Dasta e dard - 11 in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | दास्ताँ ए दर्द ! - 11

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दास्ताँ ए दर्द ! - 11

दास्ताँ ए दर्द !

11

प्रज्ञा के भारत वापिस लौटने के अब कुछ दिन ही शेष रहे थे, समय बीतता जा रहा था और उसके मन में सतवंत कौर यानि सत्ती के प्रति और भी अधिक उत्सुकता बढ़ती जा रही थी | देव और रीता दोनों ही सप्ताह के पाँच दिन अपने -अपने काम में व्यस्त रहते थे | सत्ती को घर पर लाने के लिए समय निकालना था |शनिवार को यूँ तो रीता व देव मॉल जाकर सप्ताह भर का राशन-पानी, घर का ज़रूरी सामान इक्क्ठा लाकर रख देते लेकिन उस दिन रीता ने कुछ ऐसा माहौल बनाया कि बच्चे देव के साथ बाज़ार चले जाएंगे और इस शर्त पर कि देव उन्हें लंच के लिए 'रेस्टोरेंट' लेकर जाएंगे, वे देव को घर का सामान लाने में सहायता कर देंगे | वैसे भी रीता बच्चों के सामने सत्ती की बातें करना नहीं चाहती थी | बच्चे न तो इतने छोटे थे और न ही अनभिज्ञ ! पर यह भी कि सत्ती उनके सामने खुलकर बात नहीं कर पाती इसीलिए रीता ने देव के साथ मिलकर यह कार्यक्रम बनाया था |

उनके जाने के बाद रीता ने अपनी गाड़ी की चाबी उठाई;

"आप चलेंगी दीदी या मैं ही जाकर उन्हें यहीं ले आऊँ?"उसने प्रज्ञा से पूछा |वैसे तय तो यही हुआ था कि रीता सत्तो को घर पर ही ले आएगी, शायद रीता ने वैसे ही पूछ लिया था |

हम कई बार कुछ बातें वैसे ही, बेकार में ही करते रहते हैं जैसे किसीको आया देखकर, "अरे ! आप आ गए ?"अरे ! भाई आ गए तभी तो तुम्हारे सामने खड़े हैं | "

"खाना खा लिया ?" अरे भाई ! सामने प्लेट खाली है तो खा ही लिया होगा न !

प्रतिदिन हम बहुत सी ऎसी ही बातें करते हैं जो बाद में सोचने पर हमें लगता है कि हम कितने बड़े ------हैं ! वह हँसने को हुई पर रोककर रखा उसने हँसी को, नहीं तो रीता उसके हँसने का कारण पूछती और उसे बेकार की बात में समय ख़राब करना पड़ता |

"तुम ही ले आओ, हो सकता है वहाँ पर बात करने में वो कम्फ़र्टेबल न हों---"

"हाँ, ये तो है ---मैं आती हूँ दीदी ---"रीता घर से बाहर निकल गई |

रीता जिस इलाके में रहती थी, उसके मुहल्ले में केवल ब्रिटिश रहते थे | रीता के सामने वाले घर में एक अँग्रेज़ स्त्री को उसने तीन लड़कियों के साथ देखा था | उनमें से एक लड़की टीन-एज की लगती थी, लगभग सोलह -सत्रह वर्ष की जबकि दूसरी दो लड़कियाँ छोटी थीं | रीता ने बताया था वो ट्विन्स थीं, लगभग 4/5 साल की |

बड़ी लड़की का नाम ज़ेड था, ये बड़ी लड़की उस स्त्री के पहले पति की थी जिसको वो छोड़ चुका था और ये दो छोटी बेटियाँ उसके वर्तमान प्रेमी की थीं जो अपनी माँ के पास रहती थीं, अपनी सौतेली बहन के साथ ! बड़ी लड़की अपनी माँ के कहने में नहीं थी| उसकी माँ का प्रेमी लगभग हर दिन वहाँ आता और उसकी माँ और दोनों सौतेली बहनों को गाड़ी में बैठाकर कहीं ले जाता था, शायद --घूमने-फिरने या डिनर-विनर पर | प्रज्ञा ने देखा कि बाहर जाने वाला जोड़ा ज़ेड को भी अपने साथ चलने का निमंत्रण देता लेकिन वह अभिमानी लड़की झिड़क देती --

" नो ---यू आर नॉट माय डैड --" वह इस बुरी तरह दुतकारती कि खिड़की में पर्दे के पीछे खड़ी प्रज्ञा भी भन्ना जाती, 'क्या बद्तमीज़ लड़की है !'

