Nishchhal aatma ki prem-pipasa... - 33 in Hindi Fiction Stories by Anandvardhan Ojha books and stories PDF | निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 33

Featured Books
Categories
Share

निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 33

अन्तःपुर के वातायन से…

ज़िन्दगी एक वेगवान् नदी-सी है, जो टेढ़ी-मेढ़ी राह चलती है और हर पल रंग बदलती रहती है। उसे कभी सीधी-सपाट सड़क नहीं मिलती। ज़िन्दगी में छोटी राहें (short-cuts) नहीं होतीं।...

नवम्बर १९७८ में मेरा विवाह हुआ था और मेरे जीवन की दिशा बदल गयी थी। राग दूसरी डाल से बँधने लगा था। एक वर्ष की अवधि भी पूरी नहीं हुई थी कि पांच वर्षों से सेवित दिल्ली १९७९ में मुझे छोड़नी पड़ी। जीवन में परिवर्तनों का दौर शुरू हुआ। कई पड़ावों पर रुकती-ठहरती, चक्रवातों से जूझती और नौकरियाँ बदलती ज़िन्दगी ज्येष्ठ और कनिष्ठ कन्या की उपलब्धि के साथ १९८२ में पटना आ पहुंची थी, इस निश्चय के साथ कि अब नौकरी-जैसा प्रतिभानाशी व्यापार मुझे नहीं करना। स्वास्थ्य कारणों से पिताजी और छोटी बहन महिमा एक वर्ष पहले ही पटना चले आये थे। मेरे अनुज यशोवर्धन तो १९८० में ही केंद्रीय सेवा में, आंकेक्षक के पद पर बहाल होकर, पटना में ही नियुक्त हो चुके थे। दो वर्ष बाद १९८२ में उनका भी विवाह हो चुका था। लिहाज़ा, आठ-नौ वर्षों की खानाबदोशी के बाद एक बार फिर पूरा परिवार पटना के छोटे-से 'मुक्त-कुटीर' में एकत्रित हुआ।

पिछले चार-पांच वर्षो की अवधि में इतनी उथल-पुथल, भाग-दौड़ और व्यस्तता रही कि परा-जगत् से संपर्क-साधन का बहुत संयोग नहीं बना, लेकिन चालीस दुकानवाली का स्मरण मुझे निरंतर बना रहा। मैं सोचता ही रहा कि वह हतभागी आत्मा भी मेरी ही तरह विकल-विह्वल होगी क्या? उसने अब तक शिकायतों के न जाने कितने विषबुझे तीर मेरे विरुद्ध संचित कर लिए होंगे! क्या वह बहुत रुष्ट होगी मुझसे?...

पटना का घर एक छोटे से भूमि-खंड पर निर्मित दो कमरों का मकान था, उसमें हमने कभी निवास नहीं किया था। १९६६-६७ से उसमें किरायेदारों का ही बसेरा था। १९८१ में जब पिताजी पटना पहुँचे तो उस मकान को किरायेदारों से बमुश्किल खाली करवाया जा सका था। १९८१ में पिताजी मेरे अनुज और छोटी बहन के साथ वहाँ, उस घर में, स्थापित हुए। १९८२ में मैं भी सपरिवार वहाँ पहुंच गया। उस नीड में सुख-दुःख के दिन बीतने लगे।...

मैं जिस कमरे में रहने लगा, वह अपेक्षाकृत छोटा था। उसमें एक बड़ी पलँग डाल दी गई थी। पलँग के बाद तीन किनारों में इतनी ही जगह शेष रह जाती थी कि एक व्यक्ति उसमें चहलकदमी कर सके। रात के वक़्त कमरे के दो दरवाज़े बंद कर दिए जाते थे और स्वच्छ हवा के लिए पायताने की एकमात्र खिड़की खुली रखी जाती थी, जो आँगन में खुलती थी। मेरे घर में आते ही श्रीमतीजी ने गृहस्थी सँभाल ली थी, लेकिन उन्हें बहुत दिनों तक पता ही नहीं चला था कि मैं पराजगत् में विचरण भी करता रहा हूँ। जब पटना के उस नन्हें-से घर में, किसी के अनुनय पर मैंने प्लेंचेट किया था तो वह आश्चर्य से अवाक् रह गई थीं।

