एक
यूनुस एक बार फिर भाग रहा है।
ठीक इसी तरह उसका भार्इ सलीम भी भागा करता था।
लेकिन क्या भागना ही उसकी समस्या का समाधान है?
यूनुस ने अपना सिर झटक दिया।
विचारों के युद्ध से बचने के लिए वह यही तरीका अपनाता।
इस वक्त वह सिंगरौली स्टेशन के प्लेटफार्म पर खड़ा है।
सिंगरौली रेल्वे स्टेशन।
अभी रात के ग्यारह बजे हैं।
कटनी-चौपन पैसेंजर रात बारह के बाद ही आएगी।
प्लेटफार्म कब्रिस्तान बना हुआ है। ठंड की चादर ओढ़कर सोया
कब्रिस्तान। धुंधली रोशनी में कुहरे की हिलती चादर। लोग चलते तो यूं लगता जैसे कब्रों का रखवाला आकर दौरा कर जाता हो। जहां ऐसा लगता है कि कब्रों से उठकर आत्माएं सफेद, काले कपड़े से बदन लपेटे गश्त कर रही हों।
आजकल भीड़ की कोर्इ वजह नहीं है।
कटनी-चोपन पैसेंजर की यही तो पहचान है कि बोगियों और मुसाफिरों की संख्या समान होती है।
यूनुस को भीड़ की परवाह भी नहीं।
सफ़र में सामान की हिफाजत का भरोसा हो जाए तो वह बैठने की जगह भी न मांगे।
उसके पास सामान भी क्या है? एक एयर-बैग ही तो है।
उसे कहीं भी टिका वह घूम-फिर सकता है।
दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंड...
दिखार्इ देने वाला हर आदमी सिकुड़ा-सिमटा हुआ। बदन पर ढेरों कपड़े लादे। फिर भी ठंड से कंपकंपाए।
इधर ठंड कुछ अधिक पड़ती भी है। बघेल-खंड का इलाका है यह! दांतों को कड़कड़ा देने वाली ठंड के लिए मशहूर सिंगरौली का रेल्वे स्टेशन! पहाड़ी इलाका, कोयला खदान और ताप-विद्युत इकार्इयों के कारण मानो जान बच जाती है, वरना ऐसी ठंड पड़ती कि अच्छे-खासे लोग टें बोल जाएं।
स्टेशन-मास्टर के कमरे के बगल में प्रथम एवम् द्वितीय श्रेणी शयनयान के आरक्षित यात्रियों के लिए प्रतीक्षालय है। दरवाज़े में लगे कांच पर धुंध छा गर्इ थी, इसलिए यूनुस ने भिड़काए दरवाजे़ को ठेलकर भीतर झांका।
वहां एक अधेड़ आदमी और एक स्त्री बैठे हुए थे। एनटीपीसी या फिर कॉलरी का साहब हो। वैसे भी किसी ऐरे-गैरे के लिए प्रतीक्षालय नहीं खोला जाता।
प्रतीक्षालय के बगल में रनिंग-स्टाफ रूम था। फिर उसके बाद आरपीएफ के जवानों के लिए कमरा था।
उस कमरे के बाहर रात्रि-पाली के कर्मचारियों ने सिगड़ी में आग जला रखी थी। चार आदमी आग ताप रहे थे। उनके बीच थोड़ी सी जगह बची थी, जहां एक कुत्ता बदन सेंक रहा था। यूनुस कुत्ते के पास जाकर खड़ा हो गया। सिगड़ी की आंच की सिंकार्इ से उसे कुछ राहत मिली।
रेल्वे के कर्मचारी अप-डाउन, एर्इएन, सायरन, डिरेल, सिग्नल आदि शब्दों का उच्चारण कर अपने विचारों का आदान-प्रदान कर रहे थे।
मफलर से आंख छोड़ पूरा चेहरा लपेटे एक कर्मचारी बोला-’’भार्इजान, आज शाम तबीयत कुछ डाउन लग रही थी। कड़क चाय बनवाकर पी लेकिन पिकअप न बना। ऐसे सिग्नल मिले कि लगा इस बार पायलट डिरेल हुआ, तो फिर उठाना मुश्किल होगा। तभी दिमाग में सायरन बजा और तुरंत भट्टी पहुंचे। वहां फोर-डाउन वाला मिसरवा गार्ड मिल गया। दोनों ने मिल कर मूड बनाया। तब जाकर जान बची।’’
यूनुस थोड़ी देर उनकी बात से लुत्फ उठाता रहा, फिर स्टेशन से बाहर निकल आया।
बाहर एक बड़ा सा पार्क है। पार्क के दोनों ओर दो सड़कें निकली हैं। दोनों सड़कें आगे जाकर मेन-रोड से मिलती हैं।
पार्क के सामने रोड के किनारे-किनारे, एक लार्इन से कर्इ टेक्सियां और एक मिनी-बस खड़ी थी। इन टेक्सियों या मिनी बसों के चालक अमूमन उनके मालिक होते हैं।
एक पेड़ का मोटा सा सूखा तना सुलगाए वे आग ताप रहे थे।
एक खलासीनुमा चेला चिलम बना रहा था।
यूनुस वहां रूका नहीं।
वह बार्इं ओर की ढाल-दार सड़क पर चल पड़ा। मेन-रोड के उस पार तीन-चार होटल हैं।
ये होटल चौबीस घण्टे सर्विस देते हैं। उन होटलों में लालटेन जल रही थी।
उसने होटल का जायजा लिया। पहला छोड़ दूसरे होटल में एक महिला भट्टी के पास खड़ी चाय बना रही थी।
यूनुस उसी होटल में घुसा।
सीधे भट्टी के पास पहुंच गया। उसने कंधे पर टंगा एयर-बैग उतार कर एक कुर्सी पर रख दिया। फिर हथेलियों को आपस में रगड़ते हुए आग तापने लगा।
महिला ने उसे घूरकर देखा।
यूनुस को उसका घूरना अच्छा लगा।
वह तीस-बत्तीस साल की महिला थी। भट्टी की लाल आंच और लालटेन की पीली रोशनी के मिले-जुले प्रभाव में उसका चेहरा भला लग रहा था। जैसे तांबर्इ-सुनहरी आभा लिए कोर्इ कांस्य-कृति।
महिला ने चाय केतली में ढालते हुए पूछा-’’क्या चाहिए?’’
यूनुस ने मजा लेना चाहा-’’यहां क्या-क्या मिलता है?’’
महिला ने उसे घूरकर देखा, फिर जाने क्या सोचकर हंस दी।
होटल के तीन हिस्से थे। आधे हिस्से में ग्राहक के बैठने की जगह। आधे हिस्से को दो भागों में टाट के पर्दे से अलग किया गया था। सामने का भाग रसोर्इ के रूप में था और बाकी आधा हिस्से में लगता ह,ै उसकी आरामगाह थी।
आरामगाह से किसी वृद्ध के खांसने की आवाज़ आर्इ, साथ ही लरज़ती आवाज़ में एक प्रश्न-’’पसिन्जर आ गर्इ का?’’
महिला ने जवाब दिया-’’अभी नहीं ।’’
यूनुस को टार्इम-पास करना था, सो उसने आर्डर दिया-’’कड़क चाय, चीनी-पत्ती तेज रहेगी।’’
महिला उसकी मंशा समझ गर्इ।
उसने बर्तन में स्पेशल चाय के लिए दूध डाला और फिर ढेर सारी पत्ती डालकर चाय खूब खौला दी।
चाय उसने दो गिलासों में ढाली।
एक चाय यूनुस को दी और दूसरी स्वयं पीने लगी।
यूनुस ने महसूस किया कि ठंड इतनी ज्यादा है कि चाय गिलास में ज्यादा देर गरम न रह पार्इ।
यूनुस ने चुस्की लेते हुए चाय का आनंद उठाया।
उसे अपने ‘डाक्टर-उस्ताद’ की बात याद हो आर्इ...
डोज़र आपरेटर शमशेर सिंह उर्फ़ ‘डाक्टर-उस्ताद’ को ठंड नहीं लगती थी। वह कहा करता कि ठंड का इलाज आग या गर्म कपड़े नहीं बल्कि शराब, शबाब और कबाब है।
यूनुस ने शराब तो कभी छुर्इ नहीं थी, किन्तु शबाब या कबाब से उसे परहेज़ न था।
शबाब के लिए तो वैसे भी सिंगरौली क्षेत्र बदनाम है।
औद्योगिक विकास की आंधी के कारण देश भर के उद्योगपति-व्यवसायी, टेक्नोक्रेट और कुशल- अकुशल श्रमिक-शक्ति सिंगरौली क्षेत्र में डेरा डाले हुए हैं। पहले तो लोग बिना परिवार के यहां आते हैं। बिना रहार्इशी इंतेज़ाम के ये लोग हर तरह की ज़रूरत की वैकल्पिक व्यवस्था के अड्डे तलाश कर लेते हैं। इसीलिए यहां ऐसे कर्इ गोपनीय अड्डे हैं जहां जिस्म की भूख मिटार्इ जाती है।
ऐसे ही एक अड्डे से प्राप्त अनुभव को यूनुस ने याद किया।
दो
कल्लू नाम था उसका। वह बीना की खुली कोयला खदान में काम करता था।
यूनुस तब वहां कोयला-डिपो में पेलोडर चलाया करता था। वह प्राइवेट कम्पनी में बारह घण्टे की ड्यूटी करता था। तनख्वाह नहीं के बराबर थी। शुरू में यूनुस डरता था, इसलिए र्इमानदारी से तनख्वाह पर दिन गुजारता था।
तब यदि खाला-खालू का आसरा न होता तो वह भूखों मर गया होता।
फिर धीरे-धीरे साथियों से उसने मालिक-मैनेजर-मुंशी की निगाह से बच कर पैसे कमाने की कला सीखी। वह पेलोडर या पोकलेन से डीजल चुरा कर बेचने लगा। अन्य साथियों की तुलना में यूनुस कम डीजल चोरी करता, क्योंकि वह दारू नहीं पीता था।
कल्लू उससे डीजल खरीदता था।
खदान की सीमा पर बसे गांव में कल्लू की एक आटा-चक्की थी। वहां बिजली न थी। चोरी के डीजल से वह चक्की चलाया करता।
धीरे-धीरे उनमें दोस्ती हो गर्इ।
अक्सर कल्लू उससे प्रति लीटर कम दाम लेने का आग्रह करता कि किसके लिए कमाना भार्इ। जोरू न जाता फिर क्यूं इत्ता कमाता। उनमें खूब बनती।
फुर्सत के समय यूनुस टहलते-टहलते कल्लू के गांव चला जाता।
कालोनी के दक्खिनी तरफ, हार्इवे के दूसरी ओर टीले पर जो गांव दिखता है, वह कल्लू का गांव परसटोला था।
परसटोला यानी गांव के किनारे यहां पलाश के पेड़ों का एक झुण्ड हुआ करता था। इसी तरह के कर्इ गांव इलाके में हैं जो कि अपनी हद में कुछ ख़ास पेड़ों के कारण नामकरण पाते हैं, जैसे कि महुआर टोला, आमाडांड़, इमलिया, बरटोला आदि। परसटोला गांव में फागुन के स्वागत में पलाश का पेड़ लाल-लाल फूलों का श्रृंगार करता तो परसटोला दूर से पहचान में आ जाता।
परसटोला के पश्चिमी ओर रिहन्द बांध की पानी हिलोरें मारता। सावन-भादों में तो ऐसा लगता कि बांध का पानी गांव को लील लेगा। कुवार-कार्तिक में जब पानी गांव की मिट्टी को अच्छी तरह भिगोकर वापस लौटता तो परसटोला के निवासी उस ज़मीन पर खेती करते। धान की अच्छी फ़सल हुआ करती। फिर जब धान कट जाता तो उस नम जगह पर किसान अरहर छींट दिया करते।
रिहन्द बांध को गोविन्द वल्लभ पंत सागर के नाम से भी जाना जाता है। रिहन्द बांध तक आकर रेंड़ नदी का रूका और फिर विस्तार में चारों तरफ फैलने लगा। शुरू में लोगों को यकीन नहीं था कि पानी इस तरह से फैलेगा कि जल-थल बराबर हो जाएगा।
इस इलाके में वैसे भी सांमती व्यवस्था के कारण लोकतांत्रिक नेतृत्व का अभाव था। जन-संचार माध्यमों की ऐसी कमी थी कि लोग आज़ादी मिलने के बाद भी कर्इ बरस नहीं जान पाए थे कि अंग्रेज़ी राज ख़त्म हुआ। गहरवार राजाओं के वैभव के क़िस्से उन ग्रामवासियों की जुगाली का सामान थे।
फिर स्वतंत्र भारत का एक बड़ा पुरूस्कार उन लोगों को ये मिला कि उन्हें अपनी जन्मभूमि से विस्थापित होना पड़ा। वे ताम-झाम लेकर दर-दर के भिखारी हो गए। ऐसी जगह भाग जाना चाहते थे कि जहां महा-प्रलय आने तक डूब का ख़तरा न हो। ऐसे में मोरवा, बैढ़न, रेणूकूट, म्योरपुर, बभनी, चपकी आदि पहाड़ी स्थानों की तरफ वे अपना साजो-सामान लेकर भागे। अभी वे कुछ राहत की सांस लेना ही चाहते थे कि कोयला निकालने के लिए कोयला कम्पनियों ने उनसे उस जगह को खाली कराना चाहा। ताप-विद्युत कारखाना वालों ने उनसे ज़मीनें मांगी। वे बार-बार उजड़ते-बसते रहे।
कल्लू के बूढ़े दादा डूब के आतंक से आज भी भयभीत हो उठते थे। उनके दिमाग से बाढ़ और डूब के दृश्य हटाए नहीं हटते थे। हटते भी कैसे? उनके गांव को, उनकी जन्म-भूमि को, उनके पुरखों की क़ब्रगाहों-समाधियों को इस नामुराद बांध ने लील लिया था।
ये विस्थापन ऐसा था जैसे किसी बड़े जड़ जमाए पेड़ को एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह रोपा जाए...
क्या अब वे लोग कहीं भी जम पाएंगे?
कल्लू के दादा की आंखें पनिया जातीं जब वह अपने विस्थापन की व्यथा का ज़िक्र करते थे। जाने कितनी बार उसी एक कथा को अलग-अलग प्रसंगों पर उनके मुख से यूनुस को सुन चुका था।
दादा एक सामान्य से देहाती थे। खाली न बैठते। कभी क्यारी खोदते, कभी घास-पात उखाड़ते या फिर झाड़ू उठाकर आंगन बुहारने लगते।
दुबली-पतली काया, झुकी कमर, चेहरे पर झुर्रियों का इंद्रजाल, आंखों पर मोटे शीशे का चश्मा, बदन पर एक बंडी, लट्ठे की परधनी, कंधे पर या फिर सिर पर पड़ा एक गमछा और चलते-फिरते समय हाथों में एक लाठी।
वह बताते कि उस साल बरस बरसात इतनी अधिक हुर्इ कि लगा इंद्र देव कुपित हो गए हों। आसमान में काले-पनीले बादलों का आतंक कहर बरसाता रहा। बादल गरजते तो पूरा इलाका थर्रा जाता।
यूनुस भी जब सिंगरौली इलाके में आया था तब पहली बार उसने बादलों की इतनी तेज़ गड़गड़ाहट सुनी थी। श्शहडोल ज़िले में पानी बरसता है लेकिन बादल इतनी तेज़ नहीं गड़गड़ाया करते। शहडोल जिले में बारिश अनायास नहीं होती। मानसून की अवधि में निश्चित अंतराल पर पानी बरसता है। जबकि सिंगरौली क्षेत्र में इस तरह से बारिश नहीं होती। वहां अक्सर ऐसा लगता है कि शायद इस बरस भी बारिश नहीं होगी। एक-एक कर सारे नक्षत्र निकलते जाते हैं और अचानक कोर्इ नक्षत्र ऐसा बरसता है कि सारी सम्भावनाएं ध्वस्त हो जाती हैं। लगता है कि बादल फट पड़ेंगे। अचानक आसमान काला-अंधेरा हो जाता है। फिर बादलों की गड़गड़ाहट, बिजली की चमक के साथ ऐसी भीषण बरसात होती कि लगे जल-थल बराबर हो जाएगा।
वैसे इधर-उधर से आते जाते लोगों से सूचना मिलती रहती कि पानी धीरे-धीरे फैल रहा है। लेकिन किसे पता था कि अनपरा, बीजपुर, म्योरपुर, बैढ़न, कोटा, बभनी, चपकी, बीजपुर तक पानी के विस्तार की सम्भावना होगी।
तब देश में कहां थी संचार क्रांति? कहां था सूचना का महाविस्फोट? तब कहां था मानवाधिकार आयोग? तब कहां थीं पर्यावरण-संरक्षण की अवधारणा? तब कहां थे सर्वेक्षण करते-कराते परजीवी एन जी ओ? तब कहां थे विस्थापितों को हक़ और न्याय दिलाते कानून?
नेहरू के करिश्मार्इ व्यक्तित्व का दौर था। देश में कांग्रेस का एकछत्र राज्य। नए-नए लोकतंत्र में बिना शिक्षित-दीक्षित हुए, ग़रीबी और भूख, बेकारी, बीमारी और अंधविश्वास से जूझते देश के अस्सी प्रतिशत ग्रामवासियों को मतदान का झुनझुना पकड़ा दिया गया। उनके उत्थान के लिए राजधानियों में एक से बढ़कर एक योजनाएं बन रही थीं। आत्म-प्रशंसा के शिलालेख लिखे जो रहे थे।
अंग्रजी राज से आतंकित भारतीय जनता ने नेहरू सरकार को पूरा अवसर दिया था कि वह स्वतंत्र भारत को स्वावलंबी और संप्रभुता सम्पन्न बनाने में मनचाहा निर्णय लें।
देश में लोकतंत्र तो था लेकिन बिना किसी सशक्त विपक्ष के।
इसीलिए एक ओर जहां बड़े-बड़े सार्वजनिक प्रतिष्ठान आकार ले रहे थे वहीं दूसरी तरफ बड़े पूंजीपतियों को पूंजी-निवेश का जुगाड़ मिल रहा था।
यानी नेहरू का समाजवादी और पूंजीवादी विकास के घालमेल का मॉडल।
आगे चलकर ऐसे कर्इ सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को बाद की सरकारों ने कतिपय कारणों से अपने चहेते पूंजीपतियों को कौड़ी के भाव बेचने का “ाडयंत्र किया।
पुराने लोग बताते हैं कि जहां आज बांध है वहां एक उन्नत नगर था। गहरवार राजा की रियासत थी। केवट लोग बताते हैं कि अभी भी उनके महल का गुम्बद दिखलार्इ पड़ता है।
गहरवार राजा भी होशियार नहीं थे। कहते हैं कि उनके पुरखों का गड़ा धन डूब गया है।
असल सिंगरौली तो बांध में समा चुकी है।
आज जिसे लोग सिंगरौली नाम से पुकारते हैं वह वास्तव में मोरवा है।
तभी तो जहां सिंगरौली का बस-स्टेंड है उसे स्थानीय लोग पंजरेह बाजार नाम से पुकारते हैं।
कल्लू के दादा से खूब गप्पें लड़ाया करता था यूनुस।
वे बताया करते कि जलमग्न-सिंगरौली रियासत में सभी धर्म-जाति के लोग बसते थे।
सिंगरौली रियासत धन-धान्य से परिपूर्ण थी।
तीज-त्योहार, हाट-बाज़ार और मेला-ठेला हुआ करता था। तब इस क्षेत्र में बड़ी खुशहाली थी। लोगों की आवश्यकताएं सीमित थीं। फिर कल्लू के दादा राजकपूर का एक गीत गुनगुनाते-’’जादा की लालच हमको नहीं, थोड़ा से गुजारा होता है।’’
मिजऱ्ापुर, बनारस, रीवा, सीधी और अम्बिकापुर से यहां के लोगों का सम्पर्क बना हुआ था।
यूनुस मुस्लिम था इसलिए एक बात वह विशेष तौर बताते कि सिंगरौली में मुहर्रम बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता था।
सभी लोग मिल-जुल कर ताजिया सजाते थे।
खूब ढोल-ताशे बजाए जाते।
तैंयक तक्कड़ धम्मक तक्कड़
सैंयक सक्कर सैंयक सक्कर
दूध मलीदा दूध मलिद्दा...
खिचड़ा बंटता, दूध-चीनी का शर्बत पिलाया जाता।
सिंगरौली के गहरवार राजा का भी मनौती ताजिया निकलता था। मुसलमानों के साथ हिन्दू भार्इ भी शहीदाने-कर्बला की याद में अपनी नंगी-छाती पर हथेली का प्रहार कर लयबद्ध मातम करते।
‘हस्सा-हुस्सैन....हस्सा-हुस्सैन’
कल्लू के दादा बताते कि उस मातम के कारण स्वयं उनकी छाती लहू-लुहान हो जाया करती थी। वह लाठी भांजने की कला के माहिर थे। ताजिया-मिलन और कर्बला ले जाने से पहले अच्छा अखाड़ा जमता था। सैकड़ों लोग आ जुटते थे। थके नहीं कि सबील-शर्बत पी लेते, खिचड़ा खा लेते। रेवड़ियोंं और इलाइची दाने का प्रसाद खाते-खाते अघा जाते थे।
यूनुस ने भी बचपन में एक बार दम-भर कर मातम किया था, जब वह अम्मा के साथ उमरिया का ताजिया देखने गया था। सलीम भार्इ तो ताजिया को मानता न था। उसके अनुसार ये जहालत की निशानी है। एक तरह का शिर्क (अल्लाह के अलावा किसी दूसरी ज़ात को पूजनीय बनाना) है। ख़ैर, ताजिया की प्रतीकात्मक पूजा ही तो करते हैं मुजाविर वगैरा...
यूनुस ने सोचा कि अगर लोग उस ताजिया को सिर झुका कर नमन करते हैं तो कहां मना करते हैं मुजाविर! उनका तो धन्धा चलना चाहिए। उनका र्इमान तो चढ़ौती में मिलने वाली रक़म, फ़ातिहा के लिए आर्इ सामग्री और लोगों की भावनाओं का व्यवसायिक उपयोग करना ही तो होता है। साल भर इस परब का वे बेसब्री से इंतज़ार करते हैं। हिन्दू-मुसलमान सभी मुहर्रम के ताजिए के लिए चंदा देते हैं।
उमरिया में तो एक से बढ़कर एक खूबसूरत ताजिया बनाए जाते हैं। लाखों की भीड़ जमा होती है। औरतों और मर्दों का हुजूम। खूब खेल-तमाशे हुआ करते हैं। जैसे-जैसे रात घिरती जाती है, मातम और मर्सिया का परब अपना रंग जमाता जाता है। कर्इ हिन्दू भार्इयों पर सवारी आती है। लोग अंगुलियों के बीच ब्लेड के टुकड़े दबा कर नंगी छातियों पर प्रहार करते हैं, जिससे जिस्म लहू-लुहान हो जाता है।
र्इरानी लोग जो चाकू-छूरी, चश्मा आदि की फेरी लगाकर बेचा करते हैं, उनका मातम देख तो दिल दहल जाता है। वे लोग लोहे की ज़जी़रों पर कांटे लगा कर अपने जिस्म पर प्रहार कर मातम करते हैं।
कुछ लोग शेर बनते हैं।
शेर का नाच यूनुस को बहुत पसंद आया था।
रंग-बिरंगी पन्नियों और काग़ज़ों की कतरनों से सुसज्जित ताजिया के नीचे से लोग पार होते। हिन्दू और मुस्लिम औरतें, बच्चे और आदमी सभी बड़ी अकीदत के साथ ताजिया के नीचे से निकलते। यूनुस ने देखा था कि एक जगह एक महिला ताजिया के सामने अपने बाल छितराए झूम रही है।
डूब में बसे कस्बे में मुहर्रम के मनाए जाने का कुछ ऐसा ही दृश्य कल्लू के दादा बताया करते थे।
लोगों का जीवन खुशहाल था।
रबी और खरीफ़ की अच्छी खेती हुआ करती थी।
उस इलाके की खुशहाली पर अचानक ग्रहण लग गया।
लोगों ने सुना कि अब ये इलाका जलमग्न हो जाएगा।
किसी ने उस बात पर विश्वास नहीं किया।
सरकारी मुनादी हुर्इ तो बड़े-बुजुर्गों ने बात को हंस कर भुला दिया। अभी तो देश आज़ाद हुआ है। अंग्रेज भी ऐसा काम न करते, जैसा आजाद भारत के कर्णधार करने वाले थे।
इस बात पर कौन यकीन कर सकता था कि गांव के गांव, घर-बार, कार्य-व्यापार, देव-स्थल, मस्जिदें, क़ब्रगाहें सब जलमग्न हो जाएंगी। और तो और गहरवार राजा का महल भी डूब जाएगा।
उत्तर-प्रदेश और मध्य-प्रदेश की सीमा पर बसा सिंगरौली क्षेत्र। उस क्षेत्र के लोगों की चिन्ता उत्तर-प्रदेश की सरकार को थी और न मध्य-प्रदेश की सरकार को।
रेणूकूट में बांध बन कर तैयार हो चुका था। धीरे-धीरे पानी का स्तर बढ़ रहा था। सरकारें खामोशी से डूब की प्रतीक्षा कर रही थीं। स्थानीय लोग ये मानने को मानसिक रूप से तैयार न थे कि अंग्रेजो ंके जाने के बाद एक ऐसा समय भी आएगा जब उन्हें अपने पूर्वजों की समाधियों को, अपने कुल-देवताओं को, अपनी जन्म-भूमि को छोड़ना पड़ेगा। अपनी मातृभूमि से उन्हें बेदखल होना पड़ेगा। विस्थापन का दंश झेलना पड़ेगा।
लोगों को कहां मालूम था कि देश के एक बड़े उद्योगपति बिड़ला की इच्छा है कि उन्हें एल्यूमिनियम बनाने का एशिया-प्रसिद्ध प्लांट यहीं डालना है, क्योंकि ये एक पिछड़ा इलाका है। यहां किसी तरह का राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होगा। किसी तरह की कोर्इ प्रशासनिक अड़चनों का सामना नहीं करना होगा। कम से कम लागत पर अत्यधिक लाभ का अवसर वहां था।
हवार्इ जहाज द्वारा इस इलाके की प्राकृतिक सम्पदा का आंकलन हो चुका था।
बिड़लाजी द्वारा लाखों एकड़ की वन-भूमि पर क़ब्ज़ा हो चुका था। प्लांट के लिए उपकरण आयात किए जा रहे थे।
आधुनिक युग के तीर्थ उद्योग-धन्धे होंगे, नेहरू का नया मुहावरा देश की फ़िज़ा में गूंज रहा था।
नेहरू की तिलस्मी छवि के लिए देश में कोर्इ चैलेंज न था।
गांधी-नेहरू मित्र बिड़लाजी को अपने भावी उद्योग के लिए चाहिए थी सस्ती ज़मीन, आयातित उपकरण और पर्याप्त मात्रा में बिजली।
बिजली के लिए ज़रूरी था पानी और कोयला।
पानी के लिए तो नेहरू बनवा ही रहे थे बांध और र्इंधन के लिए सिंगरौली क्षेत्र में था कोयले का अकूत भण्डार।
सिंगरौली क्षेत्र में है एशिया की सबसे मोटी कोयला परतों में से एक परत ‘झिंगुरदह सीम’। जो कि लगभग एक सौ पचास मीटर मोटी है।
झिंगुरदह खदान से कोयला ‘एरियल रोप-वे’ द्वारा बिड़लाजी के पावर प्लांट ‘रेणूसागर’ में आता। रेणूसागर में ताप-विद्युत तकनीकी से बिजली बनती जिसे सीधे रेणूकूट में स्थित एल्यूमिनियम कारखाने में
भेजा जाता था।
कोयला उद्योग का जब इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय-करण किया तभी से सिंगरौली कोयला क्षेत्र में सुव्यवस्थित कोयला उत्पादन की योजनाएं बनीं। बांध के इर्द-गिर्द मध्य-प्रदेश, उत्तर-प्रदेश की राज्य सरकारों ने और एनटीपीसी ने अपने ताप-विद्युत केंद्र स्थापित किए।
एक समय था जब दादा-पुरखे किसी को शाप देते तो यही कहते थे- ‘जा बैढ़न को...’
आज वही अभिशप्त बैढ़न नव-उद्यमियों, तकनीशियनों, पूंजीपतियों, पब्लिक स्कूलों, गैर सरकारी संगठनों, धार्मिक-आध्यात्मिक व्यवसायियों आदि के लिए स्वर्ग बना हुआ है।
एक से एक सर्वसुविधायुक्त नए-नए नगर स्ािापित हो रहे हैं। बैढ़न में ज़मीन की कीमतें आकाश छू रही हैं।
आज सिंगरौली एक ऊर्जा-तीर्थ के रूप में याद किया जाता है।
तीन
कल्लू के गांव के नीचे एक नाला बहता था। दर्रा-नाला। खदान से निकला पानी और कालोनी का निकासी पानी नाले में साल भर बहता। दर्रा-नाले के इर्द-गिर्द एक बस्ती आबाद हो गर्इ थी। यह ठेकेदारी मज़दूरो की बस्ती थी। इस आबादी का नाम सफेदपोश लोगों ने आजाद-नगर नाम दिया था।
आजाद-नगर नाम के अनुसार ये बस्ती भारतीय दंड विधान की धाराओं, उपधाराओं आदि पाबंदियों से आजाद थी। इस बस्ती को समस्त वर्ज्ानाओं से आजादी मिली हुर्इ थी। आजाद नगर में प्रचुरता से उपलब्ध था--शराब, शबाब, कबाब, जरायम-पेशा लोग, भूख-बीमारी-बेकारी और सट्टा-जुआ के अड्डे।
सभ्य-जन इधर का रूख न करते, वे उसे पाप-नगरी कहते। रावण की लंका और नर्क का द्वार कहते।
इस नर्क के निवासी थे तमाम मेहनतकश....
ये मेहनत-कश कार्ल-माक्र्स के देसी संस्करण वाले तमाम मजदूर संगठनों की निगाह से उपेक्षित थे। उनकी खुशहाली के लिए उन मज़दूर संगठनों के पास कोर्इ कार्यक्रम न था। उन लोगों के लिए कोर्इ मानवाधिकार आयोग न था। कोर्इ टाउन-प्लानिंग कमेटी न थी। कोर्इ अस्पताल, कोर्इ नर्सिंग होम न था। उनके लिए कोर्इ रिक्शा-स्टेंड या बस-अड्डा न था। उनके बच्चों के लिए कोर्इ स्कूल न था। उनके लिए किसी तरह की औपचारिक या अनौपचारिक शिक्षा की कोर्इ व्यवस्था न थी।
उनकी आध्यात्मिक उन्नति के लिए कोर्इ मौलवी, पंडित या पादरी न था।
उनमें ज्यादातर लोग कोयले के ढेर से पत्थर-शेल छांट कर अलग करने वाले मज़दूर थे। खदान चलाने के लिए भवन, नगर, सड़कें और विशालकाय वर्कशाप आदि निर्माण के काम में नियोजित सैकड़ों रेजा मजदूर और मिस्त्री। विद्युत, यांत्रिकीय, सिविल आदि काम के लिए कुशल-अकुशल ठेकेदारी कामगार। मेहनत-मशक्कत, नैन-मटक्का से लेकर गाने-बजाने तक में कुशल युवतियां।
आजाद नगर में कुछ छोटे-मोटे ठेकेदारों ने भी अपने आशियाने सजाए हुए थे।
पुलिस थाने के रिकार्ड में ये बस्ती तमाम अपराधों की जन्मदाता के नाम से मशहूर थी। इसलिए पुलिस यहां अक्सर दबिश करती और प्रकरण बनाया करती, लेकिन गलत काम पूरी तरह से बंद नहीं करवाती। लोग कहते कि यदि आजाद नगर सुधर गया या उजड़ गया तो फिर पुलिस विभाग की कमार्इ बंद हो जाएगी।
कल्लू आजाद नगर के उस हिस्से का नियमित ग्राहक था, जहां दारू और रूप का सौदा होता था।
ऐसे ही गप्प के दौरान यूनुस ने एक किशोरी के बारे में जानना चाहा, जो साइकिल पर दनदनाती फिरती है। लोग कहते हैं कि वह थानेदार और एक बड़े ठेकेदार की रखैल है।
कल्लू ने यूनुस की तरफ अविश्वास से देखा--’’का गुरू, तुम भी इस चक्कर में रहते हो?’’
यूनुस क्या जवाब देता-’’तो क्या, मैं आदमी नहीं हूं का?’’
