Babul Mora - 1 in Hindi Moral Stories by Zakia Zubairi books and stories PDF | बाबुल मोरा... - 1

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बाबुल मोरा... - 1

बाबुल मोरा....

ज़किया ज़ुबैरी

(1)

“मां मैने कह दिया, मैं यह घर नहीं छोड़ूंगी।”

“क्यों नहीं छोड़ेगी और कैसे नहीं छोड़ेगी..?”

“क्योंकि यह मेरा भी घर है।”

“यह किसने कह दिया तुझ से..?”

“यह मेरे डैड का घर है..!”“मैं तुझे यहां नहीं रहने दूंगी क्योंकि तू फ़िल के साथ नहीं रहने को तैयार है।”

“मैं क्यों रहूँ उसके साथ..? अब तो तुम्हें भी उस तीन साल जेल काटे हुए अपराधी को घर में नहीं आने देना चाहिए।”

“लिसा यह मुझसे नहीं होगा।”

“क्यों नहीं होगा? क्या मैं तुम्हारी बेटी नहीं हूँ..?”

“तूं 18 वर्ष की हो गई है, क्यों नहीं जाकर उस काउंसिलर के पीछे पड़ जाती कि तुझको एक कमरे का फ़्लैट दिलवा दे?”

“जब मेरे पास अपना घर है तो मैं क्यों जाऊं?”

“तो फिर तुझे फ़िल के साथ ही रहना होगा इस घर में..!!”

लिसा सोचने लगी... कितनी कठोर और बेहिस हो गयी है उसकी माँ...! फ़िल के कारण अपनी 18 वर्ष की बेटी को घर से निकल जाने को कह रही है. वह घबराने लगी... अगर यह शैतान घर में वापस आ गया तो कुछ पता नहीं उसके साथ कैसा व्यवहार करे... शायद उसी तरह फिर से दरवाज़े से निकलकर भागेगा बेशरम वहशी......

उस दिन...!!

वह कमरे के दरवाज़े से बाहर भागने ही वाला था की लिसा बिजली की तेज़ी से पलटी, कोहनियों को नरम बिस्तर के ऊपर ज़ोर से दबा कर शरीर को सहारा दिया और शिकारी कुत्ते की तरह दोनों हाथ उसकी बग़ल के नीचे से डालकर उसको दबोचा और गर्दन के पीछे कंधे के नीचे पूरी ताक़त से दांत ऐसे गड़ा दिए जिन्हें निकालते ही खून बहने लगा।

‘ओह गॉड’.... ओह गॉड’ की मकरूह सी आवाज़ कमरे में चारो ओर चक्कर लगाने लगी। और वह चकराता हुआ कमरे से बाहर उन तंग सीढ़ियों से आड़ा तिरछा होता हुआ नीचे भागा। हाथ से गर्दन का पिछला हिस्सा छुपाए हुए था की कोइ बाहर का देख न ले की वहां गरदन के नीचे किस शेरनी ने उस गंदे काले खून की होली खेली है...! वह तो क्लिनिक भी नहीं जा सकता था की वहां क्या बताएगा? कि क्या गुनाह कर के आया है...! नैन्सी को तो वह मना लेगा पर नैन्सी को काम से वापस आने में काफ़ी समय था।

लिसा समय को हाथ से नहीं जाने देना चाहती थी। माँ की प्रतीक्षा भी नहीं करना चाहती थी। पर ग़ुस्सा और संकोच दोनों एक दूसरे में गड-मड हो रहे थे। पुलिस स्टेशन तो पड़ोस में ही था। उसके एरिया की करप्शन को देखते हुए सरकार ने एक छोटी पुलिस चौकी वहीं बना दी थी। कबूतर के काबुक की तरह बने हुए फ़्लैटों में से एक ग्राउंड फ़्लोर के फ़्लैट में पुलिस स्टेशन था। पुलिस स्वयं भी सामने का दरवाज़ा बंद करके बैठती। पिछले दरवाज़े से आने जाने का काम लिया जाता। जब कभी वे बाहर निकलते तो हथियारों से लैस निकलते और दो तीन एक साथ होते।

