Anjane lakshy ki yatra pe - 13 in Hindi Adventure Stories by Mirza Hafiz Baig books and stories PDF | अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - 13

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अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - 13

पिछले भाग में आपने पढ़ा था-

व्यापारी को लगा थोड़ी देर में सवेरा हो जायेगा और जंगल में खजाने की खोज में आगे की यात्रा में निकलना होगा; अतः थोड़ा विश्राम आवश्यक है। अतः उसने उन दोनो डाकुओं के उपहास पर चुप्पी साध ली और सोने की कोशिश करने लगा।

अपने बंदी को सोता देख दोनो डाकुओं ने भी थोड़ी देर विश्राम करना उचित जाना और हँसते हँसते सो गये। तीनो रातभर के जागे हुये थे तुरंत सो गये और जंगल एक नये प्रकार की आवाज़ से गूंजने लगा वह आवाज़ थी तीन थके हुये प्राणियों के समवेत स्वर में गूंजते खर्राटों की आवाज़।

अब आगे...

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे- भाग13

वीर और चतुर

जंगल को आपकी थकान से कोई मतलब नहीं होता। उसकी अपनी समयबद्धता होती है अपनी समय सीमायें। वह आपके लिये सोता नहीं न आपके लिये जागता ही है।

जंगल ने जंगली मुर्गे का रूप धारकर सूर्य का आव्हान किया और रश्मिरथ पर सवार सूर्य ने अपनी रश्मियां जंगल पर बिखेर दी। अपने घरौंदों में पर तोलते पक्षीगण हर्षनाद करते, आकाश की ओर उड़ चले। कुछ धरती पर उतर आये और फुदकने चहकने लगे। कुछ पक्षी तो वृक्षों पर ही कलरव करने लगे। जानवर अपनी अपनी शरणस्थलियों से बाहर निकल आये और कुलांचे भरते या शरीर को तानते हुये, या अंगड़ाइयां लेते हुये सूर्य के आगमन का उत्सव मनाने लगे।

कुछ पशु पक्षि जो रात के अंधकार का लाभ उठाकर शिकार को निकलते हैं, निराश होकर अपने अपने ठिकानो को वापस लौटने लगे।

जंगल मुस्कुराया...

इन्ही आशाओं और निराशाओं का खेल है जीवन ! हर रात और हर दिन के साथ आशा और निराशा अपना पाला बदल लेती है। जो सुर्योदय के साथ आशाओं से भर उठते हैं, वे सुर्यास्त के साथ निराश हो जाते हैं; जो सूर्यास्त के साथ आशाओं से भर उठते हैं, वे सूर्योदय के साथ निराश हो उठते हैं। लेकिन प्रकृति सदा सदा से निष्पक्ष हो कर दोनो पक्षों को अवसर प्रदान करती रहती है।

लेकिन सिर्फ मनुष्य ही है जो इस नियम से अनभिज्ञ प्रकृति के नियम पर अतिक्रमण की चेष्टा में लगा रहता है। और इसी कारण वह कभी प्रकृति से अपना तारतम्य नहीं बैठा पाता और सबसे अधिक प्रकृति का कोपभाजक बनता है।

यहाँ भी तीन मानव प्रकृति से बेखबर सोये पड़े हैं। वे नहीं जानते वे किस खतरे को न्योता दे रहे हैं।

उन्हीं तीनों के साथ सोये हुये शेरू के कान अचानक खड़े हो जाते हैं। उसका एक कान उत्तर-पूर्व दिशा की ओर घूम जाता है जिधर से नगाड़े की हल्की हल्की थाप की आवाज़ सुनाई दे रही है। धीरे-धीरे यह थाप निकट आने लगी है और प्रत्युत्तर में दक्षिण-पश्चिम से भी नगाडों के स्वर उभरने लगे हैं। दोनो डाकू अचानक चौंक कर उठ बैठे हैं। वे कान लगाकर नगाड़ों की आवाज़ों की टोह लेने लगे लेकिन व्यापारी के खर्राटों की आवाज़ बाधा उत्पन्न करने लगी। एक डाकू ने खिसियाहट से भरकर अपना खंजर व्यापारी पर तान दिया लेकिन दूसरे डाकू ने उसे इशारे से शांत किया और अपना बाण निकालकर उसका पिछला सिरा सोते हुये व्यापारी की नाक में घुसेड़ दिया। व्यापारी एक छींक मारकर उठ बैठा और दोनो डाकू उसकी अवस्था पर बे-लगाम होकर ठहाका मारने लगे। व्यापारी बारी-बारी से दोनो का मुंह तकने लगा।

नगाड़ों की आवाज़ दोनो ओर से तीव्र और निकट होने लगी और इसके साथ ही दोनो डाकुओं की चिंता भी बढ़ने लगी। वे आपस में खुसफुसाने लगे और व्यापारी चिंतित होकर उनकी बातों में छिपे अर्थ समझने की कोशिश करने लगा।

