते
हाथ मुँह धो पंक्ति में बैठ जाते ।
जैसे माँ के साथ साथ
दो दिनों उपवास करेंगे।
बिना पानी और फलाहार
चलेगा माँ का व्रत त्योहार।
चूड़ा दही खाने के बाद
सूर्योदय होने तक
बच्चों की टोलियाँ
करते रहते उछल कूद,
और तोड़ लाते फूलों को
डाली से चुन चुन कर,
क्योंकि उसी फूलों से करके पूजा,
बेटे की लम्बी उम्र की होगी कामना ।
पर चारों तरफ सन्नाटा पसरा
और भोर उदास उदास है ,
अपनी जीवन्त परम्परा में
अब थोड़ी भी नही मिठास है।
मुक्तेश्वर
(१५)
जन्मदिन
मैं एक गीत सुनाता हूँ,
अपने जीवन के कुछ पल
आपके लिए सजाता हूं।
आया था जिस दिन मैं
अपनी नन्हीं जान लिए,
माता के सपनों में सजकर
भविष्य का अरमान लिए,
कितने अनगिन नजरों के
कोमल सा एहसान लिए।
गोद से निकल जब कूद रहा था
अपने घर के आँगन में,
गिरते ही रो पड़ता था
छिप जाता मॉं के आँचल में।
उसी याद में अब जन्मदिन है
ख़ुशियाँ मचले दामन में ।

(१६)
राहगीर
सड़क किनारे टूटी छप्पड़,
प्लास्टिक शीट से ढंकी,
धुंआ मिश्रित लकड़ी की ठंडी पड़ी आग,
टिप-टिप बरसते पानी से बचते-छिपते
उसी टूटी छप्पड़ वाली झोपड़ी में,
चुल्हे पर चाय की केतली देख घूसता है।
दरख्त के नीचे की छप्पड़ पर,
पत्तों से फिसलती बड़ी-बड़ी बूंदें
टप टप टूटी छप्पड से चूकर
नीचे ज़मीन पर आती भींगोती।
चुल्हे के पीछे एक काली जीर्ण शीर्ण
अर्द्धव्यस्क चायवाला,
मानो उनका ही इन्तजार कर रहा था।
आइये साहब सुबह से शाम होने को है,
वर्षात के कारण राहगीर आ जा नहीं रहे,
सभी घरों की ओर भाग रहे जल्दी जल्दी,
एक कप चाय अभी तक नही बिकी साहब।

आ गये हम अब
वर्षाती हवा की ठंडक में,
दो-दो कप कड़क चाय पीनी है।

जैसे कोई भगवान आ गया,
मुर्झाये चेहरे पर खुशी तैर गयी।
चुल्हे की बुझी ठंडी पड़ी आग,
फूंक से सुलगाने की चेष्टा में,
हाँफने लगा चायवाला।
एक छोटी लड़की अन्दर से बाहर आयी,
अपने बापू से आंटा के लिए रुपये मांगी।
-शाम हो रही है, आंटा नहीं है,
चायवाले ने कहा - साहब जी आ गये हैं,
चाय पी लेंगे तो रुपये दूंगा ,ठहर जा।
मरियल लिक लिक पतली बच्ची,
और दुबली-पतली काया का चाय वाला।

एक टक निहारता रहा दोनों को
आगन्तुक राहगीर,
अचानक मुंह से निकली,
ये लो बेटी - सौ का नोट बढ़ाया।
चायवाले ने रोका - बिना चाय पीये ,
चार कप के बीस के बदले सौ का नोट ?
माफ कीजिए साहब
आज की रात भी सो जाएंगे ख़ाली पेट,
कल का दिन तो ऐसा नहीं होगा,
वर्षात छूटेगी ना।

अरे नहीं आप खुद्दार हैं, पर मैं भी जिम्मेदार हूँ।
बेटी आपकी ही नहीं मेरी भी है।
चाय पी लेता हूँ।
रात से पहले आंटे के लिए यह नोट।
किसी दिन आऊँगा ,
चाय पिलाकर कर्ज उतार देना,
बच्ची का चेहरा खिल गया,
चायवाला भी संतुष्ट।


(१७)
सर्द हवा

चिड़िया नहीं चहकती,
गायें नहीं मचलती,
सर्द हवा की सिहरन,
कोहरे से सांसे जमती।

क्षितिज की लाली धुँधली,
सुबह में ही शाम दिखती,
जीवों की हलचल थमती,
बर्फ़ सी ठंडक पड़ती ।

जाड़े में सिमटी दुबकी,
ग़रीबों की क़ातिल रातें,
रोटी भी नहीं मयस्सर,
फाँके में रातें कटती।

लिहाफ़ है ना चादर,
ना कम्बल ना स्वेटर,
अलाव की आग जीवन,
केथरी में गर्मी मिलती।
गाँवों की ऐसी मुसीबत,
निकट से मैंने देखी,
कड़ाके की ठंड का कंपन,
मुझे ब्लोअर में भी मिलती।

रचित-२९/१२/२०१९

✍🏽मुक्तेश्वर मुकेश