बस, फिर क्या था।
कल्लू एक दिन यूनुस को आजाद नगर ले गया।
पहले तो यूनुस ने ना-नुकुर की। उसे डर था कि कहीं ये बात खालू या खाला तक न पहुंचे। उसकी गत बन जाएगी। यदि सनूबर उसकी ये हरकत जान गर्इ तो जिन्दगी भर माफ न करेगी। उसे कितना प्यार करती है सनूबर।
अरे, जब सनूबर की चचेरी बहन जमीला ने यूनुस को अपने हुस्न के जाल में फंसाना चाहा था तो सनूबर ने ही उसे बचाया था।
जमीला यूनुस से चार-पांच साल बड़ी होगी। वह विवाहित थी। उस समय उसके बच्चा न हुआ था। एकदम पके आम की तरह गदरार्इ हुर्इ थी।
जमीला मैके आर्इ तो खाला से मिलने चली आर्इ। जमीला का शौहर खाड़ी देश कमाने गया था। जमीला के पास पैसे तो इफ़रात थे। इसीलिए वह दिलखोल कर खर्च करती थी। ऐसे मेहमान किसे बुरे लग सकते हैं।
जमीला की खाला से खूब पटती। वे जब भी मिलतीं, जाने क्या बातें करके खूब हंसतीं, ज्यों बचपन की बिछड़ी पक्की सहेली हों।
जमीला की नाक में पड़ी सोने की लौंग में एक नग गड़ा था। रोशनी पड़ने पर वह खूब चमकता। उसकी चमक से जमीला की आंखें दमकने लगतीं। यूनुस जब भी जमीला की तरफ देखता, उसकी नाक की लौंग की चमक के तिलस्म में उलझ कर रह जाता।
शायद इस बात से जमीला वाकिफ़ थी।
यूनुस ने महसूस किया कि जमीला उसकी तरफ कुछ अधिक झुकाव रखती है। ऐसा पहले न था। अब शायद यूनुस किशोरास्था से जवानी की ओर तेज़ी से क़दम बढ़ा रहा था। काम-धंधा करने से उसके जिस्म में ग़ज़ब की कशिश आ गर्इ थी। था भी यूनुस पांच फिट सात इंच का गबरू जवान। हल्की-हल्की मूंछ और बाल संजय दत्त जैसे। यूनुस संजय दत्त का फैन था।
यूनुस नार्इट-शिफ्ट खटके घर लौटा तो घड़ी में सुबह के दस बज रहे थे। रात पाली में पेलोडर चलाने के बाद यदि गाड़ी में कुछ खराबी आ जाए तो उसे वर्कशॉप लाकर खड़ा करना होता था। फिर गाड़ी में जो भी ब्रेक-डाउन हो उसे मेकेनिक को बतलाकर मरम्मत करवाना रात-पाली के आपरेटर का काम था। वहां का सुपरवार्इज़र एक मद्रासी था। बहुत कानून बतियाता था। सो इस प्रक्रिया में देर तो हो ही जाती।
जब वह घर पहुंचा उस समय खालू ड्यूटी गए हुए थे। खाला कहीं पड़ोस में गपियाने गर्इ थीं। गोद के बच्चे छोड़कर पढ़ने वाले सभी बच्चे स्कूल जा चुके थे।
यूनुस ने दरवाजा ढकेला तो वह खुल गया।
सन्नाटा देख वह बैठकी में रखे तखत पर बैठ गया कि आहट सुनकर कोर्इ बोलेगा। हो सकता है कि खाला गुसलखाने में हों।
लेकिन कुछ देर तक कोर्इ खट-पट नहीं हुर्इ तो वह उठा। रसोर्इ से होकर आंगन की तरफ गया। आंगन में पानी की टंकी थी, जहां परिवार के मर्द या फिर बच्चे नहाते-धोते थे।
हाथ-मुंह धोने वह टंकी के पास जा पहुंचा।
अभी वहां पहुंच कहां पाया था कि उसने जो दृश्य देखा तो उसके होश उड़ गए।
जमीला टंकी के पीछे खड़े-खड़े नहा रही थी।
उसकी कमर से ऊपर का हिस्सा खुला हुआ था।
सांवला जवान जिस्म....
सांचे में ढला बदन.....
यूनुस उल्टे पांव भागना चाहा, लेकिन तभी उसकी नाक की लौंग का नग चमचमाने लगा। उसकी चमक से निकली किरनों की रस्सी से यूनुस के पांव बंध से गए थे।
आहट पाकर जमीला एकबारगी चौंकी, फिर खिलखिलाकर हंस पड़ी। उसने अपने जिस्म को छुपाया नहीं बल्कि दो मग पानी और जिस्म पर डाल लिया।
यूनुस के होश उड़ गए।
उसने जाना कि जमीला की हंसी में खुला आमंत्रण था।
जमीला एक चैलेंज की तरह उससे टकरार्इ थी।
घबराहट में यूनुस घर से निकल भागा, वह रूका नहीं।
वह तब तक न लौटा जब तक उसे विश्वास न हो गया कि अब घर में खाला और बच्चे आ गए होंगे।
दोपहर में जब वह आंगन में खटिया डाले धूप में सो रहा था, कि उसे लगा उसके ऊपर कोर्इ सोया हुआ है। वह जमीला थी, जो मौका पाकर यूनुस को छेड़ रही थी।
जमीला की छातियां उसकी छाती से आ लगी थीं।
यूनुस की सांस अटकने लगी।
जमीला के होंठ यूनुस के चेहरे पर अपना कमाल दिखाने लगे।
जमीला उसके कान में फुसफुसा कर गा रही थी-
‘‘धीरे धीरे प्यार को बढ़ाना है
हद से गुज़र जाना है....’’
क्या यूनुस को उस समय तक ‘हद से गुज़र जाने’ का मतलब पता चल पाया था?
ऐसा नहीं कि यूनुस कोर्इ संत था लेकिन वह उस समय सनूबर की आंखों की झील में डुबकियां लगा रहा था। सनूबर के पल्टे हुए होंठ जब मुस्कुराते तो जैसे यूनुस के जेब खनखनाने लगते थे। यूनुस एकाएक रर्इस आदमी में बदल जाता था।
उसे सनूबर छोड़ और कोर्इ दूसरी लड़की कैसे प्यारी होती ?
एक दिन उसने सनूबर से जमीला की हरकतों के बारे में बताया तो सनूबर खूब हंसी। उसने यूनुस को चिढ़ाया कि वह कैसा मर्द-बच्चा है। यहां तक कि सनूबर ने जमीला के साथ मिलकर उसकी हंसी भी उड़ार्इं थी।
यूनुस अपने प्यार के साथ बेवफार्इ नहीं करना चाहता था।
इस घटना के बाद उसने अपने लिए सनूबर के दिल में और ज्यादा जगह बना ली थी।
चार
यूनुस कोर्इ बाल-ब्रह्मचारी न था और न सदाचार के लिए कृत-संकल्पित युवक।
वह अपने आसपास के अन्य सैकड़ों किशोरों और युवाओं की तरह अपनी शारीरिक क्षमताओं और कमज़ारियों के प्रति आशंकित रहता था। उसके मन में सहज जिज्ञासा थी कि इंसान के जीवन का ये कैसा अध्याय है, जिसके प्रति सयाने-बुजुर्ग इतनी घृणा का प्रदर्शन करते हैं। क्या वे वाकर्इ इन गोपन-क्रियाओं के प्रति अनासक्त होते हैं? नहीं, बल्कि इस अनूठी-प्राकृतिक क्रिया में वे आकंठ डूबे होते हैं।
यूनुस एक ऐसे निम्न-मध्यम वर्गीय मुस्लिम परिवार में पैदा हुआ था, जहां दो कमरे में पूरी गृहस्थी समार्इ हुर्इ थी।
जहां माता-पिता के बीच प्रेम और घृणा प्रकट करने के लिए कोर्इ पृथक व्यवस्था न थी।
जहां हर दो-चार साल के अंतराल में एक संतान का जन्म लेना साधारण घटना थी।
जहां बड़े-बुजुर्ग, बच्चों के सामने मुहल्ले के लोगों से खुलकर हंसी-ठिठोली करते थे।
जहां स्त्रियां आपस में गोपन रहस्यों पर इशारतन बतिया कर अवर्णनीय आनंद उठाया करतीं।
इन ठिठोलियों में देवर-भौजार्इ के रिश्ते से उपजी अश्लील शब्दावली आम थी।
बच्चे जान जाते थे कि जब सड़ा केला-पिलपिला पपीता कहा जाता है तो उसका भावार्थ क्या होता है ?
जब गहरा कुंआ और छोटी रस्सी की बात करके बड़े हंस रहे हैं तो उसका अर्थ क्या हो सकता है?
जब खलबट्टा से मसाला कुटार्इ की बात होती है तो मार कहां होती है।
परिणामत: उन परिवारों की बेटियां असमय युवा होकर नैन-मटक्का करते-करते घर से भाग जाती है या फिर बिन-ब्याही मां बन जाती है।
उन परिवारों के लड़के बुआ-मौसी, चाची-काकी, अविवाहित दीदियों या फिर घरेलू नौकरानियों के संपर्क में आकर युवा अनुभवों का पाठ पढ़ते हैं।
इसीलिए यूनुस के, बचपन से जवानी तक के अध्याय निर्दोष न थे।
बीना कोयला खदान में काम के दौरान कल्लू यूनुस का अंतरंग मित्र बन गया।
कल्लू बाल-बच्चेदार किन्तु बहुत लापरवाह किस्म का युवक था। यूनुस ने उसकी बीवी को देखा था। वह मुटा कर भैंस हो गर्इ थी।
कल्लू की मौसी दिखती थी वो।
कल्लू के लिए तीन लड़कियां और एक लड़का जन चुकी थी वो।
अगर सारे बच्चे जिन्दा होते तो अब तक वह पांच बार मां बन चुकी थी। एक बार गर्भपात हुआ था। अब उसके जिस्म में रस न था। बच्चों को पाल ले, कल्लू को बस इतनी ही चाह थी उससे।
कल्लू इसीलिए इधर-उधर मुंह मारा करता।
कल्लू ने यूनुस को भी ‘स्वाद चखने’ का न्योता दिया।
वह कहा करता-’’तुम अपने अल्ला के पास जाओगे, तो अल्ला पूछेगा, धरती में क्या किया? जब तुम बताओगे कि न मैंने दारू पिया, न जेल गया, न रंडीबाजी की तो अल्ला बड़ी जोर से हंसेगा और दो किक मार कर इस दुनिया में दुबारा भेज देगा कि बच्चू जब कुछ किया ही नहीं फिर यहां कैसे आ गए।’’
इसी तरह की बातें करके वह यूनुस को तैयार करता।
और एक दिन यूनुस तैयार हो ही गया।
उसने कल्लू के प्रस्ताव को एक चैलेंज माना।
हालांकि उसका अंतर्मन इस बात के लिए तैयार न था।
कल्लू उसे आजाद नगर के उस हिस्से में ले गया जहां जिस्म-फरोशी होती थी।
झोंपड़ियों की कतारें। बीच में गली। ठेले पर चना, मूंगफली, नमकीन और अंडे की दुकानें। कुछ पान की गुमटियां। चाय-समोसे के लिए होटल एक झोपड़ी में।
माहौल में अजीब तरह की सड़ांध। जैसे कहीं कोर्इ जानवर मरा हो। हवा में हल्की सी नमी व्याप्त थी। बारिश का मौसम खत्म हुआ था और शरद का आगमन हो चुका था। सायंकालीन आकाश का रंग हल्का लाल, पीली और नीला था। सारे रंग धीरे-धीरे धुंधलाते जा रहे थे। लगता था कि जल्द ही आसमान पर सुरमर्इ रंगत छा जाएगी।
कामगार काम से छूटकर घर लौट रहे थे।
झोपड़ियों के दरवाज़े खुलने लगे थे।
मर्द घर के बाहर खाट डाल कर बैठने लगे थे। गांजा-चिलम का दौर शुरू हो रहा था। दारू पीने वाले मजदूर बन-ठन कर भट्टी की ओर जा रहे थे।
झोपड़ियों में अब चूल्हे सुलगाने का उपक्रम होने लगा। मज़दूर अमूमन काम से लौट आए थे। दर्रा नाले में नहाकर औरतें, मर्द और बच्चे लौट रहे थे।
दर्रा नाला एक बदनाम जगह का पर्याय बन चुका था।
लोग जानते थे कि यहां सुबह से शाम तक मजदूर स्त्री-पुरूषों के नहाने का कार्यक्रम निर्विध्न चला करता है।
बीना-वासी दर्रा-नाले को ‘वैतरणी’ का नाम देते या फिर उसे ‘राम तेरी गंगा मैली’ कहते। कॉलोनी के बदमाश लड़के स्कूल से भागकर दर्रा नाला के आसपास मंडराते रहते और छुप-छुप कर नहाती स्त्रियों को देखा करते।
यूनुस सहमा-सहमा आजाद-नगर के माहौल का जायज़ा ले रहा था। उसके मन में भय था कि कहीं खालू का कोर्इ साथी उसे यहां देख न ले, वरना शामत आ जाएगी।
वैसे भी यूनुस का खालू से छत्तीस का आंकड़ा था। खालू उसे फूटी आंख पसंद न करते।
कल्लू यूनुस का हाथ थामे एक झोंपड़ी के सामने रूका।
यह निचली छानी वाली एक मामूली सी झोपड़ी थी। बाहर परछी थी। परछी में एक खाट बिछी थी। कल्लू ने यूनुस को परछी में खाट पर बैठने का इशारा किया। फिर वह अंदर चला गया।
यूनुस खाट पर बैठा ही था कि दो नंग-धड़ंग बच्चे उसके पास चले आए-’’मालिक चना खाने को पैसा दो ना!’’
यूनुस ने उन्हें फटकारा।
वे टरे नहीं, ज़िद पर अड़े रहे।
तब तक कल्लू झोंपड़ी से बाहर निकला। उसने यूनुस को परेशान करते बच्चों की पीठ पर धौल जमार्इ। बच्चे तुरंत रफूचक्कर हो गए।
कल्लू ने यूनुस से फुसफुसाकर कहा-’’पहले तुम जाओ, समझे।’’
यूनुस क्या कहता, उसे तो अनुभव लेना था। उसने ‘हां’ में सिर हिला दिया।
उसके दिल की धड़कनें तेज़ हो चुकी थीं। उसने अपने सीने में हाथ रखा। दिल बड़ी तेज़ी से धड़क रहा था। माथे पर पसीना चुचुआने लगा था।
हिम्मत करके वह खटिया से उठा।
कल्लू उसकी जगह खाट पर बैठ गया।
यूनुस झिझकते-झिझकते झोपड़ी के दरवाज़े के पास जाकर खड़ा हुआ।
वह टीना-टपपर ठोंक-ठांक कर बनाया गया एक काम-चलाऊ दरवाजा था। उसने कल्लू की तरफ देखा।
कल्लू ने आंख के इशारे से बताया कि दरवाजा ठेलकर वह घुस जाए।
यूनुस ने दरवाजे को धक्का दिया। दरवाजा खुल गया।
अंदर लालटेन की मद्धम रोशनी थी।
वह अंदर पहुंचा तो उसने देखा कि कोने में एक चारपार्इ है और जमीन पर भी बिस्तर बिछा है।
जमीन के बिस्तर पर एक अधेड़ महिला बैठी है। ठीक उसकी खाला की उम्र की महिला। उसने सिर्फ लहंगा और ब्लाउज़ पहन रखा है। वह एक छोटे से आर्इने को एक हाथ से पकड़े अपने होठों पर लिपिस्टिक लगा रही है।
यूनुस को देखकर उसने उसे खटिया पर बैठने का इशारा किया।
यूनुस का मन वितृष्णा से भर उठा।
उसकी रंगत सांवली थी जो लालटेन की मद्धम रोशनी में काली नज़र आ रही थी।
महिला ने उसे एक बार फिर गौर से देखा और हंसी। यूनुस ने देखा कि उसके सामने के दो दांत टूटे हैं।
लालटेन की धुंधली रोशनी में उसका हंसता चेहरा किसी चुड़ैल की तरह नज़र आया।
यूनुस को उबकार्इ आने लगी।
अभी तक उसने कोठा देखा था तो सिर्फ सिनेमा में। जहां वेश्याओं का रोल नामी-गिरामी हीरोइनें किया करती हैं। रेखा, माधुरी दीक्षित, तब्बू, करिश्मा कपूर, रवीना आदि हीरोइनें जब वेश्याएं बनती हैं तों कितनी खूबसूरत दिखा करती हैं। एक से बढ़कर एक हीरो इन वेश्याओं के दीवाने होते हैं। अरे, ‘मंडी’ पिक्चर में भी वेश्याएं कितनी खूबसूरत थीं।
आजाद-नगर में तो सारा हिसाब ही उल्टा-पुल्टा है।
महिला यूनुस के पास आकर खाट पर बैठ गर्इ।
उसने ब्लाउज़ के बटन खोलते हुए कहा-’’लेट नहीं, जल्दी करो। जादा टैम नहीं लेना।’’
ब्लाउज़ के बटन खुले और..... यूनुस को काटो तो खून नहीं।
वह तब तक बेहद घबरा चुका था।
अभ्यस्त महिला जान गर्इ कि बालक नर्वस है। उसने यूनुस का हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचा।
यूनुस ने उसके हाथ की सख्ती महसूस की। वह एक खुरदुरा-पथरीला था।
यूनुस की रही-सही ताकत जवाब दे गर्इ।
उसने महिला से हाथ छुड़ाया और उठते हुए बस इतना ही कहा-’’थोड़ा बाहर से होकर आता हूं।’’
और बिना देर किए कमरे से बाहर निकल आया।
कल्लू ने सवालिया निगाहों से उसे देखा और इशारों में पूछा-’’हो गया!’’
यूनुस ने इशारे में बताया-’’हां!’’
फिर कल्लू अंदर घुसा तो यूनुस तत्काल उस आजाद-नगरी से नौ-दो ग्यारह हो गया।
उसके बाद उसने कल्लू की दोस्ती भी छोड़ दी थी।
पांच
चाय कब खत्म हुर्इ, वह जान न पाया।
एक रूपए की एक कप चाय वह पी चुका था और उसे उस चाय की तासीर का इल्म भी न हुआ।
यूनुस को सनूबर ‘चहेड़ी’ कहती।
खालू चाय के दुश्मन हैं। चाय को खालू ज़हर कहा करते। खाला चाय की बेहद शौकीन थीं। खाला के घर के अजीब हालात थे। खालू जिस चीज़ के खिलाफ़ होते, खाला उस काम को धड़ल्ले से करतीं। खालू बड़बड़ाते तो खाला तिरस्कार से हंसतीं।
यूनुस का मन उस एक कप चाय से न भरा।
उसने होटल वाली से एक और कप चाय के लिए कहा।
केतली में चाय बची थी।
महिला उसे कप में ढालने लगी तो यूनुस ने उसे टोका-’’ठंडा गर्इ होगी। तनि गरमा लेर्इ।’’
केतली की चाय को महिला ने भट्टी पर गरमाया।
फिर उसके लिए चाय कप में न ढाल कर कांच के गिलास में ढाली।
यूनुस ने देखा कि चाय की मात्रा एक कप से ज्यादा है।
गिलास देते वक्त यूनुस ने महसूस किया कि महिला ने अपनी अंगुलियों का स्पर्श होने दिया है। वह मुस्कुराया।
इस बार की चाय ने उसे तृप्त किया।
उसने सोचा अब सिंगरौली स्टेशन की ठंड उसका बाल बांका नहीं कर सकती।
चाय के पैसे देने लगा तो छुट्टा वापस करते हुए पूछा-’’कहां तक जाना है?’’
यूनुस क्या बताता। हर बार तो वह ऐसे ही निकल पड़ता है, बिना गंतव्य के बारे में जाने। इस बार भी वह एक अंधी छलांग लगा रहा है। हां, ये ज़रूर है कि ये छलांग बिना बैसाखी के वह लगाएगा। वह स्वयं दौड़ेगा। फिर निशान देख कर कूद पड़ेगा। अब कितनी दूर तक उसकी छलांग रहेगी ये तो वक्त बताएगा। उसे डर था कि कहीं रेफरी उसकी छलांग को ‘फाउल’ न करार दे दे।
छुट्टा जेब के रखते हुए उसने महिला के प्रश्न का सहज उत्तर दिया-’’कटनी!’’
सच भी है।
पहले तो उसे कटनी ही जाना है।
उसके बाद ही आगे की गाड़ी पकड़नी होगी।
वह वापस स्टेशन लौट आया।
प्लेटफार्म पर रनिंग-स्टाफ रूम के बाहर जलार्इ गर्इ आग के पास ही उसने खड़ा होना उचित समझा।
स्टाफ अब बतिया नहीं रहे थे। लगता है गप्पें मारते-मारते वे थक गए होंगे। अब वे ऊंघ रहे थे। उनके नीले ओवरकोट फर्श पर लिथड़ा रहे थे। उन्हें नींद सता रही थी।
यूनुस एक पेटी पर बैठ गया, जिसके सार्इड में लिखा था-’’ए बी दास, गार्ड’
आंच में अब जान नहीं थी।
नया कोयला डालने पर ही कुछ ताप बढ़ता।
यूनुस ने स्वेटर के ऊपर विन्ड-शीटर पहन रखा था।
घर से निकला तब रात के नौ बजे थे। वातावरण काफी ठंडा हो गया था।
उसे हाथ और कानों में अधिक ठंड लगती थी।
बीना से औड़ी-मोड़ तक तो वह बस से आ गया। फिर औड़ी-मोड़ में उसे अगले साधन के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ी। सिंगरौली के लिए बनारस से बस आती है।
औड़ी-मोड़ इस इलाके की सबसे ठंडी जगह है।
उसे बस का बेसब्री से इंतजार था। वह चाहता था कि जल्दी से जल्दी खालू की पहुंच से दूर निकल जाए। कहीं उनका कोर्इ साथी उसे यहां सफर करते रंगे-हाथ पकड़ न ले।
इसीलिए वह आर टी ओ चेक-पोस्ट के पास जाकर खड़ा हो गया। यहां बस रूकती है।
बस आर्इ तो उसे कुछ राहत मिली।
यह उत्तर-प्रदेश राज्य परिवहन निगम की बस थी।
लगता है राबर्टसगंज डीपो की बस थी। तभी तो एकदम खड़खड़ा रही थी।
बस अंदर ठंड से बचने का सवाल न था। खिड़कियों के शीशे गायब थे। जिन खिड़कियों में शीशे थे भी तो वे ढंग से बंद न होते। पूरे बस में ठंडी हवा के तीर चल रहे थे।
यूनुस के हाथ और कान ठंडाने लगे और उसे सनूबर की याद हो आर्इ।
उसने तत्काल अपने विंड-शीटर के जेब की तलाशी ली।
वाकर्इ, सनूबर के दिल में उसके लिए एक कोना सुरक्षित है। वह अपना कर्तव्य भूली न थी। विंड-शीटर के एक जेब में सनूबर के हाथों से बुना दस्ताना था, और दूसरे में मफ़लर।
उसने दास्ताने पहने और जब मफलर से कान लपेटे तो लगा कि सनूबर अदृश्य रूप में उसकी सहयात्री है।
यूनुस भाग रहा था।
वह भाग रहा था, बहुत कुछ पाने के लिए और खो रहा था सनूबर का साथ।
वाकर्इ सनूबर है कि वह जिन्दा है। उसने ही यूनुस के दिल में ज़िन्दगी के चैलेंज को स्वीकार करने की इच्छा जगार्इ है।
सनूबर ने ही उसकी अंतरात्मा को ललकारा था कि यूनुस जागो! दुनिया में कुछ कर दिखाना है तो समाज में पहले अपनी ‘कुछ हटके’ पहचान बनाओ!
वरना एक समय तो वह इतना हताश हो गया था कि उसे जीवन से मोह नहीं रह गया था। उसे ऐसा लगता था कि इतनी कम उम्र में इतने अपमान, इतने दुख उठाने से अच्छा है कि वह आत्महत्या कर ले।
वह दोस्तों के बीच और कभी-कभी खाला के सामने अक्सर कहता भी था कि जी करता है मर जाऊं तो मुक्ति मिले।
मुक्ति...
लेकिन किससे ?
जीवन से या कि दिन-प्रतिदिन के उलाहनों-तानों से ?
लेकिन जीवन उसे सनूबर के रूप में अपने पास बुलाता-’’तुम मेरे हो। तुम्हें मेरी खातिर जीवित रहना है।’’
जाने कैसे सनूबर इतनी संजीदा बातें बोलना सीख गर्इ है।
स्कूल जाती है न!
सहेलियों के बीच उठती-बैठती है।
घर में ‘ब्लेक एण्ड व्हाइट’ टीवी है। उसका चैनल बदल-बदल कर हिन्दी फिल्मों और धारावाहिकों से यही सब तो सीखते हैं कॉलोनी के बच्चे।
एक और डायलाग जो यूनुस को अच्छा लगता-’’मैें तुम्हारा इंतेज़ार करूंगी! तुम्हें मेरी खातिर आना होगा यूनुस...’’
वो मुहम्मद रफ़ी का एक गाना है ना-
‘‘हम इंतेज़ार करेंगें तिरा क़यामत तक
खुदा करे कि क़यामत हो और तू आए।’’
सनूबर की आंखें बड़ी-बड़ी हैं।
जब वह भावनाओं कि बहाव में डूब-उतरा रही हों तब आंखें अधखुली रहतीं।
खोर्इ-खोर्इ सी, शून्य में ताकती आंखें।
सनूबर अभी कक्षा आठ की छात्रा ही तो है।
चौदह साल की उम्र में इतनी बड़ी बात...
‘मेरी खातिर’ और ‘मैं तुम्हारा इंतेज़ार करूंगी!’
प्रेमातिरेक में डूबी भावुक बातें!
सनूबर कर्इ बातों में अपने खानदान से कुछ हट के नज़र आती।
गोरी-चिट्टी सनूबर वाकर्इ अपने भार्इ-बहनों के बीच अलग दीखती। उसके नैन-नक्श अपनी मां पर हैं। गोलाकार चेहरा, संतुलित बनावट, माथा कम चौड़ा और लम्बे बाल।
खालू की परछार्इं भी नहीं पड़ी ज़रा सी।
यदि वह खालू या उनके खानदान के किसी का साया पड़ा होता तो उसकी बड़ी-बड़ी आंखों की जगह अंदर की ओर धंसी हुर्इ गोल कटोरियां होतीं।
पतले होंठों की जगह खालू की तरह मोटे और ऊपर की तरफ़ पल्टे हुए बेढंगे से होंठ होते।
सनूबर खाला-खालू की पहली संतान थी।
खालू भारतीय सेना की नौकरी पर थे तब सनूबर का जन्म हुआ था।
सैनिकों के बीच वयस्क मज़ाक हुआ करते। यदि सैनिक यूपी-बिहार का है और उसके बाप बनने की ख़बर आती तो हल्ला होता कि फलॉं ने अपना लंगोट गांव भेज दिया था, सो बच्चा हो गया है।
यदि वह इन दोनों प्रांत छोड़ किसी अन्य प्रांत का है तब कहा जाता कि सैनिक को ‘पत्र-पुत्र‘ की प्राप्ति हुर्इ है।
यानी घर से पत्र द्वारा सूचना आना कि फलां सैनिक बाप बन गया है।
खालू तब राजस्थान बार्डर पर थे, जब उन्हें पत्र द्वारा सूचना मिली कि वे पहली संतान के पिता बन गए हैं।
लेकिन ये बात खालू बखूबी जानते थे कि सनूबर के रूप में ‘पत्र-पुत्री’ ही तो मिली है।
यूनुस को इन सबसे क्या? वह जानता था कि सनूबर एक अच्छी लड़की है। देखने-सुनने में ठीक है। पढ़-लिख रही है। घर का काम-काज ठीक-ठाक निपटा लेती है। कु़रआन पाक की तिलावत कर लेती है। रमज़ान माह में उन ख़ास दिनों के अलावा बाकी के रोज़े पूरे रखती है। नमाज़ यदा-कदा पढ़ लेती है।
रिश्ते में सनूबर और यूनुस भार्इ-बहिन थे।
ख़ालाज़ाद भार्इ-बहिन!
यूनुस ये भी जानता था कि इस्लामी-समाज में ये रिश्ता प्रेम या शादी के लिए बाधक नहीं!
छ:
यूनुस ने अपनी अम्मा के मुंह से खाला के बारे में कर्इ बातें सुनी हैं।
खाला तब तेरह बरस की थीं, जब उनका ब्याह हुआ था।
यूनुस की अम्मा खाला से दो-तीन साल बड़ी थीं।
यूनुस का ननिहाल बेहद ग़रीबी में अपने दिन काटा करता था। असुविधाओं और घोर अभावों के बीच खाला और अम्मा पली-बढ़ीं।
उनके पिता मूलत: चरवाहा थे।
अपने गांव और आस-पास के एक-दो गांव-वालों की बकरियां चराते थे।
यूनुस के नाना का नाम था जहूर मियां।
पतली-दुबली काया, हाथ-पैर किसी पेड़ की टहनी जैसे टेढ़े-मेढ़े, पिचके गालों पर झुर्रियां, ठुड्डी पर थोड़े से काले-सफेद बाल, मूंछें सफाचट, और गंजे सिर पर लपेटा गया गमछा। वह गमछा हमेशा उनके साथ रहता। बदन पर वह एक लट्ठे के कपड़े की बंडी और नीचे चौखाने वाला तहमद पहनते। जहूर मियां के कपड़े सप्ताह में दो बार धुलते।
खाला का नाम सकीना था।
यूनुस की अम्मा का नाम अमीना।
अम्मा बताती हैं कि खाला बचपन से ही बड़ी झगड़ालू थीं। वह गांव के लड़कों को पीट दिया करती थीं। लड़के उनसे सीधा-सीधा लड़ने से घबराते। बोलते ये सकीना मुसल्ली बड़ी बदमाश है। उससे निपटना हो तो उस पर चोरी से वार करो। लड़के मंसूबे बनाते रह जाते और अक्सर पिट जाते।
ऐसी दुष्ट लड़की थीं खाला।
सलवार-कुर्ता साल में एक बार बनता, र्इद के मौके पर। एक जोड़ी कपड़ा पिछले साल का और एक नए साल का। बस यही दो जोड़ी कपड़े हुआ करते थे। हां, दो बहनों के नए-पुराने कपड़ों को अगर एक कर दिया जाए तो इस तरह चार जोड़ी कपड़े हो जाते थे। नहाने-धोने के लिए पिता का तहमद बदन लपेटने के काम आ जाता।
गांव में तीन कुंए थे। एक तो बामनों का था। एक कुर्मियों का और तीसरे कुंए का पानी मुसलमान और छोटी जाति के लोग इस्तेमाल करते। फिर प्राथमिक विद्यालय के प्रांगण में एक हेंड-पम्प भी लग गया था।
पीने का पानी कुंए से आता और नहाने-धोने के लिए वे गांव के बाहर से बहने वाली पहाड़ी नदी जाया करते थे। जहां आराम से खाला और अम्मा अपनी सहेलियों के संग नहाया करतीं।
यूनुस की नानी बीमार रहा करतीं। उन्हें खून की उल्टियां होतीं। गांव मे टीबी जैसी बीमारी का नाम लोग मुंह में न लाते। भूत-जिन्न-चुड़ैल के प्रकोप ही सारी बीमारियों के कारण हुआ करते। सयाने हर विपत्ति का हल गंडे-तावीज़, तंत्र-मंत्र और रिद्धि-सिद्धि के ज़रिए करते। गांव में जगह-जगह देवताओं के चौतरे बने थे।
पिता जहूर मियां जड़ी-बूटियों के स्वयंभू विशेषज्ञ थे। जंगल में बकरियां चराते-चराते उन्हें न जाने कितनी जड़ी-बूटियों की जानकारी हो गर्इ थी। वह सांप-बिच्छी काटने का मंत्र भी जानते थे। अपनी पत्नी के इलाज के लिए वह अजीबो-गरीब जड़ियां घर लाते। उन्हें स्वयं कूटते-छानते। उनका अर्क निकालते और पत्नी का इलाज करते।
जुमा की नमाज़ पढ़ने कस्बे जाते तो बड़े हाफिज्जी से मिन्नतें करके पत्नी के लिए तावीज़ ले आते। इन सब टोने-टोटकों के कारण या फिर आयु-रेखा के कारण मां की तबीयत कभी नरम होती कभी गरम। वह असमय मर गर्इं।
कहने को तो मां ने पांच बच्चे जने, लेकिन बचे सिर्फ तीन ही।
यूनुस की अम्मा बतातीं-’’अम्मा जादे दिन नहीं जिंदा रहीं। नहीं तो हम लोग ऐसे यतीम न होते।’’
यूनुस के एकमात्र मामा गंजेड़ी-शराबी निकल गए।
अपने आंगन में गांजा के पौधे रोपने के अपराध में जेल भी काट आए हैं। उन्होंने विधिवत शादी-ब्याह किया नहीं। गांव की एक केवटिन को संग रखे हैं, सो उनसे बहनों ने रिश्ता तोड़ लिया है। जात-बिरादरी से उन्हें ‘बैकाट’ कर दिया गया है। कहते हैं केवटिन के पहले मर्द से हुए बच्चों को वही पालते हैं। उनके घर में मुसलमानों का कोर्इ परब-त्योहार नहीं मनाया जाता। हां, दीवाली, होली, खुजलर्इयां, रामनवमी आदि परब मनाए जाते हैं।
यूनुस के नाना जहूर मियां के मरने के बाद यूनुस की अम्मा और खाला एक बार उनके चहल्लुम के अवसर पर गांव गर्इ थीं।
तब मामा और उस केवटिन मामी ने उनकी खिदमत तो दूर यूनुस के अब्बा और खालू की भी कोर्इ आव-भगत न की। खालू वैसे भी क्रोधी स्वभाव के व्यक्ति ठहरे। मिलिटरी के सैनिक। इतना गुस्साए कि खाला को तलाक देने की धमकी तक दे डाली। वो तो अब्बा के एक दोस्त बगल के गांव में रहते थे। वह मिल गए और खालू को अब्बा वहीं ले गए। तब जाकर कहीं उनका गुस्सा ठंडाया था। फिर भी उन्होंने जीते जी उस गली में दुबारा क़दम न रखने की क़सम खा ही ली थी। किसी तरह चहल्लुम की फातिहा कराकर वे लोग जो वहां से लौटे तो फिर दुबारा उधर का रूख न किया।
मामा मरे चाहे चूल्हे में जाए।
यूनुस की अम्मा की शादी कोतमा में हुर्इ। यूनुस के अब्बा तब घूम-घूम कर अखबार बेचा करते थे। जहूर मियां को बड़े हाफिज्जी ने इस रिश्ते की जानकारी दी थी। बताया था कि लड़का यतीम ज़रूर है किन्तु पढ़ा-लिखा है। उसमें कोर्इ ऐब नहीं। न कहो कभी बीड़ी पी लेता है। हां, खुद्दार है। स्वयं कमाता है। वहीं मदरसे में पला-बढ़ा है।
फिर बड़े हाफिज्जी ने मश्विरा दिया-’’तुम कहो तो वहां के इमाम से इस मंसूब के लिए बात करूं। अल्लाह चाहेगा तो बात बन भी सकती है।’’
नाना ने हामी भर दी।
और इस तरह बात पक्की हुर्इ और फिर उनका निकाह भी हो गया।
शादी के बाद पुरूष की किस्मत बदलती है।
यह बात अब्बा पर भी चरितार्थ हुर्इ।
उन्हें सिंचार्इ विभाग में अस्थार्इ चपरासी की नौकरी मिली।
उनमें पढ़ने की लगन तो थी ही।
प्रार्इवेट तौर पर हार्इ-स्कूल की परीक्षा में बैठे।
उस साल परीक्षा केंद्र में जम कर नकल हुर्इ।
अब्बा पास हो गए और इस पढ़ार्इ के बदौलत वहीं तरक्की पाकर बाबू बन गए।
‘डिस्पेच-क्लर्क’।
ठेकेदार के मुंशी वगैरा आते और चिट्ठी-पत्री पाने के लिए खर्चा करते।
इससे थोड़ी बहुत ऊपरी आमदनी भी हो जाती थी।
राज्य-सरकार की नौकरी में वैसे भी तनख्वाह काफी कम थी।
कहते हैं कि अम्मा की शादी के बाद खाला भी पिता जहूर मियां को अकेला छोड़कर कोतमा अपनी बड़ी बहिन के ससुराल आ गर्इं।
शायद इसीलिए अब्बा मूड में रहते हैं तो कहते हैं कि एक ठो साली के अलावा मुझे दहेज में कहां कुछ मिला। ठग लिया ससुरे ने।
यूनुस ने अपनी अम्मा के मुंह से सुना कि खाला रोया करतीं और अल्लाह से दुआ मांगती कि अल्लाह मियां, या तो हमें अपने पास बुला लो या फिर हमरा निकाह करवा दो।
अब्बा और अम्मा के प्रयासों से पास के गांव की विधवा के इकलौते बेटे से खाला का निकाह हुआ।
खालू फौज में नौकरी करते थे।
खालू की अंधी-बूढ़ी विधवा मां कतर्इ नहीं चाहती थी कि उनका लख़्ते-जिगर, नूरे-नज़र, कुलदीपक पुत्र फौज में भरती होकर जान जोखिम में डाले।
इसीलिए खालू ने अपनी मां से चोरी-छिपे भरती-अभियान में भाग लिया।
कद-काठी तो ठीक थी ही।
गांव का खेला-खाया जिस्म।
उनका चयन कर लिया गया था।
वे जानते थे कि मां राज़ी न होंगी, सो उनसे बिना बताए नौकरी ज्वाइन कर ली।
जब टे्रनिंग के लिए बुलावा आया तो मां को पता चला।
बेटे की ज़िद के आगे मां झुकी।
बूढ़ी विधवा ने बेटे को घर से बांधने के लिए युक्ति सोची। लगी अपने चांद से बेटे के लिए कोर्इ हूर-परी सी बहू।
इधर-उधर बात चलार्इ।
फिर जहूर मियां के बेटी के बारे यूनुस के अब्बा से जानकारी मिली तो जैसे उनकी मन की मुराद पूरी हुर्इ।
सोचा गरीब घर की लड़की है। दिखावा न करेगी और बेटे की गृहस्थी की गाड़ी को ढंग से खींच ले जाएगी।
सो उन्होंने हामी भर दी।
खाला की उम्र तब तेरह-चौदह की होगी और खालू की चौबीस-पच्चीस।
वैसे क़ायदे से देखा जाए तो जोड़ी बेमेल थी।
लेकिन गांव-गिरांव की लड़कियां अल्पायु में ही वैवाहिक जीवन की बारीकियां जान-समझ जाती हैं।
अरहर के खेत, नदी-नाले के घाट, पनघट-पगडंडी आदि में वे यौन-क्रियाओं के गूढ़ सबक सीख जाती हैं।
बकरियां चराते-चराते खाला भी कुछ ज्यादा उच्छृंखल हो चुकी थीं।
कहते हैं कि उनके कर्इ आशिक थे।
वह बहुत होशियार थीं।
लार्इन सभी को देती थीं, किन्तु एक सीमा तक......बस्स!
