Zee-Mail Express - 25 in Hindi Fiction Stories by Alka Sinha books and stories PDF | जी-मेल एक्सप्रेस - 25

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जी-मेल एक्सप्रेस - 25

जी-मेल एक्सप्रेस

अलका सिन्हा

25. अब मेरी बारी थी

आज किसी से नमस्ते करने का भी साहस नहीं जुटा पा रहा था। चुपचाप अपनी सीट पर जा बैठा। धमेजा ने मुझे देखकर भी अनदेखा किया। पता नहीं, मुझसे नजरें मिलाकर वह मुझे शर्मिंदा नहीं करना चाहता था, या फिर उसने मेरा बहिष्कार किया था। फिलहाल, मेरी स्थिति ऐसी नहीं थी कि मैं अपनी सफाई में कुछ कहता। मैंने अपना चेहरा फाइलों में छुपा लिया।

‘‘साब जी, आपका फोन बज रहा है...’’ चपरासी शायद बात करने का बहाना तलाश रहा था मगर मेरा फोन सच में बज रहा था। घबराहट पर काबू करते हुए मैंने फोन उठाया।

‘‘फाइलें छोड़ और गेट पर पहुंच, जल्दी।’’ वही कल वाली आवाज थी।

मैं चुपचाप गेट की तरफ बढ़ लिया।

कैसे यह मेरे बारे में सब जान लेता है? मैं कब कहां बैठा हूं, क्या कर रहा हूं, इसे कैसे खबर हो जाती है? यानी कोई है जो मुझ पर निगाह रखे रहता है। मन हुआ कि दरवाजों, दीवारों की ओट में झांकू कि कौन कहां छुपा है, मगर तब तक मैं गेट पर पहुंच चुका था। बिना किसी हुज्जत, मैं चुपचाप उसकी गाड़ी में बैठ गया। समझ गया, अब यह रोज की यातना है। इसी तरह मुझे कभी भी, कहीं भी बुलाया जा सकता है और मुझे उनके हुक्म की तामील करनी है।

आज वे मुझे किसी और स्थान पर ले गए। शायद उन्होंने अलग-अलग जगहों पर अपने जांच ठिकाने बना रखे हैं ताकि कोई उनके बारे में सही-सही कुछ पता न लगा पाए।

मकान के भीतर बड़े वाले कमरे में इन्वेस्टिगेशन रूम जैसा बना था। वहां पहले से दो नौजवान लड़के खड़े थे जिनमें से एक तो फिल्मी हीरो की तरह आकर्षक था। वह तीनों जांच अधिकारियों से घिरा अपनी बात कह रहा था।

‘‘फैशन डिजाइनिंग कोर्स के फाइनल इयर में हमें एक फैशन शो आयोजित करना था।”

मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि फैशन जगत से संबंधित वह युवक अपना बयान दर्ज करा रहा था।

“पहले ही शो में मेरी मुलाकात एक ऐसी मॉडल से हुई जो काफी उत्तेजक स्वभाव की थी। कॉस्ट्यूम पहनते हुए वह बार-बार मुझे ग्रीन रुम में बुला लेती और लड़खड़ा कर गिरने का स्वांग करते हुए मुझसे लिपट जाती। इस लाइन में तब मैं नया-नया आया था, उसकी ये हरकतें मुझे हैरान करतीं। जल्दी ही मैं इस तथ्य को समझ गया कि मेरी मॉडल जब मेरे तैयार किए लिबास पहनकर सामने आती है, तब वह यह परखना चाहती है कि क्या वह इस परिधान में पागल कर देने की हद तक खूबसूरत लग रही है? अगर हां, तो लाजमी है कि मैं होशोहवास खोकर उससे लिपट जाऊं, उससे प्यार कर बैठूं ताकि जब वह रैम्प पर इतराती हुई चले तो उसके भीतर का सुरूर मेरे शो को और भी जीवंत कर दे।”

