इक्क ट्का तेरी चाकरी वे माहिया...
जयश्री रॉय
(3)
पुराने खंडहरों में बिखरे खाली बोतलों, सीरिंज के बीच लड़के दुनिया-जहान से बेखबर अपनी सुई से छलनी बाहें लिए पड़े रहते। जोगियों-अघोरियों का डेरा लगता उनका आस्ताना। उनकी पीली, चढ़ी हुई आँखों में तितलियों के उड़ते जत्थे होते, नीले-गुलाबी बादल होते। पीठ बन गए पेट में मरी हुई भूख और दुबली बाँहों की रस्सी-सी ऐठी नसों में जहर की नीली नदी! गलियों में चलते-फिरते लाश की तरह लगते जवान लड़के। गड्ढे में धँसी आँखों में बस सन्नाटा और खोयापन होता। वे पूरी दुनिया से कट कर जाने किस दुनिया में जा बसते थे। गाँव के हर दूसरे-तीसरे घर की यही कहानी थी। नशे के चक्कर में कश्मीरा का स्कूल छूटा था, मगर गोल्डी की मौत ने जैसे उसे झिंझोड़ कर जगा दिया था।
गोल्डी उसका बचपन का दोस्त था। वह बेतरह डर गया था। कंकाल बना गोल्डी की लाश खंडहर में पड़ी थी। जब तक गोल्डी की अंधी माँ ने गाँव वालों की मदद से उसे खोज निकाला था, उसकी सड़ी लाश आवारा कुत्ते आधा खा चुके थे। गोल्डी की माँ नाक पर दुपट्टा धर कर बोलती रही थी- ये कौन है? ये मेरा गोल्डी नहीं हो सकता। कोई जानवर मरा है। कितनी बदबू आ रही है! उस दिन कश्मीरा को गोल्डी की लाश में अपना हश्र दिख गया था। बाद में उसके मामा जी आ कर उसे बिहार ले गए थे। वहाँ उनका एक छोटा-सा ढाबा था। वहाँ दो साल रह कर वह अपने पिताजी के देहांत होने के बाद अपने गाँव लौट कर आया था। इधर-उधर छोटे-मोटे काम करते हुये दिन गुजारता रहा था।
और फिर एक दिन इसी लोहड़ी में उसे सिबो मिली थी, कई साल बाद। बच्चों के साथ लोहड़ी से पहले घर-घर ‘दुल्ला भट्टी’ गाते हुये कमर तक अपनी फ्रॉक उठा कर रेबड़ियाँ इकट्ठा करते हुये उसके पिता ने उसे देख लिया था और बांस की कन्नी से पीटते हुये घर ले गया था। उसके बाद उसने सिबो को नहीं देखा था। किसी ने बताया था, उसका स्कूल भी छुड़ा दिया गया है।
सुनहरी लपट में धधकते सिबो का गुलमोहरी चेहरा वो देखता रह गया था। कब वो कौवे-सी कर्कश लड़की एक राजहंसिनी में तब्दील हो गई, उसे हैरत हुई थी। सिबो ने उसे देख कर भी नहीं देखा था। वही मिजाज, वही तेवर...
उस रात लोहड़ी की आग बुझते-बुझते वो अपने भीतर एक नई आग ले कर घर लौटा। बीबी ने बेटे की चढ़ी हुई गुड़हल जैसी आँखें देखी तो सहम गई- किधर गया था पुत्तर, कैसी हवा छू गई! कश्मीरा दीवानगी भरी हंसी हंसा था, है एक चुड़ैल बीबी... सुन कर बीबी को काठ मार गया, उसे इसी बात का डर था। अपने बेटे की जवानी पर उसकी आँखें सहमती रहती थी। बार-बार नून-राई मिर्ची से नजर उतारती। कहते हैं, अपनी माँ की नजर सबसे ज्यादा बच्चों को लगती है। कैसा ऊंचा-लंबा कद निकला है, कैसी चौड़ी छाती! दूध दूहते, चारा काटते हुये बांह की मछलियाँ धड़-धड़ ऊपर-नीचे चढ़ती हैं, खाली हाथों से गन्ने की मजबूत लाठियां तोड़ कर दो टुकड़े कर देता है! गाँव-घर वाले कहते, पचास-पचास कोस में कोई ऐसा मर्द नहीं निकला। गुरुदासपुर वाली! तूने रतन जना है, रतन! सुन कर बीबी फूली नहीं समातीं, बार-बार पहाड़ों वाली के आगे मत्था टेकतीं- बस अपनी किरपा बनाए रखना माता रानी!