हां, ममदू पहलवान की विनय के आगे उनकी एक न चलती, खाला इस तरह पिघलतीं, जैसे आग के आगे बर्फ।
विवाह के बाद खालू कुछ दिन गांव में रहे।
खाला के तब दिन दशहरा और रात दीवाली हुआ करती थी।
फिर जैसे ही छुट्टियां खत्म हुर्इं, खाला की आंखों में आंसू देकर खालू फौज में वापस लौट गए। उन्होंने सुहागरात में खाला से कर्इ वादे करवाए।
जैसे कि उनकी विधवा मां की देखभाल के लिए उन्होंने विवाह किया है, इसलिए उनकी देखभाल में कोर्इ चूक न हो।
जैसे कि वे घर में अकेले हैं, गांव में तमाम खेती योग्य भूमि है, उसे इस्तेमाल लायक बनाया जाए ताकि फौज से रिटायरमेंट लेकर जब वह लौटें, तब आराम से खेती-किसानी करके दिन गुजारे जाएंगे।
जैसे खालू को अपनी और घर की इज़्ज़्ात से प्यार है, खाला से ऐसा कोर्इ क़दम न उठे, जिससे इस घर की मर्यादा पर बट्टा लगे।
खाला प्रेम के पींगे झूलती हर बात पर ‘हां’ कह देतीं।
उन्हें क्या मालूम था कि वादा करना आसान है और उसे निभाना कितना कठिन होता है।
खालू के फौज में वापस लौटते ही उनका मन ससुराल में न लगा।
बूढ़ी अंधी सास बड़ा हुज्जत करती।
बात-बात पर टोकती।
वैसे भी खाला एक आजाद पंछी की तरह अपने मैके में पली-बढ़ी थीं। उन्हें किसी का अंकुश या लगाम कहां बर्दाश्त होता।
सास की कल-कल से तंग आकर एक दिन वे अपने मैके चली गर्इं।
खालू की अनुपस्थिति में उनके अधिकतर दिन मैके में ही गुज़रे। विवाह हो जाने के बाद ममदू पहलवान से उनका इश्क अब बेधड़क चल निकला। उनके प्रेम की गाड़ी पटरी या बिना पटरी के भी धकाधक दौड़ने लगी।
सात
खालू जब तक बाहर रहते, खाला ज्यादातर अपने मैके में रहती थीं।
खालू के गांव में पीने का पानी की तकलीफ़ थी। निस्तार के लिए तो गांव के बाहर तालाब मे लोग पहुंचते थे। गांव के बड़े गृहस्थ पटेल के घर एक कुंआ था। उसमे साल भर पानी रहता। खालू की फौज की कमार्इ से खालू की वृद्धा मां ने एक कुंआ खुदवाया था, जिसमें जेठ महीना छोड़ साल भर पानी रहता था। बुढ़िया ने सोचा था कि बहू आएगी तो उसे आराम रहेगा।
लेकिन बहू को कहां थी सास की चिंता।
वह तो सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए जिंदा थी।
खालू छुट्टियों पर आते तो एक-दो दिन गांव में रहते, फिर उनका मन उचट जाता। फौज में परिवार की कमी तो खलती है, वरना फौज जैसा सुख और कहां?
खालू किसी न किसी बहाने बूढ़ी मां को मना कर अपने ससुराल चले जाते। वहां जाकर खाला के मोहपाश में ऐसा बंधते कि फिर उन्हें दीन-दुनिया का होश न रहता। वे ये भी भूल जाते कि उन्हें फौज में वापस भी जाना है।
खाला के रेशमी रूप का जादू और समर्पण की पेशेवराना अदा का मर्म खालू कहां समझ सकते थे। अकाल-ग्रस्त आदमी भूख की शिद्दत मे कहां तय कर पाता है कि दिया गया खाना जूठा है या बासी। वह तो ताबड़-तोड़ पेट की आग बुझाने में जुट जाता है।
खालू की बूढ़ी मां इसी ग़म में असमय मर गर्इं कि उस रंडी, छिनाल बहुरिया ने उसके बेटे पर जाने कैसा जादू कर दिया है। उसके इकलौते बेटे पर उस जादूगरनी ने ऐसा टोना किया कि वह अपनी बूढ़ी मां को एकदम भूल गया।
सनूबर का जन्म उसके ननिहाल में हुआ।
कर्इ दिन बाद बूढ़ी सास को सूचना मिली कि वह दादी बन गर्इ हैं।
उनकी बहू ने एक लड़की पैदा की है। ये खबर पाकर बुढ़िया ने अपना माथा पीट लिया था।
फिर भी लोक-मर्यादा का लिहाज कर रिश्ते के एक भतीजे को साथ लेकर वह बहू के मैके गर्इं।
खाला छठी नहा चुकी थीं।
वे आंगन में खाट पर बैठी सनूबर के बदन की मालिश कर रही थीं।
बुढ़िया सास को देख उनका माथा ठनका।
फिर भी उन्होंने सलाम किया और दोनों को पैरा से बने मोढ़े पर बिठाया।
घर में उनके भार्इ न थे। केवटिन भाभी भर थी।
खाला ने उन्हें आवाज़ लगार्इ।
खालू की बुढ़िया मां ने उन्हें किसी को बुलाने से मना कर दिया।
वैसे भी उस घर में वे खाना-पानी नहीं पी सकती थीं, क्योंकि खाला के भार्इ ने एक कुजात को अपनी ब्याहता बनाकर रखा है।
बस उन्होंने इतना ही कहा कि एक बार नवजात बच्ची को प्यार करेंगी और फिर चली जाएंगी। हां, यदि यहां कोर्इ तकलीफ हो तो बहू भी चाहे तो साथ चल सकती है।
सनूबर अपनी दादी की गोद में आकर खेलने लगी।
दादी ने अपने भतीजे से पूछा-’’किस पर गर्इ है बच्ची?’’
भतीजा कैसे निर्णय लेता कि बच्ची किस पर गर्इ है।
उसे तो बच्ची सिर्फ रूर्इ का गोला लग रही थी।
हां, फिर भी उसने उस बच्ची के चेहरे की कुछ विशेषता बुढ़िया को बताने लगा।
तभी घर में ममदू पहलवान आ गया।
भतीजे ने जो ममदू पहलवान को देखा तो उसे ऐसा लगा कि जैसे बच्ची का चेहरे की बनावट कहीं उस पहलवान से तो नहीं मिलती है?
भतीजा अभी नादान था।
उसने ऐसे ही कह दिया कि इन चचा जैसी तो दिखती है ये लड़की।
खाला के चेहरे का रंग उड़ गया।
ममदू पहलवान के तो जैसे पैरों तले ज़मीन निकल गर्इ।
भतीजे को क्या पता था कि उसने क्या कह दिया?
बस, फिर क्या था। बुढ़िया सास ने अपने अंधेपन को कोसा और भतीजे से कहा कि तत्काल वापस चले।
उन्होंने वहीं अपनी बहू को खूब खरी-खोटी सुनार्इ।
बेटे को सारी बात बताने का संकल्प लिया।
वह इतना नाराज़ न होतीं यदि उनकी छिनाल बहू ने पोता जना होता या उस नवजात शिशु के नैन-नक्श ददिहाल या ननिहाल किसी पर होते।
बुढ़िया मां हमेशा ताने दिया करतीं कि उसके बेटे के साथ उस चुड़ैल बहू ने छल किया है। वह बदचलन है। वह बेवा बिचारी क्या करें, उस चुड़ैल ने तो उनके बेटे पर जादू किया हुआ है। उसके गबरू जवान बेटे को नज़रबंद करके रखा हुआ है।
लेकिन ये भी सच है कि खालू को इतनी संतानों का पिता कहलाने का गौरव खाला ही ने तो उपलब्ध कराया है।
इसी बात पर वह अपनी सास को प्रताड़ित किया करतीे-’’अगर तुम्हारे बिटवा जैसे मउगे-फउजी के भरोसे रहती तो इस खानदान में र्इंटा-पथरा भी न हुआ होता। फिर देखते कैसे चलता तेरा वंश!’’
फौज का खाया-पिया जिस्म खाला के आगे बौना हो जाता।
नतीजतन खालू जिस बच्चे को सामने पाते, पीट डालते।
यूनुस सब जानता समझता था। वह ये भी जानता था कि दुधारू गाय की लात भी प्यारी होती है। खाला जो खालू की चोरी और कभी सीनाजोरी में अपने गरीब खानदान वालों की माली मदद करती हैं, उसके आगे लोग उनके गुनाह नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
इसी तरह खाला सभी की कोर्इ न कोर्इ मजबूरी जानती। उनसे जुड़े तमाम लोग उनके एहसानों के बोझ तले दबे हुए हैं।
खालू को खाला एक पालतू जानवर बना कर रखतीं।
खालू जब कभी गुस्साते तो बच्चों को मारते-पीटते। खाने की थाली पटकते। तमतमाए खालू घर से निकल जाते। लेकिन उनका गुस्सा ज्यादा देर तक टिकता नहीं। जल्द ही वह खाला की लल्लो-चप्पो करने लगते।
आठ
ऐसी बात नहीं है कि खालू की बूढ़ी मां कलकलहिन थी या कि खाला पर कोर्इ झूठा इल्ज़ाम लगाया गया था।
यूनुस को भी खाला की ग़ैर-ज़रूरी चंचलता पसंद न आती। उसे लगता कि एक उम्र के बाद इंसान को गम्भीर हो जाना चाहिए।
खाला जब गैर मर्दों से ठिठोलियां करतीं तो यूनुस का दिमाग खराब हो जाता।
यूनुस अक्सर खाला की दिनचर्या के बारे में सोचा करता। खाला ज़माने से बेपरवाह सिर्फ अपनी ही धुन में लगी रहतीं। लगता उन्हें किसी प्रकार की कोर्इ चिन्ता ही न हो। सिर्फ अपने लिए जीना...
सुबह उठते ही सबसे पहले खाला आर्इने के सामने आ खड़ी होतीं।
होंठ पर बह आए लार और आंख की कीचड़ गमछे के कोर साफ करतीं।
अपने बिखरे बालों को संवारतीं।
चेहरे को कर्इ कोणों से देखतीं।
फिर आंगन में जाकर टंकी के पानी से कुल्ला करतीं और चेहरे पर पानी के छींटें मारकर तौलिए से रगड़कर चेहरा साफ करतीं।
उसके बाद टूथ-ब्रश में ढेर सारा पेस्ट लगाकर बाहर आंगन में आ जातीं। टूथ-पेस्ट खालू मिलेटरी कैंटीन से लाया करते थे।
बाहर फाटक के पास खड़े होकर अड़ोस-पड़ोस की झाड़ू बुहारती औरतों से गप्प का पहला दौर चलातीं। जिसमें बीती रात के मनगढ़ंत अनुभवों पर दांत निपोरा जाता। पेस्ट से उत्पन्न झाग क्यारी में थूकते हुए खाला तेज़ आवाज़ में हंसतीं।
खाला का सीना और कूल्हे भारी हैं।
बिना अंतर्वस्त्रों के मैक्सी के लबादे में उनके जिस्म के उभार-उतार स्पष्ट दीखते।
खाला का मैक्सी पहनना यूनुस को फूटी आंख न भाता। वैसे भी उनका जिस्म किसी ढोल के आकार का था। ऐसे जिस्म पर सलवार-कुर्ता या फिर साड़ी ठीक रहती। मैक्सी वैसे तो तन ढांपने का विकल्प होता है। ठीक है कि उसे रात में सोते समय पहना जाए या फिर घर के काम-काज करते हुए जिस्म पर डाल ले इंसान। किसी पराए मर्द के सामने या फिर घर से बाहर निकलने की दशा में इंसान को शालीन पोशाक पहनना चाहिए। या फिर मैक्सी ज़रूरी ही हो तो किसी के सामने आने से पूर्व दुपट्टा डाल लेना चाहिए।
सनूबर को भी अपनी मम्मी का ये पहनावा पसंद न आता। वह अक्सर उन्हें टोका करती कि मम्मी मैक्सी पहन कर बाहर न निकला करो। मैक्सी तो बेडरूम-डे्रस होती है।
लेकिन खाला किसी की सही सलाह मान लें तो फिर खाला किस बात की!
मुंह धोने के बाद खाला किचन की तरफ जातीं, जहां सनूबर के संग नाश्ता बनाने लगतीं।
नाश्ता-वास्ता के बाद सनूबर बर्तन धोने भिड़ जाती और खाला टंकी के पास टब भर कपड़े लेकर बैठ जातीं। कपड़े धोने के बाद वे वहीं नहाने लगतीं। खाला बाथरूम में कभी नहीं नहाया करतीं थी।
नहा-धोकर खाला बेड-रूम आ जातीं। फिर श्रृंगार-मेज़ और आलमारी के दरमियान उनका एक घण्टा गुज़र जाता।
इस बीच सनूबर बर्तन धोकर नहा लेती और स्कूल जाने की तैयारी करने लगती।
तभी खाला की आवाज़ गूंजती-’’अरे हरामी, हीटर में दाल चढ़ार्इ है या अइसे ही स्कूल भाग जाएगी?’’
सनूबर स्कूल ड्रेस पहने बड़बड़ाती हुर्इ किचन में घुसती और कूकर में दाल पकने के लिए चढ़ा देती।
कूकर पुराना हो चुका है, उसका प्रेशर ठीक से बनता नहीं, इसलिए उसमें दाल पकने मे समय लगता है।
सभी बच्चे स्कूल चले जाते और खाला बन-ठन कर बाहर निकल आतीं।
तब तक एक-दो पड़ोसिनें भी खाली हो जातीं।
फिर उनमें गप्पें होतीं तो समय जैसे ठहर जाता।
एक-दो बच्चे हॉफ-टार्इम पर घर आते तो भी खाला टस से मस न होतीं। बच्चे स्वयं खाने का सामान खोजकर खाते।
दुपहर के एक बजे के आस-पास औरतों की सभा विसर्जित होती।
घर आकर खाला भात के लिए अदहन चढ़ातीं और जल्दी-जल्दी चावल चुनने बैठ जातीं। चावल पसाकर फुर्सत पातीं, तब तक चिट्टे-पोट्टे स्कूल से लौटने लगते। दुपहर के खाने में सब्जी कभी बनी तो ठीक वरना अचार के साथ दाल-भात खाना पड़ता। देहाती टमाटर के दिनों में सनूबर जब स्कूल से लौटती तो खालू के लिए टमाटर की चटनी सिल में पीसती थी।
दुपहर खाना खाकर खाला टीवी देखते-देखते सो जातीं।
शाम को नींद खुलती तो फिर वही आर्इने के सामने वाला दृश्य दुहरातीं।
फिर फ्रेश होकर साड़ी-ब्लाउज़ पहनतीं। साड़ी पहनने का उनका सलीका किसी अफसरार्इन की तरह का होता। चेहरे को पाउडर-लिपिस्टिक-काजल से सजातीं।
तब तक उन्हीं की तरह उनकी कोर्इ सहेली आ जाती और उसके साथ बाजार निकल जातीं। सब्जियां या अन्य सामान वह स्वयं खरीदा करतीं थीं।
खालू तो गेहूं पिसवाने और चावल-दाल लाने जैसे भारी काम करते।
सात-आठ बजे तक खाला लौटतीं।
फिर सनूबर के साथ बैठकर रात के खाने की तैयारी में लग जातीं।
इस बीच कोर्इ मिलने वाला या वाली आ जाए तो फिर पूछना ही क्या?
बच्चे पढ़ें या फिर उधम-बाजी करें, खाला पर कोर्इ असर न पड़ता।
उन्हें तो हामी भरने वाला मिल जाए तो आन-तान की हांकती रहेंगी।
सनूबर इसीलिए बड़बड़ाया करती कि मम्मी के कारण घर में इतना हल्ला-गुल्ला मचा रहता है कि पढ़ार्इ में दिल नहीं लग पाता। गप्पें हांकने के क्रम में खाला घर आए लोगों को चाय-नमकीन भी कराया करतीं। जिसके लिए सनूबर को परेशान होना पड़ता।
ऐसे घर में अनुशासन की कल्पना भी व्यर्थ थी।
नौ
यूनुस याद करने लगा अपनी ज़िन्दगी का वह मनहूस दिन, जब जमाल साहब उसके जीवन में आए और एक निश्चित दिशा में चलती उसकी जीवन की गाड़ी पटरी से उतर गर्इ....
उसे अच्छी तरह याद है वो जुमा का दिन था, क्योंकि उस दिन घर में गोश्त-पुलाव पका था। होता ये कि जुमा की नमाज़ अदा करके घर आने पर सब एक साथ बैठकर खाना खाते। यूनुस नमाज़ के बाद पढ़े जाने वाले सलातो-सलाम में शामिल न होता। उसमें इतना धैर्य कहां होता। वह फजऱ् नमाज़ पढ़कर मस्जिद से सबसे पहले भागने वालों में शामिल रहता। वैसे भी वह भूख बर्दाश्त नहीं कर सकता था।
गर्मी के कारण उसे गोश्त-पुलाव के साथ प्याज़ खाने का मन हुआ। इसलिए घर आकर यूनुस ने सबसे पहले सब्ज़ी की टोकंरी से एक प्याज़ उठाया। फिर उसे काटने के लिए छूरी खोजने रसोर्इ में घुसा।
सनूबर स्कूली ड्रेस पहने हुए किचन में उकड़ू बैठकर चपड़-चपड़ गोश्त-पुलाव खा रही थी। यूनुस को देख वह मुस्कुरार्इ और अपने प्लेट से गोश्त की एक बोटी उठाकर यूनुस की ओर बढ़ार्इ। यूनुस ने उसकी बड़ी-बड़ी आंखों मे शरारत और मुहब्बत के मिले-जुले भाव देखे।
यूनुस ने बोटी मुंह के हवाले की।
एक दम रसगुल्ले की तरह मुंह में पिघल गया था गोश्त...वाक़र्इ रहमत चिकवा खालू के नाम पर अच्छा गोश्त देता है।
सनूबर ने यूनुस के हाथ में प्याज़ देखकर उससे प्याज़ मांग लिया।
खाना खत्म कर प्लेट में ही हाथ धोकर सनूबर एक तश्तरी में प्याज़़ काटने लगी। प्याज़ के पतले-पतले गोल टुकड़े।
तभी खाला किचन की तरफ आर्इं।
यूनुस के मुंह को चलता देख उन्होंने पूछा-’’गोश्त कैसा बना है?’’
यूनुस ने रहमत चिकवा की बड़ार्इ करते हुए कहा-’’एक नम्बर का माल है खाला! रहमतवा खालू के नाम पर माल ठीक देता है।’’
वाकर्इ पैसे भी दो और माल भी ठीक न मिले, कितना तकलीफ़ होता है। कूकर में गलाते-गलाते मर जाओ। गोश्त भी इतना बदबूदार निकल आए कि घिन हो जाए। आदमी गोश्त खाने से तौबा कर ले।
खाला ने कहा-’’अल्लाह का फ़ज़ल है कि रहमतवा ठीकै गोश्त देता है।’’
अमूमन जुमा और इतवार के दिन रहमत चिकवा की दुकान से तीन पाव गोश्त मंगवाया जाता। यूनुस ही गोश्त लेने जाता। कालोनी के बाहर रेल्वे लार्इन के उस पास नाले के एक तरफ कसार्इयों की दुकानें प्रतिदिन सजतीं। रेल्वे की ज़मीन पर अवैध रूप से क़ब्ज़ा करके चिकवा लोगों ने अपने घर और दुकानें बना ली थीं। कहते हैं कि आरपीएफ वाले आकर वसूली कर जाते हैं। रेल्वे वालों से मिली भगत है सब।
उस अघोषित मुहल्ले को कसार्इ-टोला कहा जाता।
रहमत चिकवा खालू के गांव का था, इसलिए अस्सी रूपए किलो का माल उनके घर साठ रूपए के हिसाब से आता।
यूनुस कभी सोचता कि इतने काम सीखे उसने लेकिन कसार्इ का काम न सीखा। वैसे घर में बकरीद के मौके पर होने वाली कुरबानी में बाहर से कसार्इ न बुलवाया जाता। अब्बू और सलीम भर्इया बकरे को ज़िबह कर खालपोशी कर लेते तो यूनुस बोटियां बना लेता था। असली कलाकारी तो खाल को सही-सलामत बकरे के जिस्म से अलग करने में है। उस खाल को स्थानीय मदरसे में भेजा जाता। जिसकी नीलामी होती और प्राप्त पैसे से मदरसे की आमदनी हो जाती।
गोश्त लेने खाला यूनुस को सुबह सात बजे दौड़ा देतीं। कहतीं कि चिकवा ससुरे सुबह ठीक माल दिए तो ठीक वरना बाद में दो-नम्बरिया माल मिलता है।
सात बजे रहमत अपनी दुकान सजा नहीं पाता था। इसलिए यूनुस सीधे उसके घर चले जाता।
घर के बाहर ही तो गोश्त की दुकान थी।
रहमत चिकवा की एक बेटी थी। सांवली सी नटखट लड़की। नैन-नक्श तीखे। सांवली रंगत।
यूनुस को देख जाने क्यों वह मुस्कुराती।
रहमत की बीवी उसे ‘बानू’ कह कर पुकारती। वह देहाती जुबान में बातें करती।
उसमें एक ही ऐब था। उसके पीले-मटमैले टेढ़े-मेढ़े दांत। जब वह हंसती या कुछ बोलती तो उसके दांत बाहर निकल आते और सारा मज़ा किरकिरा हो जाता।
वह जब भी रहमत के घर जाता, वहां टट्टर की चारदीवारी के अंदर बकरियों के मिमियाहट गूंज रही होती और ‘बानू’ आंगन में झाड़ू लगाते मिलती।
जब वह झुकती तो कुर्ते के कटाव से उसके उभार छलक आते। यूनुस को यकीन है कि ‘बानू’ जानबूझ कर उसे यह दर्शन-सुख देना चाहती थी।
फिर रहमत के लिए चाय या पानी लेकर आती तो यूनुस भी उसमें शामिल हो जाता।
चाय के कप या गिलास पकड़ाते समय वह आसानी से अपने हाथों का स्पर्श उसके हाथ से होने देती। कप पकड़े वह उसका चेहरा निहारता। बस, यहीं गड़बड़ हो जाती। आंखें मिलते ही ‘बानू’ मुस्कुराती। उसके होंठ पलट जाते और खपरैल से मटमैले दांत बाहर निकल आते। खूबसूरती का तिलस्म टूट जाता। यूनुस को ऐसा महसूस होता जैसे उसने रहमत की दुकान के कोने में पड़े, बकरों के कटे सिर देखे हों, जिनके दांत इसी तरह बाहर निकले रहते हैं।
रहमत चिकवा खस्सी के नाम पर कैसा भी गोश्त काट कर बेचने के लिए बदनाम है। ऐसी-वैसी बकरी काट कर रहमत बड़ी सफार्इ से उसके मादा अंगों की गवाही निकाल देता। फिर उस जगह किसी बकरे के नर-अंग बड़ी सफार्इ से ‘फिट’ कर देता। फिर चीख-चीख कर ग्राहकों को बुलाता-’’अल्ला कसम भार्इजान, खस्सी है खस्सी! एक नम्बर का माल!’’
मियां भार्इ तो अंदाज़ लगा लेते कि मामला क्या है, लेकिन चोरी-छिपे मटन खाने वाले हिन्दू ग्राहक क्या समझते! वे तो वैसे ही नज़र बचाकर मटन खरीदने आते या फिर उनके चेले आते। उन्हें बेवकूफ़ बनाना तो रहमत के बाएं हाथ का खेल था। वे आसानी से उसके झांसे में आ जाते।
खालू से अच्छे सम्बंधों के कारण रहमत चिकवा उन्हें सही माल देता।
दस
किस्सा कोताह ये कि जुमा की नमाज़ पढ़कर जब खालू घर आए तो वह अकेले न थे। उनके साथ एक युवक था।
खालू ने उन्हें पहले कमरे में प्लास्टिक की कुर्सी पर बिठाया। फिर पसीना पोंछते हुए अंदर आवाज़ लगार्इ-’’पीछे वाला कूलर बंद है का?’’
खाला अंदर से बड़बड़ार्इ-’’बाहर आग बरसन लाग है त मुआ कूलर केतना ठंडक करी?’’
वाकर्इ उस बरस गर्मी बहुत पड़ी थी।
फिर खालू ने यूनुस को आवाज़ देकर घड़े से दो गिलास ठण्डा पानी मंगवाया।
यूनुस पानी लेकर आया। देखा कि आगंतुक एक सुदर्शन युवक है। खालू ने उसे इस तरह घूरते देख डांटा-’’सलाम करो।’’
यूनुस ने सलाम किया।
खालू उस व्यक्ति से बतियाने लगे-’’साढ़ू का बेटा है। यहीं ‘एमसीए’ में पेलोडर चलाता है। आज कल मुसलमानों का हुनर ही तो सहारा है। नौकरी में तो ‘मीम’ की कटार्इ तो आप देखते ही हैं।’’
यहां खालू का ‘मीम’ से तात्पर्य अरबी के ‘मीम’ वर्ण से था। मीम माने हिन्दी का ‘म’। दूसरे शब्दों में मीम माने मुसलमान।
आगंतुक के माथे पर बल पड़ गए-’’ग़ल्त बात है भार्इजान, हक़ीकतन ऐसा नहीं है। मियां लोग ‘एजूकेशन’ पर कहां ध्यान देते हैं। अपने पास घर हो न हो, कपड़े-लत्ते हों न हों, बच्चों की किताब-कापी हो न हो लेकिन थोड़ी कमार्इ आर्इ नहीं कि नवाब बन जाएंगे। गोश्त-पुलाव उड़ाएंगे। बच्चे धड़ाधड़ पैदा किए जाएंगे। अल्ला मियां हैं ही रिज़्क देने के लिए।’’
उन साहब ने जैसे यूनुस के मन की बात की हो।
यही तो सच है। खाली-पीली अपने हिन्दू भार्इयों को कोसना कहां तक उचित है। इंसान को पहले अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। कहां कमी है? ये नहीं कि मार्इक उठाया और लगे कोसने ग़ैरों को।
तब तक खाला भी कमरे में आ गर्इं।
खालू ने आगंतुक से खाला का परिचय, जमाल साहब के नाम से कराया। बताया उनके नए साहब हैं। नागपुर के रहने वाले।
खाला ने उन्हें सलाम किया।
खाला वहीं तख्त पर बैठ कर जमाल साहब का जाएज़ा लेने लगीं। वह बत्तीस-तैंतीस साल के जवान थे। सांवली रंगत और चेहरे पर मोटी मूंछ। कुछ-कुछ संजय दत्त की तरह की हेयर-स्टार्इल। जमाल साहब से खाला ने आदतन पूछा-पाछी शुरू की। पता चला कि उनके वालिद वेस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड की किसी खदान में कार्मिक प्रबंधक हैं। जमाल साहब की शादी नहीं हुर्इ है, इसीलिए उन्होंने क्वाटर एलॉट नहीं करवाया था। वह आफीसर्स-गेस्ट रूम में रहते हैं।
गर्मी के मारे जैसे जान निकली जा रही हो।
खाला अपने आंचल से पंखे का काम लेने लगीं, जिससे उनके पेट का कुछ हिस्सा और छाती दिखने लगी।
जमाल साहब ने जो समझा हो, लेकिन यूनुस को यह सब बहुत बुरा लगा।
खाला जमाल साहब से बेतकल्लुफ़ हुर्इं और उन्हें खाने का न्योता दिया।
फिर क्या था।
वहीं तख्त पर दस्तरख्वान बिछाया गया।
किचन में सनूबर ने जो सलाद के लिए प्याज़ काटा था, उसे मेहमान के लिए पेश किया जाने लगा। खालू और जमाल साहब ने साथ-साथ खाना खाया।
बीच में एक बार सालन घटा तो सनूबर को आवाज़ देकर खालू ने बुलाया था।
सनूबर एक कटोरी सालन पहुंचा आर्इ थी।
सनूबर का सालन पहुंचाना यूनुस को अच्छा नहीं लगा।
खाला ने सनूबर का परिचय जमाल साहब से कराया-’’बड़की बिटिया है। नवमी में पढ़ती है।’’
सनूबर ने जमाल साहब को सलाम किया तो खाला ने टोका-’’गधी, खाते समय सलाम नहीं करते न!’’