वह कह रहा था कि इस तरह की संलिप्तता उसके व्यवसाय की मांग है और कई बार ये लोग अपनी खातिर नहीं, बल्कि किसी दूसरे की खातिर भी शारीरिक संबंध स्थापित करते हैं ताकि कोई मॉडल पूरी तरह संतुष्ट होकर, भरपूर आत्मविश्वास के साथ अपना प्रदर्शन कर सके।

उसने बताया कि लगभग तीन साल बैंगलूरू में रहने के बाद जब वह दिल्ली आने लगा तब उसकी एक मॉडल ने उसे पूर्णिमा का पता दिया। उस संपर्क के जरिये वह पूर्णिमा से मिला और तब से वह पूर्णिमा के साथ है। उसने स्वीकार किया कि अपने शोज़ के अलावा वह ऐसी पार्टियों में जाना पसंद करता है जहां उसकी नए-नए चेहरों से मुलाकात होती है।

उसकी साफगोई मेरे लिए हैरानी का सबब थी। मुझे इस बात की भी हैरानी थी कि वह न तो अपने बारे में कुछ छुपा रहा था, न ही अपने किए के प्रति शर्मिंदा था।

उसका मानना था कि दक्षिण भारत में ऐसे संबंध बहुत आम हैं और फैशन या फिल्म जगत से बाहर भी इतने ही प्रचलित हैं। बड़े-बड़े डॉक्टर, इन्जीनियर, टेक्नोक्रैट्स और मल्टीनेशनल कंपनियों में महत्वपूर्ण पदों पर काम करने वाले प्रोफेशनल्स तक अपने-अपने कारणों से ऐसे संबंधों को जी रहे हैं। उसके हिसाब से ये संबंध दोनों पक्षों की इच्छा और सहमति से बनाए जा रहे हैं और इसमें समाज या सरकार के उंगली उठाने का कोई आधार नहीं है।

जांच अधिकारियों को उसके तर्कों का जवाब देने की कोई बाध्यता नहीं थी, लिहाजा उन्होंने बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए उसे जाने का इशारा किया और दूसरे लड़के को बुला लिया।

‘‘मैं सिर्फ दो औरतों के लिए काम करता हूं।’’ दूसरे लड़के ने कुछ पूछने से पहले ही बता दिया।

‘‘ये दोनों औरतें भी मेरी तरह मजबूर हैं, इसलिए मुझे तकलीफ सहने में भी परेशानी नहीं होती।’’

उसकी दलील पर तीनों हंसने लगे, ‘‘कैसी तकलीफ सहता है तू -- जी मेल?’’ एक ने पूछा।

‘‘वह मेरे हाथ-पैर बांधकर मुझ पर जबरदस्ती करती है और मैं उसे करने देता हूं...’’

उस लड़के ने बताया कि उस महिला का कभी रेप किया गया था और वह छटपटाकर रह गई थी।

‘‘इस तरह जबरदस्ती कर वह अपनी भड़ास मुझ पर निकालती है। मुझे छटपटाता देखकर वह संतुष्ट होती है... इसी संतुष्टि के मुझे पैसे मिलते हैं। मुझे पैसों की जरूरत है और उसे संतुष्टि की।’’

उसकी बात सुनकर सब सकते में आ गए।

‘‘पैसों की जरूरत है तो कोई ढंग का काम क्यों नहीं करता?’’ भारी आवाज वाला कुछ नरम पड़ गया था।

‘‘मुझे तो मिल नहीं पाया, आप दिलवा दो कोई ढंग का काम।’’

लड़का उसकी नरमी से प्रभावित हुए बिना उसे चुनौती दे रहा था, ‘‘एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी मिली थी। बिना तारीख का रिजाइन लेटर पहले ही साइन कराके अपने कब्जे में रख लिया। हर बार गरमी की छुट्टी में निकाल देते थे और नए सेशन में नई भरती दिखाते थे।’’

कुछ पल रुककर उसने बताया कि मनोविज्ञान में विशेषज्ञता के साथ पोस्ट ग्रैजुएट होने के बावजूद उसे छोटी क्लासों में हर विषय पढ़ाना पड़ता था। इससे उसे न तो मानसिक संतुष्टि ही मिल रही थी, न ही समुचित मेहनताना। दूसरी ओर उसके ये दो क्लाइंट्स उसे संतुष्टि भी दे रहे थे और अपेक्षित मेहनताना भी।

