Chuninda laghukathaye - 3 in Hindi Short Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | चुनिंदा लघुकथाएँ - 3

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चुनिंदा लघुकथाएँ - 3

लाजपत राय गर्ग

की

चुनिंदा लघुकथाएँ

(3)

निठल्ली पीढ़ियाँ

एडवोकेट शर्मा के चेम्बर में कुछ वकील तथा दो-तीन मुवक्किल बैठे थे। बात चल रही थी कि किसने ज़िन्दगी में कितना कमाया है! एक व्यक्ति बढ़चढ़ कर अपनी कामयाबी का बखान कर रहा था। उसकी बातों से लगता था, जैसे धन-दौलत ही दुनिया में सब कुछ है, यही पैमाना है व्यक्ति की काबलियत का! वह कह रहा था - ‘मैंने अपनी ज़िन्दगी में इतना धन-दौलत कमा लिया है कि मेरी आने वाली सात पीढ़ियाँ बिना कुछ किये-धरे ऐशो-आराम की ज़िन्दगी बसर कर सकती हैं।’

उसकी इस बात पर एडवोकेट शर्मा ने तंज कसा - ‘इसका मतलब यह हुआ कि आप मान कर चल रहे हैं कि आपकी आने वाली सात पीढ़ियाँ निक्कमी व निठल्ली होंगी!’

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पापा! तेरा पप्पू आ गया

15 अगस्त 1997

यह दिन था भारत की स्वर्ण-जयन्ती का। समस्त भारत स्वतन्त्रता की स्वर्ण-जयन्ती मनाने में मशगूल था। सरकारी, अर्ध-सरकारी तथा सामाजिक संस्थाएँ विभिन्न प्रकार के रंगारंग कार्यक्रम आयोजित कर इस ऐतिहासिक दिन को यादगार बनाने के लिये प्रयासरत थे। इस तरह की गहमा-गहमी के होते हुए भी पंडित ज्ञानशंकर प्रसाद जिन्होंने अपने जीवन के स्वर्णकाल में उपलब्धियों की ऊँचाइयों को छुआ था, अपने इकलौते पुत्र को उच्चतम शिक्षा दिलवाकर श्रेश्ठ जीवन जीने के लायक बनाया था, अपने जीवन के अन्तिम समय में अकेलेपन की त्रासदी झेलने को मज़बूर थे। कारण, उनके बेटे डॉ. श्रवण कुमार विशिष्ट जोकि प्रदेश के सबसे बड़े व सुप्रसिद्ध अस्पताल में डॉ. एस.के. के नाम से विख्यात थे, के पास अपने वृद्ध एवं निपट अकेले पिता की सुध लेने की भी फुर्सत न थी।

पंडित जी ने अपने दो मित्रों - असीम अग्रवाल व सुखविंदर सिंह को बुलाया हुआ था। इन तीनों की दोस्ती स्कूल-समय की थी और स्कूल-कॉलेज के दिनों में प्रत्येक विद्यार्थी की ईर्ष्या का विषय हुआ करती थी। बहुत-से विद्यार्थी अन्दर-ही-अन्दर इनकी दोस्ती से जलते थे, किन्तु किसी की भी इनके सामने जुबान खोलने की हिम्मत नहीं होती थी। कॉलेज के बाद तीनों अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में व्यस्त हो गये, किन्तु सुख-दुःख के साथी बने रहे। जहाँ पंडित जी की सेहत उनका साथ नहीं दे रही थी, वहीं दूसरे दोनों दोस्त अभी भी अच्छी सेहत के मालिक थे और अपने-अपने परिवारों में प्रसन्नचित्त जीवन बसर कर रहे थे, क्योंकि इनके परिवार अभी भी इकट्ठे थे; पुत्र, पुत्र-वधुओं तथा पोते-पोतियों की चहल-पहल थी।

असीम और सुखविंदर के आने पर भावुक हो पंडित जी बिफर पड़े। बहुत देर लगी उनको सामान्य होने में। पंडित जी की दशा देखकर दोस्तों को बड़ा धक्का लगा। उन्होंने पूछा - ‘ज्ञानशंकर, तुम यहाँ अकेले क्यों रहते हो? श्रवण के परिवार के साथ क्यों नहीं रहते?’ पंडित जी की दुखती रग को छेड़ दिया उनके दोस्तों ने यह प्रश्न पूछकर। पंडित जी की आँखों से आँसुओं की अविरल धारा बह निकली।