लिसा पुलिस चौकी के पिछले दरवाज़े पर तेज़ी से भागती हुई पहुँची। नीले डेन्हिम के शॉर्ट्स उसकी लम्बी लम्बी गुलाबी टांगों के ऊपर टेढ़े होकर फंसे हुए थे। छोटी सी कुर्ती, जिससे उसकी पतली सी कमर झांक रही थी, वह कुर्ती भी उसकी ग़ुस्से से भरी चाल के साथ क्रोध से डोल रही थी। उसके सुनहरे रंग के बाल जो उस समय उलझे हुए सिर के चारों ओर बिखरे पड़े थे। ऐसा लग रहा था जैसे गुलाबी पानी में आग लगी हो।

आग तो उसके भीतर सुलग रही थी। मगर वह डर भी रही थी की अभी जिसको दांतों से उधेड़ चुकी थी फिर कहीं से निकलकर आ न जाए। वह चौकी के पिछले दरवाज़े पर खड़ी घंटी के बटन से हाथ नहीं हटा रही थी। ऐसा लगता था जैसे उसका हाथ घंटी से चिपक गया हो। कभी एक पैर दूसरे पर रखती तो कभी दूसरा पहले पर। इस से बेचैनी का आभास हो रहा था या शायद ऊंची नीची ज़मीन पैरों में चुभ रही थी...

न जाने दोनों छोटी बहने कहाँ होंगी कहीं वह उन दोनों को भी.....! नहीं..नहीं.. नहीं मैं ऐसा नहीं होने दूंगी...! मैं नैन्सी को सब बता दूंगी...घर से निकलवा दूंगी उसको...! यह पुलिस न जाने कहाँ मर गई है..? दरवाज़ा क्यों नहीं खुलता..?

“हेलो लिसा..!”

उसने पलट कर देखा तो पीछे सार्जेन्ट लैंग्ली खड़ा हुआ था.

“कैसे आना हुआ?”

कुछ क्षणों के लिए लिसा का जी चाहा की अपने बाप की तरह अपने दोनों हाथ सार्जेन्ट के गिर्द लपेट कर सीने पर सिर रख कर अपने अन्दर के बंद ग़ुस्से को आंसुओं के साथ उसके सीने में जज़्ब कर दे। अपने दुःख हमेशा की तरह अपने बाप की झोली में डाल कर आप हल्की हो जाए....यही तो हुआ करता था बचपन में जब वह अपसेट होती तो अपने डैड से लिपट जाती और आंसुओं का कटोरा उसके सीने में उंडेल देती। बाप की कमीज़ जब भीगने लगती तो ''अरे लिसा तू रो रही है?'' कहते हुए उसे गोद में उठाकर ज़ोर से लिपटाकर सिर पर प्यार करता और उस वक़्त तक लिपटाए रखता जब तक लिसा आप ही अपना सिर बाप के कन्धों से उठाकर उसके मुंह को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर अपनी ओर न घुमा लेती। दोनों की आँखें मिलतीं, आँखों ही आँखों में दोनों एक दूसरे के प्रति प्यार का यकीन दिला लेते और फिर बाप लिसा को ज़ोर से गदीले सोफे पर पटख़ देता। फिर खूब हँसता और लिसा को छेड़ता की कितनी वज़नी हो गई है मेरे हाथ टूटे जा रहे थे।

“लिसा खाना खाया तुम तीनो ने?”

“नहीं डैड अभी ममी घर नहीं आई..!”

“काम से छुट्टी को तो काफ़ी देर हो गई है..!! ”

''आती ही होंगी डैड।''

''मगर..''

“आओ लिसा अन्दर चलें।” सार्जेन्ट लैंग्ली ने चिंता में डूबी लिसा के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।

बाहर लगी नंबरों की तख़्ती पर उसने कोड नंबर मिलाया और दरवाज़े का हैंडल घुमाकर दरवाज़ा खोलते हुए पहले लिसा को अन्दर चलने को कहा।

