'फिर आ पहुंचे दो श्वेतवस्त्रधारी देवदूत'…मित्र के घर देर से जागा और एक कप चाय पीकर दूसरे मित्र के घर गया। वह मुझे देखते ही शर्मसार हुए, कहने लगे--'कल श्रीमतीजी ने बहुत बखेड़ा कर दिया था। बहुत दुखी हूँ यार कि कल रात मैं आ नहीं सका ! ये बताओ, संपर्क हुआ क्या? समाधान का कोई सूत्र तुम्हें मिला क्या?'
मैं उन्हें क्या बताता, बस इतना भर कहा कि 'तुमने जिनका आह्वान करने को कहा था, वे तो आये नहीं; लेकिन मेरी पूर्वपरिचित एक आत्मा ने मुझे बताया है कि तुम्हारी पत्नी को किसी प्रकार की प्रेत-बाधा नहीं है। उनका बहुत प्रेम और गहरी सहानुभूति से परिपालन किया जाए तथा किसी योग्य चिकित्सक से उनका इलाज करवाया जाए। वह स्वस्थ हो जाएंगी।'
उनकी शक़्ल पर आते-जाते भावों के आलोक में मैंने परिलक्षित किया कि वह बहुत संतुष्ट नहीं थे। मुझे अपने घर लौटना था, सिर चकरा रहा था मेरा! उनका जलपान का आग्रह ठुकराकर मैंने प्रस्थान किया।
चित्त पर एक अवसाद छाया हुआ था और चालीस दुकानवाली की बातें मेरे चेतन-अवचेतन में निरंतर गूँज रही थीं। हमारी अवधारणाएँ किस हद तक ग़लत, सत्य से कोसों दूर और कल्पित-निर्मित होती हैं, हो सकती हैं--यह पिछली रात की वार्ता से सिद्ध हो चुका था। मैं और चालीस दुकानवाली--हम दोनों अपनी-अपनी कल्पना के संताप से ८-९ वर्षों तक विकल रहे थे और जब सत्य निरावृत्त हुआ तो चकित-विस्मित रह गए थे। जब हमारे अवगुंठन का तिलस्म टूटा, तब मन का बोझ हल्का तो हुआ था, लेकिन एक नयी त्रासद पीड़ा अपनी जड़ें जमा चुकी थी और वह थी-- चालीस दुकानवाली का 'अलविदा' कह जाना। मुझे विश्वास हो चुका था कि अब उससे कभी संपर्क-संवाद न हो सकेगा। उसे उधार की ओढ़ी हुई शक्ल में नहीं, यथारूप देख पाना कभी नसीब न होगा--मेरी यह पीड़ा बड़ी थी। मेरी अंतरात्मा पर छाया हुआ यह अवसाद दीर्घजीवी भी हुआ। जिसे मैं अपनी स्मृतियों के प्रकोष्ठ से खुरचकर कभी हटा न सका।
समय बड़ा आनंदी प्रवाह है। पानी-सा बहता जाता है--सबों को उनके हिस्से का सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, आनंद-उमंग, राग-विराग और रोग-शोक बाँटता, निर्विकार भाव से, अप्रतिहत। वह किसी भी भाव-प्रभाव से निरपेक्ष होता है। वही समय अवसाद-विराग के साथ एक जटिल प्रश्न की सौगात दे गया कि 'वे दो श्वेतवस्त्रधारी कौन थे? मुझे चालीस दुकानवाली से अलग रखने के पीछे उनका अभिप्राय क्या था? इस प्रश्न का कोई उत्तर पाना मेरी शक्ति-सीमा से परे था।
इसके बाद, संपर्क-साधन और परा-भ्रमण से मुझे ऐसा विराग हुआ कि मैंने इसे अंतिम नमस्कार किया और अपने यन्त्र-तंत्र समेटकर एक किनारे रख आया। मुझे वर्षों पूर्व पिताजी के कथन की सत्यता समझ में आई और उस पर यक़ीन होने लगा कि यह सचमुच दुविधा की अनोखी दुनिया है। इस दुनिया में भटकने का लाभ क्या और हश्र क्या? किसी एक राग की डोर से बंध जाना और आत्यंतिक अवसाद का प्रसाद पाना? मैंने उफ़् और तौबा एकसाथ की।
उसके बाद दीर्घ काल तक मैंने किसी अनुनय-आग्रह का मान न रखा और परा-जगत् से विरत रहा, लेकिन पिताजी का मित्र-मंडल बहुत बड़ा था। पिताजी के मित्र अर्थात् मेरे बुज़ुर्ग और आदरणीय ! बाद के दस वर्षों के प्रसार में ऐसे मात्र एक-दो अवसर ही आये, जब विवश हो कर और विनयपूर्वक यह निवेदन करते हुए भी कि यह सब मैं छोड़ चुका हूँ, मुझे सम्पर्क-साधन करना पड़ा था; लेकिन उनसे संतोषजनक परिणाम न मुझे मिले थे और न आग्रही बुज़ुर्ग को।