सनूबर झेंप कर भाग गर्इ।
ग्यारह
फिर जमाल साहब खाला के घर अक्सर आने लगे।
खालू घर में हों या न हों, खाला उनकी खूब खातिर-तवज्जो करतीं।
जमाल साहब आते तो टीवी खोलकर बैठ जाते। घर में उर्दू का एक अख़बार आता था। खालू सनूबर से उनके लिए भजिए-पकौड़ी तलवातीं। जमाल साहब कड़ी पत्ती और कम चीनी वाली चाय बड़े शौक से पीते। घर में अच्छे कप न थे। खाला ने बर्तन वाले की दुकान से बोन-चायना वाला कीमती कप-सेट खरीदा था।
जमाल साहब का प्रमोशन हुआ तो वह मिठार्इ का डिब्बा लेकर आए।
यूनुस उस दिन घर पर ही था।
रसमलार्इ की दस कटोरियां थीं। बनारसी-स्वीट्स की ख़ास मिठार्इ।
खाला ने तो रसमलार्इ खाकर ऐलान कर दिया कि अपने इस जीवन में उन्होंने ऐसी उम्दा मिठार्इ कभी न खार्इ थी। खालू ठहरे कंजूस। छेना की मिठार्इ कभी लाते नहीं। फातिहा-दरूद के लिए वही मनोहरा के होटल से खूब मीठे पेड़े ले आते।
कभी कोर्इ आया या किसी के घर गए तो खोवा की मिठार्इयां या बिस्किट वगैरा से स्वागत होता। रसमलार्इ जैसी मिठार्इ उन्होंने कभी न खार्इ थी।
रसमलार्इ का रस जो कटोरी में बचा था, वे उसे सुड़कते हुए पीने लगीं।
जमाल साहब हंस दिए।
सनूबर, छोटकी और अन्य बच्चों के साथ यूनुस ने भी पूरा स्वाद लेते हुए रसमलार्इ खार्इ।
खाला अपनी देहाती में उतर आर्इं जिसका लब्बोलुआब था कि वाकर्इ दुनिया में एक से एक लज़ीज़ चीज़ें हैं।
इस तरह जमाल साहब उस परिवार में एक सदस्य की तरह शामिल हो गए।
जब उनका मन गेस्ट-हाउस के खाने से ऊब जाता तो वे बिना संकोच खाला के घर आ जाते। वो चाहे कैसा समय हो, खाला और सनूबर, उनके लिए तत्काल कुछ न कुछ खाने की व्यवस्था अवश्य कर देतीं।
जमाल साहब के सामने कभी-कभी खाला सनूबर को डांटने लगतीं या गरियाने लगतीं तो सनूबर नाराज़ हो जाती। इस आवाज़ में सुबकती कि जमाल साहब तक उसके नाक सुड़कने की आवाज़ पहुंच जाए।
फिर जमाल साहब खाला को समझाते कि इतनी सुघड़-समझदार बिटिया को इस तरह नहीं डांटा-मारा करते। सनूबर तो घर-रखनी है। सभी का ख्याल रखती है।
सनूबर उन्हें जमाल अंकल कहती।
यूनुस उन्हें साहब की कहता।
पूरे घरवालों में जमाल साहब की बढ़ती जा रही लोकप्रियता से उसे चिढ़ होने लगी।
चिढ़ का एक और कारण ये भी था कि जमाल साहब के आ जाने से सनूबर अब यूनुस का खास ख्याल नहीं रख पाती।
यूनुस ठेकेदारी मज़दूर ठहरा! उसकी ड्यूटी का टार्इम बड़ा अटपटा था। कभी अलस्सुबह जाना पड़ता और कभी रात के बारह बजे बुलौवा आ जाता। कभी रात के बारह-एक बजे घर वापस लौटता। कपड़े मैले-कुचैले हो जाते। कपड़ों में ग्रीस-मोबिल के दाग लगे होते।
पहले आदतन वह कपड़े स्वयं धोता था। फिर सनूबर मेहरबानी करके उसके कपड़े धोने लगी। अब ये यूनुस का अधिकार बन गया कि सनूबर ही उसके कपडे़ धोए।
जमाल अंकल के कारण सनूबर को अब किचन में कुछ ज्यादा समय देना पड़ता था। खाला तो सिर्फ हा-हा, ही-ही करती रहतीं। कभी पापड़ तलने को कहेंगी, कभी चाय बनाने का आदेश पारित करेंगी।
खालू आ जाते तो वह भी पूछा करते कि साहब की ख़िदमत में कोर्इ कसर तो नहीं रह गर्इ है।
यूनुस ने यह भी ग़ौर किया कि खाला जमाल साहब के सामने सनूबर को कुछ ज्यादा ही डांटती हैं।
इससे जमाल साहब उन्हें ऐसा करने से मना करते हैं। कहते हैं कि बच्चों को प्यार से समझाना चाहिए।
अक्सर इस बात पर सनूबर सुबकने लगती।
जमाल अंकल उसे अपने पास बुलाते और बिठाकर समझाते कि मां-बाप की बात का बुरा नहीं मानना चाहिए। साथ ही साथ वह खाला को भी समझाते कि बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार करें।
फिर वह दिन भी आया कि जमाल साहब ने आफीसर्स गेस्ट-हाउस के मेस में खाना बंद कर दिया और खालू के घर में उनका खाना बनने लगा।
जीप आती और सुबह का नाश्ता करके वह खदान चले जाते। दुपहर के खाने का पक्का नहीं रहता। यदि देर हो जाती तो वे वहीं कहीं केंटीन वगैरा में कुछ खा-पी लेते। रात का खाना वह खालू के घर ही खाते। उन्होंने संकोच के साथ कुछ पैसे भी देने चाहे, लेकिन खाला ने मना कर दिया।
इसके बदले वह स्वयं कभी गोश्त और कभी अन्य सामान के लिए जेब से पैसे निकालकर देते।
कुल मिलाकर वह भी घर के स्थार्इ सदस्य बन चुके थे।
रात के दस-ग्यारह बजे तक वह घर में डंटे रहते। कभी टीवी देखते और कभी बच्चों को पढ़ाने लगते। बच्चों के साथ वह हंसी-मज़ाक बहुत करते, जिससे बच्चों का मन लगा रहता।
अड़ोसियों-पड़ोसियों के सामने खाला-खालू का सीना चौड़ा होता रहता कि एक अधिकारी उनका रिश्तेदार है। खाला जमाल साहब को अपना दूर का रिश्तेदार बतातीं, उधर खालू उन्हें अपना रिश्तेदार सिद्ध करते। वैसे वह उन दोनों के रिश्तेदार किसी भी कोण से हो नहीं सकते थे क्योंकि खाला-खालू तो एमपी के थे और जमाल साहब नागपूर तरफ के रहने वाले।
लोगों को इससे क्या फ़र्क पड़ता।
आप अपने घर में जिसे बुलाओ, बिठाओ, खिलाओ-पिलाओ या सुलाओ। इससे मुहल्ले वालों की सेहत में क्या फ़र्क़ पड़ सकता है। बस, फुर्सत में सभी उस घर में पनप रहे किसी नए रिश्ते की, किसी नर्इ कहानी के पैदा होने की उम्मीद टांगे बैठे थे।
यूनुस को जमाल साहब का इस तरह घर में छा जाना बर्दाश्त नहीं हो रहा था। वह देख रहा था कि खाला भी जमाल साहब के सामने खूब चहकती रहती हैं। सनूबर के भी हाव-भाव ठीक नहीं रहते हैं। सभी जमाल साहब को लुभाने की तैयारी में संलग्न दिखते हैं।
एक दिन यूनुस ने खाला के मुंह से सुना कि वह जमाल साहब को अपना दामाद बनाना चाह रही हैं।
अरे, ये भी कोर्इ बात हुर्इ। कहां जमाल साहब और कहां फूल सी लड़की सनूबर। दोनों के उम्र में सोलह-सत्रह बरस का अंतर...
क्या ये कोर्इ मामूली अंतर है?
खाला कहने लगीं-’’जब तेरे खालू से मेरा निकाह हुआ तब मैं बारह साल की थी और तेरे खालू तीस बरस के जवान थे। क्या हम लोग में निभ नहीं रही है?’’
यूनुस क्या जवाब देता।
सनूबर ने भी तो उस मंसूबे का विरोध नहीं किया था। कहीं उसके मन में भी तो अफसरार्इन बनने की आकांक्षा नहीं।
यूनुस के पास खानाबदोशी जीवन और असुविधाओं-अभावों का अम्बार है जबकि जमाल साहब का साथ माने पांचों उंगलियां घी में होना।
बारह
तभी दूसरी घण्टी बजी।
टनननन टन्न टनन...
सिंगरौली के एक स्टेशन पहले से गाड़ी छूटने का सिग्नल। यानी अगले पंद्रह मिनट बाद गाड़ी प्लेटफार्म पर आ जाएगी। यात्रीगण मुस्तैद हुए।
यूनुस के अंदर घर बना चुका डर अभी खत्म न हुआ था। खालू कभी भी आ सकते हैं। उनके सहकर्मी पाण्डे अंकल इन सब मामलात में बहुत तेज़ हैं। खालू कहीं उनकी बुल्लेट में बैठ धकधकाते आ न रहे हों। एक बार गाड़ी पकड़ा जाए, उसके बाद ‘फिर हम कहां तुम कहां!’
प्लेटफार्म परं वह ऐसी जगह खड़ा था, जहां ठंड से बचने के लिए रेल्वे कर्मचारियों ने कोयला जला रखा था। इस जगह से मुख्य-द्वार पर आसानी से नज़र रखी जा सकती थी। उसने सोच रखा था यदि खालू दिखार्इ दिए तो वह अंधेरे का लाभ उठाकर प्लेटफार्म के उस पार खड़ी माल गाड़ी के पीछे छिप जाएगा। इस बीच यदि पैसेंजर आर्इ तो चुपचाप चढ़कर संडास में छिप जाएगा। फिर कहां खोज पाएंगे खालू उसे।
उसे मालूम नहीं कि अब वह घर लौट भी पाएगा या अपने बड़े भार्इ सलीम की तरह इस संसार रूपी महासागर में कहीं खो जाएगा।
यूनुस को सलीम की याद हो आर्इ...
उसे यही लगता कि सलीम मरा नहीं बल्कि हमेशा की तरह घर से रूठ कर परदेस गया है। किसी रोज़ ढेर सारा उपहार लिए हंसता-मुस्कुराता सलीम घर ज़रूर लौट आएगा।
सलीम, यूनुस की तरह एक रोज़ घर से भाग कर किसी ‘परदेस’ चला गया था। ‘परदेस’ जहां नौजवानों की बड़ी खपत है। ‘परदेस’ जहां सपनों को साकार बनाने के ख़्वाब देखे जाते हैं। वह ‘परदेस’ चाहे दिल्ली हो या मुम्बर्इ, कलकत्ता हो या अहमदाबाद। उच्च-शिक्षा प्राप्त लोगों का ‘परदेस’ वाकर्इ परदेस होता है, वह यूएस्से, यूके, गल्फ़ आदि नामों से पुकारा जाता है।
यूनुस अपने गृह-नगर की याद कब का बिसार चुका है। उस जगह में याद रहने लायक कशिश ही कहां थी? मध्यप्रदेश के पिछड़े इलाके का एक गुमनाम नगर कोतमा...
आसपास के कोयला खदानों के कारण यहां की व्यापारिक गतिविधियां ठीक-ठाक चलती हैं।
नगर-क्षेत्र में बाहरी लोग आ बसे और नगर की सीमा के बाहर मूल शहडोलिया सब विस्थापित होते गए। यहां रेल और सड़क यातायात की सुविधा है। एक-दो पैसेंजर गाड़ियां आती हैं। पास में अनूपपुर स्टेशन है, जहां से कटनी या फिर बिलासपुर के लिए गाड़ियां मिलती हैं।
कोतमा इस रूट का बड़ा स्टेशन है। लोग कहते हैं कि सफ़र के दौरान कोतमा आता है तो यात्रियों को स्वमेव पता चल जाता है। कोतमा-वासी अपने अधिकारों के लिए लड़-मरने वाले और कर्तव्यों के प्रति लापरवाह किस्म के हैं। हल्ला-गुल्ला, अनावश्यक लड़ार्इ-झगड़े की आवाज़ से यात्रियों को अन्दाज़ हो जाता है कि महाशय, कोतमा आ गया। रेल में पहले से जगह पा चुकी सवारियां सजग हो जाती हैं कि कहीं दादा किस्म के लोग उन्हें उठा न फेंकें।
कोतमा मे हिन्दू-मुसलमान सभी लोग रहते हैं किन्तु नगर के एक कोने में एक उपनगर है लहसुर्इ। जिसे कोतमा के बहुसंख्यक ‘मिनी पाकिस्तान’ कहते हैं। जिसके बारे में कर्इ धारणाएं बहुसंख्यकों के दिलो-दिमाग में पुख़्ता हैं। जैसे लहसुर्इ के वाशिन्दे अमूमन ज़रायमपेशा लोग हैं। ये लोग स्वभावत: अपराधी प्रवृत्ति के हैं। इनके पास देसी कट्टे-तमंचे, बरछी-भाले और कर्इ तरह के असलहे रहते हैं। लहसुर्इ मे खुले आम गौ-वध होता है। लहसुर्इ के निवासी बड़े उपद्रवी होते हैं। इनसे कोर्इ ताकत पंगा लहीं ले सकती। ये बड़े संगठित हैं। पुलिस भी इनसे घबराती है।
लहसुर्इ और कोतमा के बीच की जगह पर स्थित है यादवजी का मकान। उसी में किराएदार था यूनुस का परिवार।
इमली गोलार्इ के नाम से जाना जाता है वह क्षेत्र।
यादवजी कोयला खदान में सिक्यूरिटी इंस्पेक्टर थे। वे बांदा के रहने वाले थे। घर के इकलौते चिराग़। शायद इसीलिए नाम उनका रखा गया था कुलदीप सिंह यादव।
सो गांव में धर्म-पत्नी खेत और घर की देखभाल किया करतीं। यादवजी इसी कारण परदेस में अकेले ही ज़िन्दगी बसर करने लगे। शुरू में थोड़े अंतराल के बाद छुट्टियां लेकर घर जाया करते थे। फिर कोयला खदान क्षेत्र में आसानी से मुंह मारने का जुगाड़ पाकर उनके देस जाने की आवृत्ति कम होती गर्इ।
कुलदीप सिंह यादव जी स्वभाव से चंचल प्रकृति के थे। देस में ‘बावन बीघा पुदीना’ उगाने वाले यादवजी का, इधर-उधर मुंह मारते-मारते, एक युवा-विधवा के साथ ऐसा टांका भिड़ा कि उनकी भटकती हुर्इ कश्ती को किनारा मिल गया।
वह विधवा पनिका जाति की स्त्री थी। उसने भी कर्इ घाट का पानी पिया था। लगता था कि जैसे वह भी अब थक गर्इ हो। दोनों ने वफ़ादारी की और आजन्म साथ निभाने की क़समें खार्इ।
पनिकार्इन, यादवजी के नाम से खूब गाढ़ा सिंदूर अपनी मांग में भरने लगी।
यादवजी भी छिनरर्इ छोड़कर उस पनिकार्इन के पल्लू से बंध गए।
धीरे-धीरे उनका छटे-छमाहे देस जाना बंद हुआ और फिर देस में भेजे जाने वाले मनी-आर्डर की राशि में भी कटौती होने लगी।
यादवजी के प्रतिद्वंदियों ने यादवजी की अपने परिजनों से विरक्ति की खबर देस में यादवार्इन तक पहुंचार्इ।
यादवार्इन बड़ी सीधी-सादी ग्रामीण महिला थी। उसने घर में मेहनत करके बाल-बच्चों को पाला-पोसा था। गांव-गिरांव के गाय-गोबर, कीचड़-कांदों और बिन बिजली बत्ती की असुविधाओं को झेला था। यादवजी की बेवफार्इ उसे कहां बर्दाश्त होती। उसने अपने जवान होते बच्चों के दिलों में पिता के खिलाफ़ नफ़रत के बीज बोए।
बच्चे युवा हुए तो उन्हें नकारा बाप को सबक सिखाने कोतमा भेजा।
बच्चे कोतमा आए और उन्होंने अपने बाप को नर्इ मां के सामने ही खूब मारा-पीटा।
जब यादवजी लड़कों से दम भर पिट चुके तब कोयला-खदान में बसे उनके जिला-जवारियों ने आकर बीच-बचाव किया।
इस घटना से यादवजी की खूब थू-थू हुर्इ।
मज़दूर यूनियन के नेतागण, खदान के कर्मचारीगण और यादवजी के बच्चों के बीच पंचइती हुर्इ। यादवजी की वैध पत्नी के त्याग और धैर्य की तारीफ़ें हुर्इं। यादवजी के चंचल चरित्र और नर्इ पत्नी की वैधता पर खूब टीका-टिप्पणी हुर्इ। फिर सर्वसम्मति से निर्णय हुआ कि बैंक में यादवजी के खाते से प्रत्येक महीने तीन हज़ार रूपया बांदा में उनकी पत्नी के खाते में स्थानांतरित होगा।
यदि यादवजी इससे इंकार करेंगे तो फिर अंजाम के लिए स्वयं जिम्मेदार होंगे। लड़के जवान हो ही गए हैं।
पनिकार्इन छनछनाती रह गर्इ। यादवजी ने इन नर्इ परिस्थितियों से समझौता कर लिया। यादवजी सोच रहे थे कि ये बला कैसे भी टले, टले तो सही।
बैंक मैनेजर ने व्यवस्था बना दी। तनख्वाह जमा होते ही तीन हजार रूपए कोतमा से निकलकर बांदा में उनकी पत्नी के खाते में जमा होने लगे। इस तरह सारे भावनात्मक सम्बंध खत्म करके बच्चे गांव वापस चले गए।
यादवजी बाल काले न कराएं तो एकदम बूढ़े दिखें। दांत टूट जाने के कारण गाल पिचक गए हैं और चेहरा चुहाड़ सा नज़र आता है। बनियार्इन-चड्डी में मकान के बाहर बने खटाल में गाय-भैंस को घास-भूसा खिलाते रहते हैं। पानी मिले दूध के व्यापार की देखभाल स्वयं करते हैं।
पनिकार्इन की जवानी अभी ढल रही है। कहते हैं कि स्त्री अपनी अधेड़ावस्था में ज्यादा मादक होती है। यह फार्मूला पनिकार्इन पर फिट बैठता है। पांच फुट ऊंची पनिकार्इन। ज़बरदस्त डील-डौल। भरा-भरा बदन। दूध-घी सहित निश्चिंत जीवन पाकर पनिकार्इन कितना चिकना गर्इ है। कहते हैं कि यादवजी को एकदम ‘चूसै-डार’ रही है ये नार!
यूनुस जब बच्चा था तब उसने उन दोनों को खटाल में बिछी खाट पर विवस्त्र गुत्थम-गुत्था देखा था।
ये था यूनुस के फुटपाथी विश्वविद्यालय में कामशास्त्र का व्यवहारिक पाठ्यक्रम...
तेरह
कोतमा और उस जैसे नगर-कस्बों में यह प्रथा जाने कब से चली आ रही है कि जैसे ही किसी लड़के के पर उगे नहीं कि वह नगर के गली-कूचों को ‘टा-टा’ कहके ‘परदेस’ उड़ जाता है।
कहते हैं कि ‘परदेस’ मे सैकड़ों ऐसे ठिकाने हैं जहां नौजवानों की बेहद ज़रूरत है। जहां हिन्दुस्तान के सभी प्रान्त के युवक काम की तलाश में आते हैं।
ठीक उसी तरह, जिस तरह महानगरों के युवक अच्छे भविष्य की तलाश में विदेश जाने को लालायित रहते हैं।
सुरसा के मुख से हैें ये औद्योगिक-मकड़जाल।
बेहतर जिंदगी की खोज में भटकते जाने कितने युवकों को निगलने के बाद भी सुरसा का पेट नहीं भरता। कभी उसका जी नहीं अघाता। उसकी डकार कभी किसी को सुनार्इ नहीं देती। तभी तो हिन्दुस्तान के सुदूर इलाकों से अनगिनत युवक अपनी फूटी किस्मत जगाने महानगरों की ओर भागे चले आते हैं।
अपनी जन्मभूमि, गांव-घर, मां-बाप, भार्इ-बहन, संगी-साथी और कमसिन प्रेमिकाओं को छोड़कर।
उन युवकों को दिखलार्इ देता है पैसा, खूब सारा पैसा। इतना पैसा कि जब वे अपने गांव लौटें तो उनके ठाट देखकर गांव वाले हक्के-बक्के रह जाएं।
आलोचक लोग दांतों तले उंगलियां दबाकर कहें कि बिटवा, निकम्मा-आवारा नहीं बल्कि कितना हुशियार निकला!
लेकिन क्या उनके ख़्वाब पूरे हो पाते हैं।
हक़ीकतन उनके तमाम मंसूबे धरे के धरे रह जाते हैं।
रूपया कमाना कितना कठिन होता है, उन्हें जब पता चलता तब तक वे शहर के पेट की आग बुझाने वाली भट्टी के लिए र्इंधन बन चुके होते हैं। शुरू में उन्हें शहर से मुहब्बत होती है। फिर उन्हें पता चलता है कि उनकी जवानी का मधुर रस चूसने वाली धनाढ्य बुढ़िया की तरह है ये शहर। जो हर दिन नए-नए तरीके से सज-संवरकर उन पर डोरे डालती है। उन्हें करारे-करारे नोट दिखाकर अपनी तरफ बुलाती है। सदियों के अभाव और असुविधाओं से त्रस्त ये युवक उस बुढ़िया के इशारे पर नाचते चले जाते हैं।
बुढ़िया के रंग-रोगन वाले जिस्म से उन्हें घृणा हो उठती है, लेकिन उससे नफ़रत का इज़हार कितना आत्मघाती होगा उन्हें इसका अंदाज़ रहता है।
उन्हें पता है कि देश में भूखे-बेरोजगार युवकों की कमी नहीं। बुढ़िया तत्काल दूसरे नौजवान तलाश लेगी।
शहर में रहते-रहते वे युवक गांव में प्रतीक्षारत अपनी प्रियतमा को कब बिसर जाते हैं, उन्हें पता ही नहीं चल पाता है। उनकी सम्वेदनाएं शहर की आग में जल कर स्वाहा हो जाती हैं। वे जेब में एक डायरी रखते हैं। जिसमें मतलब भर के कर्इ पते, टेलीफोन नम्बर वगैरा दर्ज रहते हैं, सिर्फ उसे एक पते को छोड़कर, जहां उनका जन्म हुआ था। जिस जगह की मिट्टी और पानी से उनके जिस्म को आकार मिला था। जहां उनका बचपन बीता था। जहां उनके वृद्ध माता-पिता हैं, जहां खट्ठे-मीठे प्रेम का ‘ढार्इ आखर’ वाला पाठ पढ़ा गया था। जहां की यादें उनके जीवन का सरमाया बन सकती थीं।
हां, वे इतना ज़रूर महसूस करते कि अब इस शहर के अलावा उनका कोर्इ ठिकाना नहीं।
पता नहीं, शहर उन्हें पकड़ लेता है या कि वे शहर को जकड़ लेते हैं।
एक भ्रम उन्हें सारी ज़िन्दगी शहर में जीने का आसरा दिए रहता है कि यही है वह मंज़िल, जहां उनकी पुरानी पहचान गुम हो सकती है।
यही है वह संसार जहां उनकी नर्इ पहचान बन पार्इ है।
यही है वह जगह, जहां उन्हें ‘फलनवा के बेटा’ या कि ‘अरे-अबे-तबे’ आदि सम्बोधनों से पुकारा नहीं जाएगा। जहां उनका एक नाम होगा जैसे- सलीम, श्याम, मोहन, सोहन.......
यही है वह दुनिया, जहां चमड़ी की रंगत पर कोर्इ ध्यान नहीं देगा। आप गोरे हों या काले, लम्बे हों या नाटे। महानगरीय-सभ्यता में इसका कोर्इ महत्व नहीं है।
यही है वह स्थल, जहां वे होटल में, बस-रेल में, नार्इ की दुकान की दुकान में, सभी के बराबर की हैसियत से बैठ-उठ सकेगे।
यहीं है वह मंज़िल, जहां उनकी जात-बिरादरी और सामाजिक हैसियत पर कोर्इ टिप्पणी नहीं होगी, जहां उनके सोने-जागने, खाने-पीने और इठलाने का हिसाब-किताब रखने में कोर्इ दिलचस्पी न लेगा। जहां वे एकदम स्वतंत्र होंगे। अपने दिन और रात के पूरे-पूरे मालिक।
लेकिन क्या यह एक भ्रम की स्थिति है? क्या वाकर्इ ऐसा होता है?
फिर भी यदि यह एक भ्रम है तो भी ‘दिल लगाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है।’। इसी भ्रम के सहारे वे अन्जान शहरों में जिन्दगी गुज़ारते हैं। आजीवन अपनी छोटी-छोटी, तुच्छ इच्छाओं की पूर्ति के लिए संघर्षरत रहते हैं।
कितने मामूली होते हैं ख़्वाब उनके!
एक-डेढ़ घण्टे की लोकल बस या रेल-यात्रा दूरी पर मिले अस्थार्इ काम। एक छोटी सी खोली। करिश्मा कपूर सा भ्रम देती पत्नी। अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते बच्चे। टीवी, िफ्ऱज़, कूलर। छोटा सा बैंक बैलेंस कि हारी-बीमारी में किसी के आगे हाथ न पसारना पड़े।
विडम्बना देखिए कि उन्हें पता भी नहीं चलता और एक दिन यथार्थ वाली दुनिया बिखर जाती । उस स्वप्न-नगरी के वे एक कलपुर्जे बन जाते।
गांव-गिरांव से उन्हें खोजती-भटकती खबरें आकर दस्तक देतीं कि बच्चों के लौट आने की आस लिए मर गए बूढ़े मां-बाप।
खबरें बतातीं कि छोटे भार्इ लोग ज़मींदार की बेकारी खटते हैं और फिर सांझ ढले गांजा-शराब में खुद को गर्क कर लेते हैं।
खबरें बतातीं कि उनकी जवान बहनें अपनी तन-मन की ज़रूरतें पूरी न होने के कारण सामन्तों की हवस का सामान बन चुकी हैं।
खबरें बतातीं कि उनकी मासूम महबूबाओं की इंतज़ार में डूबी रातों का अमावस कभी खत्म नहीं हुआ।
इस तरह एक दिन उनका सब-कुछ बिखर जाता।
ये बिखरना क्या किसी नव-निर्माण का संकेत तो नहीं ?
चौदह
खाला का दबाव था, सो खालू को ‘एक्शन’ में आना ही था।
खालू उसे ‘मदीना टेलर’ के मालिक बन्ने उस्ताद के पास ले आए।
मस्जिद पारा में स्थित यतीमखाना के सामने अंजुमन कमेटी की तरफ से तीन दुकानें बनार्इ गर्इ हैं। इन दुकानों से यतीमखाना के प्रबंध के लिए आय हो जाती है। ये सभी दुकानें मुसलमान व्यापारियों को ही दी जातीं। एक दुकान में आटा चक्की थी, दूसरे में किराने का सामान और तीसरी दुकान के माथे पर टंगा बोर्ड--मदीना टेलर,
सूट-स्पेशलिस्ट
मदीना टेलर के मालिक थे बन्ने उस्ताद। बन्ने उस्ताद एक पारम्परिक दजऱ्ी थे। कहते हैं शुरू में वे लेडीज़ टेलर के नाम से जाने जाते थे। पैसे कमाकर स्वयं कारीगर रखने लगे, और तब अचानक नाम वाले बन गए। आजकल शादी-ब्याह के अवसर पर मध्यम वर्गीय परिवार दूल्हे के लिए कोट-पैंट ज़रूर बनवाते हैं। शादी मे जो एक बार थ्री-पीस सूट लड़का पहन लेता है, फिर अपनी ज़िन्दगी में अपने खर्चे से वह कहां एक भी सूट सिलवा पाता है। यदि किस्मत से बेटे का बाप बना तो फिर भावी समधी के बजट पर बेटे की शादी में कोट सिलवा सके तो उसका भाग्य! बन्ने उस्ताद शहर से अच्छे कारीगर उठा लाए थे, जिसके कारण उनकी दुकान ठीक चला करती।
उनकी वेशभूषा बड़ी हास्यास्पद रहती। अलीगढ़ी पाजामे पर कढ़ार्इ वाला बादामी कुर्ता। आंखें इस तरह मिचमिचाते ज्यों बहुत तेज़ धूप में कहीं दूर की चीज़ को गा़ैर से देख रहे हों। हंसते-बोलते तो ऊबड़-खाबड़ मैले दांतों के कारण चेहरा चिम्पैंजी सा दिखार्इ देता।
यूनुस, बन्ने उस्ताद का हुलिया देख बमुश्किल-तमाम अपनी हंसी रोक सका।
खालू के सामने उन्होंने यूनुस को बड़े प्यार से अपने पास बुलाया। यूनुस ने उन्हें सलाम किया तो बन्ने उस्ताद ने मुसाफ़ा के लिए हाथ बढ़ाया।
यूनुस का हाथ अपने हाथों में लेकर बड़ी देर तक नसीहतों की बौछार करते रहे।
‘‘दर्जीगिरी आसान पेशा नहीं बरखुरदार! टेढ़े-मेढे कपड़े सिलकर आज कोर्इ भी दर्जी बन जाता है, हैना...! बड़ा मुश्किल हुनर है टेलरिंग, समझे। शहर के तमाम नामवर टेलर मेरे शागिर्द रहे हैं। ‘पोशाक-टेलर्स’ वाला मुनव्वर अंसारी हो या ‘माडर्न-टेलर’ वाले कासिम मियां, सभी इस नाचीज़ की मार-डांट खाकर आज शान से कमा-खा रहे हैं, हैना...’’
खालू उनकी बात के समर्थन में सिर हिला रहे थे।
यूनुस का हाथ उस्ताद ने छोड़ा नहीं था, कभी उनकी पकड़ हल्की पड़ती कभी सख़्त। यूनुस चाहता उसके हाथ पकड़ से आज़ाद हो जाएं, लेकिन उसने महसूस किया कि उसकी जद्दोजेहद को बन्ने उस्ताद भांप रहे हैं।
वे बड़ी व्यग्रता से अपना यशोगान कर रहे थे और यूनुस की हथेली पसीने से भींग गर्इ। उसने खालू को देखा जो निर्विकार बैठे थे।
अचानक बन्ने उस्ताद ने उसे अपने समीप खींचा। यूनुस ने सोचा कि कहीं ये गोद में बिठाना तो नहीं चाहते।
उसके जिस्म ने विरोध किया।
उसके बदन की ऐंठन को उस्ताद ने महसूस किया और हाथ छोड़ यूनुस की पीठ सहलाने लगे--’’देखो बरखुरदार, हां क्या नाम बताया तुमने अपना....हां यूनुस। यहां कर्इ लड़के काम सीख रहे हैं, हैना... उनसे गप्पबाजी मत करना। जैसा काम मिले, काम करना। सिलार्इ मशीन चलाने की हड़बड़ी मत दिखाना। सीनियरों की बातें मानना। मुझे शिकायत मिली तो समझो छुट्टी हैना...। यदि लगन रहेगी तो एक दिन तुम भी नायाब टेलर बन जाओगे, हैना... ‘‘
बन्ने उस्ताद की नसीहतें उसकी समझ में न आर्इं।
हां, उनके मुंह से निकलती पायरिया की बदबू से उसका दम ज़रूर घुटने लगा था।
यूनुस ने उस्ताद के हाथों को अपने जिस्म की बोटियों का हिसाब लगाते पाया। उसने देखा कि दुकान के कारीगर और लड़के मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं।
लिहाजा उसने ‘मदीना टेलर’ जाना शुरू कर दिया।
वह सुबह खाला के घर नाश्ता करके निकलता था। दुपहर दो से तीन बजे तक खाना खाने की मुहलत मिलती और रात आठ बजे लड़कों को छुट्टी मिलती। कारीगर ठेका के मुताबिक काफी रात तक काम में व्यस्त रहते। तीज-त्योहार या शादी-ब्याह के अवसर पर तो सारी रात मशीनें चलती रहतीं।
यूनुस का मन दुकान में रमने लगा था। धीरे-धीरे सहकर्मी लड़कों से उसे बन्ने उस्ताद के बारे में कर्इ गोपनीय सूचनाएं मिलने लगीं।
दुकान में चार सिलार्इ मशीनें और एक पीको-कढ़ार्इ की मशीन थी। सामने एक तरफ बन्ने उस्ताद का काउण्टर था। मशीनों के पीछे फर्श पर दरी बिछी हुर्इ थी, जिस पर शागिर्दों का अड्डा होता। यहां काज-बटन, तुरपार्इ और तैयार कपड़े पर प्रेस करने का काम होता।
तीनों शागिर्दों से यूनुस का परिचय हुआ। ये सभी बारह-तेरह बरस के कमसिन बच्चे थे।
नाटे क़द का बब्बू गठीले बदन का था और यतीमखाने में हाफ़िज़ बनने आया था। यतीमखाने की जेल और कठोर अनुशासन से तंग आकर वह बन्ने उस्ताद के यहां टिक गया।
दूसरे का नाम जब्बार था जो पास के गांव की विधवा का बेटा था।
तीसरा बड़ा हीरो किस्म का लड़का था। बिहार के छपरा जिले का रहने वाला। भुखमरी से तंग आकर अपने मामू के घर आया तो फिर यहीं रह गया। गोरा- चिकना खूबसूरत शमीम। बन्ने उस्ताद का मुंहलगा शागिर्द।
शमीम के पीठ पीछे जब्बार और बब्बू उसे ‘बन्ने उस्ताद का लौंडा’ नाम से याद करते और अश्लील इशारा करके खूब हंसते।
बब्बू से यूनुस की खूब पटती।
उसने यूनुस को अपनी रामकहानी कर्इ खण्डों में बतार्इ थी। उनके बीच में खूब निभती। बन्ने उस्ताद उन्हें सिर जोड़े देखते तो काउण्टर से चिल्लाते--’’ए लौंडों! ग्प मारने आते हो का इहां?’’
