मानवीयता श्रेष्ठ धर्म
जबलपुर विकास प्राधिकरण के पूर्व अध्यक्ष और भारत सरकार में अस्सिटेंट सालिसिटर जनरल के पद पर अपनी सेवाएँ दे चुके श्री राशिद सुहैल सिद्दीकी ने जन्म और मृत्यु के संदर्भ में कहा कि मृत्यु एक शाश्वत सत्य है। पुनर्जन्म पर मेरा विश्वास नही है। ये दुनिया एक सराय है, जिसने भी यहाँ जन्म लिया है वह अपना समय बिताकर पुनः ब्रह्म में लीन हो जाता है। जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम नैतिकता और ईमान के रास्ते पर चलते हुए जीवन व्यतीत करें।
स्माज का विकास तभी हो सकता हैं। जब आपस में भाईचारा एवं एकता रहेगी। विकास का अर्थ है भौतिक और नैतिक विकास जो कि एक दूसरे के पूरक है। मैं अपने शेष जीवन को समाज की सेवा हेतु समर्पित करना चाहता हूँ। गरीबों को न्याय एवं सम्मान जीवन में मिल सके इसके लिए मैं सदैव प्रयत्नशील एवं समर्पित रहता हूँ।
उन्होंने एक बहुत मार्मिक सत्य घटना के विषय में बताया कि हम लोग अयोध्या के रहने वाले हैं, मेरे दादा स्व. एजाज हुसैन वहाँ के जमींदार थे और आज भी हम लोगों की वहाँ जमीनें है। मेरे दादा के पास विभिन्न मंदिरों के महंत आया करते थे। हम लोग मंदिरों के लिये उनके माध्यम से कुछ जमीन दे दिया करते थे। आज भी हमारी भूमि पर अनेक मंदिर है। महंतों के साथ मेरे दादा के मित्रवत संबंध थे।
मेरे पिताजी जस्टिस एस.एस.ए सिद्दीकी सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्रार जनरल थे। उस समय के तत्कालीन चीफ जस्टिस व्यकंट चलैया द्वारा 6 दिसंबर के आंदोलन में बाबरी मस्ज्दि की मानिटरिंग की जबाबदारी मेरे पिताजी को सौपी गयी थी। मेरे दादा उस समय अयोध्या में थे। उनका विश्वास था कि अयोध्या में कैसी भी परिस्थितियाँ हो जाये उन्हें कोई हानि नही पहुँचेगी। उन्हें पुलिस महानिदेशक ने भी भरोसा दिलाया था कि आप निष्चिंत रहिए आपकी सुरक्षा की जवाबदारी हमारी है और मेरे दादा से रिवाल्वर ले लिया गया था। घर पर पाँच एक की गार्ड लगा दी गयी थी। हमारे स्टेट मैनेजर श्री दुर्गा यादव जिन्हें हम सब दुर्गाचाचा कहकर बुलाते थे। उनके अयोध्या छोडने के अनुरोध को भी मेरे दादाजी ने ठुकरा दिया।
6 दिसंबर को कार सेवकों में बहुत से असामाजिक तत्व भी घुस गये थे जिन्होंने हमारे घर पर हमला कर दिया। वहाँ पर तैनात पुलिस वाले तो भीड देखकर ही भाग गये। दुर्गा चाचा और उनके चार लडके लाठियों से उस भीड का मुकाबला करने लगे। उनके घायल हो जाने के उपरांत भीड ने मेरे दादा को लिहाफ में डालकर जिंदा जला दिया। हम लोगों को तभी इस दुर्घटना की खबर मिल चुकी थी और पूरा परिवार स्तब्ध था। उस समय मुख्य न्यायाधीश वेंकट चलैया ने पापा को बुलाया और दुख व्यक्त करते हुए कहा कि आप घर चले जाइये, मैं आपके स्थान पर किसी और को आपके कार्य पर लगा देता हूँ परंतु मेरे पापा नही माने और रात 12 बजे तक सर्वोच्च न्यायालय में रहे। हम लोग लगातार फोन कर रहे थे। मेरे पिताजी ने अपने कर्तव्य को पूरा किया और दूसरी ओर दुर्गा चाचा थे जिन्होने अपने प्राण की परवाह न करते हुए मेरे दादा की बचाने का हर संभव प्रयास किया।
आज भी जब अयोध्या जाता हूँ तो आँखों के आगे दुर्गा चाचा आ जाते हैं। उनकी याद आते ही लगता है कि आज भी भारत में दुर्गा चाचा जैसे लोग है और बहुतायत से है पर राजनीति के गंदे खेल के आगे हम सब मजबूर है।