Harzana - 1 in Hindi Moral Stories by Anjali Deshpande books and stories PDF | हर्ज़ाना - 1

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हर्ज़ाना - 1

हर्ज़ाना

अंजली देशपांडे

(1)

घंटी बजी, नौकर ने दरवाज़ा खोला और वापस आकर कहा, “चार लोग हैं साब.”

उनके चेहरे की हर झुर्री प्रफुल्लित हो उभर आई. वे इतनी तत्परता से उठे कि रीढ़ ने प्रतिवाद किया.

नौकर समझ गया था. वकील साहब खुद दरवाज़े तक पहुंचते इससे पहले ही वह उन्हें अन्दर ले आया. नीम अँधेरे कमरे की वातानुकूलक से छनी हवा में पसीने की तीखी गंध ने उनके आगमन की सूचना दी.

स्वाभाविक प्रतिक्रिया में वकील साहब ने सांस रोकी और सिकुड़े होंठ से हवा की लम्बी धार बाहर छोडी.

“आइये,” उन्होंने कहा मगर लगा जैसे फुफकारे हों. गंध बाहर तो नहीं निकली पर उनके भीतर असर कुछ कम हुआ. उन्हें अपने इस अनभिप्रेत तिरस्कार के से भाव में लिपटे स्वागत का अफ़सोस हुआ.

वे सचमुच प्रेम से अभिवादन करना चाहते थे. जितनी उत्कंठा से इनकी प्रतीक्षा करते रहे थे, उतना इंतज़ार तो अशोक हाल में पद्मश्री लेने के दिन का भी नहीं किया था. हफ्ते भर से इन अजनबियों की प्रतीक्षा में सांस रोके से बैठे थे.

उन्होंने कहा था अपनी पत्नी से, “क्या कमाल की चीज़ है, टेक्नोलॉजी. अजनबी भी आपको चुटकी बजाते ही खोज निकालते हैं.”

यही हुआ था. उनके पेशे सम्बन्धी संस्मरण ‘नॉट ओन ओथ’ का प्रचार अंग्रेजी के सभी प्रमुख अखबारों और कई वेबसाईट पर हुआ था. इधर किताब बाहर उधर उसकी चर्चा शुरू. बाज़ार में आने से पहले ही प्रचार का सारा मसाला तैयार था. पी आर फर्म ने बड़े बड़े विधि वेत्ताओं से समीक्षाएं लिखवा ली थीं, पुस्तक के कितने ही पहलुओं पर लेख भी लिखवा लिए थे और समय समय पर अखबारों में वे छप रहे थे.

उनकी तस्वीरें, उनके साक्षात्कार, पुस्तक के छपने की खबरें, पुस्तक के अंश, पुस्तक की समीक्षा...महीना डेढ़ महीना तो वे छाये ही रहे.

किसी टटपुन्जिये की नहीं देश के दस बीस शीर्षस्थ अधिवक्ताओं में एक की पेशा सम्बन्धी संस्मरणों का पुलिंदा थी यह किताब. चार प्रधान मंत्रियों समेत शायद ही ऐसा कोई सत्ताधारी या अन्य अति विशिष्ट व्यक्ति होगा जिसका नाम इस किताब में नहीं था. खबर तो यह भी फैली थी कि अब अतिविशिष्ट लोग यह देखने के लिए ही किताब खरीद रहे थे कि उनका नाम इसमें शामिल है या नहीं. जिसका नाम न हो उसे अपने ही महत्व पर संदेह होने लगा था. किताब के लिए मिली मोटी रकम से बढ़कर महत्व इस प्रशंसा का था.

लेकिन पूरे छः महीनों बाद जो संदेश फेसबुक के रास्ते आया था उससे वे चकित हो गए थे. भोपाल के एक हिंदी अखबार ने उनकी पुस्तक के एक अंश का अनुवाद छाप दिया था. क्या प्रकाशक से पूछकर ऐसा किया था? उनसे तो पूछा नहीं गया था. पर अब उन्हें कॉपीराईट की परवाह नहीं थी. वे बस खुश होकर अखबार के उस पृष्ठ की फोटो निहार रहे थे कि कम्प्यूटर स्क्रीन के दाहिनी ओर निचले कोने में एक चौखाना उछल कर उनका ध्यान खींचने लगा.

