Kuber - 18 in Hindi Moral Stories by Hansa Deep books and stories PDF | कुबेर - 18

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कुबेर - 18

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

18

अपराध के बीज तो इतने ताक़तवर होते हैं कि वे कहीं न कहीं से अपनी उर्वरक शक्ति ढूँढ ही लेते और बढ़ती उम्र के हर मोड़ पर उनका आकार भी बढ़ता जाता। तब समाज को एक ऐसा अपराधी मिलता जो पूरे कौशल के साथ अपने काम को अंजाम देता। नि:संदेह तब धन्नू उसी मोड़ पर खड़ा था जहाँ नियति उसे किसी न किसी रूप में ढालने का विचार कर चुकी थी। बुराइयाँ तो सामान्यत: हर क़दम पर बिछी होती हैं, कभी भी अपने शिकंजे में दबोच लेती हैं परन्तु धन्नू ने ढाबे का रास्ता पकड़ा था जो उसके लिए सकारात्मकता ले कर आया था। अनाम रिश्तों की जो कोंपलें ढाबे में अंकुरित हुई थीं वे अनवरत सिंचित होती रहीं। गुप्ता जी की सहृदयता ने मालिक और नौकर की वफ़ादारी के पाठ सिखा दिए। वे भावनाएँ एक और एक मिलकर गुणित होती रहीं लगातार।

वहाँ रह रहे बीरू और छोटू के लिए धन्नू रिश्ते में कुछ नहीं लगता था पर एक बड़ा रिश्ता था उन तीनों के बीच। वह सब कुछ था जो मात्र किसी रिश्ते को नाम देने से परे था। महाराज जी और धन्नू का रिश्ता जो दिन के हर काम के लिए एक दूसरे की आवश्यकता बन गए थे। यही नहीं गुप्ता जी के परिवार ने भी उसे अपना बना लिया था। तभी उसके बाल मन ने शायद यह स्वीकार कर लिया था कि ख़ून के रिश्तों से आगे भी कई रिश्ते होते हैं जो मन के दरवाज़ों पर दस्तक देते हैं और अंदर तक अपनी जगह बना लेते हैं सदा के लिए।

गुप्ता जी के ढाबे से निकला रास्ता मानवसेवा के दर जीवन-ज्योत तक ले गया जहाँ दादा की छत्रछाया में पहुँचना सोने पर सुहागा था। उसे जीवन में बहुत उदार लोग मिले जिन्होंने उसकी अपेक्षा से बढ़कर उसकी मदद की। शायद ये ही उदारमना लोग उसे मानव सेवा के प्रति इतना प्रतिबद्ध बना गए, जीवन के ध्येय बता गए। उसने कभी ईश्वर देखना तो दूर कभी ईश्वर के बारे में सोचा भी नहीं था तो उनकी कृपा को कैसे महसूस करता। यह धन्नू का सच था कि उसने तस्वीरों में भी भगवान को नहीं देखा था, लेकिन हाँ, उसने इंसान को भगवान बनते ज़रूर देखा और उसी इंसान की तस्वीर को भगवान समझा, उसे पूजा, उसे मत्था टेका और उसी का अनुसरण करके आगे बढ़ने की प्रेरणा लेता रहा।

डीपी को जो नया जीवन दिया है दादा ने, उस नये जीवन को डीपी भी जॉन की तरह निभा सकता है भारत में संस्था की परियोजनाओं के लिए धनराशि भेजकर। परियोजनाओं के विचार-विमर्श का हिस्सा बन कर। जितना वह यहाँ कमाएगा उतनी अधिक मदद भारत में होगी। भारत में उसके पास अपना तो कुछ है नहीं, वहाँ आने वाले डोनेशन के पैसों पर ही उसके काम निर्भर रहे हैं। स्वयं की तो कोई कमाई नहीं है। सिर्फ़ जीवन-ज्योत के कामों को देखने के बजाय यदि वह ख़ुद पैसा कमाए तो सबका अधिक भला होगा। इस सीधे-सादे समीकरण में उसके लिए अधिक चुनौतियाँ होंगी, अधिक काम होगा और अधिक सीखने की प्रक्रिया होगी साथ ही जीवन-ज्योत का अधिक विकास होगा।

मन के किसी कोने से अगर फिर से यही हिचकिचाहट होती कि वह भारत में सबको अकेला कैसे छोड़ सकता है, दादा के बगैर वहाँ सबकी व्यथा को उसकी अनुपस्थिति और अधिक गहरा कर देगी। अपने इस द्वंद जाल से मुक्ति नहीं मिलती तो मन इसे अपनी कमज़ोरी भी मानने लग जाता। तन के बल व मन के बल को मंज़िल तक पहुँचाने में धन का बल एक मील का पत्थर है जिसकी सार्थकता समझने के लिए किसी ख़ास समझ की ज़रूरत नहीं। यह ख़्याल उसने मन को सजग करने में अहम् भूमिका निभाता।

न्यूयॉर्क में रुकने का अपने मन का पशोपेश कई सवाल पैदा करता। हो सकता है यह हिचक उसकी कमज़ोरी है जो उसे रोक रही है।

