Naam me kya rakha hai - 2 in Hindi Moral Stories by Vandana Gupta books and stories PDF | नाम में क्या रखा है - 2

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नाम में क्या रखा है - 2

नाम में क्या रखा है

(2)

प्रश्न मेरे पाले में था तो जवाब तो देना ही था

“ आप अपना ध्यान नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर लगाइए. वो करने की कोशिश कीजिए जो आप करना चाहते हों और अब तक न कर पाए हों.......... ढूंढिए खुद में सोये और खोये प्रणय की उन चाहतों को जिन्हें अब तक आकार नहीं दे पाए.”

“ आप तो किताबी बातें करने लगीं “.

“ इसमें क्या किताबी है बताइए ? आपने पूछा, मुझे जो उचित लगा बता दिया, या आप कुछ ऐसा चाहते हैं जो कह नहीं पा रहे तो बताइए शायद कोई मदद कर सकूं.”

“ मेरी तनहाइयों का कोई इलाज नहीं मैं वो पीर हूँ जिसका कोई हिसाब नहीं. क्या बताऊँ ? सच कहूँ...... जो मैंने खोया है न वो वापस पाना चाहता हूँ और इस बार उनके हिसाब से जीना चाहता हूँ.”

“ उफ़ ! क्या कहूँ अब आपको. काश ! ऐसा संभव होता तो इस दुनिया का कोई और ही रंग होता लेकिन मौत एक ऐसा सत्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता. अब आपको इस पड़ाव से बाहर आना होगा. यदि ऐसा ही चाहते हैं तो एक नयी दुनिया बसाइये.”

“ हाहाहा...... क्यूँ मजाक कर रही हैं ? अब कौन अधजली लाश को अपने ड्राइंग रूम में सजाना चाहेगा ? अब किस गोमुख से निकलेगी गंगा जो मुझे डुबा दे.”

“ तो क्या चाहते हैं आप ?”

“ क्या बताएं क्या चाहते हैं लब तक आते आते लफ्ज़ ही बदल जाते हैं “.

“ अच्छी शायरी करते हैं मगर बात को गोल गोल मत घुमाइए.”

“ झूठ मैं कह नहीं सकता और सच आप सुन नहीं सकतीं...... तो रहने दीजिये.”

सचेत हो उठी मेरी छठी इंद्री. ओह ! तो ये सारी भूमिका ये सारी जद्दोजहद इसलिए थी. शब्दों के भीतर और शब्दों से परे जो शब्द होते हैं वो ज्यादा सुनाई देते हैं बस इसी तरह मेरी सोच सक्रिय हो उठी फिर भी अपनी तरफ से भरपूर कोशिश की क्योंकि मित्रता का सही अर्थ यही है कि मित्र को सही राह दिखाई जाए.

“क्या आप साथ दे सकती हैं ?”

“मैं तो हमेशा साथ हूँ एक अच्छे मित्र की तरह “

“क्यों आप जानबूझकर अनजान बन रही हैं ? क्या मुझे नहीं पता कि आप सब समझ गयी हैं.”

“ जब जानते हैं और उत्तर भी पता है तो पूछ क्यों रहे हैं. मैं तो अब किसी भी शाख पर कोई फूल नहीं खिला सकती, अपने सोये तारों को नहीं झनझना सकती क्योंकि मुझे जो चाहिए वो मेरे सामने है और मैं उस ओर बढ़ रही हूँ.मुझे मेरी मंजिल और लक्ष्य दोनों पता हैं दूसरी बात मेरी अच्छी भली गृहस्थी है जिसमे मैं बहुत खुश हूँ तो किसलिए इस राह पर बढूँ ? “

“ प्यार की चाहत में क्योंकि मुझे पता है एक कसक तुममें ही हिलोर मारती है तभी तुम प्रेम कहानियाँ लिखती हो.”

“ हाहाहा क्या सोच है और क्या तर्क. इसका मतलब जो आतंक पर लिखे तो वो अन्दर से आतंकवादी बनना चाहता है. ये तो कोई मिसाल नहीं हुयी.”

“ निशि जी, क्या ज्यादा मांग लिया आपसे ? सिर्फ इतना भर न कि आप का साथ चाहिए थोड़े जज़्बात हों,थोड़े से अहसास हों. मैं कौन सा कोई और सम्बन्ध चाहता हूँ क्योंकि और सम्बन्ध के लिए तो मेरे अन्दर भी नहीं बची है आंच.”

