Karm path par - 11 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | कर्म पथ पर - 11

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कर्म पथ पर - 11


कर्म पथ पर
Chapter 11




श्यामलाल जय के अचानक पार्टी छोड़ कर चले जाने से बहुत नाराज़ हुए। उन्होंने जय को इस बात के लिए बहुत डांट लगाई। जय ने भी चुपचाप सबकुछ सुन लिया।
श्यामलाल परेशान थे। वो समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर जय को हो क्या गया है। पहले तो अच्छा खासा था। कितने उत्साह से उसने नाटक में प्रमुख भूमिका निभाई थी। शो भी सफल रहा। हैमिल्टन साहब ने नाटक के साथ साथ ‌उसकी भी खूब तारीफ की थी। पर अब हर समय उदास रहता है। नाटक के दूसरे शो के लिए भी कोई उत्साह नहीं दिखा रहा था।
एक हफ्ता बीत गया था किंतु वृंदा अभी भी जय के ज़ेहन पर छाई हुई थी। वह जानना चाह रहा था कि वृंदा अभी भी हिरासत में है या किसी ने उसकी ज़मानत करा दी। लेकिन उसके पास यह जानने का कोई उपाय नहीं था।
एक दिन सुबह जब वह तैयार होकर नीचे नाश्ते के लिए आया तो देखा कि इंद्र वहाँ मौजूद था। श्यामलाल बड़े ही ध्यान से अखबार में कुछ पढ़ रहे थे। चेहरे के भाव से लग रहा था कि खबर उनके मन के मुताबिक नहीं थी। इंद्र के बगल में बैठते हुए जय ने धीरे से पूँछा,
"यह तो कोई हिंदी अखबार है। क्या छपा है इसमें कि पापा नाराज़ हो रहे हैं ?"
इंद्र ने जय के कान में कहा,
"उसी लड़की वृंदा का अखबार है। हमारे मुख्य अतिथि हैमिल्टन साहब और चाचाजी के बारे में अनाप शनाप लिखा है।"
तभी श्यामलाल ने अखबार को तोड़ मरोड़ कर जमीन में फेंक दिया। वह बहुत क्रोधित थे। लेकिन कुछ देर तक कुछ नहीं बोले। जय की हिम्मत उनसे कुछ पूँछने की नहीं हो रही थी। कुछ देर में श्यामलाल बोले,
"इस बदतमीज़ लड़की को सबक सिखाना बहुत ज़रूरी है। मेरे सारे किए कराए पर पानी फेर दिया।"
इंद्र ने उन्हें तसल्ली देते हुए कहा।
"वह बिल्ली खुद को शेरनी समझती है। पर चाचाजी उसने इस बार शेर की मांद में हाथ डाला है। हैमिल्टन साहब पर आरोप लगा कर उसने सीधा हुकूमत से रार ठानी है। वह नहीं बचेगी अब।"
उसकी बात सुन कर जय परेशान हो गया। उसने उठ कर अखबार उठाया। उसे सही कर खबर पढ़ी। उसे पढ़ कर वह वृंदा को लेकर और अधिक परेशान हो गया। उसने जो कुछ लिखा था वह उसे मुसीबत में डालने के लिए बहुत था।
नाश्ते के बाद वह इंद्र के साथ बाहर चला गया। इंद्र उसे गेंदामल नामक एक व्यक्ति से मिलाने ले जा रहा था जो कि उनके नए नाटक में पैसे लगाने को तैयार था। जय की इच्छा इस समय किसी से मिलने की नहीं हो रही थी। लेकिन वह साथ चलने से मना नहीं कर पाया। रास्ते में उसने पूँछा,
"क्या सचमुच सरकार उस लड़की के खिलाफ कार्यवाही करेगी।"
"बिल्कुल करेगी। उसने हैमिल्टन साहब के ज़रिए सीधे अंग्रेज़ी सरकार पर आक्रमण किया है। मैंने पता किया था। पुलिस उसे गिरफ्तार करने उसके घर गई थी। पर वह वहाँ मिली नहीं। अखबार के दफ्तर में भी नहीं थी। लगता है कि किसी ने पहले से सूचना दे दी थी। वह कहीं भाग गई। पर कितने दिन भागेगी।"
बाकी के रास्ते जय चुप रहा। उसके मन में एक छटपटाहट थी कि वह किसी भी तरह वृंदा की स्थिति का पता करे। जान सके कि कहीं वह पुलिस के हाथ तो नहीं लग गई।
रास्ते में उन्हें सुभाष मिलने वाला था। सुभाष ही गेंदामल का घर जानता था। सुभाष वही था जिसने उस दिन वृंदा की जानकारी दी थी जब वह रंगशाला आई थी। जय के मन में एक हल्की सी उम्मीद जागी।
गेंदामल के साथ मुलाकात ठीक ठाक रही। पैसे मिलने की उम्मीद में इंद्र अपने नाटक की कहानी सुना रहा था। जय का मन वहाँ बिल्कुल भी नहीं लग रहा था। उसने तबीयत ठीक नहीं लग रही कह कर विदा ले ली। सुभाष का भी वहाँ कोई काम नहीं था। जय ने उसे भी साथ ले चलने की पेशकश की। वह खुशी खुशी तैयार हो गया। जय यही चाहता था।
रास्ते में जानबूझ कर जय ने उस दिन रंगशाला का किस्सा छेड़ दिया। बातों ही बातों में उसने वृंदा के बारे में बहुत कुछ पूँछ लिया। सुभाष ने बताया कि इस समय वृंदा कहाँ हो सकती है इसका पता केवल मदन ही बता सकता है।
"तुम बता सकते हो कि यह मदन कहाँ मिल सकता है। उस लड़की ने पिताजी के बारे में उल्टा सीधा छापा है। उसे छोड़ना नहीं है।"
जय ने इस तरह बात रखी कि लगे वह वृंदा को सबक सिखाना चाहता है। सुभाष बोला,
"मेरे मोहल्ले के आगे वाली गली में उसका मकान है। वहीं मिल सकता है।"
सुभाष को उसकी गली में छोड़ कर जय उसके दिए निर्देश के अनुसार मदन की गली की तरफ बढ़ गया। लोगों से पूँछ कर वह मदन के मकान तक पहुँच गया। कुछ संकोच के साथ उसने दरवाज़ा खटखटाया।
"जी कहिए, किससे मिलना है ?"
एक महिला ने दरवाज़े की आड़ से पूँछा।
"जी मदन से मिलना था। मैं उसका दोस्त हूँ।"
"लल्ला तो कुछ सौदा लेने गए हैं। कुछ देर में लौटेंगे। आप बाद में आ जाना।"
महिला ने दरवाज़ा बंद कर दिया। जय कुछ क्षण खड़ा रहा। फिर बाद में आता हूँ सोंच कर लौटने लगा। वह मुड़ा ही था कि सामने मदन को खड़े पाया।
"आप किससे मिलने आए थे ?"
"आप शायद मदन हैं.....मैं आप से ही मिलने आया था।"
मदन ने कभी जय को नहीं देखा था। वह समझ नहीं पाया कि अमीर सा दिखने वाला यह आदमी उससे क्यों मिलने आया था।
"कहिए क्या काम था ?"
जय समझ नहीं पा रहा था कि बात कैसे शुरू करे। वह बोला।
"क्या कहीं इत्मिनान से बैठ कर बात हो सकती है ?"
मदन कुछ क्षण असमंजस में रहा फिर बोला।
"आइए भीतर बैठ कर बात करते हैं।"
"जी घर पर नहीं कहीं और। किसी रेस्त्रां में।"
"ठीक है। मैं यह सामान रख कर आता हूँ।"
हाथ में पकड़े थैले को दिखाते हुए मदन ने कहा।
मदन के सुझाव पर दोनों पास के एक रेस्त्रां में पहुँचे। बेयरा जब चाय देकर चला गया तब मदन ने कहा।
"बताइए क्या कहना है आपको ?"
"मुझे वृंदा से मिलना है।"

