Pariyo Ka ped - 13 in Hindi Children Stories by Arvind Kumar Sahu books and stories PDF | परियों का पेड़ - 13

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परियों का पेड़ - 13

परियों का पेड़

(13)

मौत के चंगुल में

अब राजू के रास्ते में, उसके लक्ष्य के सामने कल – कल की तेज आवाज करता हुआ एक विशालकाय झरना बह रहा था | आगे का रास्ता उस झरने के नीचे की अत्यंत पतली, गीली और फिसलन भरी राह से गुजरता था | राजू ने एकदम हल्के, नाम मात्र के उजाले में बड़े ध्यान से उस रास्ते को देखा |

एक बार में उस रास्ते से बस एक व्यक्ति ही जा सकता था | वह भी चट्टान के किनारों से चिपकते हुए या फिर ऊपर से लटकती हुई किसी मजबूत बेल का सहारा लेते हुए | राजू ने अनुमान लगा लिया था कि पैर जरा सा चूका, तो गए सैकड़ों फुट नीचे जल समाधि में | …..सीधे मौत की गोद में | ….उसी वेगवती भयंकर नदी के प्रवाह में जा गिरेंगे, जिसको राजू एक बहते हुए पेड़ की सहायता से पार करके आया था |

फिर से यह नई मुसीबत देखकर राजू का सिर और भी चकरा गया | वह सोचने लगा, दिन का भरपूर उजाला होता तो वह चट्टानों से चिपक – चिपक कर चलते हुए, पहाड़ से लटक रही बेलों और मजबूत लताओं को पकड़कर उनका सहारा लेते हुए निकल भी जाता | लेकिन इस अंधकार में कुछ भी स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था | इस कारण आगे चलना असम्भव सा लगने लगा था |

वह बड़ी देर इसी तक इसी उधेड़ – बुन में उलझा रहा | फिर उसने तय किया कि यहाँ तक आने के बाद अब यहीं रुक कर हार मान लेने का कोई औचित्य नहीं था | उसने निश्चय कर लिया था कि अब यह रास्ता भी पार करने की कोशिश जरूर करेगा |

उसकी स्मरण शक्ति के अनुसार यह आखिरी बाधा थी | इसके ठीक उस पार ही परियों का पेड़ था | जहाँ की चमकती हुई तेज रोशनी अब एकदम साफ और ठीक झरने के उस पार स्पष्ट दिखने लगी थी |

आखिरकार, वह धारा के नीचे से घुसकर निकलने का दुस्साहस कर बैठा | हालाँकि उसकी शक्ति और स्फूर्ति ने अब जवाब दे दिया था | वह थकान से चूर था | उसने झरने की बौछारों में स्वयं को भिगोते हुए , ठंडे पानी में ठिठुरते हुए, इस फिसलन भरी राह पर अपने कदम बढ़ा दिये | वह झरने की चट्टान को टटोलते हुए, जमीन पर पैरों के नाखून गड़ाते हुए और हाथों से चट्टानी दीवाल पर पकड़ बनाते हुए, साहस पूर्वक आगे बढ़ने लगा |

लेकिन बस दो चार कदम ही चल पाया होगा कि .......

उसे कमजोरी व थकान के चलते सिर में चक्कर जैसा आभास हुआ | उसका सिर मानो गोल – गोल घूम रहा था | लाख प्रयास के बावजूद उसका संतुलन बिगड़ गया | चट्टानों पर जमी हुई फिसलन भरी काई में उसका पैर फिसल गया | .......और इस बार वह थोड़ा भी संभल नहीं सका |

उसको अपने सिर पर साक्षात मौत नाचती महसूस हुई | फिर उसकी आँखों के सामने अंधेरा छाता चला गया | उसकी आँखों को उसकी पलकों ने जबरन ढक लिया था | वह कुछ भी देखने, समझने या होश में रहने की शक्ति पूरी तरह खो चुका था | वह बेहोश होकर झरने की भयंकर धारा में लुढ़कता चला गया |

