Ujale ki aur - 4 - last part in Hindi Moral Stories by Jaishree Roy books and stories PDF | उजाले की ओर - 4 - अंतिम भाग

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उजाले की ओर - 4 - अंतिम भाग

उजाले की ओर

जयश्री रॉय

(4)

परियोजना के बाहर प्रौढ़ शिक्षा केंद्र, आस-पास के गाँव की महिलाओं के लिए सिलाई-बुनाई कार्यशाला, मूक बधिर बच्चों का स्कूल, दिव्याङ्ग बच्चों के लिए साइकिल रिक्शा वितरण और भी बहुत कुछ... सुहासिनी संघ के क्रिया कलापों ने रूना को गहरे प्रभावित किया था। पहले तो उसे विश्वास ही नही हुआ कि ऐसी संभ्रांत कॉलोनी की महिलाएं ग्रासरूट पर इस तरह के सामाजिक कल्याण के कार्यों से भी जुड़ी हो सकती हैं, लेकिन यह सच था और इस सच ने रूना को गहरे प्रभावित किया था। उसने खुद ब खुद इन कामों में रुचि दिखानी शुरू कर दी थी। देखते ही देखते मिसेज अकोटकर ने रूना को गहिलगढ़ स्थित प्रौढ़ शिक्षा केंद्र का प्रभारी बना दिया।

गर्मी की लंबी दुपहरें अब बहुत छोटी लगने लगी थीं। सुबीर के ऑफिस जाने के बाद वह झटपट खाना बना लेती और रोज नियम से एडल्ट एजुउकेशन सेंटर चली जाती। यह सिर्फ उसके लिए एक इंगेजमेंट भर नही था, बल्कि उससे कहीं आगे उसे यहाँ एक नए उपन्यास का प्लॉट मिल गया था। विद्युत परियोजना के विस्थापितों की ज़िंदगी उसके भीतर उतर कर खुद उसके विस्थापित होने के दर्द को एक नए अर्थ से भर रही थी। अब शाम का खाना अक्सर सुबीर बनाता, उसे लायब्रेरी भेज कर। बहाना वही- ‘तुम्हारे हाथ का खा कर ऊब चुका हूँ, कुछ देर घर पर नहीं रहोगी तो घर में ज़रा शांति तो रहेगी...’ सुन कर कभी वह गुस्सा होने का दिखावा करती, कभी हंस पड़ती तो कभी बड़ी मुश्किल से अपने आँसू छिपाती। सुबीर अंजान बन कर कहता- ‘अब ज्यादा सेंटी होने की जरूरत नही, फूटो यहाँ से!’ पिछले महीने बैढ़न से दो अखबारों के स्थानीय संस्कारण भी निकले शुरू हुये हैं। उसने इनके लिए भी लिखना शुरू कर दिया है। उस दिन माँ का फोन आया तो वे बेहद खुश लग रही थीं। एक पत्रिका के महिलाओं की रचनाशीलता पर केन्द्रित अंक में उसकी कहानी पढ़ कर उसे बधाई देने के लिए फोन किया था। कह रही थीं, ‘रूना, ऐसे ही व्यस्त और खुश रहा करो।‘

इस बीच एक दिन हेल्थ सेंटर में रूटीन चेकअप के बाद डॉक्टर मालपपानी उनसे बतियाती हुई उनके घर तक आ गई थीं। अगले सप्ताह वे मुम्बई जा रही थीं। दो साल बाद मायके जाने का उछाह उनके हर शब्द से जैसे टपक रहा था। - ‘एक ही चीज़ यहाँ अब तक बहुत खटकती थी- यहाँ से कहीं आने-जाने की असुविधा! लंबा सफर तय करना पड़ता था। अब तो एनटीपीसी ने बनारस के लिए रोज एसी वॉल्वो बस चला दी है।‘ डाक्टर मालपानी के जाने के बाद सुबीर ने उसे छेड़ा था- ‘तो तुम कब जा रही हो अपने मायके?’ रूना उसकी बात अनसुनी करके आगे बढ़ गई थी।