‘‘अच्छा, अपने दूसरे क्लाइंट के बारे में बताओ।’’ खूंखार चेहरे वाले ने नियंत्रित स्वर में आदेश दिया।

‘‘उसकी मनोवृत्ति बहुत अजीब तरह की है...’’ लड़का हौले से हंसा, ‘‘वह मुझे एक ही बार में अनेक बार भोगती है।’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘उसका पति उससे संबंध तो बनाता है मगर उसकी जरूरत के लायक प्यार नहीं दे पाता। वह खुद तो एक बार में संतुष्ट होकर खाली हो जाता है जबकि इस औरत की भूख और तेज हो जाती है। वह चाहती है कि अभी उसका पति उसे और प्यार दे मगर वह उसकी उत्तेजना से बेपरवाह करवट बदल कर गहरी नींद सो जाता है।”

उसने बताया कि आजकल की लड़कियां ऑर्गैज्म के प्रति अति सजग हैं और उसे न पा सकने की स्थिति में वे भी असंतोष और आक्रोश से उसी प्रकार छटपटाती हैं जिस प्रकार पुरुष।

“पुरुषों के लिए चरम को प्राप्त करना जितना सहज है, उतना स्त्रियों के लिए नहीं। स्त्रियों के लिए यह स्थिति कुछ देर से आती है और इसके लिए अलग-अलग प्रकार के यत्न भी करने पड़ते हैं।”

उसने अपनी इस क्लाइंट के हवाले से बताया, “इन महिलाओं को इस सुख का चरम तो मिलता है मगर एक बार में उसकी पूर्णता हासिल नहीं होती। वे इसे देर तक, दूर तक और एक ही खेप में कई-कई बार भोगना चाहती हैं जिसके लिए उन्हें हर बार नए और मुख्तलिफ रास्तों से चरम तक ले जाना होता है। इसे ‘मॉर्गैज्म’ यानी ‘मल्टिपल ऑर्गैज्म’ कहते हैं... पूर्णिमा भी इसी श्रेणी में आती है।”

उसकी जानकारी से मेरा मुंह खुला रह गया।

“तुमने मनोविज्ञान में विशेषज्ञता हासिल की है या कामशास्त्र में?” मुख्य जांच अधिकारी ने हलके व्यंग्य से पूछा। हालांकि, उसके स्वर में व्यंग्य से अधिक हैरानी थी।

उसने बताया कि वह पूर्णिमा के पति का दूर का भाई था और गांव से दिल्ली आने पर शुरू-शुरू के दिनों में उन्हीं के साथ रहता था। तब कई बार उसने महसूस किया कि पूर्णिमा बीच रात अपने कमरे से बाहर निकल आती और सहन में जाकर टहलने लगती।

“मैं अपनी पढ़ाई में लगा होता मगर इतनी रात गए उसका इस तरह बाहर निकलकर टहलना, उसके मनोविज्ञान को समझने के लिए मुझे आमंत्रित करने लगा और मैं उस पर नजर रखने लगा। मैंने पाया कि वह अपने ही अंगों को सहलाती है, उत्तेजित होकर छटपटाती है।”

उसने कहा, “प्यार की जरूरत तो हर प्राणी को है। हां, इस की खुराक हर किसी के लिए अलग-अलग हो सकती है। पूर्णिमा का पति इस बात को समझ नहीं पाता और उसकी दोबारा-तिबारा की मांग पर अक्षम होकर झल्लाने लगता। वह उसकी इस चाहत को हवस कहकर दुत्कारता।”

उसने बताया, “पूर्णिमा की अतृप्तता जल्दी ही मुझे उसके करीब ले आई और हमने इस पर खुल कर चर्चा की। मैंने पाया कि पूर्णिमा के भीतर एक तरह की ग्रंथि पनपने लगी थी। उसके भीतर कई सवाल अनुत्तरित पड़े थे, मसलन, पति की तरह वह भी पूरी तरह संतुष्ट क्यों नहीं होती? क्या वह बदचलन, आवारा है? क्या उसकी यह मांग प्रेम न होकर हवस है? वासना है? क्या उसकी यह छटपटाहट नाजायज है? क्या इसका कोई हल नहीं?”