“ तो फिर ये क्या है ? बिना आंच के कैसे धुंआ उठ रहा है. नहीं प्रणय ये सब यूँ ही नहीं हो रहा. तुम्हें किसी और को खोजना होगा जो तुम्हारे धरातल पर उतर सके और तुम्हें समेट सके हर तरह से. जब प्रेम की फुहारें पड़ती हैं तो सूखे ठूंठ भी सावन में हरे हो जाते हैं ऐसा ही तुम्हारे साथ भी हो जाएगा. चलो तुम्हें आज किसी की लिखी ये कविता पढवाती हूँ जिसमे मेरी बात भी आ जायेगी और शायद आप भी समझ जाएँ :

तुम्हें कहानी का पात्र बनाऊँ

तुम्हें कहानी का पात्र बनाऊँ

या रखूँ तुमसे सहानुभूति

जाने क्या सोच लिया तुमने

जाने क्या समझ लिया मैंने

अब सोच और समझ दोनों में जारी है झगड़ा

रस्सी को अपनी तरफ खींचने की कोशिश में

दोनों तरफ बह रही है एक नदी

जहाँ संभावनाओं की दलदल में फंसने को आतुर तुम

पुरजोर कोशिशों के पुल बनाने में जुटे हो

और इधर सूखी नदी में

रेत के बिस्तर पर निशानों के चक्रवात में

सूखा ठूँठ न हँस पाता है और न रो

जानते हो क्यों ?

ईमानदार कोशिशें लहूलुहान ही हुआ करती हैं

बंजर भूमि में न फसल उगा करती है

सर्वमान्य सत्य है ये

जिसे तुम नकारना चाहते हो

मेरे खुले केशों पर लिखने को एक नयी कविता

पहले तुम्हें होना होगा ख़ारिज खुद से ही

और अतीत की बेड़ियों में जकड़ी स्मृतियों के साथ नहीं की जा सकती कोई भी वैतरणी पार

सुनो ये मोहब्बत नहीं है

और न ही मोहब्बत का कोई इम्तिहान

बस तुम्हारी स्थिति का अवलोकन करते करते

रामायण के आखिरी सम्पुट सी एक अदद कोशिश है

तुम में चिनी चीन की दीवार को ढहाने की

ताकि उस पार का दृश्य देख सको तुम बिना आईनों के भी

समंदर होने को जरूरी तो नहीं न समंदर में उतरना

क्यों न इस बार एक समंदर अपना बनाओ तुम

जिसमे जरूरत न हो किसी भी खारे पानी की

न ही हो लहरों की हलचल

और न ही हो तुम्हारी आँख से टपका फेनिल आंसू

हो जाओगे हर जद्दोजहद से मुक्त

बस जरूरत है तो सिर्फ इतनी

अपनी कोशिशों के पुल से मेरा नाम हटाने की

क्योंकि

मेरी समझ की तीसरी आँख जानती है तुम्हारी सोच की आखिरी हद ………

तोडना तो नहीं चाहती तुझे मगर

जरूरी है सम्मोहन से बाहर निकालना

कैसे कहूँ नाकाम कोशिशों का आखिरी मज़ार मत बना मुझे

बुतपरस्ती को ढूँढ ले बस अब एक नया खुदा.........

सुकून की दहलीज को सज़दा करने को ले झुका दी मैंने गर्दन

बस तू भी एक बार माथा रखकर तो देख

वैसे भी सूखी नदी

बंजर भूमि

सूखे ठूँठ

सम्भावना के अंत को दर्शाती लोकोक्तियों को कर रहे हैं आगाह

ज़ख्मों की मातमपुर्सी पर नहीं बजा करती शहनाइयाँ.……

फिर क्यों फरहाद से होड़ करने को आतुर है तेरे मन की प्रीत मछरिया ???

“ ओह निशि...... फिर वो ही किताबी बातें. रात दिन किताबों को ही तो गले लगाया है. उन्हीं में कुछ देर खुद को डुबाता हूँ तब जी पाता हूँ और अब आप भी वो ही सब कर रही हैं.”

“ प्रणय जीवन में सब कुछ नहीं मिला करता. मैं तो एक अच्छी दोस्त होने के नाते तुम्हें राह दिखाने की कोशिश कर रही हूँ लेकिन लगता है तुम समझ कर भी समझना नहीं चाहते और अपने हाथ से एक अच्छा नेक दोस्त निकालना चाहते हो.”

“ नहीं निशि, ऐसा मत कहो. जानती हो मैं तुम्हें शरीर से नहीं पाना चाहता फिर भी ऐसा कह रही हो. एक स्वस्थ रिश्ता चाहिए मुझे.”