मन ही मन गाँव-घर के फेरे लेते हुये कश्मीरा की आँखें जाने फिर कब झपक गई थी। नींद लगी होगी कुछ देर। पिछले कई दिनों से उन्हें ना ठीक से सोने मिला था ना आराम। अधिकतर समय खाना भी नहीं। लगातार सफर। कई बार बिना रूके घंटों। जग्गा ने कंधे से पकड़ कर हिलाया तो चौंक कर जागा- यूं बिना हिले-डुले चुपचाप सो गया तो किसी दिन मर जाएगा इन जंगलों में कश्मीरा! खून जम जाता है ठंड में, पता है? चल एजेंट वापस लौट आया है। कश्मीरा को नींद की खुमारी में ठीक से समझ नहीं आ रहा था कि वो कहाँ है। अभी उसके चारों तरफ सरसों का सुनहरा दरिया लहरा रहा था, सूरजमुखी की फसल झूम रही थी और अब ये कुहासे में लिपटा घुप्प अंधेरा... नशे की-सी हालत में वह चुपचाप गडमड सायों के पीछे चलता रहा था। जब आगे चलता एजेंट इशारे से उन्हें रुकने के लिए कहता, वे सब रूक जाते और जब तक एजेंट ना कहता, अपनी जगह से हिलते भी नहीं। कई बार देर तक वे लंबी, भीगी घासों में पेट के बल लेटे रहे। गरम कपड़ों के अंदर भी तेज चलती बर्फानी हवा जैसे चाकू की तरह उनकी खाल उधेड़े दे रही थी। हाथ-पैर पानी की तरह ठंडे, गीले-गीले महसूस हो रहे थे। पंजों के आगे उँगलियाँ शून्य। गिर गए हों जैसे। कान की लवे बेतरह दुखते हुये। नाक से निरंतर पानी बह रहा था।
उनके एजेंट ने उन्हें समझाया था, रात के तीसरे पहर तक वे फ़्रांस का बार्डर पार कर जाएँगे। फिर जर्मनी! जैसे-जैसे वे पूरब से पश्चिम की ओर बढ़ते जा रहे हैं, सुबह का उजाला जल्दी फैल रहा है। इन दिनों तो ऐसा लग रहा था जैसे रात का अंधेरा पूरी तरह छा ही नहीं रहा। आकाश फीकी स्याही-सा देर रात तक दिखता है। चार बजते-बजते फिर सुबह की रोशनी फैलने लगती है। वैसे घने जंगलों के बीच दिन के समय भी अंधेरा-सा छाया रहता है और अपनी इस यात्रा के दौरान अधिकतर वे घने जंगलों या किसी गोदाम, पुरानी इमारत में छिपते रहे थे। उन्हें ठंड पड़ने से पहले किसी भी तरह जर्मनी पहुँचना था वरना वे बड़ी मुसीबत में पड़ सकते हैं। एक बार बर्फ गिरनी शुरू हो गई तो इन घने बीहड़, पहाड़ और नदियों को पार करना नामुमकिन हो जाएगा। भूटान की सीमा पर आगे के लिए हरा सिग्नल ना पाने की वजह से वे हफ्ते भर तक पहले ही फंसे रह गए थे।
वे कुछ दिन बहुत बुरे बीते थे। बस्तियों से दूर किसी जगली इलाके में एक वर्षों से बंद पड़े गोदाम में उन्हें बंद करके रखा गया था। आसपास चरवाहे मवेशियां चराने के लिए आते थे इसलिए उन्हें कोठरी से बाहर निकलने की इजाजत नहीं थी। किसी तरह की आवाज करने की भी नहीं। सारा दिन वे बड़े-बड़े खाली पीपों और जूट के बोरों के बीच भूखे-प्यासे पड़े रहते थे। आसपास कहीं कोई जानवर मरा था शायद। दुर्गंध से उनका बुरा हाल था। उसी कोठरी के एक तरफ अखबार या कोई भी कागज, पत्ते बिछा कर वे शौच करते और पीपों में पेशाब। कई दिन हो गए थे उनके नहाये या मुंह धोये। सब भीगे जानवर-से बसा रहे थे। सर और कपड़ों पर जूयें पड़ गई थीं।
देर रात उनके एजेंट आ कर उन्हें पानी और सूखे ब्रेड खाने के लिए देते थे। कुछ मांगने या शिकायत करने पर गंदी गाली और मार। उनके काबू में आते ही ये एजेंट जल्लाद-से हो गए थे। चुपचाप उनकी धौंस सहने के अलावा उनके पास और कोई चारा नहीं था। कुछ ही दिनों की भूख-प्यास और डर में सबके वजन घट कर आधा हो गया था।
