Krantikari - 4 - last part in Hindi Moral Stories by Roop Singh Chandel books and stories PDF | क्रान्तिकारी - 4 - अंतिम भाग

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क्रान्तिकारी - 4 - अंतिम भाग

क्रान्तिकारी

(4)

"कुछ नहीं, सर! पत्रिका के काम में लगा हुआ हूं." शांतनु घबरा रहा था कि कहीं कोई विषय इस बार भी न थमा दें बच्चा बाबू. पकड़ा देंगे तो सुजाता के लिए कुछ करना ही होगा-- बच्चा बाबू से बड़ा सोर्स उसके पास कोई था नहीं. सुजाता की समस्या हल हो जाने से उसे अपनी समस्या हल होती नजर आ रही थी. उसके लगते ही सुजाता की मां के आ जाने की पूरी आशा थी. और यही नहीं, अब वह अन्दर-ही अन्दर सुजाता के प्रति एक लगाव -सा अनुभव करने लगा था.जब वह बेडौल शैलजा को सामने रख सुजाता को देखता, सुजाता के प्रति अजीब आकर्षण अनुभव करने लगता.

बच्चा बाबू केवल मुसकराये थे उस दिन और इतना ही कहा था, 'जिस दिन दयाल सिंह की वैकेन्सी निकले उस दिन आकर बता जाना और जब साक्षात्कार के लिए बुलाया जाये उसके एक दिन पहले बता जाना---बस."

वह और सुजात आश्वस्त होकर लौट पड़े थे.

सुजाता समझ रही थी कि शांतनु उसके लिए जी-तोड़ प्रयत्न कर रहा था. शांतनु उसके लिए अपने कॉलेज के पुस्तकालय से ढेर सारी पुस्तकें ले अया था पढ़ने के लिए. अपनी निजी लाइब्रेरी से तो छूट थी ही, सुजाता जो चाहे पुस्तक निकालकर पढ़े. शैलजा को पूरी तरह कार्यमुक्त कर दिया था सुजाता ने. सुबह जब तक शैलजा उठती, सुजाता सारा काम निबटा चुकी होती. शांतनु और शैलजा के जाने के बाद घर के शेष काम निबटाकर सुजाता कुछ-न कुछ पढ़ने बैठ जाती.

दयालसिंह के लिए वैकेन्सी निकल गयी थी और शांतनु वहां से फार्म लाकर सुजाता से भरवाकर जमा कर आया था. दूसरे दिन वह सुजाता को लेकर फिर बच्चा बाबू से मिलने गया था. लौटते समय शांतनु ने सुजाता से पूछा था कि क्यों न कनॉट प्लेस होकर घर लौटा जाय! सुजाता को कोई आपत्ति न थी. वह उसे वोल्गा ले गया था और वहां साढ़े नौ बजे रात तक बैठा रहा था. वह सुजाता को समझाता रहा था कि भाषा पर उसकी पकड़ मजबूत है और उसे कविता-कहानी, जो भी वह लिख सकती है, अवश्य लिखना प्रारंभ कर देना चाहिए."

"मैं और कविता-कहानी----- आप क्यों मेरा उपहास कर रहे हैं?" सुजाता खिलखिला उठी थी.

अपनी स्वाभाविक गंभीर मुद्रा में शांतनु बोला, "ऎसा मत कहो--- मैं कभी किसी का उपहास नहीं उड़ाता--- तुम मेरी बात को सीरियसली लो सुजाता."

सुजाता सोचने लगी कि शांतनु ने अवश्य उसमें कुछ ऎसा देखा होगा तभी तो कहा ! वैसे भी शांतनु उतनी ही बात कहते हैं जितनी आवश्यक होती है, यह वह जबसे आयी थी, देख रही थी.

कनॉट प्लेस से लौटते समय शांतनु ने थ्री ह्वीलर लिया और सुजाता से सटकर बैठा था. रास्ते भर सुजाता की काया का रह-रहकर स्पर्श उसे मिलता रहा था और उसके अन्दर बेचैनी उभरती रही थी.

दूसरे दिन सुजाता ने एक छोटी-सी कविता लिखी थी. रात खाने के समय उसने शांतनु को दिखाई. पढ़कर वह उछल पड़ा. शैलजा ने उसे शांतनु के हाथ से झटक लिया और उसने भी शिथिल स्वर में कविता की प्रशंसा की. उसकी प्रशंसा की ओर ध्यान न देकर शांतनु बोला,"क्या खूब विचार हैं-- गजब के क्रान्तिकारी ! मैं इस कविता को 'अग्रिम दस्ता' के लेटेस्ट अंक में छापूंगा."

