2088 Isvi in Hindi Children Stories by Surendra Tandon books and stories PDF | 2088 ईस्वी

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2088 ईस्वी

रोज की तरह आज भी जब दादाजी पार्क में आए तो इंतजार कर रही बच्चों की टोली ने उन्हे घेर लिया। सभी एक सुर में उनसे कहानी सुनाने की जिद करने लगे। मौहल्ले के सभी लोग जानते थे कि दादाजी बच्चों को अच्छी-अच्छी बातें बताते हैं। जिस कारण बच्चे इधर-उधर फालतू घूमते नहीं और शाम को सीधे घर आ जाते हैं। दादाजी भी एक अभिभावक की तरह उनको उनके घरों तक छोड़कर ही जाते थे, इस कारण पूरे मौहल्ले वाले उनका बड़ा सम्मान करते थे। बच्चों की स्कूली समस्याओं को भी अकसर उनके स्कूल जाकर हल कर देते थे। 85 वर्ष के रिटायर्ड स्कूल प्रिंसिपल को इन कार्यों में बड़ी खुशी मिलती थी। दादाजी ने कहा, "बच्चों आज मैं राजाओं, जानवरों आदि की कहानी नहीं बल्कि अपने बचपन की कहानी सुनाता हूं। मेरे बचपन में एक रुपए में 40 सेर गेहूं, एक रुपए में पच्चीस सेर चावल और इतने में ही एक सेर शुद्ध देसी घी मिलता था, सबकुछ बहुत सस्ता था, दुध-दही नदियाँ बहती थीं, फलों का अंबार लगा रहता था, मेवें तो हम जेब में भरकर मूंगफली की तरह खाते थे।" कहानी सुनते-सुनते नन्हा रामू न जाने किस समय सो गया किसी को पता ही न चला। दादाजी अपनी धुन में सुनाए जा रहे थे, "बच्चों हम्रे समय में गुंडागर्दी, झूट-फ़रेब, लैमारी, मक्कारी का कोई स्थान नहीं था, सब एक-दूसरे से मिल-जुलकर रहते और उनके सुख-दुख में भागीदार बनना हमारा कर्तव्य था। बड़ों का सम्मान, सभी से प्यार भरा व्यवहार हमारे ज़माने की विशेषता थी, बिमारियाँ हमसे दूर भागतीं थीं।" शाम को जाते समय दादाजी ने रामू की माँ को बुलवाया जो उसे सोता हुआ ही उठाकर ले गईं और उसे बिस्तर पर लेटा दिया।

आज ज़माना बहुत बदल गया था। पिछले लगभग एक सेंचुरी से आज के समय में ज़मीन-आसमान का अंतर था। रामू अब छोटा बच्चा नहीं बल्कि 87 वर्ष का बूढ़ा था। पुत्र श्यामू के साथ रहता था। इस उम्र में भी वह चुस्त-दुरुस्त था। यह 2088 ईस्वी सन् था। इस समाज में दादा-दादी से कहानी सुनने वाले बच्चों के हाथों में मशीनी खिलौने थे लेकिन गरीब-वंचित बच्चे आज भी कहानियाँ सुनकर अपना मनोरंजन एवं ज्ञान प्राप्त करते थे। शाम के समय जब रामू दादा पार्क में पहुंचे तो बच्चों ने उन्हे घेर लिया और कहानी सुनाने की जिद करने लगे। रामू दादा ने उन्हे एक ईहानी सुनाने के बाद कहा, " अब मैं तुम्हे अपने बचपन की कहानी सुनाता हूं। जब मैं छोटा था तब गेंहूं, चावल, दालें, सब्जी, दूध-दही, देसी घी आदि सब अपने वास्तविक रूप में मिलते थे, जिनकों आज तुम लोग कैपसूल के रूप में खाते हो। रोटी, दाल-चावल रोज एवं हफ्ते में दो बार पीने को दूध, दो बार दही और देसी घी महीने में दो बार खाने को मिल जाता था, मूंगफली हम लोग मेवों की तरह जेब में भरकर खाते थे, फल भी हमें मिलते थे, शुद्ध सरसों का तेल खास अवसरों पर इस्तेमाल होता था, पॉल्म-ऑयल रोज खाने को मिलता था, वनस्पति घी का प्रयोग शादी-पार्टी एवं पकवान बनाने में ही होता था, चाय तो दिन में दो-तीन बार मिल जाती थी। आज तुम लोग तो उन्हे देख भी नही पाते, सिर्फ इनुहे कैपसूल रूप में जानते हो। चाय-कॉफी, दूध भी आज तरल कैपसूलों में कैद होकर रह गई हैं। बच्चों कल मैं तुम्हे संग्रहालय दिखाने ले चलूंगा, जहाँ हमारे ज़माने की सब चीज़ें वास्तविक रूप में संग्रहित की गईं हैं। ल रविवार है और इस दिन वहाँ का कोई टिकट नहीं लगता है।"