बस भारत से नेपाल तक की यात्रा आसान रही। वीसा की भी जरुरत नहीं, पासपोर्ट ही काफी। असल मुश्किल शुरू हुआ नेपाल से तिब्बत तक की सिल्क रूट यात्रा में। रास्ते में नजारे जीतने खूबसूरत थे, दुश्वारियां उतनी ज्यादा। नाथुला पास से यडोंग तक एक तरह से वे रेंगते हुये पहुंचे। यडोंग से गंगटोक, सिक्किम के बीच पास की भी जरूरत नहीं पड़ी। जाने एजेन्टों ने कैसी जुगत भिड़ाई थी वरना विदेशी सैलानियों को चंगु झील से आगे जाने की इजाजत नहीं थी। नेपाल से किसी टूर ऑपरेटर की मदद से पास का बंदोबस्त किया गया था। तिब्बत में घुसने के लिए ग्रुप पर्मिट की भी व्यवस्था की गई थी। यह इक्कीस दिनों के लिए जारी किया जाता है। ग्रुप पर्मिट के होने से चाइनिज वीसा की जरूरत नहीं पड़ती थी। वैसे बताया गया था, जिंजियांग छोड़ने के लिए चाइनिज वीसा चाहिए होता है। टूर ऑपरेटरों ने चाइनिज बोलने वाले गाइडों का बंदोबस्त किया था। इससे बहुत सहूलियत हो गई थी। ये गाइड हमेशा गुस्से में होते थे, मगर मजे की बात ये थी कि जब ये आग बबूला हो कर गंदी-गंदी गालियां देते थे, तब भी यही लगता था, वे मुस्करा रहे हैं। बंद गोभी जैसे गोल-गोल चेहरे पर मिची-मिची आँखें और बातों में ‘ची-चू’ की ध्वनि उन्हें खुशमिजाज दर्शाते।
यात्रा के शुरू-शुरू के दिनों में वे बार-बार पूछते, और कितनी दूर जाना है? जर्मनी कब आयेगा? उनके सवालों पर एक बार एक एजेंट ने मोंटी को कस कर थप्पड़ मारा था- भैंण का... अभी से जर्मनी-जर्मनी! 5785 किलोमीटर! 3595 मील! पचास किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से बिना रुके दौड़ा तो भी 115 घंटे लगेंगे, समझ गया? सुन कर आगे से किसी की यह सवाल करने की हिम्मत नहीं हुई थी। उसके बाद शिगाट्से से हाँफते-धौंकते उनका दल ल्हासा तक ‘फ्रीडम हाइवे’ के जरिये पहुंचे थे। इस बीच उन्हें जाने कैसी-कैसी मुसीबतों का सामना करना पड़ा था। खास कर खाने-पीने को ले कर।
पहली बार याक के दूध से बने चीज खा कर कश्मीरा को उल्टी आ गई थी। अजीब बदबू-सी थी उस में। मोमो, नूडुल, बालेप- ब्रैड आदि तो वे खा लेते थे मगर थुकपा यानि सब्जी, नूडुल और मीट से बना शोरबा खाना, वह भी चाप सटीक से, उनके लिए आसान नहीं था। शाफाले यानि मीट और बंद गोभी के साथ ब्रैड खाना भी उतना ही मुश्किल था मगर सारा दिन भूखा-प्यासा रहने के बाद उन्हें जब थोड़ा-सा खाना मिलता था, वे इंकार नहीं कर पाते थे।
याक का मीट पहली बार खा कर बंदूक सिंह बीमार पड़ गया था। उसे शायद फूड पायजन हो गया था। मीट खराब था। कई दिनों तक उल्टी करते हुये उसे तेज बुखार के साथ यात्रा करनी पड़ी थी। गैर कानूनी ढंग से विदेश में होने की वजह से उसे किसी डॉक्टर से दिखाया नहीं जा सकता था। सुना था, एक बार जर्मनी में जब कोई अपने छिप कर रह रहे बीमार दोस्त के बदले खुद डॉक्टर के पास जा कर दवाई लेने की कोशिश की थी, डॉक्टर ने बीमारी के लक्षण सुन कर उसे ही सुई लगा दी थी! इसलिए डॉक्टर के पास जाने का सवाल नहीं था। आखिर जब बंदूक की हालत बहुत बुरी हो गई थी और वह किसी भी तरह आगे चल नहीं पा रहा था, एक चरवाहे की झोंपड़ी में उसे छोड़ दिया गया था।
******