Kuber - 13 in Hindi Moral Stories by Hansa Deep books and stories PDF | कुबेर - 13

Featured Books
  • शून्य से शून्य तक - भाग 40

    40== कुछ दिनों बाद दीनानाथ ने देखा कि आशी ऑफ़िस जाकर...

  • दो दिल एक मंजिल

    1. बाल कहानी - गलतीसूर्या नामक बालक अपने माता - पिता के साथ...

  • You Are My Choice - 35

    "सर..."  राखी ने रॉनित को रोका। "ही इस माई ब्रदर।""ओह।" रॉनि...

  • सनातन - 3

    ...मैं दिखने में प्रौढ़ और वेशभूषा से पंडित किस्म का आदमी हूँ...

  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

Categories
Share

कुबेर - 13

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

13

शुभ समय के सारे संकेतों के बावजूद अशुभ समय इतना अड़ियल हो जाता है कि उसे भी अपनी ज़िद पूरी करने का मौका मिल ही जाता है। बिन बुलाए मेहमान की तरह आता है और अपना कहर बरपा कर चला जाता है।

कुछ ऐसी ही घड़ियाँ प्रतीक्षा कर रही थीं डीपी के जीवन में। इसे उसकी किस्मत कहो या संयोग मगर होनी तो हो कर रहती है। होनी को भला कौन टाल सकता है। उस अनहोनी के लिए कोई तैयार नहीं था जो एक हवा की तरह आई थी और तूफ़ान में बदल कर सब कुछ तहस-नहस करके चली गयी थी। एकाएक हवा उल्टी दिशा से बही, तूफ़ान आया और तबाही मचा कर चला गया। जाने के बाद छोड़ गया वे रेतीले भँवर जो मरने तो नहीं देते पर मौत का मंजर दिखा देते हैं।

वह सदमा जिसने डीपी को एक बार फिर से जीवन से मोड़ा, एक बार फिर से तोड़ा और एक बार फिर से उसके जीवन का रुख़ बदला। रिश्तों की डोर थामने से पहले ही टूट गयी। उस शाम अचानक संदेश आया कि नैन्सी की गाड़ी का एक्सीडेंट हो गया है। ड्राइवर ने वहीं दम तोड़ दिया और नैन्सी को अस्पताल ले जाया गया है। बदहवास-सा डीपी दादा के साथ जब तक अस्पताल पहुँचा तब तक वह दम तोड़ चुकी थी।

अलविदा भी नहीं कहा और चली गयी, नि:शब्द। उस दुनिया में जहाँ से उसे कभी नहीं लौटना था।

रो भी नहीं पाया डीपी। आँसू भी स्तब्ध थे कि क्यों बहें और कैसे बहें। डीपी ख़ामोश हो गया था। किससे शिकायत करे और क्या शिकायत करे। क्यों आख़िर उससे जुड़े लोग उसे छोड़ कर चले जाते हैं। कुछ तो ऐसा है उसके सामीप्य में कि जिसे भी जान से ज़्यादा चाहता है उसी के बगैर जीने को मज़बूर होना पड़ता है। नैन के बिना अधूरा था डीपी। उसके साथ देखे सपने राख बन कर उड़ चुके थे। तन्हा रह गया था मन, इतना तन्हा कि उस तन्हाई में हर ओर नैन ही दिखाई देती उसे, नैन ही उसके हर पल में होती, हर साँस में होती और कोई नज़र ही नहीं आता उसे, वह ख़ुद भी नहीं।

मैरी पूरे एक सप्ताह तक भाई के साथ रही। जानती थी वह जितना मजबूती से भाषण देता है उतना ही कोमल अपने दिल से है। उसकी आने वाली दुनिया की तस्वीर टूट चुकी थी। उसके खाने-पीने का, उसके दिन के हर पल का ध्यान रखने की कोशिश कर रही थी पर एक दिन तो भाई को उसके हाल पर छोड़ कर जाना था उसे अपने घर।