यह सब प्रज्ञा कई बार सिटिंग रूम की खिड़की से देख चुकी थी |

माँ के बाहर जाते ही ज़ेड का प्रेमी उसके पास आ जाता | वो दोनों या तो कमरे में बंद हो जाते या फिर सड़क पर चलते हुए भारतीयों के साथ बदतमीज़ी करते, वैसे उस सड़क पर उसने भारतीयों को कम ही देखा था फिर भी सड़क तो सबके लिए खुली थी और ब्रिटिश परिवारों में भी कुछ के भारतीय मित्र तो थे ही जिनका यदा-कदा आना-जाना लगा रहता | प्रज्ञा ने महसूस किया था न जाने क्यों ज़ेड के मन में रीता के भारतीय परिवार के प्रति कुछ अधिक ही नकारत्मकता भरी थी | कभी वह साइकिल चलाते हुए जान-बूझकर रिंसी के साथ टकराकर उसे गिरा देती, कभी आकाश को अपने प्रेमी के साथ मिलकर गालियाँ देने लगती |

"दीदी ! अभी ज़ेड बाहर ही खड़ी है, आप अंदर ही रहना, बेकार ही कोई मुसीबत खड़ी कर दे तो खामखाँ आप परेशान होंगी ---" रीता जब भी बाहर जाती या प्रज्ञा अकेली बाहर जाने को होती रीता कुछ ऐसे ही संवाद बोलती थी | उसने इस लड़की को कई बार समझाने की कोशिश की थी, उसकी माँ से भी बात की थी पर ज़ेड के सिर में जूँ नहीं रेंगी थी| माँ ने 'सॉरी' कहकर कहा था कि वह विवश है, ज़ेड उसका कोई भी कहना नहीं मानती है | ज़ेड के मुकाबले में उसकी माँ जेनी अधिक तहज़ीब से बात करती थी |

'शायद ज़ेड का बचपन भी किसी दुर्घटना की भेंट चढ़ गया था', प्रज्ञा को कई बार महसूस हुआ |

हारकर रीता ने पुलिस में रिपोर्ट कर दी थी | प्रज्ञा के सामने भी दो बार पुलिस आई थी और प्रज्ञा से भी उस लंबी, खूबसूरत पुलिसवाली ने पूछताछ की थी जो एक बहुत ही सुन्दर, लंबे -तगड़े घोड़े पर सवार होकर आई थी, उसके साथ एक मेल कॉन्स्टेबल भी था पर महिला होने के नाते उस महिला कॉन्स्टेबल ने ही उससे पूछताछ की थी |

वैसे अब तक उसे ज़ेड के व्यवहार में कोई ख़ास अंतर तो दिखाई नहीं दिया था | बस, दो-एक दिन वह दिखाई नहीं दी थी लेकिन बाद में वही ढाक के तीन पात !शायद ज़ेड के मन में यह बात थी कि वो स्थानीय है और पुलिस भी उनकी अपनी है |

रीता के जाने के बाद प्रज्ञा सिटिंग रूम की उस कुर्सी पर आ बैठी जहाँ से बाहर का नज़ारा साफ़ दिखाई देता था | ज़ेड अपने दोस्त के साथ रीता के घर की ओर देखकर न जाने क्या बात कर रही थी, उसके हाव-भाव से पता चल रहा था कि वह कुछ ग़लत शब्दों का इस्तेमाल कर रही है | रीता ने उसके गोरे मुख पर कुछ बेहूदी सी परछाइयों को तैरते देखा और उसे कोफ़्त हुई |उसके सुन्दर, गुलाबी मुखड़े पर नफ़रत के भाव चुगली खा रहे थे | आप कितने भी खूबसूरत क्यों न हों, आपके भीतर सिमटे भाव आपकी पोल खोल ही देते हैं, चेहरे पर आकर चुगली खाने लगते हैं और आपकी खूबसूरती ख़ाक में मिल जाती है | अपनी 'टीन एज'में ज़ेड को सही मार्गदर्शन की ज़रूरत थी जबकि उसका बालपन भी पिता के साथ न रहने पर सूखे फूलों का उजड़ा बगीचा ही रहा होगा |