दोस्तों के ढाढ़स बँधाने पर वे शान्त हुए और बोले - ‘अब तुम लोगों से क्या पर्दा? श्रवण अपने डॉक्टरी पेशे में इतना व्यस्त है कि उसके पास वक्त ही नहीं मेरी सुध-बुध लेने का। और जहाँ तक सवाल है उसकी पत्नी और बच्चों का, तो उसकी पत्नी चाहे कोई नौकरी आदि नहीं करती, फिर भी उसको मेरा साथ गवारा नहीं और दोनों बच्चे तो अब अपनी पढ़ाई के चलते होस्टलों में रहते हैं। इसलिये भी मुझे श्रवण के घर पर रहना मुश्किल लगता है।’ पंडित जी इतना कहकर हाँफने लगे। थोड़ी देर चुप रहने के बाद फिर बोलने लगे - ‘यह तो परमात्मा का शुक्र है कि दायीं ओर के पड़ोसियों का दस-बारह साल का बच्चा हर रोज़ स्कूल जाने से पहले और स्कूल से आने के बाद मेरा हालचाल पूछ जाता है और शाम को घंटा-आध घंटा मेरे साथ गपशप और ताश आदि खेलकर मेरा मन बहला जाता है। जब वह मुझे दादा जी कहकर बुलाता है, तो सच मानना, दिल में खुशी की लहर-सी दौड़ जाती है। मुझे अपने पोते-पोती के मुँह से ‘दादा जी’ या ‘दद्दू’ सुने सालों बीत गये हैं। पहले तो दीवाली आदि त्योहार के मौके पर इकट्ठे हो भी जाते थे, किन्तु अब तो कई वर्षों से दीवाली भी पड़ोसियों के साथ ही मनाता हूँ।’ ऐसा लगता था, आज पंडित जी वर्षों से दबी सारी भावनाएँ व्यक्त करके ही साँस लेंगे।

घंटों तक इसी तरह तीनों दोस्त बातें करते रहे। असीम और सुखविंदर ने अपने-अपने जीवन के सुखद पलों की यादें पंडित जी से साझा की।, किन्तु पंडित जी के पास तो रिटायरमेंट के बाद की शायद ही कोई सुखद स्मुति शेष थी। दोस्तों की सुखद स्मृतियाँ सुनकर उनके मन में और गहरी टीस होने लगी। जब सेहत शरीर से विदा लेने लगती है तो मन की टीस और गहरा आघात पहुँचाती है। दिन ढलने से पहले ही पंडित जी की हालत बिगड़ने लगी। यह देखकर दोस्तों ने डॉ. श्रवण का फोन नंबर लिया और उसे तुरन्त आने के लिये कहा।

श्रवण पिता जी के बचपन के मित्रों से फोन पर सूचना मिलते ही अपनी सभी व्यस्तताओं को भूलकर पिता जी से मिलने को चल पड़ा। घर पर सूचना भी रास्ते में से ही दी। जैसे ही श्रवण पंडित जी के पास पहुँचा, ज्ञानशंकर की हालत उसकी डॉक्टरी नज़र से छिपी न रही। उतावलेपन में एकदम पिता जी के बेड के नज़दीक आकर बोला - ‘पापा, तेरा पप्पू आ गया।’

पंडित जी जो कितनी देर से आँखें मूँदे लेटे हुए थे, ने आँखें खोलीं। बाँहें बेटे की ओर बढ़ाईं, किन्तु बाँहें अधबीच ही गिर गईं। पंडित जी के प्राण-पखेरू उड़ गये। शायद उनकी साँसें अटकी हुई थीं अपने ‘पप्पू’ के मुँह से ‘पापा’ सुनने को और ‘पप्पू’ के मुँह से ‘पापा’ सुनते ही उनकी अदृश्य आत्मा को तृप्ति मिली और शान्तचित्त होकर ब्रह्मलीन हो गई। डॉ. श्रवण अपने पिता के दोस्तों के गले लगकर रोता रहा, किन्तु जो होना था, हो चुका था। ‘पप्पू’ को ‘पापा’ के पास पहुँचने में बहुत देर हो गई थी। ‘पापा’ शान्त हो चुके थे और ‘पप्पू’ अशान्त था।

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जिस तन लागे सो तन जाने..

ललिता की मम्मी का निधन बीस दिन पूर्व हुआ था। रस्म-भोग के बाद भी मायके रुक गई थी। पच्चीस दिन बाद ससुराल आई थी।

रात को जब उसका ससुर घर आया तो उसने देखा कि रसोई में खाना बनाये होने के कोई लक्षण नहीं थे। फिर भी उसने आवाज़ दी - ‘ललिता बेटे, खाना लगा दो।’

ललिता बेडरूम से बाहर आई। नमस्ते करने के बाद कहने लगी - ‘पापा, खाना बनाया नहीं। मन नहीं किया। मम्मी की याद ही नहीं भूल रही। बाज़ार से खाना मंगवा लेते हैं।’

ससुर - ‘बेटे, परमात्मा के आगे किसी का ज़ोर नहीं चलता। तेरी मम्मी का हमें भी दुःख है, लेकिन खाना-पीना तो छूटता नहीं। एक दिन की तो बात है नहीं....वैसे याद करो, पिछले साल जब तुम्हारी सासु-माँ की डेथ हुई थी, संस्कार करके के आने के बाद तुमने रात तक तीन बार ड्रैस बदली थी। वह भी तुम्हारी मम्मी ही थी।

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