जय ने सपाट शब्दों में कह दिया। वृंदा का नाम सुनते ही मदन समझ गया कि वृंदा ने जिस रईसजादे का ज़िक्र किया था वह यही है।
मदन तैश में बोला,
"ओह... तो आप जय बाबू हैं। आप चाहते हैं कि मैं आपको वृंदा से मिलवा दूँ ताकि आप उसे पुलिस के हवाले कर दें।"
"मदन बाबू यह रेस्त्रां है। थोड़ा संयत में रहें।"
मदन यह बात सुन कर शांत पड़ गया। जय ने आगे कहा।
"वृंदा को गिरफ्तार करने में पुलिस सक्षम है। उसने अंग्रेज़ अधिकारी के विरुद्ध लिख कर हुकूमत को चेतावनी दी है। मुझे कोई जाल फैलाने की ज़रूरत नहीं है।"
"तो फिर आप वृंदा से क्यों मिलना चाहते हैं‌ ?"
"क्योंकी मैं उसे बचाना चाहता हूँ।"
"अच्छा.... वह क्यों?"
"क्योंकी मुझे लगने लगा है कि वह सही है।"
"सच.... आपका ह्रदय परिवर्तन कैसे हुआ ?"
मदन ने तंज़ किया। जय को उसका तंज़ चुभ गया। लेकिन अपने आप को नियंत्रित कर बोला,
"इंसान की सोंच का बदलना कोई असंभव बात नहीं है।"
"मैं कैसे यकीन करूँ कि आप बदल गए हैं ?"
जय गंभीर स्वर में बोला।
"इसका कोई उपाय तो मैं नहीं बता सकता। यदि आप कर सकें तो यकीन करें नहीं तो जो आप को सही लगे।"
मदन ने जय की आँखों में झांक कर देखा। उनमें कोई कपट नहीं था। बल्कि वह हैरान था कि उनमें पीड़ा झलक रही थी। पर वह बिना वृंदा से पूँछे कुछ नहीं कह सकता था। उसने कहा,
"मुझे सोंचने का समय चाहिए। मुझे पता करना होगा कि वृंदा आपसे मिलना चाहेगी या नहीं। मैं परसों इसी समय इसी जगह आपको अपना निर्णय बता दूँगा।"
मदन उठ कर चला गया। उसके जाने के कुछ पलों के बाद जय भी रेस्त्रां से निकल गया।