बब्बू झारखण्ड का रहने वाला था। उसके अब्बा बचपन में मर गए थे। वह पेशे से धुनिया थे। नगर-नगर फेरी लगाकर रजार्इ-गद्दे बनाया करते। उनका कोर्इ पक्का पड़ाव न था। खानाबदोशों सी ज़िन्दगी थी।
अब्बा के इंतेकाल के दो साल बाद उसकी अम्मी ने दूसरी शादी कर ली। सौतेला बाप बब्बू और उसकी बहिन से नफ़रत करता। बहिन तो छोटी थी। उसे नफ़रत-मुहब्बत में भेद क्या पता? हां, बब्बू घृणा से भरपूर आंखों का मतलब समझने लगा था। अल्ला मियां से यही दुआ मांगा करता कि उसे इस दोज़ख से जल्द निजात मिल जाए।
तभी गांव आए मौलवी साहब ने उससे मध्यप्रदेश चलने को कहा। बताया कि वहां मुसलमानों की अच्छी आबादी है। एक यतीमखाना भी अभी-अभी खुला है। बच्चे वहां कम हैं। यतीमखाने में खाने-रहने की समस्या का समाधान हो जाएगा, साथ ही दीनी तालीम भी वह हासिल कर लेगा।
कहते हैं कि खानदान में यदि कोर्इ एक व्यक्ति कु़रआन मजीद को हिफ़्ज़ (कंठस्थ) कर ले तो उसकी सात पुश्तों को जन्नत में जगह मिलती है। इससे दुनिया सध जाएगी और आख़्िारत (परलोक) भी संवर जाएगी। बब्बू की अम्मा मौलवी साहब की बातों से प्रभावित हुर्इं और इस तरह बब्बू उनके साथ यहां आ गया।
मस्जिद की छत पर बड़े-बड़े तीन हाल थे।
एक हाल में मौलवी साहब रहा करते। दूसरे हाल में मदरसा चलाया जाता। तीसरा हाल यतीम बच्चों के लिए था।
नहाने-धोने के लिए मस्जिद के बाहर एक कुंआ था, जिसमें तकरीबन दस फुट नीचे पानी मिलता था। यह बारहमासा कुंआ था जो कभी न सूखता। सम्भवत: समीप के नाले के कारण ऐसा हो।
पेशाब और वज़ू के लिए तो मस्जिद ही में व्यवस्था थी, किन्तु पाखाने जाने के लिए डब्बा लेकर मस्जिद के उत्तर तरफ लिप्टस के जंगल की तरफ जाना पड़ता था। शुरू के कुछ दिन बब्बू का मन वहां खूब लगा, किन्तु वह गांव के उस आज़ाद परिंदे की तरह था जिसे पिंजरे में कै़द रहना नापसंद हो।
वहां की यांत्रिक दिनचर्या से उसका मन उचट गया।
फजिर की अज़ान सुबह पांच बजे होती। अज़ान देने से पहले मुअिज़्ज़्ान चीखते हुए किसी जिन्नात की तरह आ धमकता-’’शैतान के बहकावे में मत आओ लड़कों। जाग जाओ।’’
सुबह के समय ही तो बेजोड़ नींद आती है। ऐसी नींद में विध्न डालना शैतान का काम होना चाहिए। मुअिज़्ज़न खामखां शैतान को बदनाम किया करता। उन मासूम बच्चों की नींद के लिए शैतान तो वह स्वयं बन कर आता।
मुअिज़्ज़न मरदूद आकर जिस्म से चादरें खींचता, और बेदर्दी से उन्हें उठाता। बड़े हाफ़िज्जी के डर से लड़के विरोध भी न कर पाते। जानते थे कि यदि मुअिज़्ज़न ने बड़े हाफिज्जी से शिकायत कर दी तो ग़ज़ब हो जाएगा।
किसी तरह मन मानकर लड़के उठते।
आंखें मिचमिचाते कोने में पर्दा की गर्इ जगह पर जाकर ढेर सारा मूतते।
हुक्म था कि नींद में यदि कपड़े या जिस्म नापाक हो गया हो तो नहाना फ़र्ज़ है। नापाक बदन से नमाज़ अदा करने पर अल्लाह तआला गुनाह कभी माफ़ नहीं करते। ये गुनाह-कबीरा है। उसने किसी लड़के को सुबह उठने के साथ नहाते नहीं देखा था। हां, मुअिज़्ज़न या हाफ़िज्जी ज़रूर किसी-किसी सुबह नहाया करते थे। इसका मतलब वे रात-बिरात नापाक हुआ करते थे।
उसे तो वज़ू करना भी अखरता था। कर्इ बार उसने क़ायदे से आंख-मुंह धोए बगैर नमाज़ अदा की थी। बाद में दुआ करते वक्त वह अल्लाह तआला से अपनी इस ग़ल्ती के लिए माफ़ी मांग लिया करता था।
एक सुबह उसने पाया कि उसका पाजामा सामने की तरह गीला-चिपचिपा है। उसने अपने साथी महमूद को यह बात बतलार्इ थी। फिर उसी हालत में बिना नहाए उसने नमाज़ अदा की थी।
महमूद मुअिज़्ज़न का चमचा था।
उसने मुअिज़्ज़न को सारी बात बतार्इ और मुअिज़्ज्ा़न ने उसकी पेशी हाफ़िज्जी के सामने कर दी।
हाफ़िज्जी ने उसके बदन पर छड़ी से खूब धुलार्इ की।
वह खूब रोया।
उसने यतीमखाना से भाग जाने की योजना बनार्इ।
बन्ने उस्ताद की दुकान में लड़कों को काम करते देख वह ‘मदीना-टेलर’ गया। बन्ने उस्ताद ने उसे काम पर रख लिया। मौलवी साहब और हाफिज्जी ने बारहा चाहा कि बब्बू यतीमखाना लौट आए, किन्तु बब्बू ने उस मिस्ज्ाद में जाना क्या जुमा की नमाज़ प्ढ़ना भी बंद कर दिया। वह जुमा प्ढ़ने एक मील दूर की मस्जिद में जाया करता था।
वहां चार कारीगर थे। उनमें से तीन पतले-दुबले युवक थे, जो चौखाने की लुंगी और बनियाइन पहने सिर झुकाए मशीन से जूझते रहते। घण्टे-डेढ़ घण्टे बाद कोर्इ एक बीड़ी पीने दुकान से बाहर निकलता। बाकी दो उसके लौटने का इंतज़ार करते। वे एक साथ दुकान खाली न करते। दुकान में काम की अधिकता रहती।
चौथा कारीगर सुल्तान भार्इ थे। इन्हें बन्ने उस्ताद फूटी आंख न सुहाते, लेकिन सुल्तान भार्इ बड़ी ‘गुरू’ चीज़ थे।
बन्ने उस्ताद की अनुपस्थिति में सुल्तान भार्इ के हाथों दुकान की कमान रहती।
जब बन्ने भार्इ दुकान में मौजूद रहते तब अक्सर सुल्तान भार्इ के लिए उस्तानी का घर से बुलावा आता। कभी बन्ने भार्इ स्वयं सुल्तान भार्इ को यह कह कर रवाना किया करते कि मियां घर चले जाओ, बेगम ने आपको याद किया है। हैना...
सुल्तान भार्इ तीस-पैंतीस के छरहरे युवक थे। हमेशा टीप-टाप रहा करते।
धीरे-धीरे यूनुस ने जाना कि सुल्तान भार्इ का बन्ने उस्ताद की बीवी के साथ चक्कर चलता है। बन्ने उस्ताद अपने चिकने शागिर्द छपरइहा लौंडे शमीम के इश्क में गिरफ्तार हैं और जागीर लुटाने को तैयार रहते हैं।
‘मदीना टेलर’ में तीन माह गुज़ारे थे उसने। इस अवधि मे उससे काज-बटन, तैयार कपड़ों में प्रेस और तुरपार्इ के अलावा कोर्इ काम न लिया गया। काज-बटन लगाते और तुरपार्इ करते उसकी उंगलियां छिद गर्इं। सुर्इ के बारीक छेद में धागा डालते-डालते आंखें दुखने लगीं, लेकिन उस्ताद उसे कैंची और इंची टेप पकड़ने न देते।
कारीगर सत्तर-अस्सी की रफ्तार में सिलार्इ मशीन दौड़ाते। जाने कितने मील सिलार्इ का रिकार्ड वे बना चुके होंगे। यूनुस का मन करता कि उसे भी ‘एक्को बार’ सिलार्इ मशीन चलाने का मौका मिल जाता।
ऐसा ही दुख उसे तब भी हुआ था जब तकरीबन साल भर दिल लगाकर फील्डिंग करवाने के बाद भी उन नामुराद लड़कों ने उसे बल्लेबाजी का अवसर प्रदान नहीं किया था।
हुआ ये कि मुहल्ले में मुगदर के बल्ले और कपड़े की गेंद से क्रिकेट खेलते-खेलते उसके मन में आया कि वह भी असली क्रिकेट क्यों नहीं खेल सकता है?
वह नगर के अमीर लड़कों की जी-हुजूरी करते-करते उनके साथ क्रिकेट खेलने जाने लगा था।
डॉक्टर चतुर्वेदी का लड़का बन्टी और दवा दुकान वाले गोयल का लड़का सुमीत क्रिकेट टीम के सर्वेसर्वा थे। बाहर से उन लोगों ने क्रिकेट का काफी सामान मंगवाया था। मैदान के पीछे चपरासी का घर था, जहां वे लोग खेल का सामान रखते थे। उन लोगों के पास असली बेट, बॉल, स्टम्प्स, ग्लब्स, हेलमेट और लेग गार्ड आदि सामान थे।
जब उसने साल भर के निष्ठापूर्ण खेल सहयोग के एवज़ में बल्लेबाजी का अवसर पाने की बात कही तो वे सभी हंस पड़े।
बंटी ने कहा कि यदि वह वाकर्इ क्रिकेट के लिए सीरियस है तो उसे एक सौ रूपए महीने की मेम्बरशिप देनी होगी।
‘‘झोरी में झांट नहीं सराए में डेरा’’--यही तो कहा था सुमीत ने।
मन मसोस कर रह गया था यूनुस।
वहां बल्लेबाजी करने को न मिली और यहां बन्ने उस्ताद के सख़्त आदेश के कारण सिलार्इ मशीन पर हाथ साफ करने का मौका न मिल पा रहा था।
घर में हाथ से चलने वाली सिलार्इ मशीन है। अम्मा को सिलार्इ आती नहीं थी। अब्बू ही कभी सिलार्इ करने बैठते तो यूनुस या बेबिया से हैंडल घुमाने को कहते। उस मशीन में सिलार्इ बहुत धीमी गति से होती। पैर से चलने वाली मशीन यूं फ़र्र...फ़र्र... चलती कि क्या कहने!
बन्ने उस्ताद कभी मूड में होते तो बताते कि बड़े शहरों में आजकल बिजली के मोटर से ‘एटोमेटिक’ मशीनें चलती हैं। ऐसी-ऐसी दुकानें हैं जहां सैकड़ों मशीनें घुरघुराती रहती हैं।
यहां जैसा नहीं कि एक दिन में एक कारीगर दो जोड़ी कपड़े सिल ले, तो बहुत। वहां एक आदमी एक बार में कोर्इ एक काम करता है। जैसे कुछ लोग सिर्फ कालर सिलते हैं। कुछ आस्तीन सिलते हैं। कुछ आगा तैयार करते हैं। कुछ पीछा तैयार करते हैं। कुछ कारीगरों के पास आस्तीन जोड़ने का काम रहता है। कुछ के पास कालर फिट करने का काम। कुछ कारीगर ‘फार्इनल टच’ देकर कपड़े को तैयार माल वाले सेक्शन भेज देते हैं। जहां कपड़े पर प्रेस किया जाता है और उन्हें डबबों में बंद किया जाता है। एकदम किसी फेक्ट्री की तरह होता है सारा काम।
यूनुस इच्छा ज़ाहिर करता कि कपड़ा कटिंग का काम मिल जाए या सिलार्इ मशीन में ही बैठने दिया जाए।
बन्ने उस्ताद हिकारत से हंसकर जवाब देते--’’अभी तो मंजार्इ चल रही है मियां, इतनी जल्दी उस्तादी सिखा दी तो मेरी हंसार्इ होगी। लोग कहेंगे कि बन्ने उस्ताद ने कैसा शागिर्द तैयार किया है।’’
इसके अलावा बन्ने उस्ताद की एक आदत उसे नापसंद थी। बन्ने उस्ताद काम सिखाते वक्त उसकी जांघ पर चिकोटियां काटते, पीठ थपथपाते और उनका हाथ कब बहककर कमर के नीचे पहुंच जाता उन्हें ख्याल ही न रहता।
उनकी अनुपस्थिति में लड़के उस्ताद की हरकतों पर खूब मज़ाक किया करते।
चुंधियार्इ आंखों और मैले दांतों वाले बन्ने उस्ताद के मुंह से बदबू फूटा करती थी।
जल्द ही बन्ने उस्ताद की “ाागिर्दी से उसने स्वयं को आजाद कर लिया। उसने जान लिया था कि टेलर-मास्टर कभी लखपति बनकर ऐश की िज़ंदगी नहीं गुज़ार पाता। वह तो ताउम्र ‘टेलरर्इ’ ही करता रह जाता है।
इससे कहीं अच्छा है कि यूनुस मन्नू भार्इ से स्कूटर, मोटर-साइकिल की मिस्त्रीगिरी सीखे।
पंद्रह
यूनुस की विद्यालयीन पढ़ार्इ ही खटार्इ में पड़ी थी, किसी विश्वविद्यालय का मुंह देखना उसके नसीब में कहां था?
वैसे भी हर किसी के मुक़द्दर में विश्वविद्यालयीन पढ़ार्इ का ‘जोग’ नहीं होता।
फुटपथिया लोगों का अपना एक अलग विश्वविद्यालय होता है, जहां व्यवहारिक-शास्त्र की तमाम विद्याएं सिखार्इ जाती हैं।
हां, फ़र्क बस इतना है कि इन विश्वविद्यालयों में ‘माल्थस’ की थ्योरी पढ़ार्इ जाती है न डार्विन का विकासवाद।
छात्र स्वमेव दुनिया की तमाम घोषित, अघोषित विज्ञान एवम् कलाओं में महारत हासिल कर लेते हैं।
प्राध्यापकीय योग्यता के लिए शिक्षा और उम्र का बंधन नहीं होता। वे अनपढ़ हो सकते हैं, बुजुर्ग या बच्चे भी हो सकते हैं। कभी-कभी तो पशुओं के क्रिया-व्यापार से भी ये फुटपथिया विद्याथ्र्ाी ज्ञान अर्जित कर लेते हैं।
ये अनौपचारिक प्राध्यापक अपने विद्यार्थियों को जीने की कला सिखाते हैं।
जो विद्याथ्र्ाी जितना तेज़ हुआ, वह उतनी जल्दी व्यवहारिक ज्ञान ग्रहण कर लेता है। संगत के कारण विद्याथ्र्ाी निगाह बचा कर ग़लत काम करने, बहाना बनाने और बच निकलने का हुनर सीख जाता है। यहां सिखाया भी तो जाता है कि जो पकड़ा गया वही चोर। जो पकड़ से बचा वह बनता है गलियों का बेताज बादशाह।
इन विश्वविद्यालयों की कक्षाएं उजाड़-खण्डहरात में, गैरेजों में, सिनेमा-हाल और चाय-पान की गुमटियों में लगती हैं।
‘प्रेक्टिकल-ट्रेनिंग’ के लिए नगर के आवारा-लोफ़र, गंजेड़ी-भंगेड़ी, दुराचारी-बलात्कारी, युवकों की संगत ज़रूरी होती है।
बस-ट्र्रक चालकों और खलासियों से भूगोल, नागरिक “ाास्त्र और भारतीय दंड-विधान का सार सरलता से उनकी समझ में आ जाता है।
मोटर गैरेज में काम सीख कर मेकेनिकल-इंजीनियरिंग और आटो-मोबाइल इंजीनियरिंग का कोर्स पूरा किया जाता है।
दर्जियों की दुकान में बैठकर ‘ड्रेस-डिज़ाइनर’ और ‘फैशन-टेक्नोलॉजी’ की डिग्री मिल जाती है।
नार्इ की दुकान से ‘ब्यूटी पार्लर’ का डिप्लोमा मिल जाता है।
सिविल ठेकेदार के पास मुंशीगिरी कर लेने के बाद आदमी आसानी से सिविल इंजीनियर जितनी योग्यता प्राप्त कर लेता है।
विद्युत ठेकेदार के पास काम सीखने पर इलेक्ट्रीशियन का डिप्लोमा मिला समझो।
काम-शास्त्र के सैद्धांतिक पक्ष से वे कमसिनी में ही वाकिफ हो जाते हैं और प्रेक्टीकल का अवसर निम्न-मध्यम वर्गीय समाजों में उन्हें सहज ही मिल जाता है। चचेरे-ममेरे भार्इ-बहिन, चाचा-मामा, बुआ-चाची-मामी, नौकर-नौकरानी, पिता या अध्यापक, इनमें से कोर्इ एक या अधिक लोग उन्हें व्यस्क अनुभवों से मासूम बचपन ही में पारंगत बना देते हैं।
राजनीति-शास्त्र सीखने के लिए कहीं जाने की ज़रूरत नहीं। आजकल हर चीज में ‘पोलिटिक्स’ की बू आती है।
यूनुस और उसके जैसे तमाम सुविधाहीन बच्चे ऐसी ही विश्वविद्यालयों के छात्र थे।
बड़े भार्इ सलीम की असमय मृत्यु से ग़मज़दा यूनुस को एक दिन उसके आटोमोबार्इल इंजीनियरिंग के प्राध्यापक यानी मोटर साइकिल मिस्त्री मन्नू भार्इ ने गुरू-गम्भीर वाणी में समझाया था--’’बेटा मैं पढ़ा-लिखा तो नहीं लेकिन ‘लढ़ा’ ज़रूर हूं। अब तुम पूछोगे कि ये लढ़ार्इ क्या होती है तो सुनो, एम्मे, बीए जैसी एक डिग्री और होती है जिसे हम अनपढ़ लोग ‘एलेलपीपी’ कहते हैं। जिसका फुल फार्म होता है, लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर, समझे। इस डिग्री की पढ़ार्इ फ़र्ज-अदायगी के मदरसे में होती है जहां मेहनत की कापी और लगन की कलम से ‘लढ़ार्इ’ की जाती है।’’
यूनुस मन्नू भार्इ की ज्ञान भरी बातें ध्यान से सुना करता।
असुविधाओं से भरपूर अव्यवस्थित घरेलू माहौल में स्कूली शिक्षा की किसे फ़िक्र!
वह अच्छी तरह जानता था कि अकादमिक तालीम उसके बूते की बात नहीं।
उसे भी अब इस ‘लढ़ार्इ’ जैसी कोर्इ डिग्री बटोरनी होगी।
इसीलिए वह मन्नू उस्ताद की बात गिरह में बांध कर रक्खे हुए था।
मन्नू भार्इ की छोटी सी मोटर-साइकिल रिपेयर की गैरेज थी।
नगर के बाहर पहाड़ी नाले के पुल को पार करते ही दुचकिया, तिनचकिया, चरचकिया, छ’चकिया जैसी तमाम गाड़ियों की मरम्मत के लिए गैरेज हैं। टायरों मे हवा भरने वाले बिहारी मुसलमानों की दुकानें भी इधर ही हैं।
मन्नू भार्इ की गैरेज पुल पार करते ही पहले मोड़ पर है।
बन्ने उस्ताद के दर्जीगिरी वाले अनुभव से मायूस यूनुस को गैरेज का माहौल ठीक लगा।
गैरेज के अंदर एक लकड़ी का बोर्ड था, जिस पर क्रम से पाना-पेंचिस आदि सजा कर टांग दिए जाते। यूनुस का काम होता, सुबह मन्नू भार्इ के घर जाकर उनसे गैरेज की चाभी ले आता। एक बित्ते का एक झाड़ू था, जिससे वह पहले गैरेज के बाहर सफार्इ करता। फिर गैरेज का शटर उठाता। अंदर रिपेयर के लिए आर्इ स्कूटर-मोटर साइकिलें बेतरतीबी से रखी रहतीं। एक-एक कर तमाम गाड़ियों को वह गैरेज से बाहर निकालता। फिर गैरेज के अंदर झाड़ू लगाता। इस बीच कोर्इ नट-बोल्ट, वाशर या कोर्इ अन्य पार्ट गिरा मिलता तो उसे उठाकर यथास्थान रख देता। मन्नू भार्इ के आने से पूर्व यदि कोर्इ कस्टमर आता तो वह उनकी समस्या सुनता और उसके लायक रिपेयर का काम होता तो कर देता।
इस छोटी-मोटी रिपेयरिंग से अपना जेब-खर्च बनाता।
रात गैरेज बंद होने से पहले वह तमाम पाना-पेंचिस को जले मोबिल से धोता, पोंछता और फिर उन्हें दीवार पर टंगे बोर्ड पर क्रमानुसार सजा देता।
मन्नू भार्इ और यूनुस मिलकर मरम्मत के लिए तमाम गाड़ियों को गैरेज के अंदर ठूंसते।
यूनुस जब घर जाने के लिए सलाम करता तो मन्नू भार्इ उसे रोकते और फिर कभी दस, कभी बीस रूपए का नोट पकड़ा देते।
अपनी इस छोटी-मोटी कमार्इ से यूनुस बहुत खुश रहता।
नन्हा यूनुस बड़ा जहीन था...
कहा भी जाता है कि ये सिक्खड़े-सरदार और म्लेच्छ-मुसल्ले बड़े हुनरमन्द होते हैं। तकनीकि दक्षता में इनका कोर्इ सानी नहीं।
मेहनत और मरम्मत के काम ये कितनी सफार्इ से करते हैं। नार्इ, दर्जी और सब्जियों की दुकानें अधिकांशत: मुसलमानों की हैं। अण्डा, मुर्गा, मछली और गोश्त की दुकानों पर भी मुसलमानों का क़ब्ज़ा है।
बाबरी-मस्जिद गिराए जाने के बाद नगर में हिन्दू कसाइयों ने ‘झटका’ वाली दुकानें लगार्इं। हमीद चिकवा बताता है कि उन लोगों ने अपनी मीटिंग में फैसला लिया है कि ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’ का नारा लगाने वाले राष्ट्रीय हिन्दू यदि मांसाहारी हैं तो वे मुसलमान चिकवों से गोश्त न खरीदें, बल्कि ‘झटका’ वाली दुकानों से गोश्त खरीदें।
इससे मुसलमानों के इस एकक्षत्र व्यवसाय पर कुछ तो प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
सिक्खड़ों को तो सन् चौरासी में औकात बता दी गर्इ थी। मुसल्लों को गोधरा के बहाने गुजरात में तगड़ा सबक़ सिखा दिया गया।
सिख तो समझ गए और मुख्यधारा में आ गए, लेकिन इन म्लेच्छ-मुसलमानों को ये कांग्रेसी और कम्यूनिस्ट चने के झाड़ पर चढ़ाए रखते हैं। और वो जो एक ठो ललुआ है, वो चारा डकार कर मुसलमानों का मसीहा बना बैठा है।
यूनूस ने कम-उम्र में ही जान लिया था कि उसके अस्तित्व के साथ ज़रूर कुछ गड़बड़ है।
चौक के तिलकधारी मुनीमजी कहा करते--’’अगर ये हमारे छद्म धर्मनिरपेक्षवादी नपुंसक हिंदू शांत रहें तो ‘आर-पार’ की बात हो ही जाए। सेकूलर कहते हैं ये शिखण्डी साले खुद को।’’
उनके हमख़्ायाल चौबेजी हां में हां मिलाते--’’हिंदू हित की बात करने वाले को ये चूतिए साम्प्रादायिक कहते हैं। हमें अछूत समझते हैं।’’
शिशु मंदिर के प्रधानपाठक विश्वकर्मा सर कहां चुप रहते, वैसे भी उन्हें गुरूर था कि वह इस कस्बे के सर्वमान्य बुद्धिजीवी हैं, किन्तु राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित मुनीमजी और चौबेजी उन्हें ज्यादा अहमियत नहीं देते--’’अब समय आ गया है कि हम अपना ‘होमलैण्ड’ बना लें। इन मुसल्लों को द्वितीय नागरिकता मिले और इन्हें मताधिकार से वंचित किया जाए। तुष्टिकरण की सारी राजनीति स्वमेव खत्म हो जाएगी।’’
अपने समय की चुनौतियों से बाख़बर और बेखबर यूनुस, मन्नू भार्इ को काम करते बड़े ध्यान से देखा करता।
उनकी हरेक स्टाइल की नक़ल किया करता।
मन्नू भार्इ चाय बहुत पीते थे।
कोर्इ ग्राहक आया नहीं कि आर्डर कर देते--’’यूनुस, तनि भाग कर चारठो चाय ले आ।’’
वहीं यूनुस को चाय की आदत पड़ी।
मन्नू भार्इ अल्सर हो गया था।
सुनते हैं कि अब वह इस दुनिया में नहीं हैं।
सोलह
मोटर साइकिल मिस्त्री मन्नू भार्इ के बाद उसे एक और उस्ताद मिला-’डॉक्टर’। यह कोर्इ एमबीबीएस या झोला छाप डॉक्टर का ज़िक्र नहीं, बल्कि सरदार शमशेर सिंह डोज़र ऑपरेटर का किस्सा है।
सरदार शमशेर सिंह कहा करता--’’सर दर्द, कमर दर्द, बुखार की दवा लिखने वाला जब डॉक्टर कहलाता है तो तमाम रोगों को दूर भगाने वाली दारू की सलाह देने वाले को डॉक्टर क्यों नहीं कहा जाता?’’
दूसरे डॉक्टर वह होते हैं जो किसी खास विषय पर शोध करते हैं और विश्वविद्यालय से उन्हें ‘डॉक्टरेट’ की डिग्री मिलती है। अधिकांश लोगों को यह डिग्री गहन अध्ययन के पश्चात मिलती हैं और कुछ लोगों को उनकी विलक्षण प्रतिभा के कारण विश्वविद्यालय स्वयं ‘डी लिट’ की मानद उपाधि से सम्मानित करता है।
सरदार शमशेर सिंह को दारू के क्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्त थी, इसलिए फुटपथिया विश्वविद्यालय के कुलपतियों ने उसे मानद ‘डॉक्टरेट’ की उपाधि से सम्मानित किया था। डॉक्टर की शागिर्दी में यूनुस ‘बुलडोज़र’ और ‘पेलोडर’ चलाना सीख गया। ‘पोकलैन’ भी वह बहुत बढ़िया चलाता।
‘पोकलैन’ हाथी की सूंड की तरह का एक खनन-यंत्र है, जिसके ‘बूम’ और ‘बकेट’ का ‘मूवमेंट’ ठीक हाथी की सूंड के जैसा है। जिस तरह से कोर्इ हाथी अपनी सूंड की मदद से ऊंचे-ऊंचे पेड़ों से हरी-भरी डालियां तोड़कर उसी सूंड की सहायता से ग्रास अपने मुंह में डालता है, उसी तरह से ‘पेलोडर’ मशीन काम करती है।
शायद दुनिया के तकनीशियनों, अभियंताओं, सर्जकों और वास्तुकारों ने प्राकृतिक तत्वों और जीव-जंतुओं की उपस्थिति से प्रेरणा प्राप्त कर अपनी कुशलता और दक्षता में वृद्धि की है।
कोयला की खुली खदानों और धरती की काया-कल्प कर देने वाली परियोजनाओं की जान हैं ये भीमकाय उपकरण। चाहे विशालकाय पहाड़ कटवा कर चटियल मैदान बना दें या बड़ी-बड़ी नहरें खोद डालें।
यूनुस के हुनर की सभी तारीफ़ करते। वह ‘डॉक्टर’ का चेला जो ठहरा!
‘डॉक्टर’ अब रिटायर हो चुका है।
अपने खालू का यूनुस इसीलिए अहसान माना करता कि उन्होंने ‘डॉक्टर’ से उसके लिए सिफारिश की। ‘डॉक्टर’ के कारण ठेकेदारों में आज उसकी अपनी ‘मार्केट-वैल्यू’ है।
खाला ने उसे काफी समझाया था कि वह अपनी िज़ंदगी को खुद एक नए सांचे में ढाले। अपने बड़े भार्इ सलीम की तरह हड़बड़ी न करे।
जो भी काम सीखे पूरी लगन और र्इमानदारी के साथ सीखे। खाला कहा करती थी-’’सुनो सबकी, लेकिन करो मन की। दूसरों के इशारे पर नाचना बेवकूफी है।’’
इसीलिए काम सीखने के लिए यूनुस ने खाला की सलाह मानी।
उसने ‘डॉक्टर’ की दारू या अन्य ऐब नहीं बल्कि उसके हुनर को आत्मसात किया। यही यूनुस की पूंजी थी।
यूनुस ने कोर्इ कसर न छोड़ी काम सीखने में।
‘डॉक्टर’ को स्वीकार करना पड़ा कि उसने आज तक इतने चेले बनाए किन्तु इस ‘कटुए’ जैसा एक भी नहीं। बहुत से शागिर्द बने, जिनने उससे शराब पीनी सीखी। नशे में धुत रहना सीखा। रंडीबाजी सीखी किन्तु काम न सीखा।
इसीलिए यूनुस को वह कहा करता-’’ये बड़ा लायक चेला निकला।’’ यूनुस को अब भी सिहरन होती है, जाड़े की उन कड़कड़ाती अंधेरी रातों को यादकर। जब कोयले की ओपन-कास्ट खदान के ‘डम्पिंग-एरिया’ में वह डॉक्टर के साथ काम सीखने जाया करता था।
सिंगरौली क्षेत्र मे कोयले की बड़ी-बड़ी खुली खदानें हैं।
मध्यप्रदेश और उत्तर-प्रदेश की सीमा पर कोयले का अकूत भण्डार है सिंगरौली क्षेत्र में। रिहन्द नदी पर बांधा गया विशालकाय बांध। कोयला और पानी के योग से बिजली बनाने के बड़े-बड़े विद्युत-गृह। लाखों टन कोयले से बनने वाली हज़ारों मेगावाट बिजली। इस बिजली की राष्ट्रीय पूर्ति में सिंगरौली क्षेत्र की पर्याप्त हिस्सेदारी है।
सिंगरौली क्षेत्र देश का एक प्रमुख ऊर्जा-तीर्थ है।
एक बार में एक सौ बीस टन कोयला ढोकर चलने वाले भीमकाय डम्पर। सैकड़ों टन बारूद की ब्लास्टिंग से चूर-चूर चट्टानों का पहाड़ अपनी पीठ पर उठाए, अलमस्त हाथी की तरह झूम-झूम कर चलते डम्पर। उन डम्परों के चलने से ऐसा शोर होता ज्यों सैंकड़ों सिंह दहाड़ रहे हो। एक-एक डम्पर एक बड़ी फैक्टरी के बराबर हैं।
डम्पर के चलने के लिए चौड़ी सड़के बनार्इ जाती हैं। इन्हें हॉल-रोड कहा जाता है। हॉल-रोड पर डम्पर चलने के पूर्व पानी के टेंकर से जल-सिंचन किया जाता है ताकि धूल के बादल न उठें। बालुर्इ पत्थर की धूल फेफड़े के लिए नुकसानदेह होती है। फेफड़े के छिद्रों में कोयला और पत्थर की धूल के असुरक्षित सेवन से खदान-कर्मियों को न्यूमोकोनियोसिस, सिलकोसिस जैसी बीमारियां हो जाती हैं।
सिंगरौली क्षेत्र की कोयला खदानों में बड़ी-बड़ी ड्रेगलार्इनें हैं। जमीन की सतह से डेढ़ सौ फिट तक गहरे से मिट्टी खोदकर तीन सौ फिट की दूरी पर ले जाकर ‘डम्प’ करने वाला यंत्र ‘ड्रेगलार्इन’। यूनुस बड़े शौक़ से उस भीमकाय यंत्र को चलते हुए देखा करता, एकदम मंत्रमुग्ध होकर। रस्सों के सहारे ‘बकेट’ का संचालन। लम्बे-लम्बे ‘बूम’ पर घिर्रियों के सहारे रस्सों का अद्भुत खेल। ‘डॉक्टर’ उर्फ शमशेर सिंह एक दिन यूनुस को ड्रेगलार्इन दिखाने ले गए। पास जाकर उसे डर लगा था। रात का समय। सैकड़ों बल्बों के प्रकाश से ड्रेगलार्इन का चप्पा-चप्पा प्रकाशमान था। इतनी रोशनी कि आंखें चुंधिया जाएं। इतने बल्ब कि गिना न जा सके। मार्चिंग पैड से लेकर बूम के टॉप तक तेज़ रोशनी के सर्चलार्इटें। ‘डॉक्टर’ उसे एक जीप में बिठाकर ड्रेगलार्इन तक ले गया था। जीप पांच सौ मीटर की दूरी पर रोक दी गर्इ। वहां से अब पैदल जाना था। उतनी बड़ी ड्रेगलार्इन के समक्ष इंसान कितना बौना नज़र आता है। हाथी के समीप चींटी की सी हैसियत। ड्रेगलार्इन एक घण्टे में एक हज़ार मज़दूरों के एक माह काम के बराबर मिट्टी हटाती है। इसे मात्र एक आदमी चलाता है। ड्रेगलार्इन-आपरेटर। जिसका वेतन खदान के सभी श्रमिकों से ज्यादा होता है।
ड्रेगलार्इन के पीछे दो डोज़र लगातार चल रहे थे। वे ड्रेगलार्इन की अगली ‘सीटिंग’ के लिए समतल जगह बना रहे थे।
डॉक्टर ने यूनुस से कहा कि घूमती हुर्इ ड्रेगलार्इन में चढ़ना होगा। ड्रेगलार्इन का मार्चिंग-पैड ही ज़मीन से बीस फुट ऊंचा था। उस पर सीढ़ी लगी थी। डॉक्टर उचक कर उस सीढ़ी पर चढ़ गया और जल्दी-जल्दी ऊपर चढ़ने लगा। यूनुस ने भी उसका पीछा किया। अब वे मार्चिंग-पैड पर थे। ड्रेगलार्इन अपनी जगह पर बैठे-बैठे घूम-घूम कर मिट्टी उठाकर फेंक रहा था। फिर डॉक्टर पचास फुट ऊंचे मशीन-रूम की तरफ जाने वाली सीढ़ी पर चढ़ने लगा। यूनुस भी पीछे-पीछे चढ़ गया। मशीन-रूम से गरम हवा निकल रही थी, जिससे अब ठंड लगनी कम हो गर्इ थी। मशीन-रूम का दरवाज़ा बंद था। डॉक्टर ने धक्का मारकर दरवाज़ा खोला तो यंत्रों के चलने से उत्पन्न भयानक शोर से लगा कि कान के पर्दे फट जाएंगे। यूनुस ने कान हाथों से बंद कर लिए। मशीन-रूम में बड़े-बड़े मोटर, जेनेरेटर और जाने कितने उपकरण लगे थे। जिनके चलने से वहां शोर था।
डॉक्टर युनुस को ड्रेगलार्इन की क्रियाविधि के बारे में बताने लगा। डम्प-रोप को घुमाने के लिए ड्रम लगा हुआ है। ड्रेग-रोप घुमाने के लिए ड्रम किधर है। यूनुस ने जाना कि आठ-दस फैक्टरियों के बराबर ड्रेगलार्इन में मोटर-जेनेरेटर लगे हैं।
फिर वे लोग आपरेटर केबिन की तरफ गए। दो दरवाज़ा खोलने पर एक कारीडार मिला। जिसपर कालीन बिछा हुआ था। यहां तकनीशियन आराम कर रहे थे। डॉक्टर ने यहां अपना जूता उतारा। यूनुस ने भी जूते उतारे। फिर एक कांच का दरवाज़ा खोल कर वे आपरेटर केबिन में जा पहुंचे। एकदम वातानुकूलित कमरा। कांच का घर। पीछे तरफ वायरलैस-सेट। बीच में आपरेटर की सीट। जिसपर एक सरदारजी आराम से बैठकर हाथ और पैर के संचालन से ड्रेगलार्इन चला रहे थे। यूनुस को लेकर डॉक्टर सामने की तरफ आ गया। यहां से नीचे कोयले की परत दिखलार्इ दे रही थी। जिसके ऊपर के ओभर-बर्डन को ड्रेगलार्इन की बकेट से उठाकर सरदारजी तीन सौ फुट दूर किनारे डाल रहे थे। इस फेंकी हुर्इ मिट्टी का एक नया पहाड़ बनता जा रहा था। बड़ी लय-ताल बद्ध क्रिया थी ड्रेगलार्इन की।
ड्रेगलार्इन-आपरेटर के सामने और दोनों तरफ जाने कितने लीवर, बटन और सिग्नेलिंग-लार्इट्स लगे हुए थे। बीच-बीच में सरदारजी कंट्रोल-रूम से वायरलैस के ज़रिए बात करता जाता था। फिर सरदारजी ने डॉक्टर की फरमार्इश पर असिस्टेंट से कहा कि डॉक्टर को ‘पांगड़ा’ सुनवा दे यारा!