भयभीत लिसा...अन्दर जाते हुए झिझकी.. मगर सार्जेन्ट लैंग्ली ने हलके से कंधे पर हाथ रख कर उसे अन्दर कर लिया और जल्दी से बिजली का बटन दबाया तो तीन चार बल्ब एक साथ जल उठे। छोटा सा एक कमरा बाहर ही को बना हुआ था; एक ऊँची सी लिखने पढ़ने वाली मेज़ रखी हुई थी; तीन चार कुर्सियां पड़ी हुई थीं। सार्जेन्ट ने लिसा को बैठ जाने का इशारा किया और ख़ुद दूसरा दरवाज़ा खोलकर दूसरे कमरे के अन्दर चला गया। वहां से टेलीफ़ून पर बातों की आवाजें आने लगीं। अपने साथियों से ऑपरेशन का रिज़ल्ट मालूम कर रहा था। लिसा समझ गई थी कि आज शायद उसके क्षेत्र में छापा पड़ा है। ऐसा अक्सर होता था। कोई अपराधी कहीं भी अपराध करता पर छुपता आकर इसी इलाक़े में था।

“यस लिसा हाउ कैन आई हेल्प यू..?”

सार्जेन्ट ने हाथ में एक राइटिंग पैड और पेन्सिल पकड़ी हुई थी जिसके पीछे रबर लगा हुआ था।

लिसा चौंक गई....घबरा सी गई....मैं यहाँ क्यों आ गई....अब मैं क्या बताऊँ....कैसे बताऊँ..!! माँ के बारे में भी बताना होगा....यह...यह...है कौन...कैसे आया हमारे घर में...?

कितना अच्छा है उसका अपना बाप...कितना शरीफ़...न जाने क्यों माँ ने उससे तलाक़ ले लिया...!!

देखने में भी तो कितना सुन्दर है मेरा बाप...! यह बास्टर्ड तो देखने में ही गिद्ध लगता है... मां शायद बस फंस गई होगी..!!

मेरे पिता के पास तो नौकरी भी थी यह तो हरामखोर है। न जाने क्यों मेरी मां ने हंसता खेलता परिवार श्मशान घाट बना दिया?

“हेलो लिसा...कैसे आना हुआ..?”

लिसा ने अपना मुंह अपनी पतली पतली लम्बी लम्बी उंगलियों वाले हाथों से छिपा लिया और आंखें मूंदकर सिर मेज़ पर टिका दिया। एक लम्बी सांस के साथ डरी हुई शर्मिन्दा सी कांपती हुई आवाज़ में बोलने की कोशिश की, मगर आवाज़ गले में फंस कर अटक गई।

कम ऑन लिसा बोलो जो सच है...

लिसा स्वयं आंखें बन्द किये शुतुरमुर्ग की तरह समझ रही थी कि वह छिप गई है और उसे कोई देख नहीं सकता...

फिर उसने झिझकते हुए कहना शुरू किया। दुर्घटना का विवरण कुछ इस गति से दे रही थी बीच में ना तो कोई अल्पविराम और ना ही विराम। एक सांस में बस तोते की तरह जो कुछ ग़ुबार भीतर भरा था सब उगल दिया

“वह... अधिकतर मेरी छोटी बहनों के साथ कंप्यूटर पर गेम खेलता रहता है या फिर टी.वी. के सामने बैठा क्रिस्प खाता है और गहरे भूरे रंग के कालीन पर बिखेरता रहता है टी.वी. से

अधिक उसके मुंह से निकली कुरुर कुरुर की ध्वनि कानों को बेचैन कर देती है जितना खाता है उतना ही फ़्लोर पर गिराता और फिर बग़ैर साफ़ किये वह नैन्सी के पास कमरे में घुस जाता है और थोड़े ही समय पश्चात् निकलकर किचन में पहुँच जाता है और दूसरे दिन का तमाम खाना खा जाता है। कभी कभी तो सुबह के नाश्ते के लिये टोस्ट भी नहीं बचते हैं। नैन्सी जब सुबह नाश्ता बनाने जाती है तो यह देख कर बहुत प्यार से हंसती है और बाहर निकल जाती है ब्रेड लाने। ना जाने क्यों उसे ग़ुस्सा नहीं आता ? हम बहनों में से अगर कोई ऐसा करे तो गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाती और हम में से एक को दौड़ाती है ब्रेड लाने को। वह पड़ा सोता रहता है और नैन्सी कमरे का दरवाज़ा बाहर से बन्द कर देती है कि कहीं शोर से उठ ना जाए।”

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