Dahlij par sanvaad in Hindi Moral Stories by Sudha Arora books and stories PDF | दहलीज पर संवाद

Featured Books
Categories
Share

दहलीज पर संवाद

दहलीज पर संवाद

अंधेरी डयोढ़ी को पार कर दोनों शिथिल आकृतियां जीने की तरफ बढ़ती हैं। पुरानी चप्पलों की धीमी चरमराहट के साथ-साथ सीमेंट के फर्श पर छड़ी के बार-बार टिकाए जाने का अपेक्षाकृत तेज स्वर उभरता है, फिर रुक जाता है।

''देखकर आना, सुमित्रा अंधेरा है।"

''बत्ती क्या हुई?"

''तोड़-ताड़ दिया होगा बल्ब, पड़ोस के बच्चों ने।"

''गए थे तो ठीक था।"

''हरामखोर कहीं के।"

चप्पलों की चरमराहट और छड़ी की टक-टक का समवेत स्वर फिर शुरू होता है। इस बार उसमें हांफने की भारी आवाज जुड़ जाती है। ऊंची चढ़ती हुई छड़ी की टक्-टक् दो-तीन क्षणों के लिए ठिठकती है।

''थक गईं?"

''हांऽ..."

''कहा था, रिक्शा ले लेते।"

''अढ़ाई रुपए मांग रहा था।"

''तो क्या हुआ? आराम से तो आ जाते।"

''पैसे का खयाल नहीं है आपको।"

''सेहत के मामले में कंजूसी नहीं दिखानी चाहिए। इस उम्र में सेहत ही नियामत है।"

''खैर...हम कौन-सा रोज-रोज स्टेशन जाते हैं।"

छड़ी की आवाज काफी ऊपर तक जाकर एक बार फिर रुकती है। चप्पलों की चरमराहट के साथ-साथ गहरे नि:श्वास जारी रहते हैं। झुर्रियोंवाला एक हाथ नीचे अगली सीढ़ी तलाशता है।

''मैं आऊं?"

''नहीं, मैं धीरे-धीरे चढ़ रही हूं। आप दरवाजा खोलिए।"

''चाबी तो तुम्हारे पास है।"

''हाय रब्बाऽऽऽ"

''ठंड तो नहीं लग रही?"

''नहीं।"

''मुझे तो लग रही है।"

''अच्छा?"

''डॉक्टर कह रहा था कि इस उम्र में रात को बाहर नहीं निकलना चाहिए।"

''पर जाना तो था ही।"

''मैं यह थोड़े ही कह रहा हूं।"

''चलो, अब तो आ गए...।"

चाबियों की खनखनाहट शुरू होती है। फिर दरवाजा खुलता है। स्विच के ऊपर-नीचे होने की आवाजें आती हैं। उसके बाद गहरी खामोशी छा जाती है।

''क्या हुआ?"

''बत्ती ही नहीं है।"

''फिजूल बेचारे बच्चों को कोस रहे थे। अब?"

''तुम भीतर आओ।"

''हूं।"

''मोमबत्ती है घर में?"

''ढूंढनी पड़ेगी।"

''और वह जो राज की टॉर्च थी...।"

''उसका मसाला कहां बदलवाया।"

''चलो खैर, सोना ही है अब।"

''खाना नहीं खाओगे?"

''भूख नहीं है।"

''क्यों?"

''पता नहीं। तुम खा लो।"

''नहीं।"

''क्या हुआ?"

''ऐसे ही। जी नहीं करता।"

''तो फिर दरवाजा बंद कर दो।"

''अच्छा।"

तेज खडख़ड़ाहट के साथ दरवाजा बंद होता है। घरघराती हुई सांसें कमरे में गूंजती रहती हैं। फिर बिस्तर पर किसी बोझ के ढह जाने की आवाज आती है। एक मिनट के लिए जैसे सब कुछ रुक जाता है।

''हाय, मेरे रब्बा।"

''थक गए न आप भी?"

''नहीं तो।"

''आपकी आवाज से लग रहा है।"

''क्या हुआ है मेरी आवाज को?"

''आपको नहीं पता चलता?"

