Rangun Cripar aur April ki ek udaas raat - 2 in Hindi Love Stories by PANKAJ SUBEER books and stories PDF | रंगून क्रीपर और अप्रैल की एक उदास रात - 2

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रंगून क्रीपर और अप्रैल की एक उदास रात - 2

रंगून क्रीपर और अप्रैल की एक उदास रात

(कहानी : पंकज सुबीर)

(2)

‘‘कॉलेज में नंदू और हमारी पहचान हुई। हम दोनों उन्नीस-बीस की उमर में थे। नंदू और मेरे बीच लव एट फर्स्ट साइट वाला मामला ही हुआ। कॉलेज के शुरू के दिनों में ही हमारी दोस्ती ऐसी हुई कि अब तक चल रही है। टच वुड।’’ कहते हुए शुचि ने कुर्सी के लकड़ी के हत्थे को छू लिया।

‘‘कॉलेज के दिन हमारे जीवन के सबसे सुनहरे दिन होते हैं, वो फिर कभी नहीं लौटते। इन दिनों को भरपूर जीना चाहिए। भरपूर। जिस गोल्डन टाइम की बात की जाती है न, वो यही दिन होते हैं। इसके बाद तो ज़िंदगी आपको दौड़ाने लगती है एक ऐसे मरुस्थल में जिसका कोई ओर-छोर नहीं होता, बस दौड़ते ही जाना होता है।’’ शुचि एक लम्बी बात कह कर कुछ देर को रुक गई।

‘‘हमारा समय वो था जिसमें फिल्मों से आई रूमानियत भरी हुई थी। तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं, मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है, नीला आसमाँ सो गया और ऐ दिले नादाँ हमारे हॉस्टल की लड़कियों के लिए क्या थे, यह बताना मुश्किल है। तब तो आज की तरह साधन नहीं थे। जो कुछ सुनना था रेडियो पर ही सुनना होता था या कैसेट प्लेयर पर। कैसेट जानती है न तू ?’’ कह कर शुचि ने प्रश्नवाचक निगाहों से देखा पल्लवी की ओर।

‘‘जानती हूँ... घर में पड़े हैं ढेर सारे... मम्मा उन्हें फेंकने तक नहीं देती। जब भी फेंकने को कहो तो इमोशनल हो जाती हैं, कहती हैं इतनी सी जगह तो घेर रहे हैं, पड़ा रहने दे, मैंने और शुचि ने कहाँ-कहाँ से ढूँढ़ के कलेक्ट किए थे। एक दिन तो मम्मा मॉल से कैसेट प्लेयर भी ख़रीद लाईं ढूँढ़ कर। चलाने बैठीं तो एक भी कैसेट नहीं चला, सब जाम हो गए थे। दुखी हो गईं थीं उस दिन। मैंने कहा भी मम्मा सब तो डिजिटली मिल जाता है अब, बताओ कौन से गाने चाहिए मैं ला देती हूँ। तो कहने लगीं सब डिजिटल हो जाएगा तो बचेगा ही क्या जीवन में फिर?’’ पल्लवी ने कहा।

‘‘सच कह रही थी नंदू, कहाँ-कहाँ से तो नहीं तलाशे थे हमने कैसेट। पता है उन दिनों छोटे-छोटे वॉकमैन प्लेयर होते थे जिनमें कैसेट लगाकर और हेडफोन कानों में लगाकर हम पढ़ाई करते थे। हेडफोन का एक स्पीकर मेरे कान में लगा होता था, दूसरा नंदू के। हमने उसे तोड़ दिया था बीच से। उफ़ हमारी दीवानगी। ‘दिल पड़ोसी है’ एल्बम जब आया था तो हमने दुकान के दस दिन तक चक्कर काटे थे। और जब मिला तो अगले दस दिन तक बस वही बजता रहा.... रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है....।’’ गुनगुनाते हुए कहा शुचि ने।

‘‘हाँ ये मम्मा आज भी फेवरेट साँग है। है भी सुंदर। मेरे मोबाइल में भी है। रात के सन्नाटे में खिड़की में बैठकर इसे सुनना... सचमुच... ग़ज़ब...।’’ पल्लवी ने कहा। इतने में शुचि का मोबाइल वाइब्रेट कर उठा। उसने मोबाइल उठाकर देखा तो नर्सिंग होम से कॉल था। कॉल को अटेंड करके वह कुछ देर तक बात करती रही। मरीज़ों को लेकर सामान्य-से इन्स्ट्रक्शन्स। कुछ देर बात करने के बाद कॉल डिस्कनेक्ट कर दिया।