“जंगल में ये नगाड़ों की आवाज़ कैसी?” उसने डाकुओं से पूछा।

“यह इस राज के राजा के सेना की युद्ध घोषणा है। राजा की सेना जो रात को गुज़री थी शायद वह यही सैन्य टुकड़ी होगी जो जंगल के आदिवासी कबीलों पर आक्रमण करने आई है।” एक डाकू बोला।

“और ये दूसरी ओर... इधर से भी तो नगाड़ों की गूंज सुनाई दे रही है।” व्यापारी ने जिज्ञासा प्रकट की।

“मूर्ख ! क्या दूसरी ओर से युद्ध की तैयारी नहीं होगी? वे भी नगाड़ों से आसपास के दूसरे आदिवासी कबीलों को साथ मिलकर युद्ध का निमंत्रण भेज रहे हैं और दूसरे कबीलों की ओर से भी निमंत्रण स्वीकारने के संदेश प्रसारित हो रहे हैं।” दूसरे डाकू ने कहा। व्यापारी डाकुओं के इस ज्ञान से अभिभूत था।

‘वे इतने जाहिल भी नहीं है...’ उसने मन ही मन कहा।

लेकिन दोनो डाकुओं की उसकी ओर तिरछी दृष्टि और आपस की फुसफुसाहटों से व्यापारी चिंतित हो उठा।

‘इनके मन का कोई भरोसा नहीं... वे ऐसे भी कोई ज्ञानी व्यानी नहीं, उज्जड गंवार डाकू ही ठहरे...’ वह सोंचने लगा।

व्यापारी की आशंका सही थी। अचानक दोनो डाकुओं ने बाज़ की तरह झपटकर उसे पकड़ा और एक पेड़ से बांध दिया। यह इतनी तेज़ी से हुआ कि शेरू भी हत्प्रभ रह गया। वह कभी अपने मालिक व्यापारी को देखता, कभी डाकुओं को। कभी व्यापारी के गिर्द दुम हिलाते हुये घूमता कभी डाकुओं के गिर्द। असल में वह समझ नहीं पा रहा था कि उसकी क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिये। लेकिन चालाक व्यापारी अच्छी तरह समझ रहा था कि उसकी क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिये।

“ठहरो! पहले बताओ तुम कर क्या रहे हो?” वह बोला।

“तुम चुपचाप रहो। तुम्हारे कारण हमारे प्राण संकट में हैं।” एक डाकु बोला।

“मेरे कारण? वह किस तरह?” व्यापारी जानता था, जब तक मेरी ज़बान चलेगी मेरी सांसें चलती रहेंगी। किसी ने कहा है कि जादु शब्दों के सिवा कुछ नहीं और आपकी सफलता निर्भर करती है इस बात पर कि उन शब्दों को आप कितनी कुशलता से प्रयोग में लाते हैं।

“देखो अभी राजा की सेना और आदिवासी कबीलों के बीच युद्ध होने वाला है; और हमारी स्थिति युद्धक्षेत्र के मध्य पड़ती है। तो हम दोनो पक्षों में से किसी न किसी के हाथ पड़ जायेंगे। इस कारण हमें यहाँ से भागना पड़ेगा। और भागने की स्थिति में तुम पर हम निगरानी नहीं रख सकेंगे। फलस्वरूप तुम या तो पकड़े जाओगे अथवा मारे जाओगे। दोनो ही स्थितियों में हमारा सरदार हमारे प्राण ले लेगा। अतः हमारे बचने की एक ही सूरत है कि हम पहले तुम्हारा सिर काटकर अपने पास सुरक्षित रख लें; ताकि जब हम अपने अड्डे पर पहुंचें तो अपने सरदार को दिखा कर साबित कर सकें कि हमने तुम्हें भागने नहीं दिया।” वे बोले।

“लेकिन तुम भागने का सोंचते ही क्यों हो?” व्यापारी ने उन्हें अपने वाग्जाल में फांसने की कोशिश की, “क्या तुम्हें पता नहीं युद्धभूमि से भागना कयरता है।”

“लेकिन यह युद्ध हमारा नहीं है; हम क्यों इसमें कूदें?” वे बोले। और वे गलत नहीं बोल रहे थे, “दोनो ही हमारे दुश्मन हैं। इन दोनो में से जो भी हमें पाता है, मार डालता है।”

“तब यह अच्छा अवसर है, कि तुम किसी एक से संधि कर लो।”

“हम अपने शत्रु से क्यों संधि करें और क्यों उसके लिये अपने प्राण संकट में डालें?”

