कभी अलविदा न कहना
डॉ वन्दना गुप्ता
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"कम्मो अब खतरे से बाहर है... जाओ बच्चों तुम भी मिल लो.." ताऊजी की बात सुनकर राहत भी हुई और दहशत भी... मन में डर था कि ताईजी मिलने पर कैसे रियेक्ट करेंगी, उन्हें अलका दी की असलियत पता चल गई है या नहीं... यह भी एक प्रश्न था।
"ताऊजी! अभी उन्हें आराम की जरूरत है, हम कल मिल लेंगे... अलका दी आप चाहो तो मिल आइए ताईजी से..." मेरे कहने पर अशोक ने मुझे घूर कर देखा, किन्तु मेरी सोच को ताईजी ने सही साबित किया। जब अलका दी आई सी यू से बाहर निकलीं तो उनके चेहरे पर संतुष्टि थी, ऐसा लगा कि ताईजी को कुछ पता नहीं चला था। अलका दी के चेहरे से चिंता, तनाव, भय और अपराधबोध सहसा ही विलुप्त हो गए थे, परन्तु आने वाले कुछ दिनों में मैं एक बार फिर गलत सिद्ध हुई थी।
आज की रात फिर करवटों में बीतने वाली थी। घटनाक्रम इतनी तेजी से बदला था कि अपने चिर परिचित चेहरों को बदलते देख मैं अजीब सी कशमकश से गुजर रही थी। अलका दी और अशोक के बारे में मेरी धारणा बदल रही थी। दोनों की ही असलियत जानकर मैं किसी एक नतीजे पर नहीं पहुँच पा रही थी।
"अब तुम लोग घर जाओ... रात हो गयी है और दिनभर की थकान भी होगी। अशोक तुम भी सुनील के साथ घर पर खाना खाकर जाना।" ताऊजी का आदेश था। हम लोग चुपचाप बाहर आकर कार में बैठ गए। तन से ज्यादा मन बोझिल थे... शायद सभी के.... आज दिन में मैं कितनी खुश थी... सुनील और मेरी इशारों में जो बात शुरू हुई थी, वह फिर गुम सी लगी। किसी एक की गलत सोच कितनों को प्रभावित करती है, मैं प्रत्यक्ष अनुभव कर रही थी। अलका दीदी का मेरे प्रति ईर्ष्या भाव जानकर भी मुझे उन पर अब गुस्सा नहीं तरस आ रहा था। दिल के किसी कोने में एक दबी हुई संभावना भी थी कि शायद अब अलका दी और अशोक के रिश्ते की बात फिर चल निकले, जबकि दिमाग को निन्यानवें प्रतिशत यकीन था कि यह सम्भव नहीं फिर भी मैं उस एक प्रतिशत को ही सच होते देखना चाहती थी। अब मैंने नोटिस किया कि सुनील काफी देर से कुछ बोला नहीं था... आखिर इस चुप्पी की वजह क्या होगी..? एक बोझिल सन्नाटा पसरा था, अचानक अशोक ने टेप ऑन कर दिया....
शिकायत न करता ज़माने से कोई...
अगर मान जाता मनाने से कोई...
फिर किसी को याद करता न कोई...
अगर भूल जाता भुलाने से कोई....
