जो घर फूंके अपना
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सौ सौ सवाल लड़ाकू विमानों पर !
बहुत जल्दी ही समझ में आ गया कितना कठिन था पूरे दो महीने की छुट्टी अपने छोटे से ‘देस’ में बिताना. बस एक सहारा था गंगा के घाटों का जहां संध्या समय घूमने में बहुत मज़ा आता था. सुबह सुबह जाता तो और ज़्यादा मज़ा आता. पर मैं उस बदनामी से डरता था जो सुबह सुबह घाटों की सीढ़ियों पर बैठकर प्राकृतिक कम और मानवीय सौन्दर्य अधिक निहारने वालों की उस छोटे से शहर में हो जाती थी. पिताजी के क्लिनिक जाने के बाद अर्थात नौ दस बजे सुबह गर्मी के दिनों में गंगा के घाटों पर उनके स्थायी निवासी अर्थात पण्डे, भिखारी और आवारा कुत्ते भी नहीं दीखते थे तो मैं वहाँ जाकर क्या करता. अतः मैं गाजीपुर के धूल भरे बाज़ार में अकेला घूमने के लिए निकल पड़ता. रास्ते में कुछ परिचित बुज़ुर्ग लोग जो सेवानिवृत्त थे, घर पर बैठकर पत्नी से झगड़ने और डांट खाने की यातना से बचने के लिए सड़कों पर मेरी तरह से भटकते मिल जाते. मैं नमस्ते करता तो वे बड़ी गर्म जोशी से मिलते फिर साथ चिपक जाते. वायुसैनिकों और वायुसेना से सम्बंधित पचासों सवालों की झड़ी लगा देते. विभिन्न लोगों से पूछे गए इन प्रश्नों को यदि सबसे अधिक बार पूछे गए प्रश्नों के क्रम में अर्थात लोकप्रियता के हिसाब से बताऊँ तो वे और उनके उत्तर इस प्रकार के होते थे:-
प्रश्न: बेटा, तुम्हारे फाइटर जहाज़ में कितने लोग एक साथ बैठते हैं?
उत्तर: अंकल, सिर्फ एक होता है, हाँ ट्रेनर जहाज़ में दो होते हैं.
प्रश्न: क्या केवल कॉकपिट होती है या बैठने के लिए कोई और जगह भी होती है ऐसे जहाज़ में?
उत्तर : नहीं, केवल कॉकपिट होती है.
प्रश्न: तो फिर पाइलट को लघुशंका या दीर्घशंका लगती है तो क्या करता है?
उत्तर: शंका कैसी भी हो, रोकना पड़ता है. फिर फाइटर जेट्स की उड़ाने बहुत लम्बी भी नहीं होती हैं.
प्रश्न : फिर भी लग तो सकती है. यदि ना रोक पाए तो ?
उत्तर : तो फिर वापस आकर लैंड कर जाते हैं और जी भरकर छोटी बड़ी सब शंकाएं मिटाते हैं.
प्रश्न : पर तुरंत लैंड करने की सुविधा न हुई तो?
उत्तर: फिर वही होता है जो आप मुझ से कहलवाना चाहते हैं!
प्रश्न: नहीं, नहीं, मैं तो ये जानना चाहता था कि यदि युद्ध में दुश्मन के जहाज़ का सामना करते हुए ऐसा हुआ तो ?
उत्तर: यदि बाई-चांस दुश्मन भी ऐसे ही स्थिति में हुआ तो दोनों जहाज़ ‘फिर मिलेंगे” कह कर वापस आ जातेहैं..
इसके बाद मैं भी फिर मिलेंगे कह कर भाग निकलता था. पीछे से वे बुजुर्गवार आवाज़ लगाते रह जाते थे “ नहीं, यदि ---------“
लोकप्रियता की पायदानों पर दूसरे नंबर के प्रश्न और उनके उत्तर इस प्रकार के होते थे.
प्रश्न: फाइटर उड़ाते समय यदि इंजन फेल हो जाए तो?
उत्तर : अधिकतर जहाज़ दो इंजन वाले होते हैं. दो में से एक इंजन फेल भी हो जाय तो विमान एक इंजन पर भी उड़ लेते हैं.
प्रश्न : यदि एक इंजन वाला जहाज़ हुआ या दोनों इंजन फेल हो गए तो?
उत्तर : इमेरजेंसी लैंडिंग के लिए जगह तलाशते हैं.
प्रश्न : यदि उपयुक्त जगह न मिली तो?
उत्तर: फिर इजेक्शन सीट से कूद पड़ते हैं. उसका पैराशूट खुलकर बचा लेता है.
प्रश्न : यदि पैराशूट न खुला तो?
उत्तर में मैं चिढ़कर कहता “ फिर वही होता है जो आप मुझ से कहलवाना चाहते हैं. ” इसके बाद मैं पैर पटकता हुआ वहाँ से दफा हो जाता था.
