दास्ताँ ए दर्द !
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उस दिन प्रज्ञा वास्तव में बहुत थक गई थी, बाद में मानसिक रूप से भी उन महाराज के वचनों व वहाँ की परिस्थिति ने उसमें अजीब सी थकान भर दी थी ! अगले दिन उसने सारी कहानी रीता को बताई ;
"दीदी ! अपने सर्वाइवल के लिए न जाने आदमी क्या-क्या नाटक करता है ---!!" उसने व्यंग्य से कहा | यह कहते हुए उसने एक लंबी साँस खींची थी |
" सर्वाइवल नहीं केवल ----" वह कोई कठोर बात बोलने जा रही थी, रीता का उतरा चेहरा देखकर चुप रह गई | चतुरानन्द का काइयाँ चेहरा व दृष्टि उसकी आँखों में से ओझल ही नहीं रही थी |
प्रज्ञा बहुत अच्छी तरह जानती, समझती थी रीता की परेशानी व असहजता ! वह एक ऐसे सरकारी ब्रिटिश स्कूल में गणित की अध्यापिका थी जहाँ उसके अतिरिक्त कोई भी 'एशियन' नहीं था | उसको सताने के लिए न जाने कितने बच्चे ऐसे थे जो पढ़ने के नाम पर सरकारी बंदिश पर समय गुज़ारने स्कूल आते थे और न जाने कैसी-कैसी हरकतें करते थे | |उनके ऊपर दसवीं का लेबल चिपकना ज़रूरी था |
रीता को उसने स्कूल से आकर गाड़ी पार्क करके सीधे ऊपर अपने कमरे में भागते देखा था, इतनी हँसमुख और सभ्य रीता का वह आचरण उसके लिए अजीब सा ही था | दो-एक बार तो वह टाल गई किन्तु जब हर दिन उसने स्कूल से आने के बाद रीता का ऐसा उखड़ा सा व्यवहार देखा, वह पूछे बिना रह नहीं सकी |
"दीदी ! मज़बूरी है, यहाँ काम करना ---"वह प्रज्ञा को बताकर दुखी नहीं करना चाहती थी |
प्रज्ञा के बहुत इसरार पर उसने जो बताया था, प्रज्ञा के रौंगटे खड़े होने के साथ ही मन पीड़ा से भर उठा था |सच ही कहती थी वह 'न जाने अपने सर्वाइवल के लिए इंसान जाने क्या-क्या करता है !'पर यह सबके लिए लागू हो ज़रूरी नहीं, आधुनिकता व ऐश्वर्य की होड़ आज के आदमी को बीमार कर रही है ----रीता की वेदना कुछ और ही थी |
एकमात्र एशियन होने के कारण रीता को अपने स्कूल में बहुत सी मानसिक पीड़ाओं को भोगना पड़ रहा था | साथी अध्यापक-अध्यापिकाओं के मन में शायद भीतर कुछ चलता तो रहता किन्तु वे ज़बान पर नहीं आने देते थे, कुछ तो उसके अच्छे मित्र भी बन गए थे |
छात्रों में 90% की सोच व व्यवहार इतना ख़राब था और मज़ा यह कि उन्हें कुछ कहा नहीं जा सकता था | लगभग सोलह-अट्ठारह की वय के बच्चे इतने बद्तमीज़ व उश्रृंखल थे कि रीता का उस स्कूल में रहना दूभर हो गया था |
"क्या बताऊँ दीदी आपको --एक तो टीचर के कमरे में ही हर क्लास एक के बाद एक आती है, यहाँ अपने भारत की तरह टीचर को कक्षा में नहीं जाना होता, बल्कि हर कक्षा के लोग टीचर के रूम में ही आते हैं | एक कक्षा के स्टूडेंट्स गंदा करके गए नहीं कि दूसरी क्लास के बच्चे आकर वही सब करने लगते हैं |सफ़ाई टीचर को ही रखनी पड़ती है | वैसे बड़े वेळ मैनर्ड हैं, गंदगी फैलाएँ तो सरकार ज़ुर्माना लगा देती है पर जब कक्षा में गंदगी फैलाकर जाते हैं तो सब टीचर के ऊपर ही होता है | लगता है मैं वहाँ टीचर नहीं, जमादारनी हूँ जो हर समय हाथ में झाड़ू पकड़े रहती है |" कहते हुए वह फूटकर रो पड़ी थी | रोते-रोते रीता एक पल के लिए रुकी, अपने आँसू और चेहरे पर पास पड़ा नैपकिन फिराया फिर बोली --