कोई अजनबी था. उनसे कह रहा था “सर आपको टैग किया है. हम बहुत ही प्रभावित हुये हैं यह अंश पढ़ के.” तब याद आया कि इस अप्रत्याशित प्रचार का उन्हें पता ही इसलिए चला कि किसीने उन्हें टैग किया है यह खबर जीमेल की मार्फ़त उन्हें फेसबुक नोटीफ़िकेशन ने दी थी.

वकील साहब अजनबियों के मेसेज का जवाब नहीं देते. वे लॉग आउट कर गए.

लगभग फ़ौरन ही मोबाइल के बार बार टुन-टुना कर मेल पर फेसबुक नोटीफ़िकेशन की इत्तला देते रहने से झुंझला कर वे दोबारा कंप्यूटर पर जा बैठे. मोबाइल पर यह सब उनसे नहीं होता.

देखा किसी समीर नाम के अजनबी के धडाधड कई सन्देश आये पड़े हैं. हिंदी वे पढ़ नहीं सकते, सो नौकर से पढवाया.

जो सुना उससे वे हैरान रह गए. भोपाल के किसी ‘आशा के कदम’ (आस्क) संगठन से किसी समीर का सन्देश था. कहा था गैस पीड़ितों के बच्चों का संगठन है, जो अब जवान हो चुके हैं. उनका सम्मान करना चाहते हैं, भोपाल में.

“माननीय वकील साहब, आपकी किताब का यह हिस्सा पढ़ा. आँखें नम हो गयीं. आपको यह केस लेने का कितना अफ़सोस है, यह जान कर आपके लिए मन में श्रद्धा हो गई है. आज की डेट में कौन अपनी गलती कबूल करता है? आपने किया. बड़ा साहस का काम है. हम इस साहस के लिए आपका सम्मान करना चाहते हैं, सर, अगर आप मौका दें.”

दूसरा मेसेज उसके नीचे था.

“सर, आपको तो बड़े बड़े इनाम इकराम मिले हैं, हमारा जैसे छोटे लोगों का यह छोटा सा सम्मान आपके लिए क्या मायने रखता होगा? कुछ भी नहीं. हमारे पास पैसा भी नहीं है. बस एक प्रशस्ति पत्र दे सकते हैं. लेकिन दरिद्र नारायण के आशीर्वाद से बढ़कर और कोई धन नहीं होता, सर. हम और कुछ अफ्फोर्ड नहीं कर सकते. प्लीज़, जवाब दीजिये सर.”

फिर एक और सन्देश.

“सर, आप बुरा ना मानें. इसमें हमारा भी स्वार्थ है. क्या है, हमारा संगठन छोटा सा ही है. भोपाल में सब जानते हैं लेकिन बाहर कोई नहीं जानता. आप आयेंगे तो बड़े अखबारों में हमारे संगठन का नाम भी छपेगा. कुछ हमारी मदद हो जायेगी. हाँ कहिये सर. प्लीज़.”

और अंत में

“सर, अगले हफ्ते दिल्ली आना है. आप अपना फोन नंबर भेज दें तो बात कर लेंगे. आपको इज्ज़त से न्योता देंगे. हमारा इतना फ़र्ज़ तो बनता ही है सर. प्लीज़ ना मत कहिये सर, हाथ जोड़ के प्रार्थना है.” साथ में जुड़े हुये हाथों का इमोजी भी था.

वे सोच में पड़ गए. ऐसी सम्भावना तो कल्पनातीत थी. लेकिन दुनिया में एक से बढ़कर एक अजीब घटनाएं घटी हैं. इनसे बात करने में हर्ज़ ही क्या था? उन्होंने फ़ोन नंबर भेज दिया. लगभग फ़ौरन ही फोन आ गया. उसी समीर का. तय हो गया, चार लोगों का प्रतिनिधिमंडल उन्हें औपचारिक निमंत्रण देने शुक्रवार को उनके घर आयेगा. वकील साहब ने शाम की चाय पर बुला लिया.

