जो घर फूंके अपना
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सरकारी ठाठ बाट की बात ही कुछ और है.
"और फिर इलाहाबाद जाकर लड़की देखने की तय्यारियाँ शुरू हो गईं. ” कायदे से तो मेरी कहानी की पिछाड़ी को देखते हुए उसकी अगाडी यही होनी चाहिए थी, पर ऐसा हुआ नहीं. बात ये थी कि लड़की इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एम ए की छात्रा थी. उसकी फ़ाइनल परीक्षा अभी महीनों दूर थी. लड़की वाले तेज़ लोग लगते थे. मुझे लगाए-बझाए भी रखना चाहते थे और साथ ही ये भी कहते थे कि कोई जल्दी नहीं है, कभी भी फुर्सत से देखना दिखाना हो जाएगा. विवाह फ़ाइनल परीक्षा के बाद ही करेंगे (चाहे जिससे करें?)पर मेरे जीजाजी जिनके सर पर सारे पत्रव्यवहार वगैरह का बोझ था पुरानी कहानी नहीं दुहराना चाहते थे कि मैं ढील देता रहूँ और ये लड़की भी किसी एन. आर. आई.. के साथ फुर्र हो जाए. लड़की वालों ने आश्वासन तो दिया था कि उनका चट मंगनी पट ब्याह करके लड़की को अमेरिका जानेवाले जहाज़ में बैठा देने का कोई इरादा नहीं था पर जीजाजी को और कभी कभी मुझे भी ये डर सताता था कि मेरे आशियाने पर ही कहीं बिजली दुबारा न गिरे. फिर भी इस बार लड़की वालों को अपने ठाट बाट से मैं चित्त कर देना चाहता था. जाने को तो मैं इलाहाबाद किसी शनिवार को चलकर, रविवार वहां बिताकर सोमवार की सुबह वापस ड्यूटी पर आ सकता था बिना हर्र फिटकरी खर्च किये अर्थात बिना एक दिन की भी छुट्टी लिए. पर चूँकि बहुत जल्दी नहीं थी सोचा क्यूँ न जाऊं तो ज़रा ठसके से जाऊं. दामाद बनने की प्रक्रिया सरकारी दामाद बन कर टीम टाम के साथ पूरी की जाए तो बात कुछ और होगी.
मैं न तो नेता या मंत्री हूँ न ही किसी बड़े भारी बैंक या एरलाईन्स का मैनेजिंग डाइरेक्टर अतः सरकारी दामाद बनने से मेरा तात्पर्य हवालात या जेल जाने से नहीं था. आज की तरह ही उन दिनों भी इसका अर्थ होता था सरकारी (अर्थात जनता के) पैसों पर ठाट करना. वायुसेना के अफसरों का छोटा सा पर्क था ट्रांसपोर्ट (परिवहन) वाले विमानों में अनाधिकृत यात्रा. छुट्टियों में, विशेषकर आकस्मिक अवकाश में, घर जाने के लिए ये बड़े काम की सुविधा थी. प्रशिक्षण के लिए वैसे भी हमारे विमान यहाँ से वहाँ उड़ते ही रहते थे अतः वास्तव में सरकारी धन का इसमें कोई दुरूपयोग होता नहीं था. हम फौजियों का ठाट "कैश" नहीं बस "काइंड" तक ही सीमित था. वैसे ज़माना बड़ी तेज़ी से प्रगति कर गया है. आजकल के माली केवल फूल नहीं पूरे का पूरा गुलशन ही बेच डालते हैं. जो देश का खनिज उत्पादन देखता है वह कोयले, लोहे के अयस्क वगैरह की पूरी की पूरी खानें खा जाता है. कहता होगा कि जब इसका नाम ही खान है तो मेरे खाने ही के लिए बनी होगी. भगवान न करे ऐसा दिन भी आ जाए जब वायुसेना वाले इनके पदचिन्हों पर चल कर देश का आसमान बेच डालें. खैर, उस समय अपनी आकांक्षा इतने तक सीमित थी कि सरकारी दामाद बन कर जाऊं लड़की देखने. इससे जियादा फौजी अफसर की महत्वाकांक्षा होती भी क्या.