" कहते हुए भी शर्म आती है, ये बद्तमीज़ बच्चे पढ़ने की जगह चूमा-चाटी करते रहते हैं, एक -दूसरे की गोद में बैठकर ---क्या बताऊँ --'ब्रा' के साइज़ और डिज़ाइन डिस्कस करते हैं --" उसकी सुबकियाँ बढ़ती ही जा रही थीं जैसे वह एकदम हल्की होना चाहती थी, एकदम भार रहित जो न जाने कबसे उसके सीने, दिल व आँखों को भारी किए हुए था |
"कितना समझाया, किसीके सिर में जूँ नहीं रेंगी --जब फ़ेल होते हैं तो माता-पिता टीचर की जान खाने आ जाते हैं | वैसे भी अब रूल्स बदल गए हैं, सबको पास करना ही पड़ता है | " रीता ने अपने हाथ में पकड़े नैपकिन में अपना चेहरा छिपा लिया |
"पूरी रात इनके लिए मेहनत करती हूँ, कम्यूटर में आँखें फोड़ती हूँ, 'लैसन'तैयार करती हूँ --पर किसलिए ?किसके लिए ? बस, टैक्स भरने के लिए, एक आदमी रोटी तो खा सकता है पर अधिक सुविधाएँ नहीं भोग सकता, ऊपर से भारी टैक्सेशन!" रीता का रोना थम ही नहीं रहा था |
प्रज्ञा को याद था सब कुछ, इतनी जल्दी मनुष्य भूल जाए तो क्या बात है ! सारा जीवन ही आराम से न बीत जाए ! काम तो उसका कुछेक दिन में ही पूरा हो जाने वाला था पर इस बार कई रिश्तों को छूना तो था ही | पहली बार बेहद सर्दी व बर्फ़ के मौसम का लुत्फ़ लेकर लौटी थी |काम तो दस दिन में ही पूरा हो गया था, फिर रवि पंडित जी की बदौलत एक दिन में लंदन का बाज़ार भी घूम लिया था |
उस बार रीता व देव के पास कम समय रह पाई थी | उन दिनों तो जैसे किसी हिमालय-खंड में सीत के हाथों में मौसमी जकड़न !उफ़ ! कैसा ठिठुरता रहता था गात ! जैसे किसीने बर्फ़ की सिल्ली उसके सामने लाकर खड़ी कर दी हो | होता है न ऐसा, ठेठ शीत के दिनों में बर्फ़ देखते ही सीत चढ़ने लगता है जबकि पूरे समय खूब तेज़ हीट रहती थी उसके कमरे में | इस बार का मौसम खुशगवार रहेगा | वह सोचने लगी और रिसीवर हाथ में पकड़े उधर से रीता 'हलो--हलो 'करती रही |
इतनी देर तक तो रीता रुक नहीं सकती थी, समझ गईं ज़रूर प्रज्ञा पिछले 'विज़िट'के गलियारों में घूमने लगी होगी | उस समय उसने फोन बंद कर दिया, और फिर से लगभग दो घंटे बाद प्रज्ञा का फ़ोन बजा दिया |
"आप न, सुधर नहीं सकतीं | कहीं;कोई बात होती रहे, आपको खो जाना होता है किसी दूसरी दिशा में, दीदी ! कहीं रास्ता मत भूल जाना | पलटने लगीं थीं न पुराने कागज़ ?"रीता ने फ़ोन पर ही अपनी खनकदार हँसी बिखेर दी |
एक छोर से दूसरे छोर पर हँसी की लड़ियाँ जैसे चटखने लगीं, किसी फुलझड़ी की भाँति !
प्रज्ञा के करीबी तो सब जानते ही थे, उसके स्वभाव को ---इसीलिए उसके पति उसे गाड़ी चलाने नहीं देते थे | कहते थे तुम तो सामने वाले ड्राइवर को कहोगी ;
"बाजू खसो--प्रज्ञा द ग्रेट ड्राइवर पधार रहा है ----बामुलाहिज़ा--होशियार ---!" प्रज्ञा ने गाड़ी को हाथ लगाना ही छोड़ दिया था |
"ठीक है दीदी, अब रखती हूँ, आप अपना प्रोग्राम बता देना, आप जहाँ कहीं भी होंगी, हम आ जाएंगे | देख लीजिएगा, पहली बार की तरह मत करना, वो देखो देव फ़ोन खींच रहे हैं | टेक केयर !"
देव के साथ भी वही सब बातें दुहराई गईं और वही वादा किया गया कि इस बार काम होने के बाद वह अच्छी तरह केवल उनके पास ही रहेगी |
फ़ोन रखकर भी प्रज्ञा अपनी पहली लंदन की ट्रिप में ही थी अभी !
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