यूनुस ने उस दिन वहां चाय भी पी। आपरेटर की सुख-सुविधा का वहां पूरी व्यस्था थी। यदि वह थक जाए या उसे हाजत लगी हो तो असिस्टेंट मौजूद रहता, जो ड्रेगलार्इन आपरेशन ज़ारी रखता।
ऐसी ही एक और हैरत-अंगेज़ मशीन है ड्रीलिंग-मशीन। ये ज़मीन में एक सौ पचास फुट गहरे और एक फुट व्यास के छेद करती है। जिनमें डेढ़ से दो टन बारूद डालकर ब्लास्टिंग की जाती है। एक बार में चार-पांच सौ टन बारूद की ब्लास्टिंग होती है। आस-पास का इलाका दहल जाता है। धूल और रंग-बिरंगी गैसों के बादल काफी देर तक छाए रहते हैं। कहते हैं कि सिंगरौली क्षेत्र में खदान खुलने से पहले हर तरह के जंगली जानवर रहा करते थे। यह एक अभ्यारण्य की तरह था। खदान खुलने से जंगलात कम हुए। नगर बसे। जानवर जाने कहां गायब हो गए। आज भी सियार, मोर, लोमड़ी और बनमुर्गियां यहां नज़र आते हैं। कर्इ लोग बाघ आदि देखने का दावा भी करते हैं।
धरती के गर्भ में सदियों से छिपी है कोयले की मोटी परतें।
कोयले की परत के ऊपर सख्त बालुर्इ परतदार तलछट चट्टानें हैं।
यूनुस ने ओभरमैन मुखर्जी दा से एक बार पूछा था कि दादा, ये कोयला बना कैसे?
बांग्लादेश से रांची आकर बसे मुखर्जी दा के सामने के दो दांत टूटे हुए हैं। वह कुछ भी कहें ‘हत् श्शाला’ कहे बिना अपनी बात पूरी न करते।
उन्होंने बताया कि करोड़ों बरस पूर्व यहां घने जंगल हुआ करते थे। फिर महाजलप्लावन हुआ होगा और वे सारे जंगलात पानी में डूब गए होंगे। पेड़-पौधे, वन्य-जन्तु, वनस्पतियां आदि सड़-गलकर कार्बनिक पदार्थों में तब्दील हो गए। कालांतर में उन पर बालू-मिट्टी की परतें जमती चली गर्इं। धीरे-धीरे उच्च-ताप और दाब सहते-सहते जंगलात कोयले में बदल गए होंगे। इसीलिए अभी भी इन कोयले की परतों में वृक्षों के फासिल्स यानी जीवाश्म पाए जाते हैं।
कोयला कहीं-कहीं धरती की सतह के काफी नीचे मिलता है। उसकी क्वालिटी अच्छी होती है। उसक कोयले को निकालने के लिए सुरंगें बनार्इ जाती हैं या चानक खोदे जाते हैं। ऐसी खदानों को अण्डर-ग्राउण्ड खदानें कहा जाता है।
जिन स्थानों में कोयले की परत धरती की सतह से थोड़ा-बहुत नीचे मिलती है, उन कोयले की परतों का खनन ‘ओपन-कास्ट’ विधि से किया जाता है। ऐसी खदानें ओपन-कास्ट मार्इन या खुली खदानें कहलाती हैं।
ब्लास्टिंग के बाद चूर्ण हुर्इ चट्टानों को शावेल जैसे उत्खनन यंत्र खोदकर डम्परों पर लाद देते हैं। इन चट्टानों के चूर्ण को खनन-शब्दावलि में ‘ओभर-बर्डन’ कहा जाता है। ओभर-बर्डन को डम्परों के ज़रिए डम्पिंग-एरिया में भेजा जाता है। ‘डम्पिंग एरिया’ में ओभर-बर्डन डम्प होते-होते एक पहाड़ सा बन जाता है।
सदियों पुराने पहाड़ कटकर ओभर-बर्डन के नए पहाड़ों में बदल जाते हैं। ओभर-बर्डन के पहाड़ इंसान के हाथ की रचना हैं। इन नए पहाड़ों की चोटियों को समतल कर उन पर वृक्षारोपण किया जाता है।
क्ोयला निकल जाने के बाद बाकी बचे गड्ढे को कृत्रिम झील में बदल दिया जाता है। इसी डम्पिंग-एरिया में बुलडोज़र चला करते हैं, जो डम्पर द्वारा लार्इ गर्इ चट्टानों को ‘डोज़’ कर समतल बनाता है, ताकि उन पर दुबारा डम्पर आकर ओभर-बर्डन की डम्पिंग कर सकें।
यूनुस उसी बुलडोज़र की आपरेटरी सीखने खदान आया करता।
डम्पिंग-एरिया में शेर की तरह दहाड़ते डम्पर आते तो उन्हें देख कलेजा दहल जाता। डम्पर आपरेटर जब रिवर्स-गियर लगाता तो उसका आडियो-विजुअल अलार्म बजने लगता-पीं पां पीं पांकृ
डम्पर पीछे चलकर बुलडोजर से बनार्इ गर्इ मेड़ पर आकर रूकता। फिर डम्पर आपरेटर ‘डम्प लीवर’ उठाता और ओभर-बर्डन का ढेर भरभराकर सैकड़ों फिट नीचे गहरार्इ में गिर जाता। कुछ माल मेड़ पर बच जाता जिसे डोजर-आपरेटर, डोजर की सहायता से साफ करता। ताकि अगला डम्पर उस जगह पर आकर सुरक्षित ‘अनलोड’ कर सके।
डम्पिंग क्षेत्र में किनारे की मेड़ बनाना ही असली हुनर का काम है। उस मेड़ को ‘बर्म’ कहा जाता है। अगर ये बर्म कमजोर बनें तो डम्पर के अनियंत्रित होकर नीचे लुढ़कने का खतरा बना रहता है। असुरक्षित डम्पिंग-क्षेत्र में कर्इ दुर्घटनाएं घट चुकी हैं।
इससे करोड़ों रूपए की लागत से आयातित डम्पर दुर्घटनाग्रस्त होते हैं और कर्इ बार आपरेटर की जान भी जाती है। बुलडोजर से डोजिंग करना एक तरह की कला है। जिस तरह मूर्तिकार छेनी-हथोड़ी से बेजान पत्थरों पर जान फूंकता है, उसी तरह कुशल डोज़र-आपरेटर, डोजर की ब्लेड के कलात्मक इस्तेमाल से ऊबड़-खाबड़ धरा का रूप बदल देता है।
यूनुस अपनी बेजोड़ मेहनत और लगन से जल्द ही इस हुनर में माहिर हो गया।
इससे उसके पियक्कड़ उस्ताद ‘डॉक्टर’ का भी लाभ हुआ।
सेकण्ड-शिफ्ट की ड्यूटी में शाम घिरते ही यूनुस को बुलडोज़र पकड़ा कर ‘डॉक्टर’ दारू-भट्टी चला जाता।
कोयला खदान के श्रमिकों और कुछ अधिकारियों के मन में ये धारणा है कि दारू-शराब फेफड़े में जमी कोयले की धूल को काट फेंकती है। साथ ही एक नारा और गूंजता कि दारू के बिना खदान का मज़दूर िज़ंदा नहीं रह सकता।
इसीलिए कोयला-खदान क्षेत्र में दारू के अड्डे बहुतायत में मिलते हैं।
लोक कहते कि मरने के बाद कोयला खदान के मजदूरों को जलाने में लकड़ी कम लगेगी, क्योंकि उनके फेफड़े में वैसे भी कोयले की धूल जमी होगी, जो स्वत: जलेगी।
मुखर्जी दा कहते-’’ये आदमी भी श्शाला गुड-क्वालिटी का कोयला होता है।’’
यूनुस ने कभी दारू नहीं पी।
हो सकता है इसके पीछे खाला-खालू का डर हो, या मन में बैठी बात कि मुसलमानों के लिए शराब हराम है। ठीक इसी तरह यूनुस बिना तस्दीक के बाहर गोश्त नहीं खाता। उसे पक्का भरोसा होना चाहिए कि गोश्त हलाल है, झटका नहीं। दोस्तों के साथ पार्टी-वार्टी में वह मछली का प्रोग्राम बनवाता या फिर शाकाहारी खाना खाता।
ओपन कास्ट कोयला खदान की हैवी मशीनों को चलाना सीखने के बाद उसमें आत्मविश्वास जागा।
सरकारी नौकरी तो मिलने से रही, हां अब वह बड़ी आसानी से किसी प्रार्इवेट नौकरी में तीन-चार हजार रूपए महीना का आदमी बन गया था।
खालू ने यूनुस के लिए कोयला-परिवहन करने वाली कम्पनी ‘मेहता कोल एजेंसी’ यानी ‘एमसीए’ के मैनेजर से बात की।
मैनेजर ने जवाब दिया कि जगह खाली होने पर विचार किया जाएगा।
खालू जान गए कि प्रार्इवेट में भी हुनर के बदौलत नौकरी का जुगाड़ कर पाना उनके बस की बात नहीं, इसलिए वह हार मान गए।
लेकिन खाला कहां हार मानने वाली थीं।
मज़दूर यूनियन के नेता चौबे जी से खाला की अच्छी बोलचाल थी। चौबेजी उनके मैके गांव के थे। कॉलरी में इस तरह के सम्बंध काफी महत्व रखते हैं।
खाला के निमंत्रण पर चौबेजी एक दिन क्वाटर आए तो यूनुस दौड़कर उनके लिए दो बीड़ा पान ले आया। पान चबाते हुए चौबेजी ने कहा था-’’सबेरे दस बजे मेहतवा के आफिस पर लइकवा को भेज दें। आगे जौन होर्इ तौन ठीकै होर्इ।’’
और वाकर्इ, चौबेजी की बात पर उसे अस्थार्इ तौर पर काम मिल गया।
‘परमानेंट’ के बारे चौबेजी को विश्वास दिलाया गया कि काम देखकर जल्द ही बालक को परमानेंट कर दिया जाएगा।
एक बात ज़रूर यूनुस को सुना दी गर्इ कि कम्पनी अपनी आवश्यकतानुसार, काम पड़ने पर अपने कर्मचारियों को देश के किसी भी हिस्से में काम करने भेज सकती है। एमसीए का कारोबार बिहार, बंगाल, झारखण्ड, एमपी और छत्तीसगढ़ में फैला है। इनमें से किसी भी प्रान्त में उन्हें भेजा जा सकता है।
मरता क्या न करता, यूनुस ने तमाम शर्तें मान लीं।
इसके अलावा कोर्इ चारा भी तो न था।
भीमकाय सरकारी डम्परों में लदकर कोयला कोल-यार्ड तक पहुंचता।
जहां उनमें से शेल-पत्थर आदि को छांटा जाता है। कोल-यार्ड को पहली निगाह में कोर्इ बाहरी आदमी कोयला-खदान ही समझेगा। सैकड़ों एकड़ में फैले विस्तृत-क्षेत्र में कोयले के टीले। इन्हें अब प्रार्इवेट दस-टनिया डम्परों में भरकर रेल्वे सार्इडिंग तक पहुंचाने का काम एमसीए का था। इन दस-टनिया डम्परों से सीधे ग्राहकों तक भी कोयला पहुंचाया जाता।
कोयला-यार्ड में पेलोडर मशीन से दस-टनिया डम्परों में कोयला भरा करता था यूनुस। उसकी कार्यकुशलता, लगनशीलता, कर्मठता और मृदु-व्यवहार के कारण मुंशी-मैनेजर उसे बहुत मानते थे। कोर्इ उसे छोड़ने को तैयार नहीं था।
न जाने क्यों ऐसे हालात बने कि उसे खाला का घर छोड़ने को निर्णय लेना पड़ गया।
वैसे भी उसे लग रहा था कि उसका दाना-पानी अब उठा ही समझो। वो तो अच्छा हुआ कि बडे़ भार्इ सलीम की तरह अकुशल श्रमिकों की श्रेणी में उसकी गिनती नहीं थी। उसकी एक ‘मार्केट वैल्यू’ बन चुकी है। उसे मालू था कि इस बहुत कुछ पाने के लिए वह ढेर सारा खो भी रहा है। यानी तपती-चिलचिलाती धूप में घनी आम की छांह जैसी अपनी सनूबर को...
वह सनूबर को दिल की गहरार्इयों से प्यार करता था।
फिल्म ‘मुकद्दर का सिकंदर’ का एक मशहूर गाना वह अक्सर गुनगुनाया करता-’’ओ साथी रे, तेरे बिना भी क्या जीना।’ बिग बी अमिताभ की तर्ज पर इसे यूं भी कहा जा सकता है-’सनूबर के बिना जीना भी कोर्इ जीना है लल्लू, अंय...’
क्या अब वह सनूबर से कभी मिल पाएगा?
यूनुस जानता है कि वह सनूबर के लायक नहीं।
मखमल में टाट का पैबंद, यही तो खाला ने उसके बारे में कहा था।
खाला जानती थी कि वह सनूबर को चाहता है। सनूबर भी उसे पसंद करती है, लेकिन सिर्फ एक-दूसरे को चाह लेने से कोर्इ किसी की जीवन-संगिनी तो बन नहीं सकती।
यूनुस के पास सनूबर को खुश रखने के लिए आवश्यक संसाधन कहां?
‘माना कि दिल्ली मे रहोगे, खाओगे क्या ग़ालिब?’
अब सनूबर उसकी कभी न हो पाएगी!
दुनिया में कुछ इंसान भाग्यवश स्वर्ग के सुख भोगते हैं और कुछ इंसानों के छोटे-छोटे स्वप्न, तुच्छ सी इच्छाएं भी पूरी नहीं हो पाती हैं.......क्यों?
ऐसे ही कितने सवालों से जूझता रहा यूनुस....
स्त्रह (17)
प्लेटफार्म के मुख्य-द्वार पर एक लड़की दिखी।
यूनुस चौंक उठा।
कहीं ये सनूबर तो नहीं।
वैसी ही पतली-दुबली काया।
उस लड़की के पीछे एक मोटा आदमी और ठिगनी औरत थी, जो शायद उसके मां-बाप हों।
वे प्रथम-श्रेणी के प्रतीक्षालय की तरफ जा रहे थे।
यूनुस सनूबर को बड़ी शिद्दत से याद करने लगा।
उसे याद आने लगीं वो सब बातें, जिनसे शांत जीवन में हलचल मची।
जमाल साहब का खाला के घर में प्रभाव बढ़ता गया। हरेक मामलात में उनकी दखलंदाजी होने लगी।
रमज़ान के महीने में वह रात को खाला के घर में ही रूकने लगे। रमज़ान में सुबह सूरज उगने से पूर्व कुछ खाना पड़ता है, जिसे सेहरी करना कहते हैं। गेस्ट-हाउस में कहां ताज़ा रोटी रात के दो-तीन बजे बनती। इसलिए खाला की कृपा से ये जमाल साहब शाम को जो घर आते तो फिर सुबह फजिर की नमाज़ के बाद ही वापस गेस्ट-हाउस जाते।
र्इद में वह नागपुर जाते, लेकिन खाला और खालू की ज़िद के कारण वह अपने माता-पिता और भार्इ-बहनों के पास नहीं जा पाए।
जाने कैसा जादू कर रखा था खाला ने उन पर...
असली कारण तो यूनुस को बाद में पता चला।
हुआ ये कि इस बीच एक ऐसी बात हुर्इ कि यूनुस को खाला के घर अपनी औकात का अंदाज़ा हुआ।
उस दिन उसने जाना कि यदि यहां रहना है तो अपमानित होकर रहना होगा।
उसने जाना कि पराधीनता क्या होती है?
उसने जाना कि ग़रीबी इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन है।
उसने जाना कि पराश्रित होकर जीने से अच्छा मर जाना है।
और उसी समय उसके मन में अपने परों के भरोसे अपने आकाश में उड़ने की इच्छा जागी।
हुआ ये कि सनूबर ने यूनुस के कपड़े बिना धोए यूं ही फींच-फांच कर सुखा दिए थे। कपड़ों में साबुन लगाया ही नहीं था।
ग्रीस-तेल और पसीने की बदबू कपड़े में समार्इ हुर्इ थी।
यूनुस का पारा सातवें आसमान में चढ़ गया।
उसने आव देखा न ताव, सनूबर की पिटार्इ कर दी।
सनूबर चीख-चीख कर रोती रही।
खाला ने यूनुस को जाहिल, गंवार, खबीस, राच्छस, भुक्खड़, एहसान-फरामोश और भगौड़ा आदि जाने कितनी उपाधियों से नवाज़ा।
यूनुस उस दिन ड्यूटी गया तो फिर घर लौटकर न आया। उसने कल्लू के घर रहने की ठान ली थी। जैसे अन्य लड़के जीवन गु़ज़ार रहे हैं, वैसे वह भी रह लेगा। खाला के घर में हुर्इ बेइज़्ज़ती से उसका मन टूट चुका था।
दूसरे दिन जब वह घर न लौटा तो खालू स्वयं एमसीए की वर्कशाप में आए। उन्होंने यूनुस को घूरकर देखा।
फिर पूछा-’’घर काहे नहीं आता बे!’’
यूनुस खालू से बहुत डरता था।
उसकी रूह कांप गर्इ।
उसने कहा-’’ओभर-टार्इम कर रहा था। आज आऊंगा।’’
खालू मुतास्सिर हुए।
उसकी जान बची।
शाम ड्यूटी से छूटने पर उसने मनोहरा की होटल से गर्मागर्म समोसे खरीदे। साथ में इमली की खटमीठी चटनी रखवार्इ। सनूबर को समोसे बहुत पसंद हैं।
वाकर्इ, उसे किसी ने कुछ न कहा।
सभी ने दिल लगाकर समोसे खाए।
खाला के कहने पर सनूबर ने दो समोसे अपने जमाल अंकल के लिए रख दिए।
उस रात सभी ने लूडो खेली।
जमाल अंकल, खाला, सनूबर और यूनुस।
यूनुस के बगल में सनूबर थी और उसके बगल में जमाल अंकल। टी-टेबिल के चारों तरफ बैठे थे वे।
यूनुस ने खेल के दरमियान महसूस किया कि टेबिल के नीचे एक दूसरा खेल ज़ारी है। जमाल अंकल के पैर सनूबर के पैर से बार-बार टकराते हैं। ऐसे सम्पर्क के दौरान दोनों बात-बेबात खूब हंसते हैं।
उसके पल्टे हुए गुलाबी होंठ जब हंसने की मुद्रा में होते तो यूनुस को दीवाना बना जाते थे, लेकिन आज उसे वे होंठ किसी चुड़ैल के रक्त-रंजित होठों की तरह दिखे।
उसे सनूबर की बेवफार्इ पर बड़ा गुस्सा आया।
उस रात खालू की नार्इट-शिफ्ट थी।
खालू खाना खाकर ड्यूटी चले गए।
जमाल साहब भी जाना चाहते थे कि टीवी पर गुलाम अली की ग़ज़लों का कार्यक्रम आने लगा।
‘चुपके-चुपके रात-दिन आंसू बहाना याद है
हमको अब तक आशिकी का वो ज़माना याद है’
मुरकियों वाली खनकदार आवाज़ में गु़लाम अली अपनी सुरों का जादू बिखेर रहे थे। यूनुस भी गुलाम अली को पसंद करता था, लेकिन जमाल साहब की रूचि जानकर उसे जाने क्यों गुलाम अली की आवाज़ नकियाती सी लगी। आवाज़ ऐसे लगी जैसे पान की सुपारी गले में फंसी हुर्इ हो।
जैसे जुकाम से नाक जाम हो।
वह टीवी के सामने से हट गया।
अंदर किचन में उसका बिस्तर बिछता था।
चटार्इ के साथ गुदड़ी लिपटी रहती। सुबह चटार्इ लपेट दी जाती और रात में वह सोने से पूर्व चटार्इ बिछा लेता। ओढ़ने के लिए एक चादर थी। तकिया वह लगाता न था।
किचन की लार्इट बंद हो तब भी बाहर आंगन की रोशनी खिड़की से छनकर किचन में आती। उसे उस धुंधली रोशनी में सोने की आदत थी।
टीवी वाले कमरे से ठहाके गूंज रहे थे।
यूनुस के कान में कुछ अफ़वाहें पड़ चुकी थीं कि जमाल साहब बड़ा शातिर आदमी है। नागपुर में ‘डोनेशन’ वाले इंजीनियरिंग कॉलेज से पढ़ कर निकला है जमाल साहब। सुनते हैं कि वहां वह गुण्डा था गुण्डा।
उसकी खूब चलती थी वहां।
बाहरी लड़कों से महीना वसूली करता था जमाल साहब।
खालू ने उसे घर घुसा कर अच्छा नहीं किया है।
एक के मुंह से यूनुस ने सुना कि जमाल साहब की नज़र खुली बोरी और बंद बोरी की शक्कर, दोनों में है।
खुली बोरी और बंद बोरी की बात यूनुस समझ सकता था, क्योंकि फुटपाथी विश्वविद्यालय के कोर्स के मुहावरों में ये भी था।
खुली बोरी यानी खाला और बंद बोरी माने सनूबर!
यूनुस को नींद नहीं आ रही थी।
गुलाम अली की आवाज़ किसी तेज़ छुरी की तरह उसकी गर्दन रेत रहे थे-
‘तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किसका था
न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किसका था’
‘वफ़ा करेंगे निबाहेंगे बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कि ये कलाम किसका था’
सनूबर की खिलखिलाहट सुनकर यूनुस का दिल रो रहा था।
उसने करवट लेकर अपने कान को कुहनी से दबा लिया।
आवाज़ मद्धम हो गर्इ।
नींद लाने के लिए कलमे का विर्द करने लगा-
‘ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह।’
पता नहीं उसे नींद आर्इ या नहीं, लेकिन रात अचानक उसे अपना पैजामा गीला लगा।
हाथ से टटोला तो गीली-चिपचिपी हो गर्इं उंगलियां, यानी.....
उसका दिमाग खराब हो गया।
नींद उचट गर्इ।
पेशाब का दबाव मसाने पर था।
वह उठा।
खिड़की के पल्लों से छनकर पीली रोशनी के धब्बे कमरे में फैले हुए थे। ठीक उसके पैजामा में उतर आए धब्बों की तरह।
उसे कमज़ोरी सी महसूस हो रही थी। जाने क्यों स्वप्न में हुए स्खलन के बाद उसकी हालत पस्त हो जाती है।
उठने की हिम्मत न हुर्इ।
वह कुछ पल बैठा रहा।
तभी उसके कान खड़े हुए।
पहले कमरे से फुसफुसाने की आवाज़ आ रही थी। तख्त भी हौले-हौले चरमरा रहा था।
यूनुस ने किचन से लगे बच्चों के कमरे में झांका। वहां सनूबर अपने अन्य भार्इ-बहनों के साथ सोर्इ हुर्इ थी।
इसका मतलब पहले कमरे में खाला हैं। फिर उनके साथ कौन है? खालू की तो नार्इट शिफ्ट है।
यूनुस के मन में जिज्ञासा के साथ भय भी उत्पन्न हुआ।
वह दबे पांव पहले कमरे के दरवाज़े की झिर्रियों से अंदर झांकने लगा।
पहले कमरे में भी अंधेरा ही था।
हां, रोशनदान के ज़रिए सड़क के खम्बे से रोशनी का एक बड़ा टुकड़ा सीधे दीवाल पर आ चिपका था।
अंधेरे की अभ्यस्त उसने तख्त पर निगाहें टिकार्इं।
देखा खाला के साथ जमाल साहब आपत्तिजनक अवस्था में हैं।
उसकी टांगें थरथराने लगीं।
उसका कंठ सूख गया।
हाथ में जुम्बिश होने लगी।
दिल की धड़कनें तेज़ क्या हुर्इं कि उसका मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया।
इसी उहा-पोह में वहां से भागना चाहा कि उसके पैरों की आहट सुनकर खाला की दबी सी चीख़ निकली।
यूनुस तत्काल अपने बिस्तर पर आकर लेट गया।
पहले कमरे की गतिविधि में विध्न पैदा हो चुका था। वहां से आने वाली आहटें बढ़ीं। फिर बाहर का दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आर्इ। फिर स्कूटर के स्टार्ट होने की आवाज़ आर्इ और लगा कि फुर्र से उड़ गर्इ हो स्कूटर।
यूनुस को काटो तो खून नहीं।
आंखें बंद किए, करवट बदले वह अब खाला की हरकतों का अंदाज़ा लगाने लगा।
लगता है खाला ने पहले बच्चों के कमरे की लार्इट जलाकर वहां का जाएज़ा लिया है।
अब वह किचन की तरफ आ रही हैं।
लार्इट जलाकर यहां भी वह यूनुस के पास कुछ देर खड़ी रहीं।
उनका शातिर दिमाग माज़रा समझना चाह रहा था।
फिर वह पुन: पहले कमरे में चली गर्इं।
यूनुस की जान में जान आर्इ।
वह उसी तरह पड़ा रहा जबकि पेशाब के ज़ोर से मसाने फटने को थे।
जमाल साहब और खाला की हक़ीक़त, सनूबर का जमाल साहब की तरफ झुकाव और सनूबर के साथ जमाल साहब के रिश्ते को लेकर खाला-खालू के ख्वाब...
पूरी पहेली यूनुस के सामने थी।
उस पहेली का हल भी उसके सामने था।
लेकिन उसमें यूनुस का कोर्इ रोल न था...
इस स्थिति से निपटने के लिए यूनुस के दिमाग में एक बात आर्इ।
क्यों न सनूबर को वस्तुस्थिति से अवगत कराया जाए! उसके बाद जो होगा, सो होगा।
अठारह
जब यूनुस ड्यूटी से घर लौटा, उस समय दिन के बारह बजे थे।
खाला घर में नहीं थीं। हस्बेमामूल खाला पड़ोसियों के घर बैठने गर्इ हुर्इ थीं।
सनूबर लगता है स्कूल नहीं गर्इ थी और किचन में चावल पका रही थी।
यूनुस आजकल सनूबर से ज्यादा बातें नहीं करता। बस, काम भर की बातें। वह सीधे आंगन में पानी की टंकी की तरफ हाथ-मुंह धोने चला गया।
गमछे से मुंह पोंछते हुए वह पहले कमरे में चला गया। पर्दा उठा हुआ था। बाहर से रोशनी अंदर आ रही थी। शायद बिजली नहीं थी, वरना इस घर में टीवी कम ही बंद रहता है।
यूनुस तख्त पर लेट गया।
उसने आंखें बंद कर लीं।
उसके माथे पर गहरी लकीरें थीं।
सनूबर कब आकर दरवाज़े के पास खड़ी हुर्इ उसे पता न चला। जब सनूबर ने दरवाज़ा खोला तो चूं... की आवाज़ से उसकी तंद्रा भंग हुर्इ।
उसने सनूबर के चेहरे को ध्यान से देखा।
उसे लगा कि सनूबर उससे कुछ कहना चाह रही है।
यूनुस उठ बैठा।
उसने सनूबर के पलटे हुए होंठ और भारी पलकों में कै़द उदास आंखों को बड़ी हसरत से देखा। कितना प्यार था सनूबर से उसको।
सनूबर तख्त के पास कुर्सी पर बैठ गर्इ।
यूनुस को लगा कि उसके दिल की गहरार्इयों से आवाज़ गूंजी हो-’’सनूबर....!’’
सनूबर कुछ न बोली।
‘‘सनूबर, तुम्हें मालूम है, तुम्हारे साथ धोखा हो रहा है।’’
यूनुस की बहकी-बहकी बातें सुनकर सनूबर डरी हुर्इ लग रही थी।
‘‘डरो नहीं, ये सच है....तुम्हारे साथ तुम्हारी मम्मी एक खेल खेल रही हैं।’’
सनूबर ने अपने कान पर हाथ रख लिए-’’क्या बक रहे हो यूनुस..?’’
‘‘सच सनूबर, तुम्हें जमाल साहब से हुशियार रहना चाहिए। वह बड़ा धोखेबाज है। मैं कैसे कहूं कि जमाल अंकलवा कितना कमीना है।’’
तभी दीवाल घड़ी टनटनार्इ-’टन्न!’
सनूबर ने घड़ी देखी-’’एक बज गए, मम्मी आती होंगी।’’
यूनुस की समझ में न आ रहा था कि बीती रात की दास्तान को वह किन लफ़्ज़ों में बयान करे।
फिर भी हिम्मत करके वह बोला-’’सनूबर! वो जमाल सहबवा तुमसे हमदर्दी का दिखावा करता है और जानती हो वो कितना कमीना है कि सुनोगी तो... अच्छा किसी से बताओगी तो नहीं न!’’
सनूबर इतने में झुंझला गर्इ।
‘‘नहीं बाबा, किसी से नहीं कहूंगी, तुम बताओ तो सही।’’
‘‘तो सुनो, कल रात मैंने अपनी आंखों से देखा। अल्ला-कसम, कलाम-पाक की कसम जो झूठ बोलूं मुझे मौत आ जाए। मैंने जमाल साहब और खाला को कल रात एक साथ एक बिस्तर पर देखा है सनूबर.... तुम्हें विश्वास हो या न हो ये सच है सनूबर...’’
सनूबर ने अपने कान बंद कर लिए।
वह रोने लगी।
‘‘कल रात वो हालात देखने के बाद कहां सो पाया हूं सनूबर!’’
यूनुस का मन तो हल्का हुआ लेकिन सनूबर तो जैसे बेजान हो गर्इ।
खाला आर्इं तो यूनुस आंखें बंद किए सोने का नाटक करता रहा।
सनूबर अपने कमरे में लेटी रही।
खाला यूनुस के पास कुर्सी पर बैठ कर चीखीं -’’कहां मर गर्इ कुतिया...’’
सनूबर ने जवाब न दिया तो उठ कर अंदर गर्इं और सनूबर को झिंझोड़कर उठाते हुए बोलीं-’’कैसे पसरी है महारानी, खाना-वाना बनेगा या आज हड़ताल है? इसीलिए उनसे कहती हूं कि लड़कियन को पढ़वार्इए मत, लेकिन सुनें तब न! आजकल अपने जमाल अंकल की शह पाकर हरामजादी जबान लड़ाना सीख गर्इ है।’’
सनूबर कुछ न बोली और उठ बैठी।
यूनुस ने भी आवाज़ सुनकर नींद खुलने का अभिनय किया।
तब तक चिट्टे-पोट्टे स्कूल से घर आ गए और संयोग से लार्इट भी आ गर्इ। छुटकी जमीला ने बस्ता यूनुस की गोद पर पटककर टीवी ऑन किया।
टीवी से चिपककर घण्टों वह कार्टून प्रोग्राम देखा करती है।
यूनुस ने देखा कि सनूबर गाली खाकर भी न उठी तो खाला स्वयं किचन में घुसीं।
खाना तो वैसे तैयार ही था।
बस दाल छौंकना बाकी था।
दुपहर में सब्जी बनती न थी। दाल-भात अचार वगैरा के साथ खाया जाता। खालू ‘हरियर मिर्च’ के साथ खाना खा लेते थे।
दाल छौंक कर खाला ने यूनुस को आवाज़ दी।
यूनुस उठा और किचन के पास दालान में अपनी सोने की जगह नंगे फर्श पर बैठ गया।
सनूबर वैसे ही गुमसुम लेटी रही और खाला के संग यूनुस ने खाना खा लिया।
यूनुस जानता था कि सनूबर इतनी आसानी से उसकी बात पर विश्वास करेगी नहीं। वह अपने तर्इं छानबीन ज़रूर करेगी।
पता नहीं उसने क्या छानबीन की और उससे उसे क्या हासिल हुआ लेकिन अगली सुबह यूनुस ने अपने बिस्तर पर अपनी बगल में गर्माहट पार्इ तो जाना कि सनूबर उसकी बगल में लेटी है।
वह घबरा कर उठ बैठा।
सनूबर ने उसका हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा।
यूनुस ने पहले कमरे और अंदर वाले कमरे की तरफ देखा। आहट लेने की कोशिश की। दीवाल घड़ी पांच बार टनटनार्इ।
इसका मतलब सभी सो रहे हैं।
खालू तो ड्यूटी गए हुए हैं।
वह सनूबर की बगल में लेट गया।
सनूबर ने उसे बाहों में भर लिया।
पतली-दुबली सनूबर का नर्म-गुनगुना आलिंगन....
सनूबर उसके कानों में फुसफुसार्इ-’’मुझे भगा कर ले चलो इस जहन्नुम से यूनुस...!’’
उस दिन उसे एहसास हुआ कि वह कितना कमज़ोर आदमी है।
उस दिन उसने फैसला किया कि अब वह अपने लिए एक नर्इ ज़मीन तलाशेगा.....
एक नया आसमान बनाएगा.....
एक नए सपने को साकार करेगा.....
एक नर्इ
पहचान
एक
घण्टी की टनटनाहट के साथ प्लेटफार्म में हलचल मच गर्इ।
रात के ठिठुरते अंधियारे को चीरती पैसेंजर की सीटी नज़दीक आती गर्इ और चोपन-कटनी पैसेंजर ठीक साढ़े बारह बजे प्लेटफार्म पर आकर रूकी।
इक्का-दुक्का मुसाफिर गाड़ी से उतरे। पूरी गाड़ी अमूमन खाली थी।
यूनुस जल्दी से इंजन की तरफ भागा। वह इंजिन के पीछे वाली पहली बोगी में बैठना चाहता था। यदि खालू आते भी हैं तो इतनी दूर पहुंचने में उन्हे समय तो लगेगा ही।
पहली बोगी में वह चढ़ गया।
दरवाज़े से लगी पहली सीट पर एक साधू महाराज लेटे थे।
अगली लार्इन में कोर्इ न था। हां, वहां अंधेरा ज़रूर था। वैसे भी यूनुस अंधेरी जगह खोज भी रहा था। उसने अपना बैग ऊपर वाली बर्थ पर फेंक दिया और ट्रेन से नीचे उतर आया।
वह चौकन्ना सा चारों तरफ देख रहा था।
अचानक उसके होश उड़ गए।
स्टेशन के प्रवेश-द्वार पर खालू नीले ओव्हर-कोट में नज़र आए। उनके साथ एक आदमी और था। वे लोग बड़ी फुर्ती से पहले गाड़ी के पिछले हिस्से की तरफ गए।
यूनुस तत्काल बोगी पर चढ़ गया और टॉयलेट में जा छिपा।
उसकी सांसें तेज़ चल रही थीं।
ट्रेन वहां ज्यादा देर रूकती नहीं थी।
तभी उसे लगा कि कोर्इ उसका नाम लेकर आवाज़ दे रहा है-यू...नू....स! यू.......नू.....स!