राजू झरने के तेज बहाव और अतल गहराइयों में डूबने ही वाला था कि........, तभी जाने कहाँ से प्रकट हुए दो लम्बे और कोमल हाथों ने उसे सकुशल थाम लिया था |

“उठो राजू ! मैंने ही तुम्हें अपनी दुनिया में घूमने के लिए बुलाया था | यह सफर तो तुम्हारी परीक्षा जैसा था | हम जानना चाहते थे कि तुम हमारे बारे में कितनी जिज्ञासा और कितनी दीवानगी रखते हो? लेकिन घबराओ मत | अब तुम हमारी अद्भुत और जादुई दुनिया में पहुँच चुके हो | तुम पूरी तरह सुरक्षित हो | परियों के लोक में तुम्हारा हार्दिक स्वागत है |”

– यह शहद जैसी मीठी और फूलों जैसी कोमल कोई अदृश्य जादुई आवाज थी |

राजू को उसके कानों में यह सुमधुर आवाज सुदूर पहाड़ों के बीच किन्हीं घाटियों से आती हुई जान पड़ी | लेकिन अद्भुत आकर्षण था इस आवाज में, जिस ने उसकी चेतना पर जादू जैसा असर किया था | कानों में पड़ते ही मानो चमत्कार हो गया था |

उसके शरीर में तेजी से हलचल हुई थी | उसकी ज्ञानेंद्रियाँ सक्रिय हो गयी थी | उसके गले से बहुत धीमा सा स्वर फूट पड़ा - “जी! क्या मैं परियों के पेड़ तक पहुँच गया हूँ ?”

“हाँ, तुम सही जगह पर हो |” – शहद की मिठास और कपास की रुई जैसी कोमल यह आवाज दोबारा सुनते ही राजू की सारी थकान कहीं गायब हो गई | वह थोड़ा सा प्रयास करते ही उठकर बैठ गया |

उसने धीरे से आँखें खोली और अनुभव किया कि वह उसी परियों वाले पेड़ के नीचे पहुँच चुका था | …….जिसको कल रात उसने देखा था,|…..सचमुच या सपने में ?

सहसा, उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था | उसने कई बार अपनी आँखें मली | अपने आप को चिकोटी काट कर देखा | अपनी ही चिकोटी के दर्द से वह चिहुंक उठा था | तब उसके होठों पर एक विजयी मुस्कान छा गई | चैतन्य होते ही वह अपने चारों ओर आँखें फाड़ – फाड़ कर देखने लगा था | फिर उसकी आँखें सामने और ऊपर की ओर उठी |

उसने देखा, पेड़ के ऊपर अनेक हँसते मुस्कुराते हुए परियों जैसे फल लदे हुए थे | यहाँ सब कुछ एकदम साफ और स्पष्ट दिखाई दे रहा था | सारा पेड़ रंग बिरंगी रोशनी से नहाया हुआ था | डाली – डाली और पत्ते – पत्ते पर अद्भुत सुरमई प्रकाश झिलमिला रहा था | जैसे परियों के घर में आज दीवाली हो |

इस अनोखे प्रकाश में पेड़ के नीचे भी सब कुछ साफ - साफ दिख रहा था | पेड़ के नीचे मखमली, गद्देदार, मोटी हरी घास उगी हुई थी | ….या कह लें कि बिछी हुई थी | अब तक राजू इसी प्राकृतिक बिछौने पर आराम से लेटा हुआ था | अपनी स्थिति देखते हुए उसे साफ समझ आ रहा था, ……..“चलो देर आए, लेकिन दुरुस्त आए |”

अभी वह सोच ही रहा था कि आगे क्या करे ........?