विचित्र बात ये थी कि प्रायः सारे प्रश्नार्थियों का कौतूहल फाइटर विमानों पर ही केन्द्रित होता था. एक दिन पान की दूकान पर एक परिचत पानवाले ने और वहीं खड़े रिक्शेवाले ने भी जब सारे सवाल फाइटर जेट्स के बारे में ही पूछे तो मैंने उनसे कहा “वायुसेना में ट्रांसपोर्ट अर्थात माल और सवारी ले जाने वाले जहाज़ भी होते हैं. तुम लोगों के सारे सवाल लड़ाकू जहाज़ के बारे में ही क्यूँ होते हैं?” रिक्शेवाले ने अपनी पैबंद लगी बनियाइन में उंगलियाँ घुसेड कर पीठ पर खुजली करते हुए कहा “ अरे सवारी वाले जहाज़ में तो कब्बो जाकर देख लेंगे, पर बम बरसाने वाला जहाज़? बाप रे बाप! ओकरा बारे में के बताई. का हो जनेसर हम ठीक कह रहा हूँ न?“ पानवाले ने पान के पत्ते पर चूना लगाते हुए हाँ में हाँ मिलाई. बोला “और का घुरहू, ऊ तो हमलोग कब्बो देख लेंगे, न हुआ तो सायद कब्बो चढ़े को भी मिल जाये. पर भैया फाइटर के बारे में तो बस आपे बता सकत हो न?” इस बार मेरी चुप हो जाने की बारी थी. इन दोनों के तेवर से लग रहा था कि अभी जाकर एयर इंडिया की लन्दन जानेवाली फ्लाईट नहीं तो कम से कम बनारस जाकर दिल्ली तक तो इन्डियन एयर लाइंस के जहाज़ से घूम ही आएंगे. बहरहाल, प्रायः उन्ही पूछे जाने वाले सवालों से तंग आकर एक ओर तो मैं सोचने लगा कि बाकी की बची हुई छुट्टी सरेंडर कर दूं, दूसरी ओर मेरे छोटे से शहर में ये बात जंगल की आग की तरह फ़ैल गयी कि वायुसेना के विमानों में जब पाइलट को लघुशंका या दीर्घशंका लगती है तो वह उड़ते हुए जहाज़ से कूद पड़ता है. अफ़सोस कि प्रायः कूदने के बाद उसका पैराशूट भी नहीं खुलता है. अंत में हज़ारों फीट ऊपर से नीचे ज़मीन पर गिरकर उसका शरीर वह काम करता है जो प्रसिद्द गायिका नूरजहाँ के गीत में दिल करता है अर्थात ‘ इक पाइलट के टुकड़े हज़ार हुए, कोई यहाँ गिरा कोई वहाँ गिरा’ मज़े की बात ये कि जो भी ये बताता था वह सौगंध खाकर कहने को तैयार मिलता कि ये बात उसके ताऊजी ने स्वयं मेरे मुंह से सुनी है. राही मासूम रजा ने जब शिकायत की थी कि “उस शोख ने मुझी को सुनायी मेरी ग़ज़ल“ तो उन्हें अपनी ग़ज़ल इस तरह से तोड़ मरोड़ कर नहीं पेश की गयी होगी वरना उनका मन भी बजाय शायरी करने के मेरी तरह कुश्ती लड़ने का करने लगता.
जब रास्तों पर ऐसे वाहियात सवाल पूछने वाले खूंखार जानवरों की तरह घूम रहे हों तो उन धूल भरी सड़कों पर गर्मी के दिनों में कोई कितना टहल सकता था. तभी एक दिन ध्यान आया कि मेरे घर से कुछ ही दूर बाज़ार में एक टाइपिंग स्कूल है. मैं 1970 की बात कर रहा हूँ. तबतक कम्प्यूटर और प्रिंटर नहीं आये थे. दूकान में लगभग दस बारह टाइपराइटर मेजों पर लगे हुए थे. उनके सामने बैठे लड़के हिन्दी और अंग्रेज़ी टाइपिंग का अभ्यास करते रहते थे. मुझे इतने सारे टाइपरायटरों की समवेत स्वर में पिट – पिट बहुत मजेदार लगती थी. वायुसेना अधिकारियों को साल में दो तीन बार रायफल, रिवोल्वर और स्टेनगन चलाने का अभ्यास करने का अवसर मिलता था. मुझे एक साथ इतने ढेर सारे टाइपराइटर एक साथ चलते हुए स्टेन या लाईट मशीनगन की र-ट-ट–ट ध्वनि की याद दिलाते थे. मेरी छुट्टी में अभी भी चालीस दिन और बचते थे. एक दिन मन में आया कि इस बीच क्यूँ न टाइपरायटिंग सीख लूं. रोज़ एकाध घंटे का समय कट जाएगा. दूकान के मालिक पिताजी के अच्छे परिचित थे. उन्होंने सहर्ष अपनी दूकान में स्वागत किया. मैंने फीस के बारे में पूछा तो बोले “अरे, आपसे क्या फीस लूँगा, घर की बात है“ मैंने बहुत आग्रह किया तो बोले “आप सीखना शुरू कर दीजिये, फीस की बाद में देख लेंगे. ” मैंने ध्यान नहीं दिया कि हमारी बात वहाँ के दो चार प्रशिक्षार्थी लड़के भी सुन रहे थे. मैंने टाइपरायटिंग का प्रशिक्षण उसी दिन से शुरू कर दिया.
क्रमशः ----------