यूनुस टॉयलेट में दुबक कर बैठ गया।
गाड़ी की सीटी की आवाज़ आर्इ और फिर गाड़ी चल पड़ी।
वह दम साधे दुबका रहा।
जब गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली, तब उसकी सांस में सांस आर्इ।
बैग कंधे पर टांगे हुए ही वह खड़े-खड़े मूतने लगा।
वाश-बेसिन के पानी से उंगलियों को धोते वक्त उसकी निगाहें आर्इने पर गर्इं।
आर्इने के दाहिनी तरफ स्केच पेन से स्त्री-पुरूष के गोपन-सम्बंधों को बयान करता एक बचकाना रेखांकन बना हुआ था।
यूनुस ने दिल बहलाने के लिए उस टॉयलेट की अन्य दीवारों पर निगाह दौड़ार्इ।
दीवार में चारों तरफ उसी तरह के चित्र बने थे और साथ में अश्लील फिकरे भी दर्ज थे।
यूनुस टॉयलेट से बाहर निकला, लेकिन वह चौकन्ना था।
ट्रेन की खिड़की से उसने बाहर झांका।
दो पहाड़ियों के बीच से गुज़र रही थी गाड़ी। आगे जाकर महदर्इया की रोशनी दिखार्इ देगी क्योंकि अगला स्टेशन महदर्इया है।
सिंगरौली कोयला क्षेत्र का आखिरी कोना महदर्इया यानी गोरबी ओपन-कास्ट खदान।
हो सकता है कि खालू ने खबर की हो तो महदर्इया स्टेशन में उनके मित्र उसे खोजने आए हुए हों।
पहाड़ियां समाप्त हुर्इं और रोशनी के कुमकुम जगमगाते नज़र आने लगे।
इसका मतलब स्टेशन क़रीब है।
महदर्इया स्टेशन के प्लेटफार्म में प्रवेश करते समय ट्रेन की गति धीमी हुर्इ तो यूनुस पुन: एक टॉयलेट में जा घुसा। वह किसी तरह के ख़तरे का सामना नहीं करना चाहता था।
उसका अंदाज़ सही था।
इस प्लेटफार्म पर भी उसे अपने नाम की गूंज सुनार्इ पड़ी। इसका मतलब ये सच था कि खालू ने यहां भी अपने दोस्तों को फोन कर दिया था।
वह टॉयलेट में दुबक कर बैठा रहा और पांच मिनट बाद ट्रेन सीटी बजा कर आगे बढ़ ली।
यूनुस ने राहत की सांस ली।
टॉयलेट से वह बाहर निकला।
उसने देखा कि साधू महाराज के पैर के पास एक स्त्री बैठी है। वह एक देहाती औरत थी। साधू महाराज के वह पांव दबा रही थी।
यूनुस ने उस सीट के सामने ऊपर वाली बर्थ पर अपना बैग रखा। फिर खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ कर शीशे के पार अंधेरे की दीवार को भेदने की बेकार सी कोशिश करने के बाद अपनी बर्थ पर उचक कर चढ़ गया।
उसे नींद आने लगी थी।
एयर-बैग से उसने गर्म चादर निकाली और उसे ओढ़ लिया। एयर-बैग अपने सिरहाने रख लिया ताकि चोरी का ख़तरा न रहे।
ट्रेन की लकड़ी की बेंच ठंडा रही थी। वैसे तो उसने गर्म कपड़े पर्याप्त मात्रा में पहन रखे थे, लेकिन ठंड तो ठंड ही थी। रात के एक-डेढ़ बजे की ठंड। उसका सामना के करने लिए औज़ार तो होने ही चाहिए।
वह उठ बैठा और अपनी जेब से सिगरेट निकाल ली। सिगरेट सुलगाते हुए साधू महाराज की तरफ उसकी निगाह गर्इ।
देहाती स्त्री बड़ी श्रद्धा से साधू महाराज के पैर दबा रही थी।
साधू महाराज यूनुस को सिगरेट सुलगाते देख रहे थे। दोनों की निगाहें मिलीं।
यूनुस ने महसूस किया कि वह भी धूम्रपान करना चाहता है।
यूनुस बर्थ से नीचे उतरा।
उसने महाराज की तरफ सिगरेट बढ़ार्इ।
साधू महाराज खुश हुआ।
उसने सिगरेट सुलगार्इ और गांजा की तरह उस सिगरेट के सुट्टे मार कर बाकी बची सिगरेट स्त्री को दे दी।
स्त्री प्रसन्न हुर्इ।
उसने सिगरेट को पहले माथे से लगाया फिर भोले बाबा का प्रसाद समझ उस सिगरेट को पीने लगी।
स्त्री के बाल लटियाए हुए थे। हो सकता है कि वह सधुआर्इन बनने की प्रक्रिया में हो। उसके माथे पर भभूत का एक बड़ा सा टीका लगा हुआ था।
उसकी आंखों में शर्मो-हया एकदम न थी। वह एक यंत्रचालित इकार्इ सी लग रही थी। तमाम आडम्बर से निरपेक्ष, साधू महाराज की सेवा में पूर्णतया समर्पित....
साधू महाराज ने पूछा-’’कौन बिरादरी का है तू?’’
यूनुस को मालूम है कि बाहर पूछे गए ऐसे प्रश्नों का क्या जवाब दिया जाए। जिससे माहौल न बिगड़े और काम भी चल जाए।
एक बार उसने सच बोलने की ग़ल्ती की थी, जिसके कारण उसे बेवजह तकलीफ़ उठानी पड़ी थी।
उसे कटनी में स्थित उस धर्मशाला का स्मरण हो आया, जहां वह एक रात रूकना चाहता था।
तब सिंगरौली के लिए चौबीस घण्टे में एक ट्रेन चला करती थी। कोतमा से वह कटनी जब पहुंचा तब तक सुबह दस बजे चोपन जाने वाल पैसेंजर गाड़ी छूट चुकी थी। अब दो रास्ते बचे थे। वापस कोतमा लौआ जाए या फिर कटनी में ही रहकर चौबीस घण्टे बिताए जाएं। वैसे कटनी घूमने-फिरने लायक नगर तो है ही। कुछ सिनेमाघरों में ‘केवल वयस्कों के लिए’ वाली पिक्चर चल रही थीं। ट्रेन में ही एक मित्र बना युवक उससे बोला कि चलो, स्टेशन के बाहर एक धर्मशाला है। मात्र दस रूपए में चौबीस घण्टे ठहरने की व्यवस्था। खाना इंसान कहीं भी खा लेगा। हां, एक ताला पास में होना चाहिए। धर्मशाला में ताला नहीं मिलता। जो भी कमरा मिले उसमे ग्राहक अपना ताला स्वयं लगाता है। यूनुस ने कहा था कि ताला खरीद लिया जाएगा।
वे लोग स्टेशन के बाहर निकले और सड़क के किनारे बैठे एक ताला-विक्रेता से यूनुस ने दस रूपए वाला एक सस्ता सा ताला खरीद लिया।
वे दोनों धर्मशाला पहुंचे।
पीली और गेरूआ मिट्टी से पुती हुर्इ एक पुरानी इमारत का बड़ा सा प्रवेश-द्वार। जिस के माथे पर अंकित था-’’जैन धर्मशाला’’।
वे अंदर घुसे।
अंदर द्वार से लगा हुआ प्रबंधक का कमरा था।
उस समय वहां कोर्इ भी न था।
सहयात्री ने कहा कि चलो, धर्मशाला देख तो लो।
वे दोनों अंदर की तरफ पहुंचे। दुतल्ला में चारों तरफ कमरे ही कमरे बने थे। बीच में एक उद्यान था। उद्यान के अंदर एक मंदिर। पानी का कुंआ, हैंड-पम्प, और नल के कनेक्शन भी थे।
वे वापस आए।
प्रबंधक महोदय आ चुके थे।
वह एक कृशकाय वृद्ध थे।
चश्मे के पीछे से झांकती आंखें।
उन्होंने रजिस्टर खोल कर लिखना शुरू किया-’’नाम?’’
सहयात्री ने बताया-’’कमल गुप्ता’’
-’’पिता का नाम?’’
-’’श्री विमल प्रसाद गुप्ता’’
-’’कहां से आना हुआ और कटनी आने का उद्देश्य?’’
-’’चिरमिरी से कटनी आया, रेडियो का सामान खरीदने।’’
-’’ताला है न?’’
कमल गुप्ता ने बताया-’’हां!’’
प्रबंधक महोदय ने रजिस्टर में कमल से हस्ताक्षर करवाकर उसे कमरा नम्बर पांच आबंटित किया।
फिर उन्होंने यूनुस को सम्बोधित किया।
-’’नाम?’’
-’’जी, मुहम्मद यूनुस।’’
स्वाभाविक तौर पर यूनुस ने जवाब दिया।
प्रबंधक महोदय ने उसे घूर कर देखा। उनकी भृकुटि तन गर्इ थी। चेहरे पर तनाव के लक्षण साफ दिखलार्इ देने लगे।
लम्बा-चौड़ा रजिस्टर बंद करते हुए बोले-’’ये धर्मशाला सिर्फ हिन्दुओं के लिए है। तुम कहीं और जाकर ठहरो।’’
सहयात्री कमल गुप्ता नहीं जानता था कि यूनुस मुसलमान है। सफ़र में बातचीत के दौरान नाम जानने की ज़रूरत उन दोनों को महसूस नहीं हुर्इ थी, शायद इसलिए वह भी उसे घूरने लगा।
यूनुस के हाथ में एक नया ताला था।
वह कभी प्रबंधक महोदय के दिमाग में लगे ताले को देखता और कभी अपने हाथ के उस ताले को, जिसे उसने कुछ देर पहले बाहर खरीदा था।
उसने अपनी ज़िन्दगी के व्यवहारिक-शास्त्र का एक और सबक हासिल किया था।
वह सबक था कि देश-काल-वातावरण देखकर अपनी असलियत ज़ाहिर करना।
उसने जाने कितनी ग़ल्तियां करके, जाने कितने सबक याद किए थे।
सलीम भार्इ के पास ऐसी सहज-बुद्धि न थी, वरना वह ऐसी गल्तियां कभी न करता और गुजरात के क़त्ले-आम में यूं न मारा जाता।
इसीलिए जब साधू महाराज ने उसकी बिरादरी पूछी तो वह सचेत हुआ और तत्काल बताया-’’महाराज, मैं जात का कुम्हार हूं।’’
साधू महाराज के चेहरे पर सुकून छा गया।
चेहरा-मोहरा, चाल-ढाल, कपड़ा-लत्ता और रंग-रूप से उसे कोर्इ नहीं कह सकता कि वह एक मुसलमान युवक है, जब तक कि वह स्वयं ज़ाहिर न करे। उसे क्या ग़रज कि वह बैठे-बिठाए मुसीबत मोल ले।
वह इतना चालाक हो गया है कि लोगों के सामने ‘अल्ला-कसम’ नहीं बोलता, बल्कि ‘भगवान-कसम’ या ‘मां-कसम’ बोलता है। ‘अल्ला जाने क्या होगा’ की जगह ‘भगवान जाने’ या फिर ‘राम जाने’ कह कर काम चला लेता है।
अगर कोर्इ साधू या पुजारी प्रसाद देता है तो बाकायदा झुक कर बार्इं हथेली पर दाहिनी हथेली रखकर उस पर प्रसाद लेता है और उसे खाकर दोनों हाथ सिर पर फेरता है। जबकि वही सलीम भार्इ हिन्दुओं से पूजा-पाठ आदि का प्रसाद लेता ही नहीं था। यदि गल्ती से प्रसाद ले भी लिया तो फिर उसे खाता नहीं था, बल्कि चुपके से फेंक देता था।
यूनुस को यदि कोर्इ माथे पर टीका लगाए तो वह बड़ी श्रद्धा-भाव प्रकट करते हुए बड़े प्रेम से टीका लगवाता और फिर उसे घण्टों न पोंछता।
ऐसी दशा में उस पर कोर्इ संदेह कैसे कर सकता है कि वह हिन्दू नहीं है।
वैसे भी अनावश्यक अपनी धर्म-जाति प्रकट कर परदेश में इंसान क्यों ख़तरा मोल ले।
बड़ा भार्इ सलीम अगर यूनुस की तरह सजग-सचेत रहता। खामखां, मिंया-कट दाढ़ी, गोल टोपी, लम्बा कुर्ता और उठंगा पैजामा न धारण करता तो गुजरात में इस तरह नाहक न मारा जाता...
साधू महाराज ने यूनुस को आशीर्वाद दिया- ‘‘तू बड़ा भाग्यशाली है बच्चा! तेरे उन्नत ललाट बताते हैं कि पूर्वजन्म में तू एक पुण्यात्मा था। इस जीवन में तुझे थोड़ा कष्ट अवश्य होगा लेकिन अंत में विजय तेरी होगी। तेरी मनोकामना अवश्य पूरी होगी।’’
यूनुस साधू महाराज के चेहरे को देख रहा था।
उसके चेहरे पर चेचक के दाग़ थे। दाढ़ी बेतरतीब बढ़ी हुर्इ थी। उसकी आयु होगी यही कोर्इ पचासेक साल। चेहरे पर कार्इंयापन की लकीरें।
साधू महाराज के आशीर्वाद से यूनुस को कुछ राहत मिली।
वह पुन: अपनी जगह पर चला गया और बैग से लुंगी निकालकर उसे बर्थ पर बिछा दिया ताकि लकड़ी की बेंच की ठंडक से रीढ़ की हड्डी बची रहे।
बर्थ पर चढ़ कर उसने जूते उतारकर पंखे पर अटका दिए।
अब वह सोना चाहता था।
एक ऐसी नींद कि उसमें ख्वाब न हों।
एकदम चिन्तामुक्त सम्पूर्ण निद्रा....
जबकि यूनुस जानता है कि उसे नींद आसानी से नहीं आया करती। नींद बड़ी मान-मनौवल के बाद आया करती है।
उसने उल्टी तरफ करवट ले ली और सोने की कोशिश करने लगा।
खटर खट खट.....खटर खट खट
ट्रेन पटरियों पर दौड़ रही थी।
सुबह छ: बजे तक ट्रेन कटनी पहुंच जाएगी। फिर सात-साढ़े सात बजे बिलासपुर वाली पैसेंजर मिलती है। उससे बिलासपुर तक पहुंचने के बाद आगे कोरबा के लिए मन पड़ेगा तो ट्रेन या बस पकड़ी जाएगी।
बिलासपुर में स्टेशन के बाहर मलकीते से मुलाकात हो जाएगी।
मलकीते के पापा का एक ढाबा कोतमा में हुआ करता था। सन् चौरासी के सिख-विरोधी दंगों में वह होटल उजड़ गया। सिख समाज में ऐसा डर बैठा कि आम हिन्दुस्तानी शहरी दिखने के लिए सिख लोगों ने अपने केश कटवा लिए थे। मलकीते तब बच्चा था। अपने सिर पर रूमाल के ज़रिए वह केश बांधा करता था। वह गोरा-नारा खूबसूरत लड़का था। यूनुस को याद है कि लड़के उसे चिढ़ाया करते थे कि मलकीते अपने सिर में अमरूद छुपा कर आया करता है।
उसके पापा एक रिश्तेदारों से मिलने रांची गए थे और इंदिरा-गांधी की हत्या हो गर्इ। वे उस समय सफर कर रहे थे। सुनते हैं कि सफर के दौरान ट्रेन में उन्हें मार दिया गया था।
उस कठिन समय में मलकीते ने अपने केश कटवा लिए थे।
मलकीते के बारे में पता चला था कि सन् चौरासी के बाद मलकीते की माली हालत खराब हो गर्इ थी।
तब मलकीते की मम्मी अपने भार्इ यानी मलकीते के मामा के पास बिलासपुर चली गर्इ थीं। वहीं मामा के होटल में मलकीते मदद करने लगा था।
स्टेशन के बाहर एक शाकाहारी और मांसाहारी होटल है-’शेरे पंजाब होटल’।
यही तो पता है उसका।
इतने दिनों बाद मिलने पर जाने वह पहचाने या न पहचाने, लेकिन मलकीते एक नम्बर का यार था उसका!
यूनुस ने फुटपाथी विश्वविद्यालय की पढ़ार्इ के बाद इतना अनुमान लगाना जान लिया था कि इस दुनिया में जीना है तो फिर खाली हाथ न बैठे कोर्इ। कुछ न कुछ काम करता रहे। तन्हा बैठ आंसू बहाने वालों के लिए इस नश्वर संसार में कोर्इ जगह नहीं।
अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए इंसान को परिवर्तन-कामी होना चाहिए।
लकीर का फ़कीर आदमी का जीना मुश्किल है।
जैसा देस वैसा भेस....
कठिन से कठिन परिस्थिति में भी इंसान को घबराना नहीं चाहिए। कोर्इ न कोर्इ राह अवश्य निकल आएगी।
इसीलिए तो वह अम्मी-अब्बू, घर-द्वार, भार्इ-बहिन, रिश्ते-नाते आदि के मोह में फंसा नहीं रहा।
अपना रास्ता स्वयं चुनने की ललक ही तो है कि आज वह लगातार जलावतनी का दर्द झेल रहा है।
इसी उम्मीद में कि इस बार की छलांग से शायद अल्लाह की बनार्इ इत्ती बड़ी कायनात में उसे भी कोर्इ स्वतंत्र पहचान मिल ही जाए...
दो
यूनुस ने सोचा कि सुबह कटनी पहुंच कर नाश्ता करने के बाद बिलासपुर वाली गाड़ी पकड़ी जाएगी।
कटनी का ख्याल दिमाग में आया तो यूनुस को बड़की आपा याद हो आर्इ।
कहते हैं कि बड़की कटनी में कहीं रहती है।
खाला भी तो बता रही थीं कि अम्मा एक बार चोरी-छिपे उससे मिल आर्इ हैं। चूंकि उसने हिन्दू धर्म अपना लिया है, इसलिए उसे अब बिरादरी में मिलाया तो नहीं जाएगा।
यूनुस सोच रहा था कि उनके घर में एक भी औलाद ठीक न निकली? इसका कारण क्या है?
उसने बचपन की तमाम घटनाओं को सूत्र-बद्ध करना चाहा। ज्ञात हुआ कि उसके अब्बा वंश-वृद्धि के पावन कर्तव्य को प्राथमिकता देते हैं। इस पावन यज्ञ से फुर्सत पाने के बाद उनकी चिन्ता का केंद्र नौकरी हुआ करती। अब्बा दिन भर में एक कट्टा बीड़ी और एक रूपए की खैनी हज़म कर जाते। चाय अमूमन घर में ही पीते। इसके बाद भी यदि समय बच जाता तो स्थानीय कादरिया-मस्जिद कमेटी के लोगों के बीच उठते-बैठते। उनके एक और हमदर्द दोस्त थे नन्हू भार्इ, जिन्हें यूनुस नन्हू’च्चा कहा करता।
अब्बा ने अपनी बेशुमार आल-औलाद की तालीम-तरबीयत, कपड़ा-लत्ता और खान-पान के बारे में कभी ध्यान नहीं दिया। बच्चे चाहे जैसे अपना जीवन गुजारें, स्वतंत्र हैं।
अम्मा भी अब्बा के क़दम से क़दम मिलाकर चलती रहीं। उन्होंने प्रति तीन बरस पर एक संतान के औसत को बरकरार रखा। बच्चा अपने प्रयास से स्तन खोज कर मुंह में ठूंस ले तो ठीक, वरना अम्मा के भरोसे रहा तो भूखा ही रह जाएगा।
अम्मा ज्यादातर अपनी खाट में पसरे रहा करतीं थीं। ठंड के दिनों मे अब्बा या कि बड़की खाट के नीचे बोरसी में आग डाल कर रख दिया करते। यूनुस उस खाट में कभी-कभी सोता था। बोरसी की आंच से गुदड़ी गरमा जाती और पीठ की अच्छी सिंकार्इ हो जाती थी।
अम्मा अपने सुख-दुख या फिर अपनी हारी-बीमारी की चिंता किया करती थीं।
हां, दिन भर चाहे जिस हालत में रहें, शाम होते ही अच्छे से चेहरा धो-पोंछकर स्नो-पाउडर लगा लेतीं। आंखों में काजल और मांग ‘अफसन’ से भरतीं। जिस्म फैल-छितरा गया है तो क्या, बनना-संवरना तो इंसान की फितरत होती है। हां, लिपिस्टिक की जगह होंठ पान की लाली से रंगे हुआ करते।
अम्मा को भी अब्बा की तरह अपनी ढेर संतानों की कोर्इ चिन्ता कभी नहींं रही।
इस अव्यवस्था का परिणाम ये हुआ कि यूनुस की बड़ी बहिन बड़की अभी ठीक से जवान हो भी न पार्इ थी कि घर से भाग गर्इ।
यूनुस को याद है कि बड़की उसे कितना प्यार किया करती थी।
यूनुुस तब चार-पांच बरस का होगा।
बस जब देखो तब अपनी बड़की आपा के पास मंडराता रहता। अम्मा को तो बच्चों की सुध ही न रहती थी।
पड़ोस में एक सिंधी फलवाला रहता था।
सिंधी फलवाला सुबह नौ-दस बजे ठेले पर फल सजाया करता। वह नगर में घूम-घूम कर फल बेचा करता था। नौ बजे घर के सामने वाला सार्वजनिक नल खुला करता था। आधा-पौन घण्टा भीड़ रहा करती, फिर जब लोग कम हो जाते तब बड़की बाल्टी लेकर पानी भरने निकलती। यूनुस भी अपनी बड़की आपा के पीछे एक डब्बा या डेगची लेकर पानी भरने चला आता।
बड़की आपा पानी भरने लगती और सिंधी फलवाले को देख मुस्कुराया करती।
तब फलवाला यूनुस को इशारे से अपने पास बुलाता।
यूनुस फल की लालच में दौड़ा चला जाता।
सिंधी फलवाला उसे दो केले देता। कहता, एक अपनी आपा को दे देना।
यूनुस को बड़े शौक से अपने हिस्से का केला खाता और बड़की आपा के हिस्से का केला उसे दे देता। बड़की आपा केला हाथ में पकड़ती तो उसके गाल शर्म से लाल हो जाते। यूनुस को क्या पता था कि इस केले के माध्यम से उन दोनों के बीच किस तरह का ‘कूट-संवाद’ सम्पन्न होता था। वह तो चित्तीदार केले का मीठा स्वाद काफी देर तक अपनी जुबान में बसाए रखता था।
रात के नौ बजे बड़की आपा यूनुस का हाथ पकड़ कर टहलने निकलती।
तब सिंधी फलवाला फेरी लगाकर वापस लौट आता था।
बड़की आपा से जाने क्या इशारे-इशारे में वह बातें किया करता।
यूनुस को पुचकारकर पास बुलाता।
कोर्इ सड़ा सेब या केला उसके हाथ में पकड़ा देता।
यूनुस खुश हो जाता।
यूनुस रात में बड़की आपा के पास ही सोया करता था।
बड़की आपा उसे अच्छी तरह सीने से चिपका कर सुलाया करती और बहुत प्यार किया करती।
कभी-कभी सिंधी फलवाले का आपा के साथ किया गया व्यवहार नन्हे यूनुस को अच्छा नहीं लगता था। चूूंकि बड़की आपा बुरा नहीं मानती थी और लजाकर हंस देती थी, इसलिए यूनुस सिंधी फलवाले की हरकतों को चुपचाप हज़म कर जाया करता था।
एक दिन यूनुस के दोस्त छंगू ने उसे बताया कि यार, अगर तू बुरा न माने तो एक बात कहूं। यूनुस ने उसे डपट दिया कि ज्यादा भूमिका न बांधते हुए मुद्दे पर आ जाए।
छंगू बिचारा कहने में संकोच कर रहा था कि कहीं यूनुस उसे पीट न दे, इसलिए उसने एक बार फिर यूनुस से गछवा लिया कि भार्इ मेरे, तू बुरा तो नहीं मानेगा।
खीज कर यूनुस ने उसकी गर्दन पकड़ कर हिला दिया।
छंगू की आंखें बाहर निकलने को हो आर्इं, तब उसने कहा-’’छोड़ दे बे, बताता हूं....कल रात घर के पिछवाड़े मैंने देखा था कि वो सिंधी फलवाला तेरी दीदी को चुम्मू ले रहा है।’’
यूनुस का खून खौल उठा-’’तो?’’
छंगू घबरा गया-’’इसीलिए मैं बोल रहा था कि बुरा न मानना।’’
यूनुस ने उसे कुछ न कहा।
उसने स्वयं अपनी आंखों से ऐसा ही एक प्रतिबंधित दृश्य देखा था। वाकर्इ बड़की हद से आगे बढ़ रही है। अम्मा और अब्बा को तो बच्चे पैदा करने से फुर्सत मिलती नहीं कि वे बच्चों के बारे में सोचें।
एक दिन यूनुस पिछवाड़े आंगन में खड़े-खड़े मूत रहा था तब उसने अमरूद के पीछे देखा था कि सिंधी फलवाला और बड़की काफी देर तक एक दूसरे से चिपके खड़े थे।
यूनुस की समझ में न आया कि वह तत्काल क्या करे। उसने एक पत्थर उठाया और सिंधी फलवाले की पीठ पर दे मारा।
फलवाले ने बुरा नहीं माना, बल्कि मार खाकर वे दोनों बड़ी देर तक हंसते रहे थे।
सिंधी फलवाला यूनुस को साला कहा करता और एक मुहावरा उछाला करता-’सारी खुदार्इ एक तरफ, जोरू का भार्इ एक तरफ!’
उस गुप-चुप चलती प्रेम कहानी की जानकारी सिर्फ यूनुस को थी।
सलीम भार्इ घर से ज्यादा मतलब न रखता लेकिन उसे बड़की की कारस्तानी का अंदाज़ा हो रहा था। उसने अम्मा से बताया भी था कि नालायक बड़की को डांटिए कि उस सिंधी फलवाले से दूर रहे। लेकिन अम्मा को कहां फुरसत थी...उस समय छोटकी पेट मे थी। वे तो अपनी सेहत को लेकर ही परेशान रहा करती थीं।
कहते हैं कि सलीम भार्इ ने एक बार अपने दोस्तों के साथ उस फलवाले को डराया-धमकाया भी था। उसके दोस्तों ने सिंधी फलवाले के ठेले पर बचे हुए फल लूट लिए थे और उसे चेतावनी दी थी कि अपनी आदतों से बाज़ आए।
जब सिंधी फलवाले और बड़की ने देखा कि उनके प्रेम-व्यापार के दुश्मन हज़ार हैं तो एक दिन बड़की आपा उस सिंधी फलवाले के साथ कहीं भाग गर्इ।
कहते हैं कि वे लोग कटनी चले गए हैं।
कटनी तो सिंधियों का गढ़ है गढ़....
इसीलिए यूनुस को कटनी से चिढ़ है।
बड़की के घर से भाग जाने के बाद जिसका मन सबसे ज्यादा हताहत हुआ वह सलीम भार्इ था। जाने क्यों अव्यवस्था का वह धुर विरोधी हुआ करता था। वह अपने दोस्तों में, अपने समाज में, अपनी और अपने परिवार की इज़्ज़त बढ़ाने का प्रयास किया करता था। बड़की ने घर से भाग कर जैसे सरे-बाज़ार उसकी नाक कटा दी हो। सलीम भार्इ अपने दोस्तों के साथ कर्इ दिनों तक सिंधी फलवाले और उसके घरवालों की टोह लेता रहा था। यदि इस बीच वे मिल गए होते तो पक्का है कि फौजदारी हो जाती और बाकी जिन्दगी सलीम भार्इ जेल में काटते।
बड़े ज़िद्दी स्वभाव का था सलीम भार्इ।
सुनता सबकी लेकिन करता अपने मन की।
होश सम्भालते यूनुस के बड़े भार्इ सलीम ने देखा कि इस घर के रंग-मंच में अब ज्यादा दिन का रोल उसके लिए नहीं। अम्मा और अब्बा जिस तरह से घर चला रहे थे, उसमें सलीम को अपना भविष्य अंधकारमय लगा।
बड़की आपा के घर से भागने के बाद सलीम ने दोस्तों का साथ छोड़ दिया।
कुछ दिन वह घर में कैद रहा।
एकदम अज्ञातवास का जीवन....
अम्मा-अब्बा सभी उसकी हालत देख परेशान रहने लगे थे।
फिर एक दिन वह फजिर की अज़ान सुनकर जामा-मस्जिद की तरफ चला। वहां उसे नमाज़ पढ़़ने के बाद तब्लीगी-जमात वालों के मुख से तक़रीर सुनने को मिली। दिल्ली से जमात आर्इ हुर्इ थी। तब्लीगी-जमात वालों के रहन-सहन और जीवन-दर्शन से उसे प्रेरणा मिली।
उसके अशांत दिलो-दिमाग को सुकून मिला।
उन लोगों से वह इतना प्रभावित हुआ कि उस दिन घर न लौटा।
तब्लीग वालों के साथ ही मस्जिद में क़याम किया।
शाम को अस्र की नमाज़ के बाद जमात के लोग स्थानीय स्तर पर लोगों से सीधे सम्पर्क करने के लिए गश्त पर निकले।
वह भी उनके साथ गश्त पर निकला।
अमीरे-जमात किस तरह अपरिचित कलमा-गो लोगों को दीन-र्इमान की दावत दिया करते हैं, उसने देखा।
फिर मग़रिब की नमाज़ के बाद ज़िक्र और र्इशा की नमाज़ के बाद अल्लाह की तस्बीह और याद और गहरी नींद का र्इनाम....
सलीम भार्इ तब नियमित रूप से जामा-मस्जिद में नमाज़ पढ़ने जाने लगा।
कभी-कभी चंद विदेशी मुसलमान भी धर्म-प्रचार और आत्मोत्थान के उद्देश्य से आया करते थे।
अब्बा तो कट्टर बरेलवी विचारों के थे। वे तब्लीग़ियों को ‘मरदूद वहाबी’ कहा करते और अक्सर एक तुकबंदी पढ़ा करते थे-
मरदूद वहाबी की यही निशानी
उठंगा पैजामा,
टकला सिर और काली पेशानी
बरेलवी लोगों की पोशाक देवबंदियों के ठीक विपरीत हुआ करती। देवबंदी जहां अपने सिर के बाल सफाचट करवाते हैं वहीं बरेलवी लोगों के बाल कान के ऊपर बढ़े होते हैं। देवबंदियों की मूंछें सफाचट रहेंगी जबकि बरेलवी लोग पतली-तराशी हुर्इ मूंछे रखते हैं। बरेलवियों का पैजामा या शलवार टखनों के नीचे तक रहती है। उनकी टोपियां काली रहती हैं। सफेद टोपियां हों तो कुछ आसमान की तरफ अतिरिक्त उठी हुर्इ रहेंगी। उनके कंधे पर शतरंजी डिज़ार्इन का गमछा हुआ करता है।
यूनुस ने देवबंदी और बरेलवी दोनों तरह के मुसलमान क़रीब से देखे हैं। उसे आज तक समझ में नहीं आया कि बरेलवी लोगों के माथे पर बार-बार सिजदा करने से किसी तरह का दाग़ नहीं बनता है, जबकि इसी के उलट देवबंदी अभी महीने भर का पक्का नमाज़ी बना नहीं कि उसकी पेशानी पर गोल काला धब्बा उभर आता है।
ये ऐसी बुनियादी पहचान है जिसे दोनों अकीदे के लोग अपना अलग-अलग ‘ड्रेस-कोड’ बनाए हुए हैं। इसी पहनावे और अन्य आउट-लुक से मुसलमान जान जाते हैं कि मियां किस अकीदे का है।
शिक्षित तबके का ओहदेदार मुसलमान जो इन सब लफड़ों में नहीं पड़ना चाहता उसके अकीदे के बारे में जानना मुश्किल होता है।
इसमें तो इतनी मुश्किल पेश आती है कि कोर्इ ये भी न जान सकें कि वह हिन्दू है या मुसलमान...
यूनुस ने अपनी जीवन-यात्रा में इतना जान लिया था कि हिन्दुस्तान में रहना है तो वन्दे मातरम् कहना होगा....
सो उसे देखकर कोर्इ नहीं कह सकता था कि वह एक मुस्लिम युवक है।
अब्बा, सलीम भार्इ के तब्लीग़ी लोगों में उठने-बैठने का विरोध करते।
सलीम हर वह काम करता जिससे अब्बा को दुख पहुंचता। वह उन्हें तकलीफ़ पहुंचाकर सुकून हासिल किया करता था। जाने क्यों सलीम भार्इ इतना परपीड़क बन गया था।
तब्लीग़ी जमातें जब नगर में आतीं, अमीरे-जमात वज़ीर भार्इ सलीम को बुलवा भेजते। सलीम भार्इ उन जमात वालों का स्थानीय मददगार हुआ करता। वह आने वाली जमात का इस्तेकबाल करता। उन्हें मस्जिद के एक कमरे में ठहराता। उन्हें कहां खाना पकाना है, कहां नहाना है और कहां पैखाने जाना है, पीने के पानी की व्यस्था कहां से होगी, सभी जानकारी वह उपलब्ध कराता।
तब्लीग़ जमात के लोग अत्यधिक अनुशासन में रहा करते। अमीरे-जमात के हुक्म का अक्षरश: पालन किया करते।
जमात वालों की बड़ी सख़्त दिनचर्या हुआ करती थी।
घड़ी देखके तमाम काम...
