Dasta e dard - 6 in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | दास्ताँ ए दर्द ! - 6

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दास्ताँ ए दर्द ! - 6

दास्ताँ ए दर्द !

6

लंदन के जिस शहर में रीता रहती थी उसका नाम था 'लैमिंगटन स्पा '! प्रज्ञा इस बार भी आई तो अपने किसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में थी पर जब आई ही थी तो थोड़ी छुट्टियाँ बढ़ाकर ही लाई थी जिससे दोस्तों के पास, अघिकतर रीता के पास रहकर कुछ दिन एन्जॉय कर सके, बीते दिनों की पुरवाई को छू सके |

प्रज्ञा कई दोस्तों के पास कुछ दिन रहना चाहती थी इस बार, जिनसे पिछली बार मिल भी नहीं पाई थी किन्तु रीता और देव ने उसे कहीं जाने ही नहीं दिया | या तो अपने घर पर उसके मित्रों को आमंत्रित कर लेते या समय होता तो उसे उनके यहाँ मिलवाने ले जाते | कुछ रिश्ते ख़ून के नहीं होते, दिल के होते हैं | यह रिश्ता भी प्रज्ञा के लिए ऐसा ही था | कहीं पर भी रहें उन रिश्तों की धमनियों में मुहब्बत का ख़ून उन्हें जिलाए रखता |

जब समय होता रीता अकेली उसे घुमा लाती आस-पास , कुछ दिनों बाद तो उसने स्वयं भी जाना शुरू कर दिया था | लंदन की गलियों में साफ़-सुथरी , बिना किसी प्रकार की आवाज़ों व धूएँ -धक्कड़ के असीम शांतिमय वातावरण में घूमने में उसे बड़ा आनंद आने लगा | यूँ पहली बार जब वह हीथ्रो एयरपोर्ट पर उतरकर उस स्थान पर पहुँची थी जहाँ उसका काम था, उसकी आँखों में अपने घर की याद के बादल गहराने लगे थे |

'कैसा देश है मरा, जहाँ चिड़ियाँ भी पर नहीं मारतीं , भला पक्षियों की आवाज़ व उनकी परवाज़ को कौन रोक सकता है ? पशु -पक्षी भी काम पर चले जाते हैं क्या?' अपनी बेवकूफ़ी भरी सोच पर वह खुद पर ही हँस पड़ी | शुक्र था, उस समय उसके आसपास कोई नहीं था वरना उससे पूछा ज़रूर जाता कि आख़िर वह कौनसी बात है जिस पर वह इतनी खुलकर हँस पड़ी थी ?

किंतु कुछ दिनों में ही वह उस स्थान की शान्ति में खोने लगी | हाँ, क्या मुश्किल है, जो लोग यहाँ आते हैं उनके शरीर में इस आबोहवा का जम जाना और फिर अपने देश की गलियों में धूल-गर्द के प्रति नाक-मुंह सिकोड़ना ! जो विदेश की भूमि पर आ गया वो यहाँ से लौटना ही तो नहीं चाहता | सुख -सुविधाओं के अलावा यहाँ आदमी तमीज़ के पायजामे में बड़े सलीके से अपने को समेटकर रखता है | डंडे की मार अच्छे अच्छों को ठीक करके रखती है जी ! अपने देश के घर लौटते ही आदमी सारी तहज़ीब भूल-भुलाकर फिर से अपनी असलियत पर लौट आता है | कहीं भी कूड़ा -करकट फेंकने से लेकर थूकने और भी छोटी-छोटी बातों व नियमों का पालन न करने में वही आदमी अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझने लगता है जो विदेशों में सलीके से रहने के लिए बाध्य होता है जैसे अपना देश तो वह उस बच्चे की गुदड़ी हो गया जो सू-सू, पॉटी बिस्तर में ही कर देता है | | उनकी बात और है जो 'N R I' का तमग़ा पहनकर अपने देश लौटते हैं | उनसे तो लोग वैसे ही दबे दिखाई देते हैं |

रीता एक दिन अचानक पूछ बैठी,

"दीदी ! वो कल आपसे मिलने आईं थीं न --- वो पंजाबी लेडी --- दीक्षा, वो हफ़्ते में एक दिन किसी जगह जाती हैं ओल्ड लेडीज़ को एंटरटेन करने, वो पूछ रही थीं आपके लिए | आप जाना चाहेंगी क्या वहाँ ?"

" मैं ---जानती तो हूँ नहीं किसी को ?"