उस रात छत पर लगे झूले पर दोनों देर रात तक बैठे रहे थे। चारों तरफ गमलों में खूब फूल खिले थे- गुलाब, गेंदा, डहेलिया... सुबीर ने फिर उसके दिल्ली जाने की बात उठाने की कोशिश की थी मगर रूना ने प्रसंग बदल दिया था- ‘देखना इस बार फ्लावर शो में मैं भी ईनाम जीतूंगी... सुना है दो साल से कट फ्लावर का पहला इनाम मिसेज आडवाणी को ही मिल रहा है।‘ उसकी बातें सुनते हुये सुबीर की आँखें ना जाने कैसी हो आई थीं। बिना कुछ कहे वह उसे एकटक देखता रह गया था।

दिन पंख लगा कर उड़ रहे थे। देखते ही देखते दो साल बीत गए। कितने सारे कार्यक्रम, कितनी सारी सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियां, बच्चों का थियेटर वर्कशॉप, शरद मेला... सुबीर उसे आते-जाते अपने कामों में व्यस्त देखता तो शरारत से छेड़ता- ‘क्यों मिसेज गुप्ता! हम ज़रा मशरुफ क्या हुये, आप तो मगरूर हो गईं... कभी-कभी अपने घर भी आया कीजिये, हमसे दो घड़ी प्यार से बोला कीजिये...’ रूना सुनती और चुपचाप निकल जाती। कितना काम होता है उसे! कौन बैठ कर उसकी शैतानियों के साथ जुगलबंदी करे!

सुहासिनी संघ की दूसरी सदस्यों के साथ गहिलगढ़ से लौटते हुये उसदिन वह ओपेन एयर थियेटर में चलने वाले संगीत विद्यालय के पास ठिठक गई थी। शायद किसी कार्यक्रम की तैयारी चल रही थी। बच्चे सज-धज कर रिहर्सल के बाद निकल रहे थे। दौड़ते... खिलखिलाते... बाहर उनकी माँयें उनके इंतज़ार में खड़ी थीं। बच्चे आते और उनके पैरों से लिपट जाते, ज़ोर-ज़ोर से बोलते हुये। माँयेँ उनकी बातें सुनते हुये उनके कपड़े दुरुस्त करते या मेकअप ठीक करते हुये चल पड़तीं... इस साधारण-से दृश्य में जाने क्या था... रूना एकटक देखती रह गई थी। उसे इस तरह खड़ी देख कर साथ की मिसेज निधि ने धीरे-से पूछा था- ‘आपकी शादी के कितने साल हो गए?’ उनके प्रश्न के पीछे छिपे आशय को समझते हुये वह अनायास झेंप-सी गई थी और बिना कोई जवाब दिये आगे बढ़ गई थी। एक पुराना दर्द जो समय और व्यस्तता के साथ कहीं दब गया था, अचानक जिंदा हो कर आज उसे फिर से अवश कर गया था। घर लौट कर वह अनमनी-सी उस दिन का डाक देखती रही थी। ‘डेली न्यूज़’ के संपादक सुजय मैत्री का पत्र था। इससे पहले भी वे कई मेल भेज चुके थे। वे चाहते थे रूना वापस अपनी पुरानी नौकरी कर ले। कुछ महीने पहले उसने ही फोन करके उनसे नौकरी की बात की थी। सुबीर के आते ही उसने वह पत्र दूसरे पत्रों के नीचे सरका दिया था। आज उन्हें ज्वालामुखी मेला जाना था। कुछ देर बाद वह तैयार होकर निकली तो सुबीर उसे अजीब नज़रों से कुछ देर तक देखता रहा था। आज उसने सुनहरी किनारी वाली वह सफेद साड़ी पहनी थी जो कभी सुबीर ने ही उसके लिए चेन्नई से लायी थी। साथ आँखों में ढेर-सा काजल और बालों में मोगरे की वेणी। ‘आज तुम शरद पूर्णिमा की चाँद लग रही हो रूना, सच!’ सुबीर ने गाड़ी स्टार्ट करते हुये बहुत संजीदगी से कहा था मगर जवाब में रूना कुछ कह नहीं पाई थी। चुपचाप सामने सड़क पर आँखें गड़ाये बैठी रही थी।

मेले में भी वह भीड़ से कटी-कटी रहने की कोशिश करती रही थी। सामने से मिसेज मजूमदार को आते देख उसने अपना रास्ता बदल लिया था। एक कश्मीरी शाल की दूकान में सुबीर ने उसके लिए शाल खरीदते हुये हल्के ढंग से पूछा था- ‘कुछ परेशान हो?’ जवाब में उसने ना में सर हिला दिया था। कुछ देर बाद सुबीर ने फिर पूछा था- ‘सुजयजी के ऑफर के बारे में तुमने क्या सोचा? उन्हें एक जवाब दे देना, कई मेल भी भेजा उन्होंने... अपनी माँ को भी आज फोन कर लेना। तुम्हारे करियर को लेकर काफी कंसर्ण्ड रहती हैं। एकदिन बात हुई थी उनसे...’

