दास्ताँ ए दर्द !
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आज सत्ती काफ़ी सहज लग रही थी, उस दिन के मुकाबले | न जाने क्या कारण था ? शायद वह रीता से काफ़ी खुली हुई थी, रीता ने कभी उसके तंग समय में उसकी बहुत सहायता की थी | यूँ, देखा जाए तो उसका समय आज भी लगभग वैसा ही था किन्तु किसी बात को बार-बार आख़िर कितनी बार दोहराया जा सकता है !कोई किसीकी कितनी सहायता कर सकता है ?किसी भी रूप में सही |
चाय पीते समय भी एक सहमी हुई शांति पूरे वातावरण में पसरी रही, किसीको भी समझ नहीं आ रहा था बात कहाँ से और कैसे शुरू की जाए?वैसे इच्छा तो प्रज्ञा की ही थी उससे मिलने की इसलिए बात तो उसे ही शुरू करनी चाहिए थी, पर न जाने क्यों कर नहीं सकी |शब्द जैसे दिमाग़ की दीवार से टकराकर लौट रहे थे, मुख से नहीं निकल पा रहे थे
"आपको पता है, दीदी लिखती हैं ---किताबें, कविताएं, कहानियाँ ----?"रीता ने बात शुरू करने के लिहाज़ से सत्ती से पूछा |
"हाँ, सुनाई तो थी वहाँ पे कविता ----" धीमे से सत्ती ने उत्तर दिया | प्रज्ञा और रीता को अच्छा लगा, कुछ बोली तो सही | वह कुछ देर चुप रही फिर अचानक बोली ;
" कहानी लिखनी है तो मेरी लिख न कहानी, पता वी चल्ले लोक्का नु कि एहो जई बी होंदी ए जिनगी ---"सत्ती जैसे भड़ककर बोली |
"आप अपने बारे में कुछ बताएंगी नहीं तो कैसे पता चलेगा मुझे कि ज़िदगी के कितने अलग रूप होते हैं तभी तो लिख पाऊँगी कुछ ---|" कुछ कहना था सो कह दिया प्रज्ञा ने |
"इसने तो बताया होएगा न मेरे बारे में ---?"सत्ती ने रीता की ओर इशारा करके प्रज्ञा से पूछा |
"इसके और आपके बताने में फ़र्क नहीं होगा ? आपकी तकलीफ़ आप ही समझ सकती हैं न ?"
प्रज्ञा सत्ती के मन को खोलने की कोशिश में लगी हुई थी और सत्ती समझ नहीं पा रही थी कि अपनी कौनसी बातें उससे शेयर करे और कौनसी छिपा जाए ?
"तुस्सी सारियाँ गल्लां दस दो न ---छिपाना क्या है ? " रीता ने अपनी बात पंजाबी व हिंदी में मिलाकर उन्हें समझाने की कोशिश की |
सत्ती इस बात पर तैयार हुई कि प्रज्ञा उसकी पूरी की पूरी कहानी लिखकर ईमानदारी से छपवा देगी और उसके पास भी भेजेगी | प्रज्ञा ने 'हाँ'में गर्दन हिलाई और सत्ती खुद को संभालकर अपनी कथा सुनाने के लिए शब्द खोजने लगी |
अचानक 'फट्ट'से सामने से गेंद आकर रीता के कम्पाउंड में बाहर बने हुए स्टोर-रूम से आ टकराई | यह ज़ेड की शरारत थी जो वह अक़्सर करती थी | रीता को उठकर दरवाज़ा खोलना पड़ा | ज़ेड और उसका दोस्त बाहर सड़क पर गेंद उछाल रहे थे जो भीतर स्टोर-रूम की दीवार से टकराई थी | यह कोई नई बात नहीं थी, ज़ेड का हर दूसरे दिन का काम था कोई न कोई ऎसी शरारत करना जिससे रीता के परिवार के किसी भी सदस्य को कुछ न कुछ परेशानी हो |
रीता ने अपने घर का मुख्य द्वार खोला, दाहिनी ओर स्टोर से टकराकर गेंद थोड़ी दूरी पर उसके कंपाउंड में ठहर गई थी |
" माय बॉल ---"ज़ेड को कोई झिझक न थी |वह अपने दोस्त के साथ सड़क पर खड़ी खींसें निपोर रही थी | इस घर के बच्चे झूठे को भी कभी कोई गलती कर दें तो बबाल मच जाए और ये कुछ भी करती रहे तो इन्हें अपने मुख पर टेप चिपकानी पड़े, ये क्या बात हुई ? देव तो कुछ बोल ही नहीं पाता था, उसका गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ जाता और शब्द इधर-उधर लँगड़ाने लगते | वह रीता पर ही फट सकता था और रीता कमरे में गुम हो खुद पर सारा गुस्सा निकाल लेती | कभी रोकर, कभी चिल्लाकर फिर भी यह रीता ही थी जो उस लड़की को किसी न किसी तरह रोक ही लेती थी और बात करके जहाँ तक हो सँभालने की कोशिश ही करती | वैसे वहाँ का माहौल था भी ऐसा कि कोई किसीके फटे में टाँग अड़ाता ही न था |