यूनुस भी कभी-कभी सलीम भार्इ के साथ वहां जाया करता था।
जब नगर का सबसे भव्य मंदिर एक छोटे से चबूतरा था। जब यहां पुलिस थाना और रेल्वे स्टेशन के अलावा कोर्इ पक्की इमारत न थी। तब नगर में मस्जिद के नाम पर बन्ने मियां की परछी हुआ करती थी। बन्ने मियां की आल-औलाद न थी। उन्होंने अपनी ज़मीन अंजुमन कमेटी को वसीयत कर दी थी।
बन्ने मियां ने एक पक्की मस्जिद के लिए स्वयं अपने हाथों से संगे-बुनियाद रखी थी। अल्लाह उनको करवट-करवट जन्नत बख़्शे।
फिर स्थानीय स्तर पर चंदा करके वहां एक छोटा सा पक्का हॉल बना।
मस्जिद के आंगन में एक कुंआ था। उस कुंए का पानी बड़ा मीठा था। गर्मियों में भी पानी खत्म न होता। कमेटी वालों ने उस पर कव्हर लगा दिया। रस्सी-बाल्टी के लिए छोटा सा छेद था। कुंआ के एक तरफ दो कमरे थे, जिन्हें गुसलखाना कहा जाता था। दूसरी तरफ पिछवाड़े में इस्तिंजा (पेशाब) के लिए मूत्रालय था। फिर एक सीट वाला बैतुल-खुला यानी कि ‘सेप्टिक-टेंक’ पैखाना था।
उस मस्जिद के पेश-इमाम बड़े क़ाबिल बुजु़र्ग थे। संयमित जीवन वाले, नेक, परहेज़गार और आध्यात्मिकता के हिमायती। लम्बा क़द, पतली-दुबली काया, लम्बी सी सफेद दाढ़ी। बोलते तो मुंह पर हाथ रख लिया करते। कहते हैं कि उनके पास काफ़ी रूहानी ताक़त थी। वे गण्डा-तावीज़ आदि नहीं दिया करते थे। हां, दुआएं कसरत से दिया करते और उनकी दुआएं ‘अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त’ की बारगाह में कु़बूल हुआ करती थी।
वे कु़रान-शरीफ़ का इतना मधुर पाठ किया करते कि सुनने वाला मंत्रमुग्ध सुनता रहे। एकदम शुद्ध अरबी का उच्चारण। गले की बेहतरीन लयकारी। क़िरत ऐसी कि बस सुनते चले जाइए।
यूनुस कभी-कभी जुमा की नमाज़ पढ़ने उसी मस्जिद में जाता।
सलीम भार्इ वहां के एक तरह से अवैतनिक मुअिज़्ज़न बन चुका था। मुअिज़्ज़न की अनुपस्थिति में वह मस्जिद का काम सम्भाला करता था।
इसी कारण सलीम भार्इ किसी तरह का काम नहीं सीख पाया।
यूनुस धर्म पर आश्रित न था, बल्कि स्वाद-परिवर्तन के लिए धर्म के पास आया करता था। जैसे कि स्वाद-परिवर्तन करने के लिए पिक्चर देखना, कव्वाली सुनने जाना, फुटबाल मैच खेलना, बिजय भर्इया के साथ आर एस एस की शाखा में जाना या फिर गप्पें मारना...
सलीम भर्इया इसी तरह तब्लीग़ जमात वालों के साथ रहते-रहते जमात में चालीस-चालीस दिन के लिए बाहर निकल जाया करता था।
अब्बा पर उनके बरेलवी मौलानाओं से फ़तवा मिल चुका था कि ऐसा व्यक्ति जो देवबंदियों के अक़ीदे में विश्वास करे, उनके साथ उठे-बैठे, उसका बहिष्कार कर देना चाहिए, भले से वह अपना बेटा, बेटी, मां या बाप या भार्इ-बहिन क्यों न हो!
अब्बा के पास आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खां द्वारा बतार्इ निदेशिका थी, जिसे वह पहले कमरे की दीवार में लगाए हुए थे। उसकी कुछ बातें आज भी यूनुस को याद हैं।
वहाबियों, देवबंदियों से नफ़रत करो।
वहाबियों, देवबंदियों के मौलवियों के पीछे नमाज़ पढ़ना मना है। उसकी नमाज़ न होगी और नमाज़ पढ़ने वाला गुनहगार भी होगा।
अगर कोर्इ मुसलमान अपना निकाह या अपने बेटी-बेटे का निकाह, वहाबी या देवबंदी से करेगा तो निकाह हरगिज़ न होगा।
वहाबियों, देवबंदियों को दावत खिलाना, उनकी दावत खाना दोनों बातें नाजायज़ हैं।
सलीम भार्इ की गतिविधियां किसी से छिपी न थीं। वैसे भी वह जगह थी ही कितनी बड़ी कि बातें दबी रह सकें।
नगर के एक कोने में छींकिए तो दूसरे कोने तक आवाज़ चली जाए।
बरेलवी मौलानाओं, स्थानीय मदीना मस्जिद की कमेटी के मेम्बरान की समझार्इश से तंग आकर अब्बा ने ऐलान कर दिया था कि सलीम उनकी औलाद नहीं।
वे सलीम भार्इ को अपनी औलाद मानने से इंकार कर चुके थे।
इतने प्रतिबंधों से परेशान होकर सलीम भार्इ घर से भाग कर सिंगरौली खाला के पास चले गया।
वहां खालू ने सलीम भार्इ को बैढ़न में एक टीन के चादर से पेटियां बनाने वाले कारखाने में काम दिलवा दिया था।
वैसे खालू भी देवबंदियों से चिढ़ते थे।
वह एक कट्टर सुन्नी थे और बरेलवी अक़ीदे को मानते थे, लेकिन खाला के हस्तक्षेप के कारण वह सलीम भार्इ की उपस्थिति घर में बर्दाश्त किया करते थे।
शुरू में सलीम भार्इ बरेलवियों वाली मस्जिद में नमाज़ पढ़ता था, क्योंकि जिसके यहां वह काम सीखा करता था वह कट्टर स्वभाव का था। तब्लीग़ियों और देवबंदियों से बेतरह चिढ़ा करता था। जब सलीम भार्इ काम अच्छे से सीख गया तो वह एक दूसरे कारखाने में चला गया। ये भी एक मुसलमान का ही कारखाना था लेकिन ये जनाब देवबंदी ख़्यालात के इंसान थे। वे जानते थे कि सलीम भार्इ के खालू बरेलवी हैं, फिर भी उन्होंने सलीम भार्इ को अपने यहां कारीगर रख लिया। अब सलीम भार्इ बैढ़न की देवबंदियों वाली मस्जिद में नमाज़ पढ़ने जाने लगा।
ये बात खालू को मालूम हुर्इ तो उन्होंने खाला से साफ़-साफ़ कह दिया कि वे वहाबियों को अपने घर में सहन नहीं कर पाएंगे।
खाला ने सलीम भार्इ को समझाया-बुझाया। उसे दुनियादारी की बातें सिखाना चाहीं। सलीम भार्इ कहां मानने वाला था।
इस बीच खालू आ गए तो सलीम उन्हें ही तब्लीग़ करने लगा।
‘‘क़ब्रों की पूजा ठीक नहीं। अस्ल चीज़ है नमाज़, रोज़ा, हज और ज़कात। दीन में रार्इ-रत्ती का जोड़ने वाला बिदअ़ती (देवबंदी लोग बरेलवियों को बिदअती कहते हैं और बरेलवी देवबंदियों को वहाबी! ) कहलाता है। हुजूर सरकारे दो आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के लिए यदि सच्ची मुहब्बत है तो एक सच्चे मुसलमान को हक़ पर चलना चाहिए। बिदअ़तियों से बचना चाहिए।’’
इतना नसीहत सुनकर फौजी खालू तो जैसे आपे से बाहर हो गए।
उन्होंने खाला का लिहाज छोड़ सलीम भार्इ को तत्काल घर-निकाला का फ़रमान दे दिया था।
फिर सलीम भार्इ बैढ़न में कारखाने में ही रहने लगा था।
वहीं उसका रंग-रूप बदल गया था।
अब वह कमीज़-पैंट पहनना छोड़कर कुर्ता-शलवार पहनने लगा था। चूंकि उसका बदन गठा हुआ था और क़द दरमियाना था, सो उस पर घुटनों के नीचे झूलता कुर्ता और टखनों से उठी शलवार खूब जमती थी। सिर पर वह सफेद गोल टोपी लगाने लगा था। वह एक परम्परागत मुसलमान दिखता था। जैसे कि देवबंद के दारूल-उलूम के छात्र दिखा करते हैं।
खाला जब कभी बैढ़न जातीं तो सलीम भार्इ से मिला करतीं।
उन्हें सलीम भार्इ से बड़ी मुहब्बत थी।
सलीम भार्इ ने अपनी कमार्इ से खाला के लिए कर्इ साड़ियां खरीदी थीं।
फिर सुनने में आया कि किसी तब्लीग़ जमात के साथ सलीम गुजरात की तरफ चला गया है। गुजरात के बड़ोदरा से एक-दो ख़त बैढ़न के कारखाने में आए थे। जिसमें खाला के लिए सलीम भार्इ अलग से खत लिखा करता था।
सलीम भार्इ के आख़िरी ख़त से पता चला था कि वह एक तब्लीगी परिवार में घर-जमार्इ बन गया है।
अच्छे खाते-पीते लोग हैं वे।
फिर एक दिन गुजरात के दंगों में उसके मारे जाने की ख़बर आर्इ।
सलीम भार्इ का पहनावा और रहन-सहन गोधरा-काण्ड के बाद के गुजरात में उसकी जान का दुश्मन बन गया था....
तीन
खटर खट् खट्, खटर खट् खट्...
ठंड से ठिठुरती हुर्इ ट्रेन की एक लम्बी चीख़...
ट्रेन की पटरियों के बदलने की आवाज़ के साथ ब्रेक की चीं...चां...
और ट्रेन रूक गर्इ।
खिड़कियों के बाहर रोशनी की झलक नहीं। इस लार्इन के अधिकांश स्टेशन तो बिना बिजली-बत्ती वाले हैं।
सम्भावना है कि आउटर पर ट्रेन रूकी होगी या फिर कोर्इ स्टेशन ही हो।
चोपन से सिंगरौली के बीच सिंगल-लार्इन है। वैसे तो रात की ये पैसेंजर फास्ट-पैसेंजर के नाम से चलती है और छोटे-मोटे स्टेशन में रूकती नहीं लेकिन क्रासिंग के नाम पर इसे रोका ही जाता है।
चाय-पानी के लिए रात के सफर में ब्योहारी ही एक स्टेशन है, जहां कुछ आशा की जा सकती है। दिन में सरर्इ-ग्राम और खन्ना बंजारी स्टेशन में चाय-नाश्ता मिलता है।
गार्ड, ड्राइवर और मुसाफिर ऐसी जगहों पर टूट पड़ते हैं।
यूनुस को नींद नहीं आ रही थी।
उसने नीचे की सीट पर निगाह दौड़ार्इ।
देखा कि साधू महाराज कम्बल ओढ़े पड़े हैं।
उनके पैर उस स्त्री की गोद में हैं।
स्त्री गहरी नींद में है।
उसके वक्ष पर आंचल हटा हुआ है।
भरी-भरी छातियां और चेहरे पर सुकून के लक्षण...
यूनुस ने सोचा कि कितना मस्त जीवन है ये भी!
आत्म-विस्मृति का जीवन!
कमाने-खाने की कोर्इ चिन्ता नहीं।
लोक-लाज की फ़िक्र नहीं।
व्यक्तिगत धन-सम्पत्ति का मोह नहीं।
बस, एक अंतहीन यात्रा में चलता जीवन.....
बड़े भार्इ सलीम ने ऐसी ही राह अपनार्इ थी। उसने सोचा था कि इसी तरह तब्लीग (धर्म-प्रचार)़ करते-करते वह दुनिया के साथ-साथ आख़िरत (परलोक) के इम्तिहानात में कामयाब रहेगा। उसने स्वयं को पूर्ण-रूपेण उस धार्मिक आंदोलन के लिए समर्पित कर रखा था।
और एक आस्थावान, धार्मिक प्रवृत्ति का साधारण युवक सलीम गुजरात के दंगों की भेंट चढ़ गया था।
यूनुस सलीम भार्इ की याद में खो गया था....
उसे आज भी याद है वो दिन जब आधी रात घर की सांकल बजी थी।
घर में यूनुस और बेबिया भर थे।
अब्बा आफिस के काम से शहडोल गए थे।
अम्मा पड़ोसी मेहताब भार्इ के साथ गढ़वा पलामू गर्इ हुर्इ थीं।
मेहताब भार्इ की मंगनी होने वाली है। उसने स्वयं अम्मा को अपने साथ ले चलने की ज़िद की। अंधे को क्या चाहिए दो आंख। अम्मा को तो घर छोड़ने का कोर्इ न कोर्इ बहाना चाहिए। बेबिया और यूनुस तो हैं ही घर के कुत्ते। भौंक-भौंक कर घर की रखवाली यही लोग तो करते हैं।
बाकी लोग तो मालिक ठहरे।
दुबारा सांकल बजी तो यूनुस ने आवाज़ लगार्इ-’’कौन?’’
लगा नन्हू’च्चा की आवाज़ है-’’मैं हूं भार्इ, नन्हू....!’’
यूनुस को आश्चर्य हुआ कि नन्हू’च्चा और इस समय!
बेबिया अंदर वाले कमरे में घोड़ा-हाथी बेच कर सो रही थी।
यूनुस ने जल्दी से चड्डी पर गमछा लपेटा और दरवाज़ा खोला।
नन्हू’च्चा ही तो थे।
पतली-दुबली काया, लुंगी और कुर्ता पहने, सिर पर दुपल्ली टोपी।
बेतरतीब सी खिचड़ी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोले-’’गुल्लू का फोन आवा है....तुहरे अब्बा कहां हैं?’’
यूनुस ने उन्हें सलाम किया और अंदर आने को कहा।
नन्ह’च्चा बेहद घबराए हुए थे-’’अब्बा-अम्मा कौनो नहीं हैं का?’’
यूनुस मन ही मन डर गया।
जाने क्या बात है कि नन्हू’च्चा ऐसे घबरा रहे हैं।
उसने जिगर कड़ा कर पूछा-’’का बात हो गर्इ च्चा?’’
नन्हू’च्चा की आंखें नम हो आर्इं।
‘‘कुछ न पूछो, बस अपने अब्बा या अम्मा से बात करा दो बचवा!’’
‘‘दोनों नहीं हैं घर में, अब्बा तो शहडोल गए हैं, किसी भी समय आ सकते हैं लेकिन अम्मा बिहार गर्इ हुर्इ हैं। आप हम्में बताइए न का बात है?’’
नन्हू’च्चा के बेटे गुल्लू यानी पीर गुलाम ने ही एक बार बताया था कि यूनुस का बड़ा भार्इ सलीम गुजरात के बडोदा शहर में रहता है।
वह तब्लीगी-जमात वालों के साथ गुजरात चला गया था।
वहीं एक तब्लीगी मियां भार्इ इस्मार्इल सिद्दीकी ने उसे अपना घर-जमार्इ बना लिया।
इस्मार्इल सिद्दीकी की छोटी-मोटी दुकानदारी है। इकलौती बेटी के लिए नेक दामाद सलीम। सलीम वहीं मज़े में है।
पीर गुलाम जब भी बडोदा से कोतमा आता, सलीम भार्इ का संदेश लेकर आता। उसने एक बार बताया था कि अभागे सलीम ने ससुराल वालों के सामने अपने सगों को मरा हुआ मान लिया है। अब वह कभी लौटकर इधर नहीं आएगा। उसने अपने जीवन का मकसद जान लिया है। सलीम सरेआम ऐलान करता है कि उसने अल्लाह की बनार्इ इस कायनात में अपने नए मां-बाप पाए हैं। उसकी मुमताज महल बीवी उसे अपना बादशाह, शहंशाह और सरताज मानती है।
उनके एक बेटा भी है शाहजादा सलीम की तरह....
अम्मा की ढेर सारी संतान हैं फिर भी वह पहलौठी औलाद सलीम को भूल न पातीं। उनका सलीम से लगाव कुछ ज्यादा ही था।
वह जितना सलीम भार्इ के बारे में उल्टी-सीधी सूचनाएं पातीं, उनका दुख बढ़ता जाता। वह ज़ार-ज़ार आंसू बहातीं और अल्लाह-रसूल से उसके लिए दुआएं मांगा करतीं।
पीर गुलाम से अम्मा ने सलीम की चोरी से बहू और बच्चे की फोटो भी मंगवार्इ थी। उस तस्वीर में सलीम भार्इ किसी मौलाना सा दिखलार्इ दे रहा था और उसकी बीवी बुर्के का घूंघट पलट कर चेहरा बाहर निकाले थी। उनका बच्चा ऐसा दिख रहा था जैसे रूर्इ का गोला हो। अम्मा अपनी संदूकची में उस तस्वीर को सम्भाल कर रखती है।
यूनुस ने नन्हू’च्चा से पूछा-’’क्या ख़बर आर्इ है?’’
यूनुस के सामने केबिल टीवी के माध्यम से प्रसारित की जा रही गुजरात की दिल दहलाने वाली घटनाएं कौंध गर्इं।
गोधरा-काण्ड के बाद गुजरात में मार-काट मची हुर्इ है। तमाम अख़बार और टीवी के न्यूज़ चैनल गुजरात के दंगों को आम-जन के सामने लाने में भिड़े हुए है्र। एक से बढ़कर एक न्यूज़ रिपोर्टर कैमरा टीम के साथ जहां-तहां पिले पड़ रहे हैं ताकि दंगों का लार्इव-कवरेज बना सकें।
ताकि उनके चैनल की टी आर पी अचानक बढ़ जाए।
ताकि उनके रिपोर्ट्स से मीडिया में तहलका मच जाए।
‘ये देखिए, हाथ में पेट्रोल से भरी बोतलें लिए औरतें आगे बढ़ रही हैं। ये देखिए हरे रंग में पुता एक खास जाति के लोगों का मकान, पर्दे की ओट से झांकतीं बुर्का ओढ़े औरतें, छत पर पत्थर र्इंट इकट्ठा करते बच्चे, नमाज़ें अदा करते बुजु़र्ग, और ये देखिए किस तरह तड़ातड़ बोतलें फेंकी जा रही हैं.... यह एक्सक्लूसिव कवरेज सिर्फ इसी चैनल में आप देख रहे हैं...ये देखिए हमारे संवाददाता के साथ जनता कैसा बर्ताव कर रही है....लोग हमारा कैमरा तोड़ कर फेंक देना चाहते हैं... इस सड़क पर देखिए पुलिस के सिपाही मौन खड़े भीड़ को अवसर दे रहे हैं....वो देखिए एक गर्भवती महिला किस तरह भागना चाह रही है.... किस तरह त्रिशूल और लाठियां लिए, माथे पर गेरूआ पट्टी बांधे युवक उस महिला को चारों तरफ से घेर कर खड़े हो गए हैं...और...और... ये रहा उस महिला के पेट का त्रिशूल की नोक से चीरा जाना...देखिए किस तरह त्रिशूल की नोक पर अजन्मा बच्चा भीड़ के सिरों पर खुले आकाश में लहराया जा रहा है....याद रखिए ये लार्इव-कवरेज हमारे चैनल पर ही दिखलाया जा रहा है...हमारे जाबांज रिपोर्टरों ने अभी कुछ दिन पहले अफगानिस्तान में अमरीकी हमले के दौरान अमरीकी सैनिकों की बहादुरी और आतंकवादियों के सफाए का आंखों देखा हाल आप लोगों तक पहुंचा कर मीडिया की दुनिया में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया था...और अब गुजरात में क्रिया के बाद की स्वाभाविक प्रतिक्रिया को पूरी र्इमानदारी के साथ आप लोगों तक पहुंचाया जा रहा है। रात नौ बजे पूरे घटना-क्रम पर फिर एक बार निगाह डालता हमारा दंगा-विशेष देखना न भूलें। इस कार्यक्रम के प्रायोजक हैं हीरे-जवाहरात के व्यापारी, चरस-हीरोर्इन के स्मगलर, जूता, साबुन, कण्डोम और नेपकिन्स के निर्माता....
न्यूज़ के दूसरे-तीसरे चैनल भी यही सब दिखा रहे हैं। सभी दावा कर रहे हैं कि ये जो टीवी पर दिखाया जा रहा है, वह सब पहली बार उन्हीं के चैनल वालों ने दिखाया है। कि पूरे घटनाक्रम पर लगातार नज़र रखी जा रही है। कि हमारे संवाददाता अपनी जान जोखिम पर डालकर दंगे की विश्वसनीय एवम् आंखों देखी ख़बरें लगातार भेज रहे हैं। कि सिर्फ हमारा चैनल प्रस्तुत कर रहा है खसखसी दाढ़ी वाले मुख्य-मंत्री और कवि-प्रधानमंत्री से सीधी बातचीत। मुख्य-मंत्री, गृह-मंत्री और प्रधान-मंत्री कटघरे में। एकदम एक्सक्लूसिवली आपके लिए....जिसे प्रायोजित कर रहे हैं चड़डी-बनियान, शीतल-पेय और बीयर के निर्माता...
विपक्ष में बैठे लोग, जिनके दामन में जाने कितने दंगों के दाग़ लगे थे, जिन्होंने अपने शासनकाल में बाबरी-मस्जिद शहीद होने दी थी, घड़ियाली आंसू बहा रहे थे।
गुजरात के सुलगती आग में उनके गैर-साम्प्रदायिक कार्यकर्ता कहां थे, ऐसे कठिन समय में उनका रोल क्या था? क्या वे कभी इन सवालों का जवाब दे पाएंगे?
पक्ष-विपक्ष संसद में आपस में नोंक-झोंक कर रहे थे कि विपक्षियों के कार्यकाल में कितने दंगे हुए। सन् चौरासी का सिख-दंगा के आंकड़ों के आगे तो गुजरात में कुछ ज्यादा नहीं हुआ है। साम्प्रदायिक दंगों का इतिहास पलट लें, हर दंगों में स्त्रियों के साथ बलात्कार हुए हैं। मौजूदा सरकार के कार्यकाल में हुए इस ‘सहज-प्रतिक्रियात्मक’ कार्य में आंकड़ा उतना ज्यादा नहीं है। बहुसंख्यकों के आक्रोश का दमन स्थिति को और भयावह बना सकता था, इसलिए सरकार ने उन्हें थोड़ा सा मौका ही तो दिया था कि वे अपनी भावनाओं पर काबू पा लें। अभी तो कम ही हादसात हुए हैं।
मिलेटरी आदेश की प्रतीक्षा में कैम्पों में दण्ड पेल रही थी।
पुलिस ऐसे समय में मूक-दर्शक बनने की ऐतिहासिक भूमिका का तत्परता से पालन कर रही थी।
टीवी पर आती ख़बरों से फिर गुजरात धीरे-धीरे गायब होता गया कि नन्हू’च्चा ये कैसी ख़बर लेकर आ गए।
पीर गुलाम ने फोन पर क्या बात कही कि नन्हू’च्चा रात के बारह बजे समाचार पहुंचाने चले आए..
यूनुस का मन किसी अनहोनी की आशंका से विचलित हो रहा था।
नन्हू’च्चा चारपार्इ पर बैठे रहे।
फिर उन्होंने यूनुस से पानी मांगा।
लगता है कि बेबिया की नींद खुल गर्इ थी।
वह भकुआर्इ उठी थी।
यूनुस ने उससे च्चा के लिए पानी लाने को कहा।
तभी दरवाज़े की सांकल पुन: बजी।
लगता है कि अब्बा हैं, शायद ट्रेन से लौटे हों।
यूनुस ने लपक कर दरवाज़ा खोला, वाकर्इ अब्बा ही थे।
नन्हू’च्चा ने उन्हें सलाम किया और फिर अब्बा के लिए भी एक गिलास पानी मंगवाया।
अब्बा ने जब पानी पी लिया तो नन्हू’च्चा ने खंखारकर गला साफ किया और अब्बा के गले लगकर रो पड़े-’’अपना सलीम नहीं रहा....वो दंगे में मारा गया!’’
यूनुस को काटो तो ख़ून नहीं।
बेबिया तो दहाड़ मार कर रो पड़ी।
ये अचानक कैसी ख़बर सुन रहा था परिवार...
एकदम अप्रत्याशित ख़बर...
अब्बा की आंखें भी नम हो गर्इं-’’साफ-साफ बताएं कि क्या बात है?’’
नन्हू’च्चा के आंसू रूकने का नाम नहीं ले रहे थे-’’इधर जब से गुजरात सुलगा हुआ था, मेरे बेटे पीर गुलाम की भी कोर्इ ख़बर नहीं मिल पार्इ थी। बाद में पीर गुलाम का फोन मिला कि वह ठीक है। मामला जब ठंडाया तो पीर गुलाम डरते-डरते आपके बेटे सलीम के मुहल्ले गया था। वहां उसे पता चला कि सलीम तब्लीग-जमात में चिल्ला काट कर लौटा था। जमात के लोग स्टेशन से अलग-अलग ऑटो बुक कराकर अपने-अपने घरों को लौट रहे थे। सलीम दंगार्इयों के बीच फंस गया था। सलीम को आटो-सहित जला कर मार डाला गया। तब्लीगी-जमात वालों ने ही घटना की ख़बर उसकी ससुराल में पहुंचार्इ थी। ससुराल वाले इस उम्मीद में थे कि शायद सलीम जान बचा कर कहींं छुपा होगा और मामला ठंडाने पर लौट आएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वह ख़बर सही थी। उस आटो के साथ सलीम भी जल कर ख़ाक हो गया था।’’
यूनुस को पीर गुलाम की बात याद हो आर्इ जो सलीम भार्इ को ‘लादेन’ के नाम से याद किया करता। तब्लीगी-जमात से जुड़ा होने के कारण सलीम भार्इ का गेट-अप एकदम ओसामा बिन लादेन की तरह दिखता था।
यूनुस को उसके लिबास और उसकी पहचान ने ले डूबा।
एक बार यूनुस खालू के इलाज के लिए पीजीआर्इ लखनऊ गया था।
वहां एक मौलवी नुमा बुजुर्ग दिखे तो आदतन उसने उन्हें सलाम किया।
वे बहुत नाराज़ दिखलार्इ दे रहे थे।
कैसा ज़माना आ गया। हद हो गर्इ भार्इ। ये डॉक्टर जिन्हें फ़रिश्ता भी कहा जाता है, मुसलमान मरीज़ों से चिढ़ते हैं। जान जाते हैं कि मरीज़ मुसलमान है तो फिर इलाज में लापरवाही करते हैं। सारे काफिर डॉक्टर आरएसेस के एजेंट हैं। वे चाहते हैं कि ‘मीम’ का सही इलाज न होने पाए।
थोड़ी सी हुज्जत की नहीं कि इलाज ऐसा कर देंगे कि रिएक्शन हो जाएगा, दवा कोर्इ फायदा न करेगी।
यूनुस ने उन मौलवी साहब की बात का खण्डन किया-’’अरे नहीं मौलवी साहब, एकदम ग़ल्त कह रहे हैं आप! भला बतार्इए, हम भी तो मुसलमान हैं, लेकिन हमने तो ऐसा कोर्इ भेदभाव यहां नहीं होते देखा। डॉक्टर बिचारे भरसक मरीज़ को तंदरूस्त करने में लगे रहते हैं।’’
फिर उसने मौलवी साहब का मन बदलने के लिए पूछा-’’आप कहां के रहने वाले हैं?’’
उन्होंने कहा-’’जौनपुर जिले का रहने वाला हूं।’’
‘‘ठीक है, लेकिन आपकी ये शिकायत वाजिब नहीं कि डॉक्टर मरीज़ों से भेदभाव करते हैं। बीमारी जितनी बड़ी होगी, डॉक्टर उतने सीरियस रहते हैं।’’
‘‘दुनिया देखी है मैंने बेटे, तुम मुसलमान ज़रूर हो, लेकिन तुम्हारा रहन-सहन एक आम हिन्दू शहरी की तरह है। इसलिए तुम हिन्दुओं के बीच खप जाते हो। हमें देखकर कोर्इ भी जान लेता है कि हम मुसलमान हैं। वे हमसे नफ़रत करने लगते हैं। सोचता हूं कि इस मुल्क के उलेमा ये फ़तवा ज़ारी कर दें कि मुसलमानों को दाढ़ी रखने की सुन्नत से छूट मिल जाए।’’
यूनुस उन बुजुर्ग की बात सुनकर कांप गया था।
चार
पंकज उधास की ग़ज़ल का एक शे’र यूनुस को याद हो आया-
दुनिया भर की यादें हमसे मिलने आती हैं
शाम ढले, इस सूने घर में मेला लगता है
दीवारों से, मिलकर रोना, अच्छा लगता है
हम भी पागल, हो जाएंगे, ऐसा लगता है
िज़ंदगी के इस पड़ाव पर दुनिया भर की यादें यूनुस का पीछा कर रही थीं।
अब्बा, अम्मा, खाला, खालू, सलीम भार्इ, बड़की, सिंधी फलवाला, सनूबर, मलकीते, छंगू, जमाल साहब, डॉक्टर, बन्ने उस्ताद, मन्नू भार्इ मिस्त्री, यादवजी, बानो और भी न जाने कितने जाने-अन्जाने चेहरे, हर चेहरे की एक अलग दास्तान....
उसकी नींद उचट चुकी थी।
चोपन-कटनी पैसेंजर किसी स्टेशन पर रूकी।
बर्थ पर पसरे-पसरे उसने झुककर खिड़की के बाहर झांका।
तभी साधू महाराज बड़बड़ाए-’’लागत है ब्योहारी आ गवा।’’
यूनुस उठ बैठा।
ब्योहारी में पैसेंजर कुछ देर रूकती है।
सिंगरौली और कटनी के बीच ब्योहारी ही वह जगह है जहां चाय-पानी का बंदोबस्त हो सकता है।
वह ट्रेन से नीचे उतरा।
सामने ही चाय मिल रही थी।
ठंड यहां भी काफी थी।
वह कांपते-ठिठुरते चाय के अड्डे तक पहुंचा।
टीटीर्इ, गार्ड और ड्राइवर चाय सुड़क रहे थे।
पोलिथीन के कप में उसने भी चाय ली। अपने हाथों को उस गर्म चाय के कप में सेंका और चाय सुड़कने लगा।
चाय पीकर उसने सिगरेट सुलगा ली और अपनी बोगी की तरफ चल पड़ा।
बोगी में चढ़कर वह टॉयलेट में घुस कर बाकी बची सिगरेट पीने लगा, दीवारों पर लिखी इबारतों को ध्यान-पूर्वक पढ़ते हुए पेशाब किया।
वापस अपनी बर्थ पर आकर वह बैठ गया।
साधू महाराज की बगल में स्त्री लम्बलेट हो चुकी थी।
साधू-महाराज बैठे-बैठे सो रहे थे। दोनों एक ही कम्बल में थे।
यूनुस ने एयर-बैग खोलकर अपनी डायरी निकाली।
डायरी के पहले पन्ने पर सनूबर की हस्तलिपि में यूनुस का नाम हिन्दी और अंग्रेजी में दर्ज था।
साथ में बहुत सारी व्यक्तिगत जानकारी लिखी हुर्इ थी। जैसे पता के स्थान पर खालू के क्वाटर का पता। गाड़ी नम्बर के स्थान पर खालू के स्कूटर का नम्बर। टेलीफोन नम्बर की जगह पाण्डे पीसीओ का फोन नम्बर।
दूसरे पन्ने पर यादगार तिथियों के लिए जगह थी।
उसमें सनूबर ने यूनुस की और अपनी जन्मतिथि लिखी हुर्इ थी।
यूनुस : 1 जुलार्इ 1980
सनूबर : 20 अक्टूबर 1987
डायरी के एक पन्ने पर सनूबर ने अपने बारे में विस्तार से लिखा था।
पसंद का रंग : पिंक
पसंद का खाना : चिकन-बिरयानी
पसंद की मिठार्इ : रसमलार्इ
पसंद का टीवी कार्यक्रम : अंताक्षरी
किससे नफ़रत करती हो : धोखेबाजों से
किसे प्यार करती हो : ‘मार्इ’ से
यूनुस जानता है कि ‘मार्इ’ का मतलब क्या है? ‘मार्इ’ सनूबर का कोड-वर्ड है।
मार्इ याने एम और वाय।
एम से मोहम्मद और वाय से यूनुस।
आजकल की लड़कियां कितनी चालाक होती हैं। यूनुस हंस पड़ा।
फिर उसने कर्इ पन्ने पलटे।
कहीं कोर्इ गाना लिखा था, कहीं नात-शरीफ़, कहीं कव्वाली और कहीं शेरो’शायरी।
डायरी के आखिर में एक लिफाफा रखा था। जिस पर लिखा पता उसने एक बार पुन: पढ़ा-
टू,
मेसर्स मेहता कोल एजेंसी
ट्रांसपोर्ट नगर, कोरबा, छत्तीसगढ़
और भेजने वाले के पते की जगह लिखा था-
पुनीत खन्ना
मैनेजर
मेहता कोल एजेंसी
सिंगरौली, सीधी, म.प्र.
लिफाफा के अंदर पुनीत खन्ना साहब ने एमसीए की कोरबा यूनिट के मैनेजर के नाम एक सिफारशी ख़त लिखा था-
महोदय,
पत्रवाहक मोहम्मद यूनुस, पेलोडर और पोकलैन आपरेटर है। वह सिंगरौली यूनिट का एक र्इमानदार, टेकनीकली-ट्रेंड, कमर्शियली बेस्ट वर्कर है। पारिवारिक कारणों से मो. यूनुस, अपना ट्रांसफर कोरबा चाह रहा है।
इसलिए आप इसे कोरबा-यूनिट में काम दे सकते हैं।
आपका
पुनीत खन्ना
यूनुस इस ख़त को पहले भी कर्इ बार पढ़ चुका था।
उसे गर्व हुआ कि अल्लाह के रहमो-करम से अब उसकी अपनी एक स्वतंत्र पहचान बन चुकी है।
उसने ख़त को डायरी में रखा और करवट बदल कर लेट गया।
गार्ड की व्हिसिल की आवाज़ आर्इ और फिर ट्रेन की सीटी गूंजी।
ट्रेन चल पड़ी।
खटर खट खट
खटर खट खट
सुबह तक कटनी पहुंचेगी ट्रेन...
यूनुस को नींद ने कब अपनी आगोश में ले लिया, उसे पता न चल सका....