आज की तरह ही उन दिनों भी विवाह योग्य कन्याओं के घरवाले किसी लड़के के विषय में छानबीन करते हुए पहला प्रश्न यही पूछते थे कि उसकी ऊपर की आमदनी कितनी है. बिचारे फौजी अफसर इस प्रश्न के उत्तर में (कम से कम उन दिनों) चुप रह जाते थे. मेरे एक दबंग स्वभाव के दोस्त ने,जो MIG पाइलट था, इस प्रश्न के उत्तर में चिढ़कर कहा था “ अजी हमारी तो पूरी की पूरी कमाई ही ऊपर की होती है “. आशय था कि विमानचालक आसमान में अपने जौहर दिखाने की ही तनख्वाह लेता है. पर प्रश्न पूछने वाले समझदार थे. उन्हें पता था कि सिविल एयरलाईन्स के पाइलट को पूर्वनिश्चित,सुरक्षित वायुमार्गों पर ऐशो आराम के साथ अपना लक्ज़री लाइनर उड़ाने के लिए जो वेतन और भत्ता मिलता है उसका पासंग बराबर भी वायुसेना के पाइलट को नहीं मिलता है जबकि उसे युद्धकालीन परिस्थितियों में दुश्मन के आकाश पर जान की बाज़ी लगानी होती है. युद्ध हो या शान्ति, आवश्यक कल पुर्जों की भयंकर कमी के बावजूद बीसों साल पुराने विमानों को उड़ाने के खतरनाक खेल को हँसते हँसते खेलना होता है. और हाँ, बोनस के रूप में मिलने वाली हवाई सुंदरियों की सेवा सुश्रुषा के तो ये गरीब सपने भी नहीं देख पाते हैं. अतः मेरे दोस्त के’’ऊपर की कमाई’ कहने का अर्थ इन सज्जन ने ये लगाया कि फौजी पाइलट की असली कमाई तो “”ऊपर जाने के बाद” ही हो सकती है. जीते जी तो कुछ होने से रहा. सहानुभूतिपूर्वक बोले “चलिए, आज कल तो जीवन बीमा वाले काफी कुछ दे देते है, अपने नहीं तो कम से कम पीछे छूटनेवालों के काम आ जाता है“
तो फौजी अफसरों को अपनी चकाचौंध दिखाने के अवसर कम मिलते थे, पर मेरी यूनिट अर्थात वायुसेना की वी. आई. पी. स्क्वाड्रन जिसके जिम्मे राष्ट्रपति,प्रधानमन्त्री आदि अति विशिष्ट व्यक्तियों की उड़ान भरने का काम था इस मामले में सौभाग्यशाली थी. ”बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता, वरना इस शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है “ की तर्ज़ पर हमें भी इतराने का अवसर मिल जाता था. जब बड़े साहब का चपरासी बनने में इतना मादक सुख होता है तो राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति,प्रधानमन्त्री का पाइलट बनने का नशा क्यूँकर कम होता. जहाँ भी जाते स्थानीय प्रशासन हमारी सुख सुविधा का पूरा ध्यान रखता. प्रायः कई विशिष्ट व्यक्तियों के दल में उनके महिमामंडल से प्रवाहित होती ऐशोआराम की बहती गंगा में हाथ धोने के लिए उनके साथ केवल उनके निजी सचिवालय के उच्चाधिकारी ही नहीं बल्कि उनका पूरा का पूरा निजी कुनबा आ जाता. तत्कालीन राष्ट्रपति श्री वी वी गिरी के साथ तो उनके पुत्र, पुत्री, जामाता, पुत्रवधुए, पौत्र, पौत्रियों आदि की भीड़ आ जाती थी. इधर सुना, देश की पहली महिला राष्ट्रपति भी अपनी नारीसुलभ ममता अपने प्रिय रिश्तेदारों के ऊपर ऐसे ही मुक्तहस्त से लुटाती थीं, विशेषकर विदेश यात्राओं में. कई केन्द्रीय मंत्रियों के साथ पिछलग्गुओं और चमचों की इतनी भीड़ हो जाती थी कि सुरक्षा नियम यदि मुहलत देते तो हमारा विमान खडी सवारियां भी ले जाता. पाइलट विमान के भरने की प्रतीक्षा में ऊंघता रहता और को-पाइलट जोर जोर से हांक लगाता “चेन्नई चेन्नई,. दो सवारियां बचती हैं जल्दी चढो,जल्दी चढो“ पर ऐसी स्थिति में हम चालकदल के सदस्य घाटे में नहीं रहते थे. जहां जाना होता वहाँ सरकारी विशिष्ट अतिथिगृह और सर्किट हाउस इत्यादि इन साथ में आनेवाले मुफ्तखोरों से भर जाते फिर स्थानीय प्रशासन हमें ठहराने का प्रबंध शहर के सबसे अच्छे सितारा होटलों में करता था. हम भी जहां जाते वहाँ के दर्शनीय स्थानों को देखते और सैर सपाटे का आनंद लेते थे. हमारी अति विशिष्ट सवारियां देश के कोने कोने में जाती रहती थीं अतः हर बड़े शहर में जहां हवाईअड्डे हों, जाने का अवसर मिलता रहता था.