''नहीं।"

''जैसे गले में कुछ फंसा हुआ होता है।"

''क्या?"

''जैसे गला अकड़ गया हो।"

''ठंड जो थी रास्ते में।"

''गुलूबंद ले लेना था।"

''उससे क्या फर्क पडऩा था?"

''फिर भी। डेढ़ मील तो होगा ही यहां से स्टेशन।"

''ज्यादा।"

''अब वह शरीर भी तो नहीं रहा।"

''हूं..."

''जूते उतार लिए?"

''उतार रहा हूं।"

''टाइम क्या हुआ?"

''साढ़े बारह।"

''वे लोग इटावा पहुंच गए होंगे।"

''अभी कहां! एक बजे आता है।"

''टिन्नी दूध के लिए रो रहा होगा।"

''हूं।"

''बहुत रोता है।"

''आदतें बिगाड़ रखी हैं।"

''और क्या!"

''अपना राज नहीं रोता था इस तरह।"

''आजकल की लड़कियों को बच्चे पालने नहीं आते।"

''क्योंकि बच्चे पाले जाते हैं आजकल। पहले तो अपने आप पल जाते थे।"

''कहो तो बुरा लगता है।"

''जमाना नहीं है किसी को कुछ कहने का।"

''हूं...।"

''तुमने कहा तो नहीं था कुछ?"

''नहीं। ऐसे ही एक बात कही है।"

''खैर...।"

''कपड़े बदलने हैं आपने?"

''नहीं।"

''ऐसे ही सोएंगे?"

''हां।"

''कम्बल ले लेना ऊपर।"

''ले लिया है।"

''पानी पीना है?"

''नहीं।"

''और कुछ?"

''नहीं।"

''मैं सो जाऊं फिर?"

''हां।"

चुप्पी कमरे पर छाई रहती है। दूर कहीं चौकीदार आवाज लगाता है। फिर जोर-जोर से बात करते हुए लोगों का झुंड नीचे फुटपाथ से गुजर जाता है। फिर दूर-दराज तक वही चुप्पी।

''मैंने कहा..."

''हूं।"

''सो गए क्या?"

''नहीं।"

''नींद नहीं आती?"

''पेट अजीब-सा हो रहा है।"

''खाना जो नहीं खाया।"

''तुमने भी तो नहीं खाया।"

''अब कौन सियापा करे...।"

''सारा ही मैंने टिफिन में डाल दिया था। इन्द्रा मना करती रही। मैंने जबरदस्ती रख दिया। गाड़ी में भूख ज्यादा लगती है। दो रातों का सफर है।"

''रात बहुत हो गई है...।"

''हूं...।"

''मैंने कहा...सुनते हो...?"

''हूं्...।"

''घर, कैसा चुप-चुप हो रहा है।"

''क्या?"

''कैसा मनहूस लग रहा है घर!"

''बच्चे की रौनक तो होती ही है।"

''बड़ा शैतान है।"

''बाप पर गया है।"

''मां पर नहीं?"

''नहीं।"

''मैंने राज को बताया था।"

''क्या?"

''कि टिन्नी बिल्कुल तेरे पर गया है।"

''फिर?"

''फिर क्या?"

''राज ने क्या कहा?"

''कहने लगा, अपने दादा पर गया है।"

धीमी, पोपली खिलखिलाहट से सारा कमरा भर जाता है। फिर करवट बदलने की सरसराहट शुरू होती है।

''तुम्हें याद है?"

''क्या?"

''अपना राज बिल्कुल टिन्नी जैसा था।"

''हां, मगर भारी ज्यादा था।"

''मोहल्ले के बच्चों से तो उठता ही नहीं था।"

''बीस साल हो गए...।"

''नहीं, पच्चीस...।"

''अब भी कितना साफ-साफ याद है।"

''सारे कमरे में घिसटता रहता था।"

''बच्चे कितनी जल्दी बड़े हो जाते हैं!"

''ओमी, पाल, नीलू के तो अपने बच्चे भी कितने बड़े-बड़े हो गए...।"

''सब छोटे थे तो सुबह-शाम कितना ऊधम मचाते थे!"