‘‘और एक दिन हमारे हाथ में ये अंग्रेज़ी एल्बम पड़ा ‘अ ला कार्ट’। दुकानदार ने जब बताया कि यह लड़कियों का दुनिया का पहला म्यूज़िक बैंड है जो 1980 में इंग्लैंड में बना है और आज बहुत पॉपुलर हो रहा है। जब उसने हमें गाना सुनाया ‘प्राइस ऑफ लव’ तो हमें कुछ तो समझ पड़ा और कुछ नहीं पड़ा, लेकिन सुनने में अच्छा लगा। ख़रीद लाए बस। उसके बाद कई-कई दिनों तक ‘प्राइस आफ लव’ हमारे चार्ट में टॉप पर बजता रहा। रिपीट हो-होकर बजता रहा। और मेरे चार्ट में तो आज भी वैसे ही बजता है।’’ शुचि ने बीच में छूट गई बात को फिर से जोड़ा।

‘‘सेम का सेम मम्मा का भी है, उन्हें तो आज भी अगर एक गाना सुनना है तो बार-बार सुनना है। मैं कहती हूँ कि मम्मा अब तो गाना ख़ुद भी थक गया होगा बजते-बजते, लेकिन नहीं उनको तो जैसे सनक-सी चढ़ती है किसी एक गाने को सुनने की।’’ पल्लवी ने कुछ हँसते हुए कहा।

‘‘कॉलेज के दिनों में जो लत लग जाए, वो उम्र भर नहीं जाती....।’’ शुचि ने कुछ मुस्कुराते हुए कहा ‘‘पता है हम जो इतने प्रेम के गाने दिन-दिन भर और रात-रात भर सुनते थे, हमारे जीवन में प्रेम-व्रेम जैसा कुछ नहीं था उस समय। हाँ बस इंतज़ार था। हर नए चेहरे को देखकर लगता कि बस यही है वो, फिर पता चलता कि एक-दो दिन में ही उस चेहरे की परतें उतर जातीं। उसके बाद हम ख़ूब हँसते... कि बाप रे... फँसते-फँसते बचे.....।’’

‘‘फँसते-फँसते..?’’ पल्लवी ने पूछा।

‘‘और नहीं तो क्या ? आज की तरह थोड़े ही था कि इधर ब्रेकअप उधर नई कहानी शुरू। हमारी पीढ़ी एक तो इमोशनल भी ज़्यादा थी और उस पर बंदिशें भी इतनी ज़्यादा थीं कि जीवन में एकाध बार ही प्रेम हो जाए तो बस वही सारे जीवन का सरमाया हो जाता था।’’ शुचि ने उत्तर दिया। ‘‘मैं, नंदू और बहुत सी हमारे साथ की लड़कियाँ गाने सुन-सुनकर इंतज़ार करती थीं। करती रहती थीं।’’

‘‘एमेजिंग.... सोच कर ही अजीब-सा लग रहा है आंटी।’’ पल्लवी ने कहा। इतने में खाना बनाने वाली बाई ट्रे में कॉफी के दो मग लिए आई और टेबल पर रख गई।

‘‘थैंक्स सुनीता...।’’ शुचि ने बाई को धन्यवाद कहा और अपने हिस्से का कॉफी का मग उठाकर अपने हाथ में ले लिया। पल्लवी ने दूसरा मग उठा लिया।

‘‘और फिर हमारे जीवन में कुछ लोग और आ गए। मेरे जीवन में वसंत और नंदू के जीवन में.... गेस हू ?’’ शुचि ने शरारत से मुस्कुराते हुए पूछा।

‘‘पापा....’’ कुछ अटकते हुए उत्तर दिया पल्लवी ने।

‘‘हाँ सौरभ.... ख़ुशक़िस्मत है नंदू कि जो उसके जीवन का पहला वसंत था, वही उसके जीवन में अभी तक भी ठहरा हुआ है। मेरे जीवन का वसंत तो......’’ कहते हुए बात का अधूरा ही छोड़ दिया शुचि ने। कुछ देर तक दोनों चुप रहे बस कॉफी के सिप लेने की आवाज़ें आती रहीं।

‘‘वो सब ख़ुशक़िस्मत होते हैं, जिनके जीवन का वसंत ठहर जाता है। वरना तो....। यह जो वसंत नाम है यह मेरा ही दिया हुआ नाम है। वैसे तो उसका कुछ और नाम है। लेकिन मुझे वसंत के मौसम से इतना प्रेम था कि मैंने अपने जीवन के उस पहले और आख़िरी प्रेम का नाम ही वसंत रख दिया था। बस मुझे, नंदू को, सौरभ को और वसंत को, हम चारों को पता था कि वसंत किसका नाम है। कभी-कभी मुझे लगता है कि मैंने वसंत नाम रख कर ही ग़लती की, वसंत भला कब किसके रोके से रुकता है ?’’ शुचि ने कुछ उदास स्वर में कहा। पल्लवी ने कोई उत्तर नहीं दिया वह चुप रही।