१९८३ के प्रारंभिक दिनों की बात है, कुछ अप्रत्याशित, आश्चर्यजनक मेरे आसपास घटने लगा। उसे समझने में भी मुझे वक़्त लगा। रात में सोते हुए मुझे लगता, कोई मुझे जगा रहा है, मुझे पुकार रहा है, स्पर्श कर रहा है मुझे। यह विस्मयकर अनुभव मैं किसी के साथ बाँटता नहीं, किसी से कुछ कहता नहीं; लेकिन इससे मेरी रातों की नींद बाधित होने लगी थी, जिसका प्रभाव मुझ पर दिन-भर बना रहता। कुछ ही दिनों में श्रीमतीजी ने मेरी अन्यमनस्कता को लक्ष्य किया, मुझसे बार-बार पूछने लगीं--'क्यों, तबीयत ठीक है न आपकी?' मैं उनके प्रश्न से पलायन का कोई-न-कोई उत्तर ढूंढ़ लेता। वह पति-परायणा विदुषी महिला हैं, किन्तु अत्यंत भीरु प्रवृत्ति की; उनसे कुछ भी कहते हुए मुझे संकोच होता था। जानता था, उन्हें रात्रिकाल के अपने अनुभव बताऊँगा तो वह भयभीत हो जायेंगी अथवा मुझे उपचार के लिए विवश करने लगेंगी। लिहाज़ा, उनकी जिज्ञासाओं पर मैं अधिकतर मौन साध लेता था। मेरे लिए भी यह विचित्र और नवीन अनुभव था और मैं समझ नहीं पाता था कि यह सब मेरे साथ क्यों, कैसे और क्या हो रहा है ! रहस्य की धुंध मेरे लिए विस्मय का कारण बनी हुई थी। इसी दशा में दो-तीन महीने बीत गए।

रात में कुछ पढ़कर सोना मेरा वर्षों का अभ्यास रहा है। उस रात भी मैं टेबल लैम्प की रोशनी में देर तक पढ़कर सोया था। आधी रात के बाद अचानक श्रीमतीजी ने मुझे झकझोर कर जगाया और पूछा--'क्या हुआ आपको? आप इस तरह काँप क्यों रहे हैं?' मैं आश्चर्य में पड़ा था और अपने ही हाथो से अपनी शक़्ल और हाथ-पैरों की खैरियत तलाश रहा था। सब कुछ तो सामान्य था, केवल चेहरा पसीने से भीगा था। पूर्णतः चैतन्य होते ही मैंने कहा--'हाँ, मैं स्वप्न देख रहा था। तुमने मुझे ख़ामख़ाह मुझे जगा दिया।'
श्रीमतीजी ने प्रतिवाद किया--'ख़ामख़ाह? आप तो थर-थर काँप रहे थे। हुआ क्या?'
मैंने यह कहकर उनसे पीछा छुड़ाया--'भई, सोने दो मुझे !'
लेकिन, बात दरअसल यह थी कि मैं कोई दुःस्वप्न नहीं देख रहा था, मुझे स्पष्ट अनुभूति हुई थी कि खुली हुई खिड़की की राह कोई मेरे कमरे में आया था और मुझे जगाकर साथ चलने की इल्तज़ा कह रहा था। मेरे विरोध पर वह कुपित हुआ था और मेरे चेहरे और हाथ-पाँव पर आघात करने लगा था। यह विचित्र और भयप्रद अनुभूति थी। मैं इसे स्वप्न इसलिए नहीं कह रहा, क्योंकि जाग जाने के बाद भी वह अहसास देर तक यथावत् बना रहा था। दुबारा सोने की चेष्टा की, लेकिन जब नींद नहीं आई तो मैंने उठकर खिड़की बंद की और लेटकर चिंता-निमग्न हो गया !

परा-जगत् से संपर्क विच्छिन्न हुए लम्बा अरसा हो चुका था। लम्बे अंतराल के बाद, किसी के बहुत आग्रह पर, कभी-कभार ही, किसी आत्मा को बुलाने की विवशता आ पड़ती थी। उस छोटे-से घर में यह संभव भी कहाँ था! पांच-छह महीनों पर जब कभी प्लेंचेट किया भी, तो वह आग्रही व्यक्ति के घर पर ही संभव हो सका।

उस रात जब देर तक नींद नहीं आई तो मैं विचारशील हो उठा--बहुत सोचने पर भी ऐसी अनहोनी का कोई कारण-सूत्र हाथ नहीं आ रहा था। मैं उद्विग्न हो रहा था। अचानक मुझे चालीस दुकानवाली आत्मा का स्मरण हो आया और मैं चौंक पड़ा! तो क्या वह चालीस दुकानवाली ही है? छह-सात वर्षों बाद उसे अब मेरी याद आई है क्या? क्या उसने मुझे अब ढूंढ़ निकला है और क्या वही मेरे अन्तःपुर के वातायन से मुझ तक आ पहुंची थी? मैं सोचते-सोचते क्लांत हो गया था उस रात और जाने कब निद्रा-निमग्न हुआ था !....

(क्रमशः)