अगले दिन बच्चों की फौज दादाजी के साथ संग्रहालय में मौजूद थी। दादाजी ने एक तरफ से बताना शुरू किया, "बच्चों यह देखो, यह लहलहाते खेत हैं, इनमें गेंहूं, चावल, दालें, सब्जियाँ, सरसों, भुट्टा और न जाने क्या-क्या पैदा होता था, सब की फोटोएं बनीं हैं। वो देखो बकरी, गाय, भैंस जो हमें दूध देतीं थीं, यह देखो इनके थन हैं, इनमें से ही दूध निकलता था। यह बैल है जो खेत जोतते थे, वो देखो घोड़े, गद्धे, खच्चर, ऊंट जिनपर लोग सवारी भी करते थे और उनपर रखकर सामान आदि भी ढोते थे। नदियाँ, झील, तालाब, कुएं जहाँ हम नहाते थे और पीने का पानी भी प्राप्त करते थे। आज तुम लोग तो वर्षों नहीं नहाते, सिर्फ खुशबू वाली भांप लेकर फ्रेश हो जाते हो। वो देखो पहाड़, उनपर उगे पौधों से हमें दवाएं मिलतीं थीं और वो रहे जंगल जिनसे हमें लकड़ी मिलती थी जिसे हम घर के दरवाजे, सोने के लिए पलंग, तख़्त और खाना पकाने के लिए इंधन के रूप में इस्तेमाल करते थे। वो देखो मेवों के बाग, फलों के पेड़ जिनमें हर तरह के फल होते थे जहाँ हम लोग खुद जाकर इन्हे तोड़-तोड़कर खाते थे।"

दादाजी द्वारा दी जा रही इन जानकारियों को वहाँ आए और लोग भी बड़े गौर से सुन रहे थे । दादाजी द्वारा इन चीजों को खुद इस्तमाल करने की बातें सुनकर उन्हे घोर आश्चर्य हो रहा था। कोई ऐसा व्यक्ति जो उन हालातों में पला-बढ़ा हो क्या आज के समय में मौजूद है? यदि वह है तो फिर दादाजी तो युगपुरुष ही कहलाएंगें, पिछले तीन दशक में व्यक्ति की औसत आयु आज घटकर 55-60 वर्ष जो रह गयी थी । यह खबर थोड़ी ही देर में संग्रहालय के कार्यकरताओं के कानों तक पहुंच गयी कि कोई व्यक्ति संग्रहालय में मौजूद है जो लुप्तप्राय हो चुकीं उन वस्तुओं का इस्तेमाल कर चुका है। संग्रहालय कि डायरेक्टर दौड़ा-दौड़ा आया और दादाजी से बोला ," क्या मैं आपसे उस ज़माने की कुछ और बातें भी पूछ सकता हूं ? मैं आपकी इन जानकारियों के लिए पेमैंट भी करूंगा । दादाजी के हामी भरते ही स्टाफ के लोग ससम्मान उन्हे एक कैबिन में ले गए और उनपर प्रश्नों की बौछार कर दी। तरह-तरह की बातें पूछना , फोटोएं दिखाकर उनके बारे में जानकारी देने का कार्य दादाजी ने बड़ी सहजता से कर दिया । बड़े-बड़े गुना-भाग-जोड़ को तो दादाजी ने मुंह-ज़बानी हल कर दिए। हर प्रश्न का वह तड़ से जवाब दे देते थे। उनके उत्तर एवं जानकारियाँ सही हैं अथवा गलत इसे जाँचने के लिए एक व्यक्ति सुपर-डुपर कंप्यूटर पर लगातार टेली करता जाता और सही का सिग्नल दे रहा था। तब तक वहाँ काफी भीड़ लग चुकी थी। हर कोई इस अवतारी पुरुष को देखना चाहता था। पूरी तरह संतुष्टि के बाद ही दादाजी को तय पेमैंट देकर छोड़ा गया। वह पैसा दादाजी ने बच्चों में बाँट दिया।