‘‘जब मैं स्कूल में पढ़ती थी तो मुझे हिंदी पढ़ाने वाली कुसुम मैडम को जब भी मौक़ा मिलता था वो एक ही गाना गाती थीं ‘रंगीला रे तेरे रंग में यूँ रँगा है मेरा मन.....’ और गाते-गाते जब वो ‘मैंने तो सींची रे तेरी ये राहें, बाँहों में तेरी क्यों ओरों की बाँहें’ वाली लाइन पर आती थीं तो उनका गला भर आता था। वो स्कूल में ही गणित पढ़ाने वाले सुनील सर से प्यार करती थीं। उनकी लव स्टोरी करीब दो साल चली फिर उन दिनों जो हर लव स्टोरी का होता था, उनका भी हुआ। सुनील सर की शादी हो गई। अब स्कूल में ही रोज़-रोज़ उन्हें सुनील सर को देखना पड़ता था, जो कभी उनके थे। स्कूल के दिनों में हम लड़कियाँ कुसुम मैडम को इसी रूप में जानती थीं कि वो हमारे सामने रोल मॉडल थीं। जिस प्यार के बारे में हमने फ़िल्मों में देखा था या कहानियों में सुना था, उसको साकार जीवन में पहली बार कुसुम मैडम के रूप में ही देखा। कुसुम मैडम और उनका ‘रंगीला रे’ गाना यह हमारी उस समय की फेंटेसी थी....। हम सुनील सर को उनकी तरफ़ से बेपरवाह देखते, तो हम लड़कियों की इच्छा होती कि इनका मुँह नोंच लिया जाए। लेकिन बस इच्छा ही कर सकते थे उस समय तो।’’ शुचि ने कुछ मुस्कुराते हुए कहा।

‘‘वसंत मेरे जीवन में सचमुच वसंत बन कर ही आया था। मेरे जीवन के ठहरे हुए पानी में उसने हलचल पैदा कर दी थी। मेरे लिए समय अब बदल गया था। पता है चिंकी जब हम प्रेम में होते हैं न, तभी हमें ज़िंदगी ठीक-ठीक रूप से दिखाई देती है। प्रेम हमारी दृष्टि को विस्तार दे देता है। वह सब कुछ दिखाई देने लगता है जो अभी तक अनदेखा था, अनजाना था। मेरे लिए भी वह समय वैसा ही था। नंदू ज़रा इस मामले में अलग थी। वह पढ़ाकू टाइप की थी, मतलब वैसी भी पढ़ाकू नहीं थी, लेकिन ज़रा प्रेक्टिकल थी और मैं कुछ ज़्यादा इमोशनल।’’ शुचि ने अपनी बात पूरी की और हाथ में रखा कॉफी का कप टेबल पर रख दिया।

‘‘ये गुलज़ार के गीतों से निकली हुई ज़िंदगी थी जो मेरी और नंदू की ज़िंदगी में आ मिली थी। जिसका इंतज़ार हम दोनों मानों युगों से कर रहे थे। उस समय आज की तरह इतना सब कुछ खुला हुआ नहीं था। बहुत छुप-छुपा के प्रेम के पौधे को पालना होता था। उस समय जैसे ही ज़िंदगी प्रेम के मौसम में पहुँचती थी वैसे ही सब कुछ अपने आप बदल जाता था। इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था कि मिलना-मिलाना नहीं हो पा रहा है, बस यूँ ही कभी चलते-फिरते बातें हो रहीं हैं। मगर उतना ही बहुत हो जाता था जीने के लिए।’’ कह कर शुचि चुप हो गई। पल्लवी ने भी कुछ नहीं कहा वो बस देखती रही शुचि को। बालकनी के बाहर अप्रैल का प्रारंभ अपने संकेत दे रहा है। कोने में खड़े सेमल के पेड़ पर खिले लाल-चटक फूल अपनी पंखुरियों को समेटने लगे हैं। बालकनी से लग कर खड़े हुए एक आम के पेड़ में छोटी बड़ी कैरियाँ दिख रही हैं, पत्तों के बीच से शरमा कर झाँकती हुई। दूर सड़क के उस तरफ़ मैदान में खड़े पलाश के पेड़ों पर फूलों के बुझे हुए अंगारे दिख रहे हैं बस। कुछ दिनों पहले ये अंगारे सुर्ख़ और चमकदार थे।