गाने की पंक्तियाँ सुन सभी अपनी सोच में और भी डूब गए... मुझे लगा कि अशोक शायद मुझे ही सुनाना चाहते थे ये गीत.... और अलका दी...? क्या वे दीपक को सही में प्यार करती थीं या कि उनका कुंठित मन दीपक के स्वार्थ से हार गया था? और सुनील.....? क्या वह भी फिल्मी भाइयों की तरह अपनी चाहत को बड़े भाई की खातिर मन में ही दफन कर देगा..? क्या भूल पाएगा...? क्या ये गलत नहीं होगा...? अशोक के साथ... मेरे साथ... और खुद उसके साथ.... आखिर यह तीन घण्टे की फ़िल्म नहीं... हमारी असल जिंदगी है जिसे हम जी रहे हैं... कोई अभिनय नहीं कर रहे हैं... मैंने तय कर लिया कि कुछ भी हो मैं अब इंतज़ार नहीं करूँगी, मौका मिलने पर खुद ही पहल करूँगी... मैंने विश्वास भरी नजरों से सुनील की ओर देखा... वह अभी भी सोच में गुम था।
घर पर सभी डाइनिंग टेबल पर इंतज़ार कर रहे थे। ताईजी की तबियत के हाल जानकर सबने राहत की सांस ली। माहौल में घुली उदासी पिघल कर बहने लगी थी। सबको हल्का महसूस हो रहा था। अंशु ने खाना परोसते हुए चुहल की.... "आज मैं भैया को खाना परोस रही हूँ... काश! अगली बार जीजू को परोसूं.." यह बात उसने सुनील के चेहरे पर नज़रें गड़ा कर कही थी, किन्तु यह सुनकर अशोक के चेहरे पर स्मित रेखा खींच गयी, जो मैंने स्पष्ट देखी। अंशु मेरी नज़रों की तेजी से घबराकर किचन में चली गयी और सुनील भी असहज हो गया था, टेबल मैनर्स भूलकर वाश बेसिन की ओर बढ़ गया। अलका दी खाली बाउल में चम्मच हिलाती रहीं। गनीमत थी कि बाकी किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया। कॉल बेल की आवाज़ से सब चौंक गए... इस समय कौन होगा?
"भैया.... अच्छा हुआ आप आ गए...." अनिल भैया को देखकर अलका दी उनसे लिपटकर रोने लगीं। अनिल भैया ताऊजी के बड़े बेटे.... पुणे में नौकरी करते थे। वे आने वाले थे, यह बात याद ही नहीं रही थी। ताईजी हॉस्पिटल में हैं, ये जानकर वे उल्टे पैर हॉस्पिटल की ओर चले गए। अशोक और सुनील के जाने के बाद मैं अपने रूम में पहुँची और अंशु पर बरस पड़ी.... "वक़्त की नजाकत समझे बिना कुछ भी बोल देती है... क्या जरूरत थी चुहलबाज़ी की..? ताईजी बीमार हैं, बाकी सब परेशान हैं और अलका दी की इस हरकत की वजह से पता नहीं कितनी बड़ी मुसीबत आ सकती थी... और तू.…..."
"क्या किया अलका दी ने...?" अंशु का मासूम प्रश्न मुझे भी वक़्त की नजाकत समझा गया... 'ये क्या करने जा रही थी मैं...? अब क्या जवाब दूँ..?'
"अलका दी ने आज ताईजी को बी पी की गोली नहीं दी और तेज़ धूप में मार्किट ले गयीं... यदि अशोक समय पर नहीं पहुंचता तो क्या होता...?" मेरी त्वरित बुद्धि ने बात सम्भाल ली। आज मैंने फिर से अंशु के सामने विचारों की डायरी पूरी नहीं खोली। क्या प्यार का अहसास हमें इतना अकेला कर देता है? अंशु और मैं हर बात आपस में शेयर करते थे, किन्तु सुनील के जिंदगी में आने के बाद से मैं बातों का कुछ अंश मन में सहेजने लगी थी। हालांकि अलका दी वाली बात मुझसे सम्बंधित नहीं थी, फिर भी मुझे लगा कि अभी इसे राज ही रहना बेहतर है।
"दीदी! आप आज बहुत थक गयी हैं, सो जाइए..." मैं भी बात करने के मूड में नहीं थी। अंशु तो सो गयी लेकिन मेरे मन में विचारों का तूफान पूरी रात शोर मचाता रहा।
"दीदी! उठो न...?" अंकु को इतनी सुबह देखकर मुझे हैरानी हुई... याद आया कि आज उसका रिजल्ट आने वाला है। पिछले सप्ताह की ही तो बात है... अंकु मुझे जबरन फोटो स्टूडियो ले गया था... "दीदी! रिजल्ट आने पर न्यूज़ पेपर वाले मांगेंगे, तो मेरा फोटो खिंचवाना है।" वह शुरू से ही टॉपर रहा था, उससे ज्यादा उसके टीचर्स को उसके मेरिट में आने की उम्मीद थी। मुझे भी उसकी काबिलियत और मेहनत पर पूरा भरोसा था। फिर भी आज एक अनजाना सा भय मन में व्याप्त था। वह अपने स्कूल, फिर जिले और फिर सम्भाग में टॉप कर चुका था, किन्तु पूरे प्रदेश में उसके जैसे कितने ही टॉपर्स होंगे, उन अनदेखे प्रतिस्पर्धियों के साथ वह कहाँ स्टैंड करेगा.... मैं मन में सोच रही थी... तभी वह बोला कि... "दीदी एक बात कहूँ..?"