उसने बताया कि उसका पूर्णिमा से ऐसा कोई संबंध कभी नहीं बना। वह तो उसे उसकी परेशानी से निजात दिलाना चाहता था। इसलिए उसने पूर्णिमा को कुछ सेक्स ट्वायज के बारे में बताया जो उसे चरम तक पहुंचाने में सहायक हो सकते थे। मगर उसका पति ऐसे विकल्पों की जानकारी से पूर्णिमा के चरित्र पर संदेह करने लगा और एक रोज उसने उन दोनों को बदनाम कर अपने घर से निकाल दिया।

उस युवक ने बताया कि उसके बाद वह पूर्णिमा से कभी नहीं मिला मगर वह समझ सकता है कि अधूरेपन की छटपटाहट और चरित्र पर लगे झूठे आरोप की तिलमिलाहट से पूर्णिमा और भी आक्रामक हो उठी होगी और उसने यह रास्ता अपना लिया होगा।

“मैं पूर्णिमा की अतृप्तता की छटपटाहट का साक्षी हूं इसलिए सावधान करना चाहता हूं कि आप किसी की स्वाभाविक भूख को इस तरह नजरअंदाज नहीं कर सकते, वरना नतीजे बहुत बुरे होंगे। समाज में विकृत संबंधों की जड़ें गहराती जाएंगी और आप चरित्र और नैतिकता का ढोल पीटते रह जाएंगे।”

वह काफी आक्रोश में था और बेखौफ उन्हें ललकार रहा था, “अगर कोई औरत मां नहीं बन सकती और बच्चा गोद ले लेती है तब उसके बांझपने के दर्द को महसूस करने में आपको दुविधा नहीं होती, उसकी अतृप्त ममता को पहचान कर आप उसके बच्चे को स्वीकार कर लेते हैं? जब कोई अपना वीर्य गिरवी रखकर सरोगेट मदर के जरिये बच्चा हासिल करता है, तब उसे मान्यता देने में तो समाज आनाकानी नहीं करता? सारा आदर्श, सारी मर्यादा सेक्स पर आकर क्यों ठहर जाती है? क्या इसलिए कि इससे किसी को शारीरिक सुख और मानसिक संतुष्टि मिलती है और आप परपीड़ा में सुख उठाने वाले, यानी ‘सेडिस्ट’ हो चुके हैं? आपसे उसकी यह खुशी बरदाश्त नहीं होती? किसी को तकलीफ में देखना आपको संतुष्ट करता है? इसलिए कि कहीं-न-कहीं आप भी खुद में बहुत असंतुष्ट और अतृप्त हैं?”

उसने दूसरी तरह से भी अपना तर्क रखा, “अगर मां की छाती में इतना दूध नहीं उतरता कि वह अपने बेटे का पेट भर सके तो आप उसे गाय या पाउडर का दूध नहीं पिलाते? एक छोटे-से बच्चे की भूख को आप पहचानते हैं मगर एक भरे-पूरे बदन वाली औरत की भूख को पहचानना नहीं चाहते? क्यों? चारित्रिक दृढ़ता की आड़ में स्त्रियों को इस सुख से वंचित रखने का क्या औचित्य है? अग्निपरीक्षाएं औरतों के लिए ही क्यों तैयार की जाएं? लंबे समय की चुप्पी के बाद औरतों ने अपनी प्यास को पहचाना है और अब वे भी इस सुख की हिस्सेदार बनना चाहती हैं, तो आप सभी को इतनी परेशानी क्यों है?”

पासा पलट गया था, वह लड़का सवाल पर सवाल पूछे जा रहा था और वे तीनों निरुत्तर खड़े थे।

जांच अधिकारियों ने उस लड़के को संपर्क में बने रहने की हिदायत के साथ वापस भेज दिया और अब मेरी बारी थी।

(अगले अंक में जारी....)