‘‘वसंत और मैं हम दोनो धीरे-धीरे एक-दूसरे को समझने की कोशिश कर रहे थे। समझते जा रहे थे। वसंत मुझसे एक क्लास सीनियर था। जबकि नंदू और सौरभ तो एक ही क्लास में थे। इसलिए वसंत और मुझे कोशिश करना पड़ती थी मिलने के लिए। मगर हमसे ज़्यादा कोशिश नंदू करती थी हमें मिलवाने के लिए। सारे ख़तरों से बचते-बचाते। उस समय जब हमारे जीवन में व्हाट्स-अप, फेसबुक, मेल, मोबाइल, कम्प्यूटर तो छोड़ो, फ़ोन तक नहीं था। और उस पर आज की तरह का फ्री माहौल भी नहीं था। बहुत मुश्किल होती थी लेकिन फिर भी वे दिन हमारी ज़िंदगी के सबसे सुख से भरे दिन थे। प्रेम गुलमोहर की तरह हमारे जीवन में खिलखिला के खिल उठा था।’’ शुचि ने कहा।

‘‘वाव... हाउ रोमांटिक.... आंटी पता कैसे चलता है कि हम प्रेम के सबसे गहरे पलों में हैं अब..?’’ पल्लवी ने पूछा।

‘‘जब दुनिया में कोई भी बुरा नहीं लगे। यहाँ तक कि बेजान चीज़ों से भी प्यार होने लगे। बिना शकर की कड़वी कॉफी जब मीठी लगने लगे। जब ढलती शाम में सूरज को अंतिम सिरे तक डूबते हुए देखना अच्छा लगने लगे। तो समझो कि प्रेम के गुलमोहर पर फ्लॉवरिंग का पीक समय चल रहा है।’’ कुछ हँसते हुए कहा शुचि ने। पल्लवी ने आँखों को कुछ फैला कर अपने भावों को व्यक्त किया। शुचि का मोबाइल एक बार फिर से बज उठा। नर्सिंग होम से ही कॉल था। शुचि बात करने लगी। पल्लवी उठ कर बालकनी के उस हिस्से के पास आ गई जहाँ आम के पेड़ की शाख़ें अंदर आने की कोशिश में लगी थीं। कुछ गिलहरियाँ इधर से उधर फुदक कर छोटी-छोटी कैरियों में अपने लिये कोई ठीक-ठाक खाने लायक कैरी तलाश रही थीं। पल्लवी को एकदम पास आया देखकर उनमें हलचल हुई। एक गिलहरी अपनी गोल-मटोल आँखों से कुछ देर तक आश्चर्य से पल्लवी को देखती रही, फिर फुदक के शाख़ से कूद कर दूसरे हिस्से में दौड़ती हुई चली गई। सड़क के किनारे खड़ा पीपल का बड़ा-सा पेड़ अपने सारे पत्ते गिरा कर अब उजाड़ खड़ा हुआ है। भूतहा-सा। पीपल पर जब तक पत्ते होते हैं, तब तक उसमें भूतहापन दिखाई नहीं देता लेकिन जैसे ही पतझड़ हुआ वैसे ही वह भूतहा हो जाता है। अजीब पेड़ है, जैसे-जैसे गर्मी के तेवर बढ़ेंगे, वैसे-वैसे कोमल पत्ते आना शुरू होंगे इस पर, जो गर्मी की प्रचंडता झेलते हुए ही बढ़ेंगे, हरियाएँगे। पल्लवी एकटक उस पीपल को और उसकी नंगी शाख़ों के बीच से नज़र आ रहे धूसर-नीले आसमान पर नज़र टिकाए जाने किस अज्ञात को देख रही थी।

‘‘चिंकी ! रिकॉर्डिंग बंद कर दे, कॉल आ गया है नर्सिंग होम से। मुझे जाना होगा। चल अब बाक़ी की बातें रात को होंगी। दो केस हैं, शायद शाम तक ही फ्री हो पाऊँगी।’’ शुचि की आवाज़ पर पल्लवी पलटी। पास आकर उसने टेबल पर रखा रिकॉर्डर की रिकार्डिंग बंद कर दी।

‘‘मैं भी चलूँ आंटी ? आपको असिस्ट कर दूँगी...।’’ पल्लवी ने पूछा।

‘‘तू..? मेरा काम तो सुबह के नाश्ते से चल जाता है, लंच की ज़रूरत नहीं पड़ती मुझे। पर तुझे तो भूख लगेगी। और जो खाना बन रहा है उसका क्या ?’’ शुचि ने कहा।