.........तभी दो - तीन बौने वहाँ जोकरों जैसी वेश-भूषा में प्रकट हो गए |

उन बौनों ने शरीर पर गर्दन से पैरों तक लाल रंग के लम्बे चोगे पहन रखे थे | उन लाल रंग के चोगों में काले रंग के किनारे थे, जिन पर चाँदी- सोने जैसे चमकीले तारों जैसी आकृति वाली जरदोज़ी अर्थात कढ़ाई की गयी थी | जैसे काली रात के दुपट्टे पर किसी ने उजले और सुनहरे सितारे जड़ दिये हों |

उन सब के सिर पर रंग – बिरंगी और अनोखी टोपियाँ थी | अनोखी इसलिए कि वह लगभग एक हाथ ऊँची, नीचे से चौड़ी – गोल और ऊपर जाकर तिकोने आकार में ढली हुई थी | इनकी ऊँची नोंक पर छोटी रस्सी में गोल – गोल लट्टू बंधे हुए लटक रहे थे | वह बौने उन लट्टुओं को चारों ओर, सिर की हरकत के सहारे हिलाकर बड़ी कुशलता से चरखी की तरह नचा रहे थे | उनकी ये कारस्तानी बड़ी मजेदार लग रही थी | इस पहले ही दृश्य से राजू का बाल सुलभ मन प्रसन्न होने लगा |

उन बौनों के चेहरों पर बड़ी – बड़ी सफ़ेद रंग की मूँछें और खूब लम्बी सफ़ेद रंग की दाढ़ी भी थी | ये सफ़ेद - घनी दाढ़ी उनके घुटनों से नीचे तक लटक रही थी | टोपी का लट्टू सिर के चारों ओर गोल – गोल घुमाते हुए वे उछल - कूद कर के बच्चों जैसी मस्ती कर रहे थे |

एक बौना दूसरे की मूँछें ऐंठ रहा था, तो दूसरा किसी तीसरे साथी की दाढ़ी खींच रहा था | तीसरा पहले वाले के सिर का घूमता हुआ लट्टू पकड़ने या रोकने का प्रयास कर रहा था | लेकिन पहला उछल – कूदकर बचा ले जाता था | इसी कारण पहला बौना बीच – बीच में लट्टू को किसी शरारती की तरह कुछ ऐसे अंदाज में तीसरे की ओर झुकाता कि उसकी तेज गति से चोट लगने का भय खाकर तीसरा अपनी उँगलियाँ पीछे कर लेता था | अपनी हरकतों से वे सब किसी नाटक कंपनी के जोकर लग रहे थे | यह सब देखकर राजू की बरबस ही हँसी छूट जाती थी |

राजू को हँसता हुआ देखकर वे बौने भी अजीब – अजीब शक्लें बनाते हुए बिना बात ठहाका लगाकर हँसने लगे थे |……और उनकी इस बेबात की मजेदार हँसी से राजू का भी ठहाका छूट जाता था | .....और फिर वह इसी तरह ठहाके पर ठहाका लगाकर हँसता ही चला जा रहा था |

हालात ये थे कि देखते ही देखते वहाँ पागलों जैसी हँसी का दौर चल निकला था | राजू बौनों को हँसता देख-देख कर अपनी हँसी नहीं रोक पा रहा था और वो सब राजू को हँसाने के लिए मज़ाकिया हरकतें करते हुए बिना हँसी की भी हँसी हँसते जा रहे थे | ऐसा लगता था कि वो राजू को हँसाने के लिये ही आए थे |

बहरहाल, राजू को भी जबर्दस्ती की इस जवाबी हँसी में खूब मजा आया | हँसते – हँसते उसके पेट में बल पड़ गये थे | पेट में मरोड़ उठने की नौबत आ गयी | लेकिन इससे इतना जरूर हुआ कि वह जल्दी ही इस बात को बिलकुल भूल गया कि अभी – अभी वह कितनी मुसीबतें उठाकर यहाँ तक पहुँचा था ? शायद बौने भी यही चाहते थे कि राजू पहले अपनी यात्रा की सारी परेशानियाँ भूल कर प्रसन्नचित्त हो जाए |

---------क्रमशः