“वह इस नयी चुनौती से पीछे तो नहीं हट रहा।”

“क्या उसे डर है कि यह चुनौती कठिन है।”

“वह इसे स्वीकार करने में सक्षम नहीं है।”

“कहीं उसका इनकार उसकी कामचोरी तो नही है।”

“सीधे मिलते पैसों का उपयोग करना चाहता है वह।”

“पैसे कमाने का माद्दा ही नहीं है उसमें।”

इस मानसिक द्वंद में छिपी आत्मनिर्भरता की सीधी-सादी चाहत धीरे-धीरे अपनी पकड़ बनाती जा रही थी। तन-मन से सेवा कर ली तो क्या अब धन से सेवा करने की बारी है। क्या करे “हाँ” कर दे, बदलाव लाना ही होगा, देश छोड़ना ही होगा, शायद तभी तो एक के बाद एक ये घटनाएँ घटित होती रहीं। दादा का बीमार होना, आनन-फानन में डीपी का वीज़ा बनवाना, दोनों का साथ न्यूयॉर्क के लिए प्रस्थान करना और फिर सब कुछ छोड़कर दादा का यूँ चले जाना।

यूँ उनका जाना आकस्मिक था, बड़ा हादसा था पर डीपी की सोच दूर तक जाकर यह भी मान लेती है कि सब कुछ दादा की योजना में था।

दादा जानते थे कि अब वह भारत ही नहीं छोड़ रहे हैं दुनिया भी छोड़ रहे हैं। इसीलिए वे उसे इस जगमगाती दुनिया का हिस्सा बना कर गए। उनका यहाँ आने का मकसद पूरा हो गया था। पहले दिन से ही उसे अंग्रेज़ी भाषा में दक्ष करने के प्रयास थे दादा के। जॉन जैसे बड़े बिज़नेसमैन का उसे न्यूयॉर्क जैसे शहर में काम देने का प्रस्ताव रखना। सबसे बड़ी बात यह थी कि एक दूसरे से यूँ जुड़ती ये कड़ियाँ एक बड़ी श्रृंखला थी उसके जीवन की। कड़ी से कड़ी जुड़ कर उसे भी कहीं से कहीं जोड़ कर, एक नयी कड़ी बनाती जा रही थी। उसे लगा जैसे उसकी ज़िंदगी किसी किताब के पन्नों पर लिखी कोई कहानी हो। कहानी के हर पात्र को धनंजय प्रसाद से धन्नू, धन्नू से डीपी, डीपी से सर डीपी और शायद कोई अगला नाम भी सुनिश्चित करके भेजने का एक सुनियोजित प्रस्ताव हो।

लेकिन यह फैसला लेने में भी इतना आसान नहीं होगा और उस पर अमल करने में भी। जगह के साथ देश भी नया होगा। सब कुछ नया होगा। ख़ुद को यहाँ नहीं ढाल पाया तो टिकट कटा लेगा किसी भी क्षण। जीवन में अगर नया अध्याय लिखा है तो उसे उस नए अध्याय को पढ़ने के लिए तैयार रहना चाहिए कमर कस कर।

अपनी बहन मैरी की राय के लिए दोबारा बात की। वह जानती थी अपने भाई को, एक होनहार लड़के को आगे नये रास्ते मिलते देख बहुत ख़ुश थी। इसलिए भी कि भाई डीपी के लिए नैन्सी और दादा के बिना जीवन-ज्योत में रहना मुश्किल होगा। मैरी ने हर तरह से दबाव डाला वहाँ रहकर कोशिश करने के लिए। विश्वास भी दिलाया कि हर रविवार जीवन-ज्योत जाकर वह अपनी तरफ़ से पूरी मदद करेगी। वहाँ की समस्याओं के बारे में भाई डीपी से बात करती रहेगी और सुलझाने के समुचित प्रयास करना मैरी की ज़िम्मेदारी होगी।

मैरी ने प्रबंधक कमेटी की राय बताई और जीवन-ज्योत की आर्थिक परिस्थिति के बारे में भी खुलकर चर्चा की। चाचा और सभी लोग चाहते थे कि वह अब छोटे दादा की ज़िम्मेदारी दादा के रूप में उठाए। आगे-पीछे उसे अमेरिकी समाज में रहकर जीवन-ज्योत के उद्देश्यों के लिए काम करना ही होगा। अगर उसमें एक विशाल वृक्ष जैसी ताक़त लानी है तो क्यों नहीं अभी से अपनी जड़ें फैला कर काम करना शुरू कर दे। यहाँ रहकर उसका जन सेवा करना ऐसा होगा जैसे कि एक पौधा जंगल में अपना अस्तित्व बनाए रखता है पर उसके अमेरिका में रहकर जीवन-ज्योत के लिए सक्रिय रहने से हो सकता है वह संस्था के लिए एक विराट वृक्ष बने जैसे दादा रहे।