“ तो है न मित्रता का रिश्ता... क्या ये काफी नहीं “

“ नहीं है, तभी तो कहा है “

“ तो प्रणय उससे आगे कोई दूसरा स्वस्थ रिश्ता होता ही नही क्यों बहका रहे हो. क्या मैं नहीं जानती उससे आगे तो बस स्त्री और पुरुष ही रह जाते हैं और आजकल तो दोस्ती के रिश्ते पर भी आँख मूंदकर विश्वास नहीं किया जा सकता, वहां भी आंतरिक और बाहरी आवरण में बहुत फर्क होता है और फिर मुझे ऐसे किसी रिश्ते की जरूरत नहीं क्योंकि मैं खुश हूँ अपने हाल से. “

मैं तुमसे बात भी सिर्फ इसलिए करती रही क्योंकि तुम मुझे दुनिया से थोड़े अलग लगे थे मगर नहीं मालूम था कि पुरुष सिर्फ पुरुष ही होता है उससे इतर उसकी और कोई पहचान नहीं होती. क्योंकि यदि तुम्हारे मन में खोट न होता तो तुम कभी भी मित्रता से परे और किसी रिश्ते की बात ही नहीं कहते बल्कि उसमे एक मर्यादा में रह उसे निभाने की कोशिश करते लेकिन ये मुझे समझना चाहिए था कि पुरुष कभी दैहिक भिन्नता से ऊपर उठ ही नहीं सकता. उसके लिए पहला आकर्षण देह है उसके बाद शायद स्त्री होती ही नहीं, स्त्री का अस्तित्व तुम जैसे लोग सिर्फ देह तक ही समझते हैं.”

“ नहीं निशि, तुमने तो मुझे वासना का कीड़ा बना दिया, मैं वैसा बिलकुल नहीं हूँ. “

“नहीं प्रणय, स्त्री हूँ वो समझती हूँ जो तुम कहते नहीं, ये मेरा गुण है.”

“ नहीं निशि, मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है, मैं तो बस एक प्रेम की प्यास में भटक रहा हूँ जिसे बुझाने को मुझे शरीर नहीं चाहिए, बल्कि आत्मा चाहिए.”

“ अच्छा, क्या सच कह रहे हो ?”

“ हाँ, क्या तुम्हें विश्वास नहीं ? “

“ नहीं है, तभी तो पूछा है. ऐसा होता न तो तुम जो अभी थोड़ी देर पहले तुमने कहा, नहीं कहा होता. ये जो शब्दों का सब्जबाग सजा रहे हो न प्रणय शायद कोई प्रसिद्धि की भूखी स्त्री उसमे फंस भी जाती मगर मेरे लिए मेरा स्वाभिमान मेरे लेखन से भी ऊपर है और जो भी मेरे स्वाभिमान पर चोट करने की कोशिश करेगा उससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा. “

उस तरफ की गहरी चुप्पी मेरे अंतस को झकझोरने को काफी थी क्योंकि कोई कुछ कह दे तो भी समझ आ जाए लेकिन जो चुप हो जाए वहां एक खलिश स्वयमेव जन्म ले लेती है और यही मेरे साथ होने लगा. एक मीलों लम्बी ख़ामोशी पसर गयी हमारे बीच जिसका तोड़ दोनों ही तरफ नहीं था क्योंकि मैं जानती थी कि ये इंसान बेहद ज़हीन है लेकिन वक्त की मार से बेचैन हो मर्यादा की हर सीमा तोडना चाहता है इसलिए जल्दी से उससे रिश्ता भी नहीं तोड़ सकती थी, और कोई होता तो कब का तोड़ चुकी होती. कहीं न कहीं इंसानियत की कोमल भावनाएं मुझमे बाकि थीं जो बेचैन रहतीं.

बेशक उधर की चुप्पी बिना शब्दों के भी अपने होने को अर्थ दे रही थी तो इधर मेरे मन के पनघट पर बांसुरी की धुन धीमी धीमी बज रही थी इसलिए कोशिश करती रही एक रिश्ते को सँभालने की.