हर किसी को अपनी लड़ाई ख़ुद ही लड़नी पड़ती है। डीपी के लिए यह लड़ाई बार-बार सिर उठा लेती थी। वह योद्धा तो था नहीं जो लड़ाई में पारंगत हो, वह तो एक साधारण इंसान था। उसके लिए इससे उबरना ज़रूरी था। इस समय तो जो शेष बचा था वह था सिर्फ़ रुदन। अंदर का दर्द आँसुओं की शक्ल ले ले तो पीड़ा कम हो जाती है लेकिन आँसू भी इतनी पीड़ा की आँच को सह नहीं पाए और अंदर ही अंदर उमड़ते-घुमड़ते रहे।

दादा ने यही सोच कर उसे अकेले छोड़ा ताकि उसके घाव भर सकें।

सब उसे रुलाने की कोशिश कर रहे थे। पूरा जीवन-ज्योत ख़ामोशी से डीपी को सहारा दे रहा था। हर ओर उदासी थी। बच्चे क्या, बड़े क्या। जब किसी तरह से कोई भी डीपी के दर्द को बाहर नहीं ला पाया तो दादा ने एक फैसला लिया। जो राज़ अब तक किसी को मालूम नहीं था उसे डीपी को बताने का फैसला। इस राज़ को बताने के लिए दादा को भी बहुत हिम्मत की ज़रूरत थी। आज तक सबके मन में दादा की जो छवि थी उस पर कोई आँच न आए उस खुलासे से, इस बात का भी ध्यान रखना था।

साहस बटोर कर आख़िरकार दादा ने डीपी को अपनी ज़िंदगी के बारे में बताया, एक ऐसा राज़ जो उनके अलावा यहाँ कोई नहीं जानता था। जिसने उन्हें इन ज़रूरतमंद लोगों की सेवा के लिए समर्पित होने का रास्ता दिखाया था। दादा ने डीपी को अपनी आपबीती सुनायी तो वह सचमुच भौंचक्का रह गया। उनके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। जो उससे कहीं ज़्यादा अलग नहीं था।

तब वे पच्चीस साल के थे और उनकी मित्र माहिरा बाईस वर्ष की थी। वे रोज़ मिला करते थे। एक दूसरे के बगैर रह नहीं पाते थे। बहुत प्यार करते थे एक दूसरे से, दीवानेपन की हद तक। शादी के सपने देख ही रहे थे कि एक विस्फोट हुआ। जिसमें उनके सारे ख़्वाब भस्म हो गए। माहिरा को एक ऐसी बीमारी ने दबोचा जो जान लेने के लिए उतावली रहती है। उसके सामने कोई डॉक्टर, कोई दवाई टिक नहीं पाती। बस उसे शरीर को लील करते हुए देखने के अलावा कोई चारा ही नहीं होता। माहिरा को ब्लड कैंसर डायग्नोस हुआ। जब तक पता चला बहुत देर हो चुकी थी। सिर्फ़ कुछ ही दिनों की मेहमान थी वह।

दादा ने उसके शेष समय का हर पल उसी के साथ बिताया। उसे हँसाते पर ख़ुद छुप कर रोते, उसे खिलाते पर ख़ुद खा नहीं पाते, उसका ध्यान रखते पर अपने लिए लापरवाही ही होती। उन्हें पता नहीं था कि माहिरा के बगैर वे क्या करेंगे। जब तक माहिरा बिस्तर पर थी वे सोचना भी नहीं चाहते थे कि आगे उनका क्या होगा।

एक सुबह वे माहिरा के पास ही बैठे थे। उनके हाथों में उसका हाथ था। उसे आँखें खोले दो दिन हो गए थे। उसकी साँस कब रुक गयी पता ही नहीं चला। सिरहाने बैठे दादा शांत भाव से उसे जाते हुए देखते रहे कुछ कर नहीं पाए। नर्स ने पुष्टि की और बताया कि – “अब माहिरा नहीं रही, वह जा चुकी है।” विधाता की लिखी लकीरें पहले ही पढ़ी जा चुकी थीं डॉक्टरों के द्वारा। अब तो सिर्फ उन पर अमल हो रहा था। उसका जाना तय था, दादा का अकेले रह जाना तय था।