रीता का परिवार ज़ेड के परिवार के आने से पहले ही यहाँ घर खरीद चुका था | अब तक इन्हें यह पता नहीं चला था कि इस घर में उन्हें इतनी परेशानी का सामना करना पड़ेगा | और सब भी तो ब्रिटिश ही थे यहाँ लेकिन उनसे कभी किसी भी बात पर परिवार के किसी भी सदस्य की बोलाचाल तक नहीं हुई थी |बल्कि सामने मिलने पर मुस्कुराकर 'हैलो' होती | कभी-कभार क्रिसमस जैसे त्यौहार पर एक-दूसरे के परिवारों में विज़िट भी कर लेते |
दो वर्ष पूर्व ज़ेड का परिवार यहाँ पर किराए पर रहने आया तबसे ही रीता के परिवार की मुसीबत शुरू हुई थी | रीता ने उस समय ज़ेड की गेंद उठाकर देने में ही भलाई समझी | उस बद्तमीज़ लड़की से उलझने का कोई अर्थ न था |
सत्ती ने अपने पंजाबी व हिंदी के मिले-जुले शब्दों में अपनी आपबीती सुनानी शुरू की, वह रोते-गाते अपनी बात कहती रही, साथ ही एक चुनौती सी भी देती रही उस पीड़ा को कागज़ पर उतारने की |वह प्रज्ञा से अपनी आपबीती को कागज़ पर उतारने की बार-बार प्रार्थना करती रही, पर एक दबंग व चुनौती भरे अंदाज़ में |
उस दिन सत्ती काफ़ी देर उसके पास बैठी, जैसे-जैसे वह खुलती गई उसके मुख और आँखों से करुण-कथा एक ऐसे झरने की तरह बहने लगी जिसका ओर-छोर किसी को दिखाई नहीं देता था, केवल बहाव के झरने का रुदन स्वर वातावरण में सुबकता रहा था | उसके उद्गम स्त्रोत से लेकर उसके लक्ष्य के बारे में किसीको पता नहीं चलता, वो तो बस उस दिशा में चलता रहता है जिसमें उसे पकृति चला देती है |
प्रज्ञा मुँह खोले, आँखें फाड़े सत्ती के सामने देखती रही और सत्ती बस ---बहती रही |काफ़ी देर बाद जब वह चुप हुई तब तक बहुत थक चुकी थी, बेहद ! टूटने की हद तक -- जैसे कोई भूखा-प्यासा मुसाफिर किसी वृक्ष की छाँह तलाशने को, सुस्ताने को हाँफ जाता है |
वह अपने सूखे चेहरे को अपने दुप्पट्टे से पोंछने लगी जैसे कोई श्रमिक अपने श्रम के स्वेद-बिंदु पोंछता है पर उसके चेहरे पर अब न तो पसीना था और न ही आँखों में आँसू | बरसों से उसके आँसुओं ने उसका साथ छोड़ दिया था, उनकी जगह पर आँखों में लावा भर गया था | आज न जाने कितने लंबे समय के बाद प्रज्ञा के सामने रोई भी और उसकी आँखों ने लावा भी उगला |
" बस, जी ---जेई मेरी कहाणी हैगी जी, किन्ने लोगां ने मैं सुना दित्ती, कौन बेला बैठा है जी जो आत्मा सहला सके ---वैसे होणा बी की ए बस --दिल नु तसल्ली, थोड़ी जेई ठंड पड़ जानी ए, काणजे विच्च --"
" आपके लिए ज़्यादा तो कुछ कर नहीं सकती पर आपकी कहानी समाज के सामने ला तो सकती ही हूँ | "कुछ रुककर प्रज्ञा ने धीरे से उसका हाथ सहलाया --
" आपकी सारी पीड़ा पर मैं लिखूँगी पर इस भाषा में नहीं लिख सकूँगी जो आप बोलती हैं |'
" हाँ--जिसमें भी लिखो, लिक्खो तो सही | हिंदी तो पढ़ लेती हूँ मैं | वो भी वेख लावेंगे जी ----पढ़ लेवेंगे "अचानक सत्ती उठ खड़ी हुई और उसने प्रज्ञा की तरफ़ हाथ जोड़े और रीता से पूछा ;
"तुस्सी आवोगे के मैं केल्ली जावां ?"
"अरे नहीं, मैं आती हूँ न---" अपनी गाड़ी की चाबी उठाकर रीता उठ खड़ी हुई |
"लो, ये लोग भी आ गए ---" बाहर से गाड़ी रुकने की और बच्चों की आवाज़ सुनी रीता ने |
"चलिए, आप भी चलिए, इनको छोड़कर आते हैं ----"
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