“वीरों को प्राणों का मोह नहीं करना चाहिये।”

व्यापारी जानता था, वीरता का आधार भावनायें होती हैं और चतुराई का आधार लाभ-हानि की पहचान। और वह यह भी जानता है कि भावनायें हृदय से आती हैं और लाभ-हानि की समझ मस्तिष्क से। इसका तात्पर्य यह है कि वीर पुरुष हमेंशा दिल से सोंचता है और चतुर दिमाग से। इसी कारण आदिकाल से चतुर लोग वीरों की वीरता का उपयोग सदा अपने हित में करते रहे हैं।

और यह भी कि दुनियां वीरों से भरी पड़ी है और चतुर की संख्या नगण्य होती है। यानि आमजन सदा वीर होते हैं और सत्ताधारी चतुर्। यही कारण है कि मुट्ठी भर सत्ताधारी लोग आमजन से सेना तैयार कर उसी के बल पर आमजन पर शासन करते हैं। और व्यापारी वर्ग तो इन सबसे चतुर होता है; वह जब चाहे आमजन से अपनी बात मनवाता है और जब चाहे शासक वर्ग से। हाँ, दोनो पक्षों से काम निकालने का तरीका अलग अलग है।

और इन सब से बुद्धिमान व्यक्ति वह है जो अपने शब्दों से लोगों को उद्वेलित अथवा नियंत्रित करता है।

“हमें प्राणों का मोह नहीं!”

“फिर यह पलायन किस कारण?”

वे चिंता में डूब गये। उन्हे कुछ जवाब नहीं सूझ रहा था। व्यापारी समझ गया उसकी बातों का जादू काम करने लगा है। बस कुछ और प्रयास की आवश्यकता है।

वे अभी कुछ सोंच ही रहे थे, कि यकायक समीप ही कहीं जंगल के भीतर से जंगली हाथी की चिंघाड़ सुनकर व्यापारी के रोंगटे खड़े हो गये। उसकी चिंता का मुख्य कारण यह भी था कि वह पेड़ के तने से बंधा हुआ भागने में भी असमर्थ था। मृत्यु के भय ने क्षण भर के अंदर ही उसे भीतर तक ग्रस लिया।

वीर, मृत्यु से नहीं घबराता और होशियार चतुर व्यक्ति मृत्यु को साक्षात देख कर भी धैर्य नहीं खोता। इस तरह उसने अपने आप को समझाने की कोशिश की। इसके बावजूद उसे कुछ शांति का अहसास भी नहीं हुआ; किंतु वे दोनो डाकू घबराये नहीं और ध्यान से उस चिंघाड़ की दिशा में कान लगाकर कुछ सुनने का प्रयास करने लगे।

चिंघाड़ दुबारा सुनाई दी और इसके साथ ही दोनो डाकुओं के चेहरे प्रसन्नता से खिल उठे। दोनो ने एक साथ ही घोड़े की हिनहिनाहट का स्वर निकाला और पुनः हाथी की चिंघाड़ की प्रतीक्षा की। इस बार जैसे ही वह चिंघाड़ पुनः सुनाई दी वे घोड़े के स्वर में हिनहिनाते हुये, प्रसन्नता से उछलते चिंघाड़ की आवाज़ की दिशा में भागे। शेरू भी उन्हे प्रसन्न देख अपने मालिक को छोड़ उनके पीछे भागा।

“धिक्कार है!!” व्यापारी ने कहा, “आपका पालतू पशु भी संकट और प्रसन्नता में से प्रसन्नता को ही चुनता है।”

अगले ही क्षण उसने इस विशाल वनप्रदेश में अपने आप को एक वृक्ष से बंधा बिल्कुल अकेला और निस्सहाय पाया। असहाय सा वह अपने चारों ओर और कभी आकाश की ओर देखने लगा। यह अचानक क्या हुआ है? वह समझने की चेष्टा करने लगा। लेकिन इससे पहले कि उसे कुछ भी समझ आये उसे जंगल के भीतर से कुछ लोगों की पदचाप निकट आती जान पड़ी।

‘कौन हो सकते हैं?’ उसने सोंचा, ‘और वे मेरे साथ कैसा व्यवहार करेंगे?’

आगे...

भाग-14

दो से भले तीन

तभी उसे प्रसन्नता से उछलते कूदते आते हुये शेरू को देखा और अगले ही क्षण उन दो डाकुओं को उनके एक तीसरे साथी के साथ आता हुआ देख कुछ शांति का अनुभव किया। अभी वह इस परिस्थिति को समझा भी न था कि एक चिंता ने उसे आ घेरा- अभी तक तो दो ही थे, अब तीन से बचना तो और कठिन हो गया है।

उसे घबराया हुआ देख वे तीनो हंसने लगे और नवागंतुक डाकू ने अपने साथियों से पूछा, “तुम लोग इस प्रकार इसकी निगरानी करते हो?”

“नहीं यह तो हमने इसे अभी अभी ही बांधा है। हम इसका सर काटकर वापस जाना चाह रहे थे।”