मेगा 325
हरीश कुमार 'अमित'
(4)
अगले सप्ताह रविवार की सुबह मम्मी-पापा को आना था. शशांक बड़ी अधीरता से उन दोनों के आने की प्रतीक्षा कर रहा था. बड़े दादा जी को भी उन लोगों का बहुत इन्तज़ार था.
मम्मी-पापा ने अपने यान से आना था. उनके यान ने उसी गगनचुम्बी इमारत की छत पर उतरना था जिसमें शशांक और बड़े दादा जी रहते थे.
पापा ने फोन पर बताया था कि वे लोग शनिवार की रात को मंगलग्रह से चलेंगे और रविवार की सुबह ठीक नौ बजे उस गगनचुम्बी इमारत पर उतर जाएँगे. बड़े दादा जी और शशांक ने तय किया था कि वे दोनों नौ बजने में दस मिनट पर ही छत पर चले जाएँगे - शशांक के मम्मी-पापा का स्वागत करने के लिए. उन दोनों से मिल पाने की बहुत अधिक अधीरता थी शशांक और बड़े दादा जी को.
नौ बजने में दस मिनट पर जब शशांक और बड़े दादा जी छत पर पहुँचे तो उन्होंने देखा कि एक विमान के पास शशांक की मम्मी खड़ी हैं और उनकी तरफ़ मुस्कुराकर देखते हुए हाथ हिला रही हैं.
''पापा कहाँ हैं?'' दूर से मम्मी को देखते ही यह सवाल शशांक के दिमाग़ में उभरा.
''तुम्हारे पापा नज़र नहीं आ रहे, बेटा.'' बड़े दादा जी ने विमान की ओर तेज़ी से कदम बढ़ाते हुए कहा.
''कहाँ चले गए पापा? कल रात से कितनी बार तो बात हुई है उनसे.'' शशांक की आवाज़ में चिन्ता का भाव था.
तब तक वे लोग विमान के पास पहुँच गए थे.
''पापा कहाँ हैं, मम्मी?'' दौड़कर मम्मी से लिपटते हुए शशांक ने कहा.
''हेलो, दादा जी!'' शशांक को प्यार से सहलाते हुए मम्मी ने बड़े दादा जी को विश किया.
''राहुल (शशांक के पापा) नज़र नहीं आ रहा? कहाँ पर है वह.'' बड़े दादा जी ने अधीरता से पूछा.
बड़े दादा जी और शशांक के सवाल सुनकर मम्मी ने कोई जवाब नहीं दिया, बस चुपचाप खड़ी मुस्कुराती रही.
''बताओ न मम्मी, पापा कहाँ हैं? कहीं नीचे घर की तरफ़ तो नहीं चले गए?'' शशांक ने बेचैनी-भरी आवाज़ में पूछा.
तभी पास से ही पापा की आवाज़ सुनाई दी, ''हेलो, दादा जी! हेलो शशांक!''
शशांक और बड़े दादा जी ने इधर-उधर देखा, लेकिन पापा उन्हें नज़र नहीं आए.
''कहाँ हो पापा आप?'' शशांक ने बेचैनी से इधर-उधर देखते हुए पूछा.
''कहीं प्लेन के उस तरफ़ तो नहीं तुम्हारे पापा?'' बड़े दादा जी ने कहा.
''नहीं-नहीं. मैं सामने ही हूँ. आप लोगों के आस-पास ही.'' पापा की आवाज़ फिर आई.
''पर हमें तो आप नज़र नहीं आ रहे पापा.'' शशांक कह उठा.
''लगता है तुम्हारे पापा ने जो नया आविष्कार किया है, उसे हम पर ही आजमाया जा रहा है.'' बड़े दादा जी ने अनुमान लगाया.
''हाँ, शायद ऐसा ही है.'' शशांक बोला.
''शायद नहीं, बिल्कुल ऐसा ही है.'' कहते हुए पापा एकदम से सामने प्रकट हो गए.
''अरे वाह, पापा. आपका आविष्कार तो एकदम जादू जैसा है!'' खुशी के मारे पापा से लिपटते हुए शशांक बोला.
''कमाल कर दिया राहुल बेटा तुमने तो!'' पापा का कंधा थपथपाते हुए बड़े दादा जी बोले.
''मैं तो सोच रहा था कुछ देर के लिए तुम्हारी मम्मी को भी ग़ायब कर दूँ. फिर यह इरादा फिलहाल छोड़ दिया.'' शशांक को प्यार से अपने से लिपटाते हुए पापा कहने लगे.
''क्यों पापा?'' शशांक ने प्रश्न किया.
''तुम्हारी मम्मी को ग़ायब करके अगर वापिस न ला पाया तो गड़बड़ हो जाएगी.'' पापा ने मुस्कुराते हुए कहा.
पापा की बात सुनकर बड़े दादा जी, मम्मी और शशांक हँसने लगे.
तभी बड़े दादा जी बोले, ''अगर हम यहीं खड़े-खड़े ही बातें करते रहेंगे तो पूरा दिन यूँ ही बीत जाएगा. बस आज के ही दिन के लिए तो आए हो तुम लोग. चलो, नीचे चलते हैं घर में.''