ओह! माँ ने फोन किया था! जाने किस तरह बात की होगी उन्होंने... रूना अचानक उस शॉल को परे सरका कर सुबीर की बांह पकड़ कर दुकान से बाहर निकल आई थी। ‘क्यों, क्या हुआ!’ उसकी इस हरकत से सुबीर असमंजस में पड़ गया था- ‘अच्छे नहीं लगे?‘ ‘ऐसा नहीं, बस भीड़ में अच्छा नहीं लगा रहा, चलो लौट चलते हैं, लेक पार्क जाएंगे।‘ रूना ने चलते हुये सहज ढंग से कहा था- ‘लेक के पानी में चाँद उतरा होगा...’

लेक की बंधी हुई सीढ़ियों पर दोनों देर तक चुपचाप बैठे रहे थे। आकाश पर शरद पूर्णिमा का सुडौल चाँद ऊपर तक उठ आया था। सफ़ेद चाँदनी में सब कुछ स्तब्ध पड़ा था। कोई टिटहरी पास के मैदान में निरंतर पुकारते हुये उड़ती फिर रही थी। ना जाने कितनी देर बाद सुबीर ने रूना को धीरे से पुकारा था- ‘रूना! तुम परेशान हो न, मैं समझ सकता हूँ... तुम सुजय मैत्री को इस नौकरी के लिए हाँ कर दो। इट्स ओके, रियली! कब चलना चाहोगी बताओ!’ सुबीर की बात पर रूना ने कुछ नहीं कहा था। बस उनींदी आँखों से उसे देखती रही थी। ‘मैं सब सम्हाल लूँगा रूना... बस तुम खुश रहा करो...’ उसे इस तरह चुप देख कर सुबीर ने जाने कैसी आवाज़ में कहा था। ‘मुझे कहीं नहीं जाना सुबीर! मैं बहुत खुश हूँ यहाँ- विंध्यनगर में, तुम्हारे पास... देखो मेरी आँखों में!’ रूना उसके क़रीब होते हुये गाढ़ी आवाज़ में बोली थी। चाँदनी में इस समय उसकी भीगी आँखें कितनी उजली लग रही थी! ‘सच!’ कहते हुये सुबीर की अपनी आवाज़ भर आई थी- ‘तो...तो... मुझे जाना तो है…” सुबीर के चेहरे पर असमंजस के भाव देख कर रूना की आवाज़ में अचानक शरारत उतर आई थी- ‘मगर तुम्हारे साथ...’ ‘मेरे साथ! कहाँ!’ सुबीर अब भी उसकी बात समझ नहीं पा रहा था। ‘हाँ तुम्हारे साथ, अपनी गुड़िया को लाने... भूल गए, तुम कहते थे न कि...’ कहते-कहते रूना अचानक झिझक कर चुप हो गई थी। ‘मुझे सब याद है रूना, मैं तो बस जाने कब से तुम्हारे यह कहने का इंतजार कर रहा था...’ बात के अंत तक आते-आते सुबीर की अपनी आँखें नम हो आई थीं। ‘रोना नहीं...’ रूना ने उसके चेहरे पर हल्के-से उंगलियां फिराई थी। “नहीं!’ सुबीर मुस्कराया था और इसके बाद एक-दूसरे के हाथों में हाथ डाले दोनों उठ खड़े हुये थे और अपने क्वार्टर की ओर चल पड़े थे। उस समय शरद का चाँद आकाश के बीचोबीच था और पूरा विंध्यनगर सफ़ेद चाँदनी में नहाया हुआ स्वप्निल-सा प्रतीत हो रहा था। दूर प्लांट की ऊंची इमारत आज भी किसी दीप- स्तम्भ की तरह जगमगा रही थी। चारों तरफ उसका सुनहरा उजाला फैला था।

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