''पर प्यार कितना था आपस में!"

''अब तो चिटï्ठी-पतरी भी नहीं...।"

''पीछे देखा तो पता चलता है।"

''जमाना था वह भी। अब तो कुछ भी नहीं।"

''क्या?"

''कुछ नहीं...।"

खामोशी फिर से उतर आती है। तभी घंटे की तेज आवाज सुनाई देती है। उसके बाद फिर करवटें बदलने की सरसराहट।

''एक बज गया।"

''दूध मिल जाता है वहां?"

''हां, बड़ा स्टेशन है।"

''तकलीफ होगी।"

''वो तो होगी ही। रात का सफर है।"

''कहा था, दिन की गाड़ी से चले जाते।"

''अपनी मर्जी के मालिक हैं सब।"

''फिर भी...।"

''तुमने रुपए पकड़ा दिए थे टिन्नी के हाथ में?"

''हां।"

''कितने?"

''दस।"

''बीस देने थे।"

''दस ही थे मेरे पास।"

''परसों मैंने दिए जो थे।"

''उनसे मैंने टिन्नी को खिलौने खरीद दिए थे।"

''ओ...।"

दो क्षणों तक सब चुपचाप रहता है। फिर चारपाई चरमराती है। खंखारने की आवाज के साथ फिर सन्नाटा छा जाता है।

''कितने के आए खिलौने?"

''सोलह रुपए कुछ पैसे के थे।"

''बड़े महंगे लिए।"

''सस्ती कौन-सी चीज आती है आजकल।"

''हमारे बच्चे तो चम्मचों से खेलकर ही खुश हो जाया करते थे।"

''तब की बात और थी।"

''अच्छा, सुनो!"

''हूं...।"

''बाकी कितने पैसे रह गए आलमारी में?"

''तीस।"

''कितने?"

''तीस"

''बस?"

''हां।"

''इस महीने बड़ा खर्च हो गया। अभी आधा महीना भी नहीं...।"

''बच्चे भी तो तुम्हारे ही हैं।"

''हां, लेकिन...।"

''क्या?"

''कुछ नहीं।"

''बोलो भी।"

''नहीं, कुछ नहीं...।"

बूट पटकता हुआ, लाठी की टक्-टक्के साथ, चौकीदार एक बार फिर

सड़क से गुजर जाता है। सांस लेने की थकी हुई सरसराहट और सन्नाटा- दोनों बने रहते हैं।

''इस बार राज खुश था बहुत।"

''यहां आकर?"

''नहीं, वैसे ही।"

''कोई बात तो होगी।"

''खुद तो वह कुछ नहीं बोला, पर इन्द्रा बता रही थी।"

''क्या?"

''कह रही थी, यहां से लौटकर जाएंगे तो बदली होगी और तरक्की भी। राज ने तुमसे कुछ नहीं कहा?"

''बदली होगी?"

''हां।"

''इधर पास कहीं?"

''कह रही थी, आसाम की तरफ...।"

''आसाम...।"

''हां। क्यों?"

''वह तो बहुत दूर है।"

''अच्छा?"

''एक तरफ के सफर में ही तीन-चार दिन लग जाते हैं...।"

''हाय मेरे मालिक।"

''आना-जाना मुश्किल हो जाएगा।"

''हमारा क्या होगा?"

''हूं?"

''हमारा क्या होगा?"

''हमारा क्या हो सकता है?"

एक मनहूस चुप्पी कमरे में खिंच जाती है। काफी देर तक कोई आवाज नहीं उभरती। उसी सन्नाटे में कहीं गहरे में से एक थकी हुई आवाज जैसे गूंजती है।

''कितनी तनख्वाह हो जाएगी अब राज की।"

''सत्रह सौ।"

''सच?"

''हां, इन्द्रा कह रही थी।"

''मैं कल सोसायटी वालों को बताऊंगा। खोसला साहब को भी। बड़ा रोब मार रहे थे, अपने बेटे का।"

''और आप कर भी क्या सकते हैं?"

''क्या कहा?"