समय अपनी ही गति से उड़ा जा रहा था और उसने जीवन के दस वर्ष चुरा लिए थे। वर्ष १९९५ आ पहुंचा था। मेरी श्रीमतीजी की बड़ी इच्छा थी कि वह नौकरी करें। उन्होंने अनेक प्रयत्न भी किये थे और केंद्रीय विद्यालय में एक शिक्षिका की पद-प्राप्ति के लिए भुवनेश्वर संभाग में आयोजित अंतर्वीक्षा में सम्मिलित हो आयी थीं। मेरी दोनों बेटियां बड़ी हो रही थीं--बड़ी बेटी को इसी वर्ष दसवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में सम्मिलित होना था, जबकि छोटी बिटिया आठवीं कक्षा की छात्रा थी। सुख-शान्ति से दिन व्यतीत हो रहे थे। पिताजी मानसिक रूप से अविकसित मेरी छोटी बहन की सेवा-सुश्रुषा और अपने लिखने-पढ़ने में व्यस्त रहते तथा मैं 'आस्था प्रकाशन' की देख-सँभाल में।
उन्हीं दिनों की बात है, अचानक काल-गति विषम हुई। अक्टूबर १९९५ में पिताजी बीमार हुए और अनेक उपचार के बाद भी उनका स्वास्थ्य गिरता ही चला गया। उनका शरीर दिन-प्रतिदिन छीज रहा था, अशक्तता बढ़ती जा रही थी और घर-भर का मन आशंकाओं से भरने लगा था। इसी वर्ष जनवरी में पिताजी अपने जीवन का पचासीवाँ वसंत देख आगे बढ़े थे और पूरी तरह स्वस्थ-प्रकृतिस्थ थे, कार्यक्षम थे; लेकिन दस महीने बाद ही उनकी यह दशा देखकर हम सभी व्यथित, उद्विग्न और हतप्रभ हो उठे थे। नवम्बर आते-आते हमें प्रतीत होने लगा था की पिताजी शय्याशायी नहीं, मृत्यु-शय्या पर हैं; लेकिन हमारा मन इसे स्वीकार नहीं कर पाता था। उनकी सेवा-सुश्रुषा के लिए और हर क्षण उनका ख़याल रखने के लिए मैं उन्हीं के कमरे के बाहर एक खाट पर सोने लगा था। वे अजीब बेरंग दिन थे--दुश्चिंताओं और मानसिक संताप से भरे हुए।
६ नवम्बर १९९५ की सुबह छह बजे पिताजी के कक्ष के सामने लगे बेसिन पर मैं ब्रश कर रहा था कि पिताजी की पुकार सुनकर उनके पास गया, पूछा--'क्या है बाबूजी?'
पिताजी धीमी आवाज़ में कहने लगे--'मेरी बात ध्यान से सुनो। साधना (मेरी पत्नी) का अपॉइंटमेंट केंद्रीय विद्यालय में हो गया है। मेरे अकाउंट से ५००० रुपये निकालकर उसके लिए अच्छी-अच्छी साड़ियाँ खरीद लाओ। अब उसे रोज़ विद्यालय जाना होगा न ?'
मैं आश्चर्य में था ! यह क्या हुआ बाबूजी को? ऐसा विभ्रम कैसे हुआ? क्या ज्वर-अशक्तता और अत्यधिक ताप का प्रभाव उनके मस्तिष्क पर असर डाल गया है ? मैंने चिंतातुर होकर कहा--'बाबूजी! कोई नियुक्ति-पत्र तो आया नहीं है अब तक, आप कैसे कह रहे हैं कि साधना की नियुक्ति हो गयी है?'
उन्होंने पूरे विश्वास के साथ दृढ़ स्वर में कहा--'मैं कह रहा हूँ न, उसकी नियुक्ति हो गयी है। '
वह कुछ और कहते, इसके पहले ही मैंने पूछा--'लेकिन किस आधार पर...?'
उन्होंने निश्चिन्त स्वर में थोड़ा ठहरकर कहा--"आज सुबह, ब्राह्म-मुहूर्त में दो श्वेतवस्त्रधारी मेरे कमरे में आये थे। उनके सिर छत से लगे थे और पाँव अधर में थे। उन्होंने ही मुझे बताया है। तुम तो वह करो, जो मैंने तुमसे कहा है।'
उनका आदेश सुनकर मैं कमरे से बाहर निकल आया और मैंने मान लिया कि पिताजी किसी स्वप्न के प्रभाव में ऐसी बात कह रहे हैं। लेकिन, उनके मुख से 'दो श्वेतवस्त्रधारियों' का उल्लेख सुनकर मेरा माथा ठनका था ! रोमांचित हो उठा था मैं! दस वर्ष पहले चालीस दुकानवाली ने भी तो 'दो श्वेतवस्त्रधारियों' की बात बताई थी मुझे। क्या ये वही महानुभाव हैं--तेज से भरे, प्रकाश-पुञ्ज के सदृश देवदूत? मैं सोचता ही रहा, किसी निश्चय पर पहुँच नहीं सका।...
(क्रमशः)