फ़ोन मिलाऊँ तो फोन नहीं उठाना , मेसेज भेजूं तो जवाब नहीं देना बस मेरी कहानियाँ छाप देना भर. एक अजीब तल्खी बीच में आ गयी. महीनों सूखे बीतने लगे कोई बदरिया बरसने को तैयार नहीं तो मैंने भी इस तरफ ध्यान देना छोड़ दिया और अपनी ज़िन्दगी में बिजी हो गयी मगर एक दिन मेरे मेल पर एक सन्देश ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया :

निशि, अभी ये एक कविता किसी की लिखी पढ़ी जो अबकी बार के शब्दबोध अंक में छाप रहा हूँ और लग रहा है जैसे किसी ने मुझे ही परोस दिया हो मेरे सामने :

सुनो

तुमने मुझे सही समझा

तुम्हारी कविता में जैसे मै खुद से मिला

क्या सच में या मन रखने को कह रहे हो ?

सच में मगर हैरत में हूँ

इतनी दूर से भी कोई किसी को

इतनी गहराई से कैसे समझ सकता है ?

दूर से ही तो इंसान ज्यादा समझ सकता है

पास रहकर तो दूरियाँ ज्यादा बढती हैं.......जानते हो न

हाँ जानता हूँ फिर भी जाने क्यों लगा

कोई मुझे कैसे इतनी अच्छे से समझ सकता है

क्या ऐसा भी हो सकता है

हाँ हो सकता है

बशर्ते कोई आपकी शख्सियत से प्रभावित न हुआ हो

दूर खडा सिर्फ़ आपके क्रिया कलाप को गुन रहा हो

कितनी सघन संवेदना है

कितनी प्यास की तीव्रता है

कितनी बची जिजीविषा है

आसान होता है उसके बाद समझना

जानते हो क्यों

क्योंकि

जब आप दूर खडे किसी को देखा करते हो

उससे न कोई लगाव रखते हो

बस एक द्रष्टा की भांति

उसके ह्रदय में झाँका करते हो

कहीं न कहीं

अपनी ही कोई अस्फ़ुट प्रतिक्रिया वहाँ देखा करते हो,

अपना ही कोई प्रतिबिम्ब वहाँ छलका करता है

अपना ही अकथ्य वहाँ मुखर हुआ करता है

तब आसान हो जाता है आईने में अक्स को उभारना

शायद सच कह रही हो तुम

तुमसे एक अपनत्व सा होने लगा है

सुनो

मुझे कभी भुलोगी तो नहीं ?

ये प्रश्न आखिर क्यों ?

मै तो जिसे अपना मान लेती हूँ

दिल में जगह दे देती हूँ

इसका मतलब नही भूलोगी ?

ये तुम सोचो इसका क्या मतलब निकलता है

तुम ही बता दो न

मतलब हाँ और न का खेल है

समझा नही

मतलब हाँ कहूँ तो ही मानोगे कि नही भूलूँगी

क्या इतना भी विश्वास नहीं

है न ...

है तो फिर पूछना क्या

अपना विश्वास पक्का होना चाहिए

फिर तो आस्माँ भी धरती पर उतर आता है

सही कहती हो शायद

बहुत छला गया हूँ इसलिए संभल कर घूँट भरा करता हूँ

हर रिश्ते को शक की निगाह से देखा करता हूँ

ओ अजनबी !यूँ न परेशान हो

वक्त की करवटों से न हैरान हो

बेशक सफ़र के राही हैं हम

फिर भी यूँ ही न मिले हैं हम

शायद कहीं किसी खुदा की कोई मर्ज़ी हो

शायद किसी खुदा की तूने की इबादत हो

जो आज यूँ मुलाकात की शम्मा जलायी हो

सुनो

तुम्हारी बातें सुकून दे रही हैं

सुकून से ज्यादा तो मेरे दिल में घर कर रही हैं

लगता है आज पिघल जायेगा आस्माँ और झुक जाएगा धरा के कदमों पर

अरे अरे क्या सोचने लगे

कहाँ खोने लगे

किस आस्माँ पर ख्वाबों का महल बनाने लगे

नहीं अब कुछ मत कहना

बस चुप रहना

जो कह रहा हूँ बस सुनती रहो

और आँख बन्द कर संग मेरे चलती रहो

सुनो

दोगी न साथ ?

उफ़! तुमने ये क्या प्रश्न किया

मुझसे मेरा वजूद ही छीन लिया

अब क्या कहूँ किसे कहूँ याद नहीं

ये तो मेरी तपस्या की सम्पूर्णता हुई

जो तुम्हारे ख्वाबों की शहज़ादी हुई

कहो कहाँ चलना होगा,

किस लोक में भ्रमण करना होगा

तो फिर दो हाथ में हाथ और मूँद लो अपनी आँख

मेरे काल्पनिक संसार से मेरी हकीकत के सफ़र तक

आओ चलो चलें थामे इक दूजे का हाथ

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