बड़े दादा जी की बात सुनकर सभी लिफ्ट की ओर बढ़ चले - नीचे घर में जाने के लिए.
*****
''पापा, बताओ न आपका आविष्कार कैसे काम करता है?'' शशांक पापा से पूछ रहा था.
बड़े दादा जी और मम्मी भी पास ही बैठे थे. मेगा 325 भी एक तरफ़ खड़ा था.
''बेटा, जो आविष्कार मैंने किया है वह खाने की एक गोली के रूप में है. यह गोली खाने से कोई आदमी दो घंटों के लिए दिखना बन्द हो जाता है.'' पापा ने बताया.
''दो घंटे बाद वह आदमी अपनेआप अपने असली रूप में आ जाएगा क्या?'' बड़े दादा जी ने पूछा.
''जी दादा जी, बिल्कुल सही कहा आपने. ग़ायब होने के पूरे दो घंटे बाद वह आदमी अपने पहले वाले रूप में आ जाएगा और दूसरों को दिखने लगेगा.'' पापा ने बताया.
''पापा, अगर किसी को एक घंटे बाद ही अपने असली रूप में वापिस आना हो, तो वह क्या करेगा?'' शशांक ने प्रश्न किया.
''बेटा, इस आविश्कार से अभी तो ऐसा होना सम्भव नहीं है. अभी मैं इस दिशा में और काम कर रहा हूँ. शायद आनेवाले समय में ऐसा मुमकिन हो सके.'' पापा ने उत्तर दिया.
तभी पास खड़ा मेगा 325 बोल उठा, ''ऐसा नहीं हो सकता क्या कि आधी गोली खाने से आदमी एक घंटे के लिए गायब हो जाए और एक चौथाई गोली खाने से आधे घंटे के लिए?''
मेगा 325 की यह बात सुनकर पापा हँसने लगे और फिर कहने लगे, ''भई मेगा 325, नहीं ऐसा नहीं हो सकता. आधी या एक चौथाई गोली खाने से तो आदमी पर पूरा असर होगा ही नहीं और वह गायब नहीं हो पाएगा.''
''पापा, अगर किसी ने यह गोली खा ली और उसके दस-पन्द्रह मिनट बाद ही उसे अपने असली रूप में आने की ज़रूरत पड़ जाए तो वह क्या करेगा?'' एक और सवाल किया शशांक ने.
''बेटा, फिलहाल ऐसा सम्भव नहीं है. इस आविष्कार में अभी और न जाने कितने सुधार हो सकते हैं. मैंने अभी कहा न कि इस दिशा में मैं और काम कर रहा हूँ. बहुत से और वैज्ञानिक भी इस सम्बन्ध में तरह-तरह के प्रयोग कर रहे हैं. इनमें से कौन-सा प्रयोग सफल होगा और कब सफल होगा - यह तो कहा नहीं जा सकता.'' पापा ने विस्तार से समझाया.
''पापा, आप इन गोलियों की आठ-दस शीशियाँ मुझे दे देना, ताकि मैं वे गोलियाँ इस मेगा 325 को खिला-खिलाकर इसे ग़ायब करता रहूँ. यह मुझे बहुत तंग करता है.'' शशांक पापा से कहने लगा.
''क्या कह रहे हो, बेटू? मेगा 325 तो आपकी और दादा जी की मदद करने के लिए है. यह कैसे तंग करता है आपको?'' मम्मी कहने लगीं.
''मम्मी, यह मेगा 325 जैसे हर वक्त मेरी जासूसी करता रहता है. हर वक्त यह देखता रहता है कि मैं पढ़ाई कर रहा हूँ या नहीं, मैंने खाना खा लिया या नहीं, मैं टाइम से सो गया हूँ या नहीं, मैं टाइम से उठ गया हूँ या नहीं और इसके अलावा भी जाने क्या-क्या.'' शशांक ने जैसे मेगा 325 की शिक़ायत की.
''अरे बेटा, इसे तंग करना थोड़े ही कहते हैं.'' पापा कहने लगे.
''इसे तो ध्यान रखना कहते हैं, बेटू.'' मम्मी ने शशांक को प्यार से समझाया.
''यह मेगा 325 तो हमारे परिवार के एक हिस्से जैसा है बेटा!'' बड़े दादा जी बोल उठे.
''सही कहा दादा जी आपने. यह मेगा 325 तो सारा-सारा दिन बिना कोई चूँ-चपड़ किए घर के कामों में ही लगा रहता है. यह तो आप लोगों के लिए बहुत मददगार है.'' पापा ने कहा.
''मेगा 325 से मिल-जुलकर रहो बेटू. यह तो तुम्हारे भाई जैसा है.'' मम्मी ने कहा.
पापा-मम्मी की बातें सुनकर शशांक ने 'हाँ' की मुद्रा में सिर हिला तो दिया, पर उसके मन से मेगा 325 के प्रति दुश्मनी का भाव कम नहीं हुआ.