"ऎसा तो नहीं है....." सुजाता ने कहना चाहा था, लेकिन उसे बीच में ही टोककर शैलजा बोली थी, "बाबा झूठ थोड़े ही बोलेंगे."

"अच्छा बाबा....." सुजाता खिलखिला उठी थी.

"बहुत नटखट हो तुम-----" सुजाता की आंखों में झांकते हुए शांतनु बोला था और उठकर अपना कविता संग्रह "क्रान्ति होकर रहेगी' शेल्फ से निकालकर सुजाता के सामने रख दिया था.

"वाह साहब, तो यह भी एक उपलब्धि है आपकी----- पहले क्यों नहीं बताया था?" सुजाता की आंखें चमत्कृत थीं.

"हर समय-- हर बात नहीं बतायी जाती सुजाता--- इसे गंभीरतापूर्वक पढ़ना, फिर बताना कैसी लगीं. "

डाइनिंग टेबुल पर वही दोनों बचे थे. शैलजा उठकर आराम करने चली गई थी. देर रात तक शांतनु सुजाता को कविता और उसकी क्षमता, शब्द-शक्ति और बिम्ब विधान आदि के बारे में बताता रहा था और यह भी कि आज ऎसी रचनाओं की आवश्यकता है, जो सर्वहारा को आंदोलित कर सकें----उन्हें क्रान्ति के लिए सन्नद्ध कर सकें. बिना क्रान्ति के शोषण-मुक्त समाज की कल्पना रेत-महल की भांति है-----."

शांतनु ने देखा था कि सुजाता उसकी बातों से प्रभावित हुई थी.

दूसरे दिन शाम चार बजे ही शांतनु घर आ गया. सुजता उसका कविता संग्रह पढ़ रही थी उस समय. शांतनु को अच्छा लगा, लेकिन उसने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. सोफे पर धंसते ही बोला, "एक कप चाय पिला दो सुजाता- थक गया हूं."

सुजाता चाय बना लायी तो कप लेते हुए शांतनु ने उसकी आंखों में झांकते हुए पूछा, "कैसा लगा कविता संग्रह?"

सुजाता भी चाय लेकर सामने सोफे पर बैठ गई और बोली, "केवल दो रह गई हैं पढ़ने को----- बस ऎसा लगता रहा कि जल्दी ही क्रान्ति होकर रहेगी----- क्या कविताएं लिखी हैं आपने?"

"अवश्य होकर रहेगी क्रान्ति-- अगर तुमने चाहा तो !" मन-ही मन खुश होते हुए ऊपर से गम्भीरता ओढ़े शांतनु बोला.

"क्या मतलब?" सुजाता चौंकी.

"मतलब यह", गर्म-गर्म चाय जल्दी से घुटककर कप तिपाई पर रख सुजाता की उंगलियां छूकर वह बोला, "इनके सहयोग की जरूरत है---- यानी तुम्हारी लेखनी अब निरंतर चलती रहनी चाहिए----- फिर देखना."

"ओह!" सुजाता ने लम्बी सांस ली और अंतिम घूंट लेकर कप रख दिया. शांतनु उठकर उसके बगल में आ बैठा, फिर सुजाता का दाहिना हाथ अपने हाथ में ले बोला, "तुम्हें अपने को पहचानना चाहिए, सुजाता ! मैं तो शैल से भी कहता रहा---- शुरू में तो उसने कुछ उत्साह दिखाया भी, लेकिन बाद में घर-दफ्तर में अपने को खपा दिया-----अरे, अपनी प्रतिभा को मारने के बजाय उसे विकसित करना चाहिए-----और मैं देखता हूं तुममें प्रतिभा है."

सुजाता ने हाथ खींच लिया और वक्र दृष्टि से शांतनु को निहारती रही. उसके इस प्रकार देखने से शांतनु अपने अंदर भूचाल -सा उठता महसूस करने लगा. उसे सुजाता की गोल-गुलाबी मुखाकृति, स्निग्ध त्वचायुक्त सुगठित शरीर और बड़ी-बड़ी मोहक आंखें आकर्षित करने लगीं. उसने लपककर उसे चूम लिया. सुजाता विद्युत गति से उठकर दूसरे सोफे पर जा बैठी और बोली, "आने दो शैल को------." उस क्षण उसके गाल सुर्ख हो रहे थे.

शांतनु ने उठना चाहा, तभी घंटी घनघना उठी. सुजाता ने दरवाजा खोला---- शैलजा थी. सुजाता और शांतनु--- दोनों ही उसकी सेवा में व्यस्त हो गये थे.