संवेदनशील प्रज्ञा को महसूस हुआ वह ज़ेड को समझाने का प्रयत्न करे जबकि उसे यह समझने की ज़रुरत थी कि यह उसका पागलपन था | आख़िर ज़ेड उसकी बात क्यों मानेगी?प्रज्ञा को अपनी बेटी की नसीहत भी याद आ गई थी जो कहा करती थी;

"माँ, ज़िंदगी में हर तरह के लोग मिलते हैं, आप सबको समझाने क्यों बैठ जाती हैं ? ज़रूरी नहीं कि आपकी बात से लोग सहमत हों, क्यों हम किसीके फटे में टाँग अड़ाएं ?"

फिर यह तो न अपना देश था न ही अपनी मानसिकता के लोग ! सच ! वह खामाखां क्यों किसीके बारे में सोचती है ? रीता ने भी उसे समझाया था कि वह किसीसे कुछ बात न करे | अपने मन के विचार को उसने झटका देकर बाहर निकाल दिया | उसकी सोच को रीता की गाड़ी रुकने की आवाज़ ने भंग कर दिया और वह मकान के सिंह द्वार की ओर आ गई |

प्रज्ञा ने रीता और सतवंत कौर के दरवाज़े पर पहुँचने से पहले ही दरवाज़ा खोल दिया था |

"आइए ----" प्रज्ञा ने सत्ती के सामने नमस्कार मुद्रा में हाथ जोड़ दिए थे |

वृद्धा ने उसके स्वागत का कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप अंदर प्रवेश कर गई | दो मिनट बाद ही रीता भी गाड़ी पार्क करके आ गई थी | अब वे सब सिटिंग रूम में थे |

बात शुरू करने में ख़ासी झिझक व परेशानी हो रही थी | कौन बात शुरू करे और किस प्रकार बात की शुरुआत की जाए?

"चाय बनाकर लाती हूँ, फिर बैठेंगे ---"रीता सत्ती को प्रज्ञा के पास छोड़कर चाय के बहाने खिसक गई थी |

प्रज्ञा ने अब सतवंत कौर को ध्यान से देखा, चिट्टे रंग वाली, लंबी, आकर्षक स्त्री थी वह जिसमें ख़ासा आकर्षण था |'खंडहर बता रहे हैं इमारत बुलंद थी '| सत्ती वैसे कोई इतनी बड़ी नहीं थी के उसे खंडहर कहा जाता पर मुख पर सदा एक चिंता, बेचारगी और बेबसी की मिश्रित चित्रकारी बनी रहती | माथे की सलवटें साफ़ दिखाई देतीं ! कुल मिलाकर अपने सुंदर चेहरे को उसने एक ऐसा पोस्टर सा बना लिया था जो किसीको भी मुस्कुराहट न दे पाता | या यह कहना अधिक उचित है शायद भाग्य के थपेड़ों ने उसके चेहरे को झंझावात बनाकर रख दिया था |

सत्ती ने घूरकर प्रज्ञा को ऐसे देखा कि एक चोर सा भय उसकी आँखों में उतर आया | रीता जल्दी ही चाय की ट्रे में तीन कप चाय के साथ कुछ नाश्ता लेकर आ गई थी |

"अरे ! आप लोगों ने बात ही शुरू नहीं की ?"रीता ने बड़ी मासूमियत से पूछा जैसे वह सबको एक नॉर्मल स्थिति में लाना चाहती थी |

"की बात करनी हैगी सान्नू ----?"सत्ती का मुख खुला |

"पहले तो बताऊँ --ये मेरी दीदी है, सत्तो पैंजी ---"

"तेरी पैन के देव की पैन ---?"

"हम दोनों की ही --"रीता हँस पड़ी |

सत्ती ने आँखें मिचमिचाकर प्रज्ञा की तरफ़ देखा जैसे उसकी असलियत पहचानना चाहती हो |

*****