"हाँ बोल न..?" मैं उत्सुक थी उसके विचार जानने को...
"यदि मैं मेरिट में नहीं आया न तब भी रोऊंगा नहीं..." उसके इतना कहते ही कल का जमा हुआ विषाद भी आँखों से बह निकला...मैंने उसे गले लगा लिया... "मेरे भाई तू जरूर टॉप करेगा... फिर हम पार्टी करेंगे... चल अभी देखते हैं आज नाश्ते में मम्मी क्या बना रही हैं।"
आज की शाम बहुत खुशगवार थी। ताईजी को वार्ड में शिफ्ट कर दिया था... और अंकु ने पूरे परिवार का सिर गर्व से ऊँचा कर दिया था... प्रदेश स्तर पर वह मेरिट में प्रथम आया था... स्कूल से लौटते ही सबसे पहले आकर वह मुझसे लिपट गया... उसके जाने से लेकर लौटने तक का समय मेरे लिए बड़ा मुश्किल था... उस पर विश्वास था किंतु प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षाओं के अनपेक्षित परिणाम भी देखे थे... मैं खुद मात्र एक अंक से गोल्ड मैडल गंवा चुकी थी। उसकी इस स्वर्णिम सफलता ने अलका दी के प्रकरण पर धूल डाल दी थी। आज भी आँखें बरस रहीं थीं.... किन्तु ये खुशी के आँसू थे। हम सब बहुत खुश थे।
जिंदगी का एक नया ही रंग महसूस किया मैंने.... कुदरत भी गणित इतना बेहतर जानती है... खुशी और गम का सन्तुलन हो गया था... कल की चिंता, दुख, परेशानी सब इस खुशी के आवरण में दुबक गए थे। मैं सिर्फ इस खुशी को भरपूर जीना चाहती थी। ये बेशकीमती पल थे जो ताज़िन्दगी सुकून देने वाले थे... उन्हें मैंने सहेज लिया था। अगले दिन के अखबार में अंकित की फोटो और नाम चमक रहे थे... हमारे शहर को यह गर्वानुभूति पहली बार हुई थी... शहर का गौरव बढ़ाया तो सम्मान तो मिलना ही था। पारिवारिक समारोह ताईजी के घर लौटने के बाद ही होना था, किन्तु स्कूल के समारोह में शामिल होकर भी मैं बहुत खुश थी। स्टेज पर अंकु ने जब मुझे उसका गुरु डिक्लेअर किया तो सच में गुरुर महसूस हुआ।
"मम्मी क्या मैं और छुट्टी ले लूँ..?" रात को डाइनिंग टेबल पर मैंने प्रश्न किया। हमारे घर का नियम था कि लंच सब अपनी सुविधानुसार करते थे किंतु डिनर सब साथ में.... कोई खास चर्चा इसी समय होती थी। पापाजी सामान्य ज्ञान के प्रश्न भी इसी समय पूछते थे.... संयुक्त परिवार की बॉन्डिंग शायद इसीलिए मजबूत भी थी।
"नहीं बेटा, तुम कॉलेज चली जाओ, कल मंडे है, अनिल भी आ गया है, जरूरत हुई तो फिर बुला लेंगे... कुछ दिनों में ही वेकेशन शुरू हो जाएगा, तब तक कॉलेज जाना जारी रखो।" ताऊजी की बात सुनकर मुझे अच्छा लगा.... मैं भी इस माहौल से दूर जाना चाहती थी। मुझे क्या पता था कि जिंदगी एक पेंडुलम की तरह दोलन कर रही थी। अगले दिन बस में सुनील के साथ हुई यात्रा से मैं रोमांचित थी किन्तु राजपुर में अनिता और रेखा ने मेरे लिए एक सरप्राइज रखा था......
क्रमशः....15