''कुछ नहीं।"

''कभी-कभी बहुत कड़वी बात कह जाती हो।"

''सच नहीं है क्या?"

''होगा।"

''होगा नहीं, है।"

''पर हमारे पास खुश होने के लिए इसके अलावा रास्ता भी क्या है?"

''मैंने तो एक बात कही थी।"

इस बार एक आकृति उठकर चारपाई पर बैठ जाती है। चारपाई जोरों से चरमरा उठती है।

''उठ गए?"

''हां।"

''क्यों?"

''नींद नहीं आ रही।"

''तबीयत ठीक है?"

''हां।"

''तो फिर?"

''बस, नींद नहीं आ रही।"

''वे लोग भी गाड़ी में जाग रहे होंगे।"

''सो गए होंगे शायद। रात काफी हो गई है।"

''टिन्नी तंग न कर रहा हो कहीं।"

''तुम्हें क्या पड़ी है?"

''ऐसे ही...खयाल तो आता ही है...।"

''हूं..."

''क्या सोच रहे हैं?"

''... ... ..."

''बताइए भी, यही आपकी खराब आदत है।"

''सोच रहा हूं, पिछले दस दिन कितने अच्छे गुजरे।"

''वो तो है ही।"

''अब मनहूस लग रहा है सबकुछ।"

''बड़े कम वक्त के लिए आते हैं हर बार।"

''खर्च भी तो बहुत हो जाता है।"

''क्या करें?"

''दिल पर पत्थर रखना पड़ता है।"

''... ... ..."

''अपने बच्चों को भी खयाल नहीं आता...।"

''... ... ..."

''कि इस उम्र में इस तरह अकेले...।"

''चलो जी, राजी-खुशी रहें, अपने घर...।"

''दस दिन रहकर जाते हैं तो मेरा तो कलेजा कट जाता है।"

''क्या?"

''कलेजा कट जाता है।"

''एक हफ्ता और रुकने के लिए कहना था।"

''कहा था।"

''फिर?"

''इन्द्रा बोली कि छुटï्टी नहीं है।"

''पर राज तो कह रहा था...।"

''मुझे भी कहा था।"

''फिर?"

''मैंने इन्द्रा और राज की बातें सुनी थीं...।"

''क्या कह रहे थे?"

''... ... ..."

''बताओ भी, क्या कह रहे थे?"

''इन्द्रा रो रही थी कि यहां उसका मन नहीं लगता। सारा दिन करने को कुछ नहीं होता। घूमना भी अच्छा नहीं लगता।"

''... ... ..."

''कह रही थी कि बीमारों के बीच उसके बच्चे को कुछ हो गया तो...।"

''... ... ..."

''आप चुप क्यों हो गए?"

''कुछ नहीं।"

''बोलो भी।"

''ऐसे ही। एक बात याद आ गई।"

''क्या?"

''मेजर लाल सुनाते थे न- जिस तरह पिछली लड़ाई में सिपाही जख्मियों को साथ ढोने से तंग आकर पीछे छोड़ जाते थे, उसी तरह...।"

''क्या उसी तरह?"

''कुछ नहीं सुमित्रा। अब सोना चाहिए।"

''बोलो भी। क्या कह रहे थे?"

''मुझे तो लगता है..."

''क्या लगता है?"

''बताऊं?"

''हां।"

''कि हम न इधर हैं, न उधर।"

''क्या?"

''तुम्हें ऐसा नहीं लगता?"

''कैसा?"

''कि हमें अब...।"

''हाय मेरे रब्बा, मनहूस बातें ही निकालोगे मुंह से...।"

''नहीं क्या?"

''अब बस भी करो...।"

''सच बताओ, क्या तुम्हें भी ऐसा लगता है।"

ऊपर छत पर धूल-सना, मैला पंखा धुंधला, और धुंधला होता जाता है। दूर कहीं दो का घंटा बजता है तो अंधेरेदार सन्नाटा यूं कांपता है, जैसे कोई अधमरी चीज हवा में उल्टी लटक रही हो...।

0 0 0

सुधा अरोड़ा

90824 55039 / 97574 94505 / 022 4005 7872