नवयौवना माहिरा के जीवन की मधुर बाँसुरी के सुर कैंसर के ढोल की थाप में कहीं दब गए थे। माहिरा की जर्जर काया निष्चेष्ट थी। दादा के मन को अपने में लपेटता उनके मन का पंछी फुर्र से उड़ गया था अपने बसेरे को वीरान करके। वह पंछी माहिरा के साथ जाना चाहता था। खाली घर में रहना किसे अच्छा लगता है, शायद किसी को भी नहीं। दादा उसके साथ नहीं जा पाए पर अपना सब कुछ उसके साथ जाते देखते रहे, कुछ कर नहीं सकते थे।

जाने वाले को कौन रोक सका है भला।

जिस दिन उसने सदा के लिए आँखें मूँदीं, उसी दिन से उनकी जीवन दिशा बदल गयी। अस्पताल से घर जाते हुए उन्हें जीवन-ज्योत का बोर्ड दिखा तो वे वहाँ रुक गए। बहुत सारे बच्चे ऐसे थे जिनका अपना कोई नहीं था, उन्हें देखा। वहाँ के सर से कन्फेशन रुम में जाकर अपनी दयनीय स्थिति का जिक्र किया। रोते हुए वहाँ के सर से अनुरोध किया – “सर, मैं माहिरा के बगैर जी नहीं सकता। मैं भी मर जाना चाहता हूँ। इसके अलावा इस दु:ख से बाहर आने का और कोई रास्ता ही नहीं है मेरे पास।”

सर ने अपने तरीके से समझाया – “एक दिन तो सबको जाना है बेटा। कोई जल्दी जाता है तो कोई देर से, लेकिन जाते तो सभी हैं, जाना ही पड़ता है। यहाँ किसी के लिए भी कोई स्थायी आवास नहीं है। यही नियम है प्रकृति का बनाया हुआ जिसे पालन करने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं है। आज आदमी ने कई आविष्कार करके कई सुविधाएँ जुटा ली हैं, सब कुछ करने लगा है पर प्रकृति के आगे उसे घुटने टेकने ही पड़ते हैं। फिर चाहे बाढ़ की विभीषिका हो या सूखे का कहर हो, झुलसती गर्मी हो या कड़कड़ाती ठंड हो, आदमी उससे बचने के उपाय ज़रूर कर सकता है लेकिन उन्हें रोक नहीं सकता। हम भी इलाज के द्वारा कुछ दिन अपने जीवन के आगे बढ़ा लेते हैं पर एक दिन तो ऐसा आता ही है जब हमें सब छोड़ कर जाना पड़ता है। कोई अमरजड़ी या अमरबूटी नहीं है कि हम सदा के लिए जीवित रहें। यह हमारे जीवन का सत्य है। माहिरा को जाना था, मुझे भी जाना होगा और तुम्हें भी।”

सर को सुनते हुए उन्हें अहसास हुआ कि वे कुछ ऐसा कर रहे हैं जो उन्हें नहीं करना चाहिए। जाने वाले के साथ कौन जाता है भला।

“तुम जब भी आना चाहो तो जीवन-ज्योत के दरवाजे तुम्हारे लिए खुले हैं। देखो इन सब लोगों को, कितने असहाय हैं ये फिर भी जी रहे हैं। इन्हें हमारी सहायता की ज़रूरत है। यहाँ के लोगों के साथ अपना दर्द बाँटोगे, इन्हें ख़ुशियाँ दोगे तो तुम्हें राहत मिलेगी। मन के ज़ख्म भरने में समय तो लगता है परन्तु एक न एक दिन मवाद सूख ही जाता है, निशान छोड़कर। वह निशान सदा के लिए एक याद बनकर आगे के जीवन को सरल बना देता है।”