"जान तो गई हैं दीक्षा को "

" हाँ, यूँ तो मुझे लायब्रेरी में भी वो ही ले गई थीं, अपनी कार में ---" उसने कहा |

प्रज्ञा की सहमति जानकर रीता ने दीक्षा को फ़ोन कर दिया और अपने कार्य में व्यस्त हो गई |

रीता का घर लंदन के मिडिल-क्लास घरों जैसा ही था | दो मंज़िला घर जिसमें नीचे एक बीच के कद की बैठक यानि सिटिंग-रूम , उससे सटा एक छोटा सा इतना बड़ा कमरा जिसमें एक पलंग, एक अलमारी व एक कुर्सी भर आ सके | जब वह पहले यहाँ आई थी तब रीता ने कहा था --

"दीदी ! ये आपका कमरा --यानि हमारा गैस्ट-रूम --" पहली बार जब वह इस कमरे में आई थी उसकी ऑंखें क्षण भर में ही चारों ओर घूम गईं थीं | जहाँ से शुरू हुई थी उसकी दृष्टि वहीं पर मिनट भर में आकर सिमट गई थी | जैसे कोई छोटी सी सुरंग !क्षण भर के लिए उसमें से निकलकर फिर उजाले की दुनिया में पहुँच जाता है आदमी !

" बहुत बड़ा है न ? ----" रीता की व्यंग्य से भरी खनखनाती हँसी ने उसे भी मुस्कुराने पर मज़बूर कर दिया था और आगे बढ़कर वह कुर्सी पर जम गई थी | अपने हिसाब से रीता ने उस छोटे से कमरे में अपने मेहमानों के लिए सभी मूल सुविधाएं मुहय्या कराने का प्रयत्न किया था |

वहाँ से उसे कमरे के सामने एक लॉबी दिखाई दे रही थी जहाँ दस / पंद्रह कदम पर बाईं ओर छोटा दरवाज़ा व दाहिनी ओर बड़ा दरवाज़ा दिखाई दे रहा था | एक तरफ़ टॉयलेट था तो दूसरी ओर रसोईघर !

" दीदी ! नहाने के लिए दो बाथरूम्स ऊपर हैं ---नीचे केवल रात के यूज़ के लिए टॉयलेट ---वैसे ऊपर दो कमरे और भी हैं पर सीढ़ियाँ चढ़ने की दिक्क्त रहती है बार-बार|" उस बार रीता अलमारी खोलकर उसके कपड़े लगाती जा रही थी औरअपने घर के नक्शे से उसका परिचय कराती जा रही थी |इस बार तो वह रीता के घर भूगोल से परिचित थी | रीता उसकी अटैची खोलकर खुद ही उसके कपड़े लगाती थी फिर ख़ाली अटैची को अलमारी के ऊपर चढ़ा देती |

इस बार उसे कपड़े लगाते छोड़कर प्रज्ञा लॉबी में आ गई, जहाँ एक ओर बड़ा सा 'गार्बेज-कंटेनर' रखा था जिसमें से काले रंग का बड़ा सा प्लास्टिक-बैग झाँक रहा था | सामने का दरवाज़ा पीछे गार्डन में खुलता था |

उसने लॉबी का दरवाज़ा खोला और दरवाज़े के बीच में खड़ी होकर बाहर का दृश्य निहारने लगी | गार्डन में फूलों की बहुत सी वैरायटीज़ थीं | लगभग हर रंग के गुलाबों को मुस्कुराते देखकर उसका मन खुश हो गया |मौसम भी खुशगवार था | साइड में एक शेड सा बना हुआ था जिसमें एक्स्ट्रा सामान शरण लेता था, वह कभी ज़रुरत पड़ने पर ही खोला जाता था |उस शेड डले छोटे कमरे में एक खिड़की भी थी जिसका मुह गार्डन की ओर था | उसकी दृष्टि उस खिड़की के दरवाज़े पर पड़ी जिसमें से एक बेहद खूबसूरत हृष्ट-पुष्ट नीली आँखों वाली बिल्ली झाँक रही थी |उसके झाँकने के खूबसूरत अंदाज़ से प्रज्ञा के मुख की मुस्कुराहट और भी चौड़ी हो गई , यानि इस छोटी सी जगह से भी ज़िंदगी झाँक रही थी !

गार्डन के ठीक पीछे एक रेलवे-लाईन थी जिस पर समय -समय पर रेलें गुज़रतीं जिनकी आवाज़ बहुत कर्ण -कटु न होती | जैसे कोई लंबी चीज़ देर तक थोड़ी सी महीन सी आवाज़ के साथ सरक रही हो | बस---खूबसूरत सी साफ़-सुथरी गाड़ी ! स्थानीय रेलगाड़ी में बंद गोरे-चिट्टे लोगों के उसमें बंद होने की उसने कल्पना की और पीछे घूमकर देखा, रीता ने उसकी अटैची को अलमारी के ऊपर रख दिया था और बाहर आ रही थी |

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