मेगा 325
हरीश कुमार 'अमित'
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अगले दो दिनों में बड़े दादा जी, शशांक और मेगा 325 ने दिल्ली से आगरा की ख़ूब सैर की.
होटल के एक बड़े-से कमरे में वे तीनों दिल्ली से सवार हुए. यह कमरा हवा में उड़ता रहता था. इसकी दीवारें शीशे की थीं, जिनके आगे परदे लगे हुए थे. कमरे में बैठने, सोने, खाने वग़ैरह के सब इन्तज़ाम थे. कमरे में टी.वी., कम्प्यूटर वग़ैरह भी थे.
कमरा लगातार उड़ता रहता था. कमरे में ठहरने वाले लोग अपनी मर्ज़ी से बैठकर, लेटकर या खड़े होकर बाहर के दृश्यों का आनन्द ले सकते थे.
रास्ते में अगर किसी दर्शनीय स्थल को देखना हो या बाज़ार वग़ैरह में जाना हो तो इन कमरे से नीचे धरती तक पहुँचती हुई एक सीढ़ी-सी निकल आती थी. बस इस सीढ़ी पर खड़े होने-भर की ज़रूरत होती थी. उसके बाद वह सीढ़ी अपनेआप नीचे खिसकती हुई उस कमरे में रहनेवाले व्यक्तियों को नीचे ज़मीन पर पहुँचा देती थी.
दर्शनीय स्थलों को देखकर या बाज़ार में घूमने के बाद हवा में उड़नेवाले कमरे में इन्हीं सीढ़ियों की मदद से ही बड़े आराम से पहुँचा जा सकता था.
शशांक ने वैसे तो अब तक अनेक जगहों की सैर की थी. हर साल वह कुछ दिनों के लिए मम्मी-पापा के पास मंगल ग्रह पर भी जाता था. साथ ही साल-दो साल में अपने दादा जी के पास नेप्च्यून ग्रह पर भी जाता था, मगर इस तरह हवा में उड़नेवाले होटल में सैर करना उसके लिए एक बिल्कुल नया अनुभव था.
मेगा 325 तो, ख़ैर, ज़िन्दगी में पहली बार कहीं घूमने के लिए निकला था. उसने तो अब तक सिर्फ़ वह फैक्ट्री, जहाँ उसे बनाया गया था, और बड़े दादा जी का घर, जिसमें वे लोग रहा करते थे, ही देखे थे. उसे तो यह पता ही नहीं था कि दुनिया इतनी बड़ी और विशाल है.
इन दो दिनों में उन लोगों ने दिल्ली से आगरा तक की सैर में ख़ूब आनन्द लिया. रास्ते में उस कमरे से उतरकर वे मथुरा और वृंदावन भी गए और वहाँ के मन्दिरों के दर्शन किए. आगरा में ताजमहल, आगरा का किला, फतेहपुर सीकरी, सिकन्दरा आदि जगहों पर वे लोग गए.
रविवार की शाम को जब वे लोग घर के अन्दर पहुँचे तो दो दिनों के सफ़र की थकावट के बावजूद बड़े दादा जी व शशांक बिल्कुल तरोताज़ा लग रहे थे. मेगा 325 तो, ख़ैर, रोबोट था और उसे न तो थकावट होती थी और न ही उसका मूड अच्छा-बुरा होता था, लेकिन उस पर भी तीन दिन पहले हुई शशांक के अदृश्य होनेवाली घटना का असर ख़त्म हो चुका था.
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