उसका अपना सारा सपोर्ट सिस्टम इसी बात पर ज़ोर दे रहा था कि उसे रुक जाना चाहिए सिवाय ख़ुद डीपी के, वह अभी भी असमंजस में था। अपने मानसिक द्वंद से बाहर आने की कोशिश जारी थी। एक कोशिश भर थी अंधेरे में तीर चलाने की। जो नहीं लगा वह तीर तो उसकी भारत वापसी सुनिश्चित थी। डीपी की चुप्पी से जॉन को संकेत मिल रहा था। थोड़ा-सा दबाव उसे सहायता करेगा निर्णय लेने में। वही किया जॉन ने, यहाँ रुकने के लिए बस एक मौका देने की बात करता रहा, समझाने की चेष्टा करता रहा।

“डीपी, मैं जानता हूँ कि तुम्हारे लिए ये बहुत मुश्किल घड़ियाँ हैं लेकिन मेरी बात मानो, स्थान परिवर्तन से दादा की कमी को भुलाने में मदद मिलेगी।”

“वहाँ तो हर जगह दादा ही दिखाई देंगे तुम्हें लेकिन यहाँ रहोगे तो नये काम को सीखने में पूरा ध्यान लगाना होगा।”

“अगर भारत जाना ही होगा तुम्हें तो कभी भी जा सकते हो पर एक मौका मिला है तो आजमा कर देख लो।”

“प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से न्यूयॉर्क में रह कर जुड़े रहना तुम्हारे लिए एक समय का बदलाव हो सकता है।”

बगैर देर किए, जॉन ने फ्लशिंग के इलाके में एक कमरे वाला स्टूडियो अपार्टमेंट उसे दे दिया रहने के लिए ताकि वह कामकाजी लोगों की ज़िंदगी उनके नज़दीक रह कर महसूस कर सके। इस नये घर में एक अकेला प्राणी, पूरे घर में एक कमरा, वही किचन, वही शयन और वही बैठक। उसी से लगा हुआ एक बाथरूम और उसी में कपड़े धोने की छोटी-सी मशीन। एक छोटे-से कमरे में भी ज़रूरत की सारी सुविधाएँ थीं। भाईजी जॉन ने ताक़ीद कर दी थी कि अभी खाना बनाने के चक्कर में पड़ने का कोई फ़ायदा नहीं है। आसपास खाने की कई जगहें हैं जहाँ सस्ता, सुलभ और पौष्टिक खाना मिल जाता है।

वहाँ भारत में इतने लोगों के बीच में रहने का आदी था वह। यहाँ इस कमरे में भी अकेला नहीं था। अपने ऊपर कई ज़िम्मेदारियों को महसूस करने के बाद ही यहाँ एक कोशिश करने की एक पहल थी यह। जॉन चाहता था कि जितनी जल्दी वह यहाँ की जीवन शैली समझ ले, उसे अगले निर्णय लेने में आसानी होगी।

न्यूयॉर्क आने वालों में पहला नाम जॉन का ही था जैसे-जैसे और लोग समझदार होते गए वह उन्हें बुलाता गया और काम देता रहा। वे लोग शुरू में जॉन के साथ रहते, काम करते और फिर अपना काम धंधा संभालने लग जाते। उन सबमें अधिकांशत: सब लोगों का रियल इस्टेट का कारोबार था। अमेरिका की धरती पर जीवन-ज्योत के कई नवयुवकों को शौहरत और समृद्धि मिली थी, ऐसा दादा बताते रहते थे।

जैसा कि भाईजी जॉन ने कहा था, कुछ दिन रहना है यहाँ इस नए घर में। अपने नए घर के नए माहौल में नींद भी अपना बसेरा नहीं ढूँढ पायी। बेचैन रात की बेचैन करवटें पहली बार जीवन-ज्योत में रात बिताने की यादें दोहराती रहीं। न जाने हर बदलाव को स्वीकारने की बेचैनी थी यह, या फिर नींद की हठ थी।

सुबह होते ही बगैर समय नष्ट किए तैयार होकर चल दिया भाईजी के ऑफिस। सब-वे से ऑफिस का रास्ता पार करते कई लोग उतरे-चढ़े। सब अपने हाथ में कुछ लिए थे पढ़ने के लिए, फ़ोन भी आईपैड भी और लैपटॉप भी। किताबें इक्का-दुक्का लोगों के हाथों में ही देखने को मिलीं।

फ्लशिंग से सात नंबर की ट्रेन पकड़ कर चला था मैनहटन पहुँचने के लिए जहाँ जॉन का ऑफिस था। एक भव्य बहुमंजिला इमारत जिसमें चारों और काँच के दरवाजे और काँच की खिड़कियाँ थीं। जब उसने इमारत में प्रवेश किया था तो भाईजी भी गाड़ी पार्क करके अंदर आ रहे थे – “अरे वाह डीपी, समय से पहले पहुँच गए, सोए कि नहीं ठीक से?”

“बस करवटों में सो लिया भाईजी!”

“नया माहौल है, जल्द ही आदत हो जाएगी, चिन्ता न करो।”

*****