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डॉक्टर ने शैलजा को कमजोरी बतायी थी और दस दिन आराम करने की सलाह दी थी. शैलजा का केवल एक माह बचा था और वह केवल एक सप्ताह पूर्व मैटर्निटी लीव लेना चाहती थी. दस दिन के लिए उसने 'मेडिकल लीव' अप्लाई कर दी.

सुजाता पूरी तरह उसकी सेवा में व्यस्त रहने लगी. शांतनु उसके लिए दो बार और बच्चा बाबू से मिल आया था और हेड से मिलकर तय कर लिया था कि सुजाता को दयालसिंह में रख देने पर शांतनु और उसके साथी 'भाग्यवती कॉलेज' में होने वाली आगामी नियुक्ति में हेड के कैण्डीडेट का विरोध नहीं करेंगे.

लेकिन एक दिन शांतनु ने रात खाने के समय बताया, दयालसिंह में पहले से ही रेगुलर और 'लीव वैकेन्सी' के 'अगेंस्ट' लोग काम कर रहे हैं और संघी धड़े वाले एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं उनको नियुक्ति दिलाने के लिए. सुजाता का विरोध तो अवश्य होगा--क्योंकि यह मेरे यहां रहती है. यह बात भी हो रही है कि मैं सुजाता के लिए हेड को पटा रहा हूं."

"फिर--?" सुजाता का चेहरा उदास हो गया था.

"तुम इतने से ही घबरा गयीं! अरे, इन अंघियों -संघियों से निबटना आता है मुझे-- तुम चिन्ता क्यों करती हो."

सुजाता कुछ नहीं बोली. शायद वह पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो पा रही थी.

"और तुम्हारे क्या हाल हैं, मैडम?" शांतनु ने पत्नी से पूछा.

"सोचती हूं अभी से अप्लाई कर दूं छुट्टी ---- हिम्मत नहीं पड़ती दफ्तर जाने की."

शांतनु कुछ सोचने लगा, फिर बोला, "और तो कोई उपाय नहीं है---- कर दो." फिर उसने सुजाता की ओर देखा.

"सुजाता, ऎसा करते हैं---- कल चलकर एक बार फिर बच्चा बाबू से मिल लेते हैं--- शायद जल्दी ही इन्टरव्यू होने वाले हैं."

"चलिए." बुझे स्वर में बोली सुजाता.

दूसरे दिन शांतनु सुजाता को लेकर बच्चा बाबू के यहां गया, लेकिन ज्ञात हुआ कि वे पी.एम. के साथ हैदराबाद के दौरे पर गये हैं---दो दिन बाद लौटेंगे. वहां से दोनों कनॉट प्लेस चले गये और वोल्गा में कुछ देर बैठकर लौटे.

शैलजा ने छुट्टियों की एप्लीकेशन भेज दी और अब वह दिन गिनने लगी थी.उसे इस बात में कोई रुचि नहीं रही थी कि सुजाता की नौकरी का क्या हो रहा था और शांतनु कब-कहां आता-जाता था.वह या तो दिन भर लेटी रहती या आने वाले शिशु के लिए कपड़े-कच्छी या स्वेटर तैयार करती रहती. नवम्बर शुरू हो गया था और डॉक्टर द्वारा दी गई तारीख के अनुसार दस दिन शेष थे. प्रथम प्रसव के कारण वह जितना आतंकित थी, उससे कहीं अधिक प्रसन्न थी. वह जिस चीज की इच्छा व्यक्त करती, सुजाता तुरन्त उसके लिए तैयार करके देती. अस्पताल के लिए किन-किन चीजों की जरूरत होगी, शैलजा के निर्देश पर सुजता उन्हें व्यवस्थित करके एक ओर संभालकर रखती जा रही थी.

और उसी में शेष दिन भी बीत गए.

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जिस दिन दोपहर की डाक से सुजाता को दयाल सिंह कॉलेज से इंटरव्यू लेटर मिला, उसके कुछ देर बाद ही शैलजा को प्रसव-पीड़ा प्रारंभ हो गई. सुबह ही शैलजा ने शांतनु को तबीयत अजीब होने की आशंका व्यक्त कर सीधे घर आ जाने के लिए कह दिया था. शैलजा कराहने लगी तो सुजाता घबड़ा उठी. वह बार-बार दरवाजे पर जाकर शांतनु को देखने लगी. साढ़े तीन बजे के लगभग शांतनु आया. सुनकर वह टैक्सी लेने दौड़ा. सुजाता भी शैलजा के साथ ’आल इंडिया इंस्टीट्यूट ’ गई. शैलजा को एडमिट कराकर दोनों बाहर बेंच पर बैठ गए. शैलजा की प्रसव-पीड़ा बढ़ गई थी और शांतनु का चेहरा सूख-सा रहा था.

"आप कुछ अधिक ही परेशान हैं." सुजाता ने छेड़ा उसे.

