भैया ने उनकी बात नहीं सुनी, ये बुरा लगा सुमित्रा जी को, लेकिन इस बुरा लगने में कोई दुर्भावना नहीं थी उनके मन में. बस दुख था, कि यदि भैया सुन लेते तो शायद ऐसा अपमान नहीं करते. स्वाभिमानी पिता की स्वाभिमानी बेटी थीं सुमित्रा जी. भैया से असीमित स्नेह रखती थीं, आगे भी रखेंगीं, ईश्वर उनका बाल भी बांका न करे, उनकी तक़लीफ़ें सुमित्रा जी को दे दे.... जैसी तमाम बातें मन ही मन दोहराते हुए ही सुमित्रा जी न अब आगे कभी भी भैया घर न आने की क़सम खाई थी. इस घर से अपमानित हो के निकल रही थीं वे....निकल कहां रही थीं? निकाली गयीं थीं. ऐसा घोर अपमान तो ससुराल में भी नहीं हुआ था......! भैया बहुत अच्छी तरह जानते हैं सुमित्रा जी को और कुन्ती को भी तब भी बात नहीं सुनी........
भैया बहुत अच्छी तरह जानते हैं सुमित्रा जी को और कुन्ती को भी तब भी बात नहीं सुनी........ घर से बस स्टैंड लगभग एक किलोमीटर दूर था. लेकिन भैया ने तांगा नहीं बुलाया. मारे दुख और गुस्से के अपने दोनों हाथों में ही दोनों बहनों के संदूक उठाये और पैदल ही चल दिये.... पीछे-पीछे बहनें और बच्चे. लक्ष्मी भाभी कुछ समझ ही नहीं पाईं. सुबह जब भैया ने उनसे कहा कि इन लोगों के रास्ते के लिये कलेऊ बांध देना तो वे चौंक गयीं.
’क्यों? कहां जा रहीं ये दोनों जीजियां?’
तुम से जितना कहा उतना कर दो बस. ’
भैया की आवाज़ से गुस्सा अभी भी झलक रहा था. भाभी समझ ही न पाईं कि ऐसा क्या हुआ होगा जो अचानक ही दोनों बहनें चल दीं? उन्होंने चुपचाप पूड़ी-सब्ज़ी और अचार एक बड़े से डिब्बे में रख के सुमित्रा जी को पकड़ाने गयीं तो सवालिया आंखों से पूछा-
’क्या हुआ?’
सुमित्रा जी ने भी इशारे में ही ’नहीं मालूम’ के अन्दाज़ में सिर हिलाया. वैसे सुमित्रा जी के मन में तो आया कि भाभी को सारी बात बतायें, लेकिन अपनी ही बहन की बुराई भाभी से करना उन्हें रास न आया. फिर कैसे कहतीं कि भैया ने उन्हें अपने घर से भगा दिया है? सुबह ही यहां से निकल जाने को कहा है.....जैसे किसी अपराधी को ज़िलाबदर किया जाये.....!
दोपहर तक दोनों बहनें अपने मायके पहुंच गयीं थीं. पांडे जी अचानक ही दोनों को देख के चकराये. अब चूंकि वो मोबाइल का ज़माना तो था नहीं, सो इनके आने की सूचना भी तत्काल नहीं दी जा सकती थी. हफ़्ते-दस दिन का टाइम होता तो चिट्ठी आ सकती थी लेकिन इनका घर-निकाला तो अचानक हुआ था सो कहां की चिट्ठी कहां की पत्री..? पांडे जी इसलिये चकराये कि अभी चार दिन पहले ही भैया से उनकी झांसी में मुलाक़ात हुई थी, तब तो ऐसी कोई बात न हुई. ऐसा ही होता तो पांडे जी ही अपनी सरकारी गाड़ी से इन्हें ले आते. भैया ने एक चपरासी साथ में कर दिया था, जो दोनों बहनों को बच्चों और सामान सहित घर तक पहुंचा के वापस लौट गया.
आहट पा के सुमित्रा जी की अम्मा बाहर निकलीं, तो वे भी अवाक! -
’मौड़ियां अकेली आ गयीं? बिना खबर के? बड़े कौ दिमाग फिर गओ का? छोटे-छोटे बच्चन के संगै पठा दओ इनै? खुद नई आ सकत तो का? खबर तौ दैई सकत ते लाट साहब. बस इतेक दिना में भारी पड़न लगीं मौड़ियां?’
(
क्रमशः)