दादा दो दिन तक लगातार जीवन-ज्योत गए। कई लोगों को मदद करते उनके हाथ उन लोगों की ज़रूरतों के अनुसार छोटे पड़ रहे थे। उनकी दशा देखकर मन कुछ इस तरह उद्वेलित हुआ कि तीसरे दिन मदद के लिए बढ़ते हाथ उन्हें घर जाने से रोकने लगे। यह सोचने पर मज़बूर करने लगे कि अगर वे यहीं रहें तो इनका जीवन बदलने के लिए वे काफी कुछ कर सकते हैं। स्वयं दादा का दर्द और उन असहाय लोगों का दर्द दोनों मिलकर ऋणात्मकता को धनात्मकता में बदल गए। किसी को अहसास भी नहीं था इस बात का कि वे दो दिन उनकी जीवन दिशा बदल देंगे।

अपने प्रण और इच्छा शक्ति के पक्के तो वे सदा से थे। अपने माता-पिता से बात की। पहले तो उनके माता-पिता चकित हुए कि ऐसे कैसे अपने इकलौते बेटे को जीवन-ज्योत भेज देंगे। घर है, पैसा है सब कुछ तो है। अगर घर का बेटा घर छोड़ कर चला गया तो माता-पिता कैसे रहेंगे। मगर इस समय उन्हें अपनी नहीं अपने बेटे की फ़िक्र थी। उन्हें इस क़दर टूटा हुआ देखकर ‘हाँ’ कहने के अलावा कोई चारा ही नहीं था। बेटे की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी मानकर उन्होंने कोई आपत्ति नहीं की। बेटा लोगों की सेवा करना चाहता है। क्यों न उसके टूटे दिल को वहीं कुछ ऐसा मिले जिससे मन को शांति मिले।

वह दिन और आज का दिन, तब से वे लोगों की सेवा में जुटे हैं। जीवन-ज्योत ही उनका परिवार है। माता-पिता तो सालों पहले छोड़ कर चले गए। अपने पीछे काफी जायदाद छोड़ कर गए थे जो दादा के नाम पर थी। इस नये जीवन-ज्योत के परिसर का निर्माण उसी ज़मीन पर किया गया है जहाँ उनके माता-पिता दादा की शादी के बाद एक बड़ा फार्म हाउस बनाने का सपना देखा करते थे। अपने माता-पिता का सपना तो पूरा किया उनके बेटे ने पर अपनी शैली में पूरा किया, जीवन-ज्योत के परिवार के लिए एक भव्य परिसर बनाकर।

आज भी दादा का मन कभी-कभी बीते दिनों में ले जाने की ज़िद करता है, माहिरा को याद करता है मगर यहाँ की ज़िम्मेदारियाँ इतनी हैं कि वह ज़िद कहीं किसी कोने में दब कर रह जाती है। सब कुछ भूलने की कोशिश के चलते व्यस्तताओं को जितना बढ़ाओ उतना ही उबरने की प्रक्रिया आसान होती है। यही किया दादा ने। अपने उस दर्द को वहीं कहीं छुपा रहने दिया और लोगों की सेवा में जुट गए। इन सब ज़रूरतमंद लोगों की सेवा करना ही उनका मुख्य उद्देश्य बन गया। अपने माता-पिता की अपार संपत्ति का इससे अच्छा उपयोग कोई हो ही नहीं सकता था। एक बेटे की सच्ची श्रद्धांजलि थी यह जो उनके जीवन भर के परिश्रम को, परोपकार के इतने बड़े कार्य को संपूर्ण रूप से समर्पित कर रही थी।

शायद यह दादा का संदेश था डीपी के लिए। यही कहना चाहते थे दादा डीपी से कि अपना दर्द कभी भूल नहीं पाओगे मगर लोगों की सेवा करके उसकी पीड़ा को कम ज़रूर किया जा सकता है।

*****