अब दादाजी को कोई मामूली व्यक्ति नहीं बल्कि देश-रत्न थे। लोगों ने उन्हें "भारत रत्न" जैसे पुरस्कार से सम्मानित करने की पुरजोर कोशिश सरकार से की जो जल्द ही स्वीकार भी कर ली गयी । एक भव्य समारोह में देश के प्रथम व्यक्ति द्वारा उन्हे यह सम्मान दिया गया। अब रामू "भारत रत्न दादाजी" के नाम से पहचाना जाने लगा। अंततः वह दिन भी आया जब 90 वर्ष की उम्र में दादाजी ने इस नश्वर संसार से विदा ली। सरकार द्वारा उनके घर पर ससम्मान श्रद्धांजलि दी गयी। सुबह ही उनके बेटे श्यामू ने रोबोट बुक करा दिया था। उसने दादाजी के शव को उसे सौंप दिया। आज के समय में अंतिम संस्कार की यही लघु विधि थी। रोबोट रामू को अपने कंधे पर लादकर चल पड़ा। रास्ते में रोबोट की अचानक बैटरी लो हो जाने के कारण एकदम से दादाजी जमीन पर गिर पड़े। एक जोर चीख रामू के मुंह से निकली। माँ हड़बड़ा कर सोते से उठी तो देखा रामू बिस्तर पर डरा-सहमा बैठा रो रहा है। माँ ने अपनी साड़ी के पल्लू से उसके आँसू पोछे और सीने से लगाते हुए पूछा ," क्या हुआ बेटा? चीखा क्यों? ख्या कोई बुरा स्वप्न देख लिया था?" रामू उन्हे क्या बताता कि वह किस दुनिया से आ रहा है। जहाँ आदमी एक मशीन मात्र बनकर रह गया है, रिश्ते-नातों का जहाँ कोई चलन नहीं। प्रकृतिक वस्तुएं जहाँ गायब हैं। जिन्दगी जहाँ अन्न पर नही बल्कि उने कैपसूलों पर चल रही है। संवेदना, प्यार, व्यवहार, अपनापन गायब है। आदमी आदमी से बेगाना है , और भी न जाने कितनी बुराइयाँ हैं यहाँ। फिर भी उनकी दुनिया हमारी आज की दुनिया से बहुत खूबसूरत है। शिक्षा के उच्च-मापदंडों के चलते सब शिक्षित हैं। सभी कर्मशील हैं और स्वावलंबी होने के कारण सामाजिक कुरीतियों का शिकार नहीं हैं। समान अधिकार के कारण लड़की को लड़कों के आगे उपेक्षित नहीं किया जाता। पैसे की कमी से लड़कियाँ यहाँ कुंवारी ही बूढ़ी नहीं हो जातीं। बहुओं को इस समाज के कड़े कानूनों के चलते जिंदा जलाया नहीं जाता। दहेज के दंश को आज की लड़कियाँ नहीं झेलतीं। बूढ़े गरीब माँ-बाप अपनी बेटियों को बेमेल विवाह के बंधन में बांधने को मजबूर नहीं होते। बुढ़ापा आज दुतकारा नहीं जाता। सड़कों पर दर-दर की ठोकरें खाकर भीख नहीं माँगता। बोछ अथवा अभिछाप नहीं है आज बुढ़ापा बल्कि देश की उन्नति में अपने अनुभव से प्रगति पथ पर अग्रसर करने वाले सहयोग का नाम है बुढ़ापा। यहाँ बुढ़ापा अपने कार्यों से सरकार की अमूल्य धरोहर है। यहाँ कानून का राज है- राजनेताओं का नहीं। कड़े कानूनों के चलते यहाँ हत्या, लूटपाट, चोरी आदि घटनाएं नगण्य हैं। शिक्षा के शुरुआति वर्षों से ही बच्चों को अच्छे-बुरे का ज्ञान करा दिया जाता है। वह गुण सिखा दिए जाते हैं जिससे कोई उनका शोषण न कर सके। किसी भी अपराध में गवाहों, चश्मदीदों को हानि पहुंचाने वाले पर तुरंत दूसरे अपराध का कानून लगाकर सज़ा का ऐलान कर दिया जाता है। उसकी फाइल यही पर बंद कर दी जाती है। नाम के आगे उपनाम यहाँ नहीं लगाया जाता, इससे जात-पात का भेद मिटता है। सारी ज़मीन सरकार की संपत्ति होती है , इस कारण जमीन-जायदाद के झगड़े नहीं होते। जरूरत के मुताबिक व्यापार एवं रहने के लिए जह उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है। रिश्वतखोरी, दलाली, न्योछावर खाना मुमकिन नहीं है, क्योंकि ऐसा करने पर उसे पदमुक्त करके जेल में डाल दिया जाता है। सरकार का गठन जनता एक व्यक्ति को वोट देकर करती है इस शर्त के साथ कि आप अपने मंत्रीमंडल का गठन अपने विवेक से करने के लिए स्वतंत्र हैं, गलत अथवा लापरवाह आपके व्यक्ति को 24 घंटे की चेतावनी के बाद आपको उसे पदमुक्त करना होगा वरना आपको ही हम एक कानून के तहत पदमुक्त कर देंगें। अच्छे कार्य करने वाले व्यक्ति जीवन-परयत्न अपने पथ पर यथा संभव बने रह सकते हैं। इन फैसलों को कार्य रूप देने के लिए आज की सर्वोच्च संस्था न्यायपालिका बाध्य थी। इन विचारों से निकलकर रामू ने माँ से पूछा, " क्या सपने सच होते हैं?" माँ ने चाय का गिलास पकड़ाते हुए कहा, 'कहाँ बेटे?' सपने तो बस सपने ही होते हैं, इनका असल जिन्दगी से कुछ लेना-देना नहीं होता, 'हाँ, सुबह के स्वप्न अकसर सच हो जाया करते हैं।' रामू के चेहरे पर विजयी मुस्कान थी, और आँखों में नये संसार की चमक ।।