"नहीं, ऎसा तो नहीं है." शांतनु ने मुसकराने की कोशिश की.

"आज बुलावा आ गया है."

"कैसा बुलावा ?"

"नहीं समझे ! क्यों बुद्धू बन रहे हैं !" झिड़का था सुजाता ने--"आज दोपहर इंटरव्यू लेटर आ गया है."

"मुबारक हो."

"फिर कब चलेंगे बच्चा बाबू के यहां ? उन्हें बताना होगा न !"

"कब है इंटरव्यू ?"

"तीस की दोपहर दो बजे."

"अभी कई दिन हैं. कल या परसों शाम चलेंगे..आज रात तक शायद शैल का रिजल्ट----."

"रात नहीं तो सुबह तक तो निश्चित ही आ जाएगा." सुजाता मुसकरा दी तो शांतनु ने उसके गाल पर चिकोटी काट ली.

’सी’ कर सुजाता थोड़ा खिसक गई.

रात दस बजे के लगभग नर्स ने कहा, "आप लोग कल सुबह आएं. अभी उसे वक्त लगेगा और डाक्टर ने किसीको भी न रुकने के लिए कहा है."

शांतनु और सुजाता उठ खड़े हुए. बाहर सड़क पर आकर शांतनु ने थ्री व्हीलर लिया. आज पुनः सुजाता के शरीर का स्पर्श उसे सुखकर लग रहा था और उसे बेचैन कर रहा था.

घर पहुंचकर कपड़े बदल वह बेड पर लेट गया और बोला, "सुजता, मेरी तो इच्छा है नहीं कुछ खाने की. तुम चाहो तो अपने लिए कुछ बना लो."

"बनाना क्या, सुबह का बना फ्रिज में रखा है. लेकिन इच्छा तो मेरी भी नहीं है---."

"फिर कुछ देर बातें करते हैं. तुम चाहो तो कपड़े बदल लो. इजी हो जाओ. फिर---" सुजाता की आंखों में झांकते हुए वह बोला.

सुजाता दूसरे कमरे मे चली गई और गाउन पहनकर सोफे पर आ बैठी.

"वहां क्यों बैठ गईं! इधर आ जाओ. कंबल पैरों पर डाल लो."

सुजाता बेड पर बैठ गई शांतनु के दूसरी ओर. शांतनु की नजरें उसके चेहरे पर गड़ी थीं. अचकचाकर सुजाता ने पूछ लिया----" ऎसे क्या देख रहे हैं ?"

"बस, ऎसे ही." शांतनु का मन हुआ, उसे दबोच ले बाज की तरह ; लेकिन वैसा न कर पूछा, "कोई और कविता लिखी ?"

"कविता नहीं, इस समय इंटरव्यू की बात कीजिए."

"अरे, उसकी चिंता तुम क्यों कर रही हो! तुम्हारा सेलेक्शन श्योर है ! आज मैं प्रॉमिस लेकर आया था हेड से."

"सच!”

"तो तुम क्या समझती हो,मुझे तुम्हारी बिलकुल ही चिंता नहीं ! अब इस विषय को मुल्तवी करो कल तक के लिए. कल या परसों हम चलेंगे ही बच्चा बाबू के यहां."

"जैसा आप चाहें; मुल्तवी कर देती हूं."

"अब हम कविता की बात क्यों न करें! तुम्हारी कविता, तुम्हारे क्रांतिकारी विचार-----" सुजाता का हाथ अपने हाथ में थाम बोला शांतनु.

"और आप अपने कविता संग्रह की बात क्यों नहीं करते ! बहुत कुछ तो मैंने आपसे सीखा है !" हाथ ढीला छोड़ वक्र दृष्टि उसपर डाल सुजाता बोली.

"और भी बहुत कुछ सिखा दूंगा तुम्हें, सुजाता." शांतनु सुजाता को अपनी ओर खींच बोला, "सच सुजाता, कविता की तरह तुम भी मुझपर छा गई हो! क्यों न हम आज एक नई कविता गढ़ें----और क्रांति होकर ही रहे.

सुजाता न-न तो कर रही थी, लेकिन उसके विरोध में शक्ति न थी. शांतनु उसके विरोध को उसकी स्वीकृति समझ रहा था. उसके हाथ क्रांति की जमीन तैयार करने में व्यस्त हो गए थे. सुजाता लगातार अपने पर उसका दबाव महसूस करती जा रही थी और क्षण भर बाद-- सुजाता की चीख के साथ शांतनु की क्रांति शुरू हो गई थी.

उस समय ’अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान’ में शैलजा प्रसव की मर्मांतक पीड़ा से छटपटा रही थी.

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