मम्मी-पापा से बातें करते-करते पूरा दिन कब बीत गया - न तो बड़े दादा जी को पता चला और न ही शशांक को.
रात के नौ बजे मम्मी-पापा को वापिस जाना था. शशांक का मन चाह रहा था कि वे लोग वापिस जाएँ ही नहीं, मगर उन दोनों को जाना तो था ही.
अचानक शशांक के मन में यह बात आई कि पापा के नए आविष्कार से आदमी पूरे दो घंटे के लिए ग़ायब हो जाता है और दो घंटे से पहले अपने वास्तविक रूप में आ नहीं सकता, तो फिर सुबह पापा विमान के पास कैसे अचानक अपने असली रूप में आ गए थे. वह कुछ देर तक इस बारे में सोचता रहा, मगर इस पहेली को सुलझा नहीं पाया.
आखिरकार उसने पापा से पूछ ही लिया, ''पापा, आप तो कहते हैं कि आपके नए आविष्कार की गोली से आदमी दो घंटे से पहले अपने असली रूप में नहीं आ सकता. फिर सुबह प्लेन के पास आप अचानक कैसे असली रूप में दिखाई देने लग गऐ थे?''
शशांक का प्रश्न सुनकर पापा बहुत ख़ुश हुए और बोले, ''गुड क्वेश्चन! बहुत बढ़िया सवाल है! मुझे सुबह से ही लग रहा था कि तुम यह सवाल पूछोगे, बल्कि मुझे हैरानी हो रही थी कि अब तक तुमने यह बात पूछी क्यों नहीं मुझसे. दरअसल छत पर प्लेन से उतरने के करीब दो घंटे पहले ही मैंने अपने नए आविष्कार वाली गोली ले ली थी.''
''मगर पापा हम तो नौ बजने में दस मिनट पहले ही पहुँच गए थे छत पर आपको लेने के लिए.'' शशांक ने शंका जताई.
''बेटा, मैं दादा जी की आदत को अच्छी तरह जानता हूँ. ये हर काम को दस मिनट पहले ही पूरा कर लेना पसन्द करते हैं. मुझे मालूम था कि अगर हम लोगों ने सुबह नौ बजे यहाँ आने की बात कही है, तो दादा जी नौ बजने में दस मिनट पर ही ऊपर छत पर आ जाएँगे, इसलिए मैंने सात बजने में नौ मिनट पर ही वह गोली ले ली थी ताकि तुम लोगों के छत पर आने पर शुरू में अर्न्तध्यान दिखूँ और फिर अपने वास्तविक रूप में दिखने लग जाऊँ.'' पापा ने विस्तार से सारी बात समझा दी.
''पापा, ऐसा नहीं हो सकता कि आप मुझे वह गोली खिलाकर दो घंटे के लिए ग़ायब कर दें. कितना मज़ा आएगा फिर.'' शशांक कहने लगा.
''नहीं बेटा, अभी नहीं. अभी यह आविष्कार नया-नया हुआ है. अभी धीरे-धीरे पता चलेगा कि इस आविष्कार वाली गोली खाने से कहीं कोई नुक्सान तो नहीं होता. इसलिए अभी इस गोली का प्रयोग तुम पर नहीं किया जा सकता. आज सुबह इस गोली को खाकर मैंने अपने ऊपर जैसे एक प्रयोग ही किया था - इस अविष्कार का पूरा असर जानने के लिए.'' पापा ने शशांक को साफ-साफ समझाते हुए कहा.
''ठीक है, पापा. मान गया आपकी बात, लेकिन एक बार वे गोलियाँ दिखा तो दीजिए न हम सबको.'' शशांक ने एक नई बात सामने रखी.
शशांक की बात सुनकर पापा कुछ देर सोचते रहे और फिर कहने लगे, ''ठीक है. मैं दिखा देता हूँ गोलियाँ.''
इतना कहकर पापा ने अपना बैग खोला और उसमें से काले रंग की एक शीशी निकाली. फिर उन्होंने उस शीशी को शशांक की ओर बढ़ा दिया.
शशांक ने शीशी को हाथ में लेकर उल्टा-पुल्टा और फिर उस शीशी को खोलने की कोशिश करने लगा, मगर काफ़ी कोशिशें करने पर भी उसे खोल नहीं पाया.
उसे ऐसा करते देख पापा बोल उठे, ''यह शीशी ऐसे नहीं खुल सकती. इसे खोलने के लिए एक पासवर्ड है जो सिर्फ़ मुझे ही मालूम है.''
पापा की बात सुनकर शशांक ने मुँह खोलकर कुछ कहना चाहा ही था कि पापा बोल उठे, ''अब मुझसे वह पासवर्ड मत पूछने लग जाना.''
पापा की बात सुनकर सब हँसने लगे.
तभी मम्मी पापा से कहने लगी, ''भई, हमने वापिस भी जाना है. कल सुबह आपकी प्रेस कॉन्फ्रेंस है और मुझे भी ऑफिस का ज़रूरी काम है.''
''ठीक है, चलते हैं बस दस मिनट में.'' पापा ने कहा और अपना सामान समेटने लगे.
*****