वे तब से दिवास्वप्न में डोल रहे थे. बेचैनी ऐसी कि कहीं टिक कर बैठा नहीं जाता था. बार बार किताब का अपना वह अंश पढ़ते और आँखें मूँद कर उस दुविधा को फिर जीने लगते जिसपर विजय पाकर ही आखिर उन्होंने खुद को यह लिखने को तैयार किया था. बड़ी मुश्किल से लिखे थे उन्होंने यह शब्द. कई बार रुके, लिखा, काटा, फिर लिखा. पत्नी को पढ़ के सुनाया, उससे कितनी देर सलाह की. आज उन्हें अच्छा लग रहा था कि उन्होंने आखिर यह लिखने का साहस किया था. सचमुच उन्हें कितनी हिम्मत जुटानी पड़ी थी, वे ही जानते हैं. लिखते हुये भी दिल में टीस उठती रही और बाद में देर तक दिल बोझिल सा रहा.

यह दर्द उन तक पहुँच ही गया जिनके लिए मन में एक हल्का सा अपराध का सा भाव रहता था, यह जानकर राहत हुई. लगने लगा कि इस पुस्तक का लिखना ही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि रही, कि यही लिखने के लिए अदालतों में उम्र बिताई थी. इस संस्मरण ने उन्हें उनसे भी वाहवाही दिलवा दी थी जो उनके यह केस जीतने पर अखबारों में तल्ख़ टिप्पणियां करते रहे थे.

उन्होंने इस ढलती उम्र में प्रशंसा का वह स्वाद चखा था जो अब तक किसी भी केस को जीतने पर उन्हें नहीं मिली थी. विधि शास्त्र में अपने प्रतिद्वंद्वियों की प्रशंसा उन्होंने हासिल की थी, अपने से अलग विचारधारा रखने वालों के सर भी उनके सामने अदब से झुके थे, लेकिन अब जिस तरह की तारीफ़ की बारिश हो रही थी उसका स्वरुप कुछ और ही था. उनकी भाषा की वाहवाही हुई, उनकी सत्यवादिता को दाद मिली और सबसे ज्यादा उन्हें सराहा गया था इस बात के लिए कि अपने किसी भी ग्राहक का कोई भी राज़ उन्होंने फाश नहीं किया था. प्रोफेशनल एथिक्स की इस मिसाल पर वे सबसे शाबाशी पा रहे थे. प्रकाशक ने उनसे कहा था, “संस्मरण की क्या आलोचना हो सकती है? आपकी मेमोरी है, आपको जो जानते हैं वे बस इतना कह सकते हैं कि आपने कहीं सच को छिपाया है कि नहीं. मगर लगता है कि आपने सच से समझौता नहीं किया.”

और अब यह स्तुति उनके मुख से जिनका वे खुद को गुनहगार समझने लगे थे! जिनको वे शब्द संबोधित तो नहीं थे, जिनसे उन वाक्यों में क्षमा की याचना जैसा तो कुछ नहीं था, पर जिनका अस्तित्व ही उन शब्दों को अर्थ देता था. जीवन ने उन्हें कितना कुछ दिया और अब अंत में यह प्रशस्ति मिल रही है. स्वयं देवता उनकी ग्लानि से प्रसन्न हैं, उन्हें विश्वास हो गया.

किंचित गर्वपूर्वक उन्होंने पत्नी को बताया कैसे खुद गैस पीड़ित उनसे प्रभावित हुये हैं.

“जिनके खिलाफ मुक़दमा लड़े वो लोग तुम्हारा सम्मान करेंगे? तुमने यकीन भी कर लिया कि ऐसा होगा! मति तो नहीं फिर गयी?”

“मुक़दमा हम सरकार के खिलाफ लड़े थे,” उन्होंने अनावश्यक जिरह की और अपने तर्क के दोष को खुद ही समझ गए, जिसे पत्नी ने लपक लिया.

“अच्छा!” पत्नी ने तंज़ किया. “सरकार का तो तुमने बहुत नुक्सान किया!”

आत्म प्रवंचना की ढाल को उसके तीखे बोल भेद गए थे. अपनी स्तुति सुन वे अपनी जिस पेशाजनित शंकालुता को भी भूला बैठे थे उसे पुनः जागृत करने की पत्नी की ज़िद से निरुत्साहित हो वे खफा हो गए.

पत्नी को अपने ही आक्रमण पर अफ़सोस हुआ. कुछ देर उन्हें खुश रह लेने देती तो क्या बिगड़ जाता?

दोनों चुप हो गए.