‘‘भूख लगेगी तो आ जाऊँगी घर, वॉकिंग डिस्टेंस पर तो है।’’ कुछ ठुनकते हुए कहा पल्लवी ने।

‘‘अच्छा चल...।’’ हँसते हुए कहा शुचि ने। दोनो बालकनी से उठकर अंदर घर में चली गईं।

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‘‘वाव आंटी, आप तो सीज़ेरियन भी ऐसे करती हैं जैसे कविता लिख रही हों, हाउ पोएटिक इट वाज़...!’’ रात के खाने के बाद दोनो एक बार फिर से बालकनी में आकर बैठ गईं हैं। पल्लवी आज दोनो ऑपरेशन के दौरान शुचि के साथ ऑपरेशन थिएटर में ही रही। शुचि को असिस्ट करती रही।

‘‘मैं आपको असिस्ट करना तो भूल ही गई थी आंटी, देखती रही कि आप कितनी तन्मयता के साथ और कितना कूल होकर काम करती हैं। आपको काम करते हुए देखकर ऐसा लग रहा था कि ऑपरेशन टेबल पर किसी भी केस में आप कभी असफल हो ही नहीं सकतीं, टच वुड।’’ पल्लवी ने आँखें फैलाकर प्रशंसा करते हुए कहा।

अप्रैल के शुरू के दिनों की यह रात है, इसलिए बहुत ज़्यादा गर्म नहीं है। रंगून क्रीपर की लतर में लदे हुए फूलों की बहुत हल्की-हल्की महक बालकनी में फैली हुई है। पूर्णिमा से कुछ पहले का चाँद आसमान में ठीक बीचों-बीच टँका हुआ है। चाँदनी आम के चिकने पत्तों पर से फिसलकर, कैरियों पर पीठ रगड़ती हुई बालकनी में बिना आवाज़ के आहिस्ता-आहिस्ता उतर कर बालकनी के फर्श पर लगे दूधिया सिरेमिक टाइल्स पर स्केटिंग कर रही है।

‘‘इसके आगे की कहानी ज़रा जटिल भी है और मेरे लिए कठिन भी है, इस कहानी में से तुमको बस एसेंस ही लेना होगा। मैं नहीं चाहूँगी कि तुम पूरी कहानी को उसी प्रकार से उपयोग करो अपने उपन्यास में। वैसे मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता अब, फिर भी जीवन में कुछ चीज़ें ढँकी ही रहें तो अच्छा है।’’ शुचि ने रंगून क्रीपर के ठीक नीचे रखे हुए झूले पर बैठते हुए कहा।

‘‘आंटी.. यह तो आपको सोचना ही नहीं चाहिए कि ऐसी कोई भी बात जो आपको डैमेज करे उसे मैं अपने लिए यूज़ करूँगी। मुझे अगर ऐसा लगता है कि एसेंस लेने में भी आपकी इमेज पर कोई भी असर पड़ेगा तो मैं तो उसे भी नहीं लूँगी। मेरे लिए आप इम्पोर्टेंट हैं, बाक़ी सारी चीज़ें सेकेंडरी हैं मेरे लिए।’’ पल्लवी ने कुछ मुलायम स्वर में कहा।

‘‘सॉरी.. मुझे ऐसा कहना ही नहीं चाहिए था। होता है... कभी-कभी समय और उम्र हमको थोड़ा इन्सिक्योर कर देते हैं। सॉरी बेटा...। चलो अब चालू करो यह तुम्हारा रिकॉर्डर...। आज तुमको पूरी कहानी सुनाई ही जाएगी, भले ही कितनी ही रात हो जाए।’’ शुचि ने उत्तर दिया। पल्लवी केवल मुस्करा के रह गई।

‘‘क़रीब दो साल का साथ रहा वसंत का और मेरा। ऐसा लगता था कि अब यह दो साल जीवन में कभी ख़तम होंगे ही नहीं, बस चलते ही रहेंगे, चलते ही रहेंगे। अच्छे दिनों के बारे में हर कोई यही सोचता है कि काश यह दिन कभी ख़त्म ही नहीं हों। वसंत और मैंने इन दो सालों में आने वाले जीवन को लेकर कई सारी प्लानिंग कर ली थीं। वसंत को तो ख़ैर पीजी करना ही था लेकिन मेरे लिए एमबीबीएस हो जाए वही बहुत था।’’ शुचि ने कुछ गहरे स्वर में कहा। शुचि के चुप होते ही बालकनी में इधर-उधर दीवारों पर चिपके झींगुरों का संगीत गूँजने लगा।

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