इलाहाबाद जाकर लड़की देखने के लिए मुझे यही उचित लगा कि किसी विशिष्ट व्यक्ति की वहाँ की उड़ान की प्रतीक्षा करूं. कारण दो थे. पहला ये कि विशिष्ट व्यक्ति के महिमामंडल की चकाचौंध में हमारी भी गरिमा बढ़ जाती थी. आखिर दूल्हे के साथ आये बाराती भी अपनी मूंछें ऊपर रखते हैं. दूसरा कारण और भी महत्वपूर्ण था. इलाहाबाद में सवारी के नाम पर केवल साईकिल- रिक्शा या टेम्पो मिलते थे. टैक्सी यदि शहर में एकाध थीं भी तो थोड़ी दूर या थोड़ी देर के लिए नहीं मिलती थीं. अब भावी ससुराल में लड़की देखने के लिए रिक्शे में रिरियाते हुए क्या जाता. टेम्पो में जाना तो और भी गलत होता था. उनमे सवारियों को ऐसे ठूंसा जाता था कि स्टेशन से चौक के बीच में कहीं उतरना हो तो जियादा सुलभ होता कि चौक पहुँच कर वापस गंतव्य जाने के लिए रिक्शा ले लिया जाए. कपड़ों को उतारकर कच्छा बनियान गैंग के सदस्य की तरह चलना और अच्छा होता क्योंकि उतरने के बाद कपडे ऐसे लगते थे जैसे हांडी से अभी अभी निकाल कर पहने गए हों. विशिष्ट उड़ान पर जाने से एक तो पहले ही धाक जम जायेगी कि “लड़का “ राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री का जहाज़ उड़ा कर लाया है. फिर शान से सरकारी “सफ़ेद एम्बैसडर” में बैठकर उसके घर जाने की बात ही कुछ और होगी.
पार्थसारथी कृष्ण द्वारा हांके जाने वाले अर्जुन के रथ की, या सूरज के सात घोड़ों वाले रथ की जो गौरवमयी गरिमा हमारे पौराणिक आख्यानों में वर्णित है उससे कहीं अधिक महिमामंडित परम्परा हमारे देश में दशकों से श्वेत एम्बेसडर कार की रही है. हिन्दुस्तान मोटर्स ने समय से ये कार बना ली होती तो सांताक्लास क्या, स्वयं भगवान् राम ने वनवास जाते हुए श्वेत एम्बेसडर कार का प्रयोग अयोध्या नगर की सीमा तक ऊपर लाल बत्ती चमकाते हुए जाने के लिए किया होता. छोटे मोटे स्थानीय नेता भले अपनी मर्सीडीज़ या बी एम् डब्ल्यू कार का प्रयोग ‘आम आदमी’ की सेवा में लगे रहने के लिए करते हों पर जिस महान नेता के पीछे स्विस बैंकों में जमा अरबों की संपत्ति का संबल हो वह सफ़ेद एम्बेसडर छोड़कर अन्य किसी गाडी में बैठने को कभी राज़ी नहीं होता. हाँ कभी कभी मजबूरी मे सफ़ेद एम्बेसडर त्यागकर हेलीकाप्टर से जाना पड़ जाता है जैसे कर्ज न चुका पा रहे किसी किसान के आत्महत्या कर लेने के अवसर पर या किसी दलित महिला के गैंगरेप हो जाने के अवसर पर फ़टाफ़ट आयोजित फोटो सेशन के लिए पहुँचने की जल्दी में. उनके इस श्वेत रथ के ऊपर चमकती लाल बत्ती गोरे गोरे मुखड़े पे काले काले तिल को मात करती है. इसीलिये उस श्वेत हंस पर सवारी करने का अवसर मिलने पर हमें विशेष आनंद आता था. ‘जिनके हिय में श्रीराम बसे तिन और का नाम लिए न लिए, जिनके द्वारे श्रीगंगा बहें तिन कूप का नीर पिए न पिए’- वाला भजन गुनगुनाते हुए मैंने तय किया कि जब सफ़ेद एम्बेसडर में बैठकर भावी ससुराल में जाना सुनिश्चित हो जाएगा तभी लड़की देखने का पुण्यकार्य करूंगा. तत्कालीन उप राष्ट्रपति श्री जी एस पाठक प्रायः इलाहाबाद के चक्कर लगाते थे –वहीँ के निवासी थे. सोचा धीरज रखकर बैठूं तो उनके साथ जाने का अवसर जल्दी मिल जाएगा. उपराष्ट्रपति का विमान उड़ाकर जाऊं और फिर सफ़ेद एम्बेसडर में बैठकर लड़की के घर पधारूं इससे जियादा धाँसू सीनारियो कालिदास ने दुष्यंत का अपने रथ में सवार होकर कन्द्व ऋषि के आश्रम में पधारने वाले शोट के लिए भी नहीं लिखा होगा. लडकी और उसके माँ बाप सबके ऊपर धमाकेदार असर होगा. छोटी सी दिक्कत ये थी कि विशिष्ट व्यक्तियों की उड़ान के कार्यक्रम अचानक बनते थे अतः धीरज रखकर बैठ गया.
क्रमशः ---------