अगली सुबह पत्नी ने नाश्ते के समय आगाह किया, “देखो, वहां बुला कर कहीं आपके खिलाफ नारे न लगवा दें.”

“क्या हुआ, नारे लग भी गए तो?” उन्होंने नाराज़ होकर पूछा.

फालतू की बात करती है. नारे लगते हैं तो लगे. लोगों को अधिकार है. हाँ, कुछ बदनामी होगी. तो क्या हुआ. अफ़सोस तो उन्हें है ही ना कि उन्होंने कार्बाइड का केस क्यों लिया. इसे अपनी भूल का दंड समझ लेंगे.

एक तरह से अच्छा भी हुआ कि पत्नी ने इसका दूसरा संभावित पहलू सुझा दिया. जब से तय हुआ कि “आस्क” के लोग आयेंगे, उन्होंने बहुत कुछ सोच लिया है. सर्दियों में जाना ठीक रहेगा. इन गरीबों से एयर कंडिशंड हॉल की उम्मीद नहीं की जा सकती. क्या पता उन्ही से कुछ पैसे लेकर ऐसा हॉल बुक करने को तैयार हो जाएँ. कौन जाने इसी बाबत बात करने आ रहे हों. क्या पता चिट्ठी, मेल आदि लिख कर इसका सुराग छोड़ना ना चाहते हों. यही बात होगी. मगर यह एथिकल नहीं होगा, भले ही किसी पुरस्कार के लिए नहीं, बल्कि सबकी सुविधा के लिए हॉल के पैसे दे रहे होंगे. प्रकाशक से दिलवा लेंगे. वह भी ठीक नहीं होगा. कोई दोस्त भी दे ही देगा. चलो कोई रास्ता निकल आयेगा. देखते हैं वे क्या कहते हैं.

वही आये हैं. दो आदमी, दो औरतें.

जवानी तो उनकी ढल रही थी. शायद अधेड़ ही रहे हों. बाहर की धूप से एकदम अन्दर आने से वे कुछ ठीक से देख नहीं पा रहे होंगे, ठिठके से खड़े थे. उनमें एक का दम फूला हुआ था. बस फाटक से दरवाज़े तक बीस कदम आते आते यह हाल!

“पानी पीजिये. बड़ी गर्मी है,” वकील साहब ने कहा

“नहीं तो सर,” नीले कुरते वाली स्त्री ने अपने दुपट्टे से मुंह पोंछते हुये कहा. “बहुत ठंडा है यहाँ.”

वकील साहब उन्मुक्तता से उसकी मासूमियत पर हंस दिए. “बाहर...बाहर गर्मी है. खैर, आईये?”

ठन्डे नीम अँधेरे कमरे में कालीन पर पैर रखते हुये वे कुछ हिचकिचा से रहे थे. चप्पल उतारने लगे.

“कोई बात नहीं. आइये, आईये, बैठिये,” वकील साहब ने कहा और नौकर को देखा जिसने फ़ौरन कई बटन दबा दिए. कमरा रोशनी से जगमगा उठा.

चारों ने अलग अलग सोफे पर जगह ले ली. जिसकी सांस चढ़ी थी वह लम्बी साँसें खींच कर फूंक की तरह बाहर छोड़ रहा था.

“सर, मैं समीर. आपसे मैंने ही फ़ोन पे बात की...” दूसरे आदमी ने कहा.

“पूरा नाम?”

“पूरा नाम यही है सर. आज तक मैंने अपनी जाति किसीको नहीं बताई. मैंने तय किया है कि एक ही नाम रखूँगा.” उसकी आँखों में ऐसी हर्ष मिश्रित मुस्कान थी कि लगता ही नहीं था कि वह किसी बात का विरोध कर रहा है.

वकील साहब को थोड़ा सा आश्चर्य हुआ. कालीन को देख हिचकिचाने वाला यह आदमी अपनी बात पूरी दृढ़ता से रख रहा था. उसमें आत्मविश्वास की कमी नहीं थी.

वे चारों उस विंग चेयर को देख रहे थे जिसमें वकील साहब धंस गए थे. क्या कुर्सी थी, लगता था गद्दों से बनी है, जो बैठे उसके शरीर के हिसाब से ढल जायेगी. नीले गुलाबी फूलों की छाप इस्तेमाल से धुंधला गई थी.

क्रमश...

*****