Zee-Mail Express - 24 in Hindi Fiction Stories by Alka Sinha books and stories PDF | जी-मेल एक्सप्रेस - 24

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जी-मेल एक्सप्रेस - 24

जी-मेल एक्सप्रेस

अलका सिन्हा

24. तहकीकात

कुछ ही देर में गाड़ी झटके से रुकी और एक-एक कर हम तीनों गाड़ी से नीचे उतर गए।

यह कोई सरकारी कॉलोनी थी। सीढ़ियां चढ़कर हम पहली मंजिल पर पहुंचे। उस पहलवान ने खास ऋद्म में दस्तक दी और दरवाजा खुल गया।

भीतर घुसने पर मैंने खुद को किसी दफ्तर जैसी जगह में पाया। मुझे एक कुरसी की तरफ बैठने का इशारा कर वह व्यक्ति भीतर चला गया, धमेजा ने मुझे जिसका सहयोग करने को भेजा था। पहलवान अभी भी वहीं डटा था।

मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था कि मुझसे इन्हें क्या मदद चाहिए और सहयोग लेने का यह कौन-सा तरीका है। मैंने संयत होने की कोशिश की और सामान्य भाव से सामने के गलियारे की तरफ देखने लगा। गलियारे की ओट से भीतर के कमरे का अधूरा-सा दृश्य दिखाई दे रहा था जिसमें 18-20 बरस का कोई लड़का कुछ बता रहा था। उसका चेहरा मैं ठीक से देख नहीं पा रहा था, मगर उसकी आवाज सुनाई पड़ रही थी--

‘‘इंजीनियरिंग पूरी करने में ही इतना कर्ज चढ़ चुका है कि अब तो फॉर्म भरने के लिए भी पैसे नहीं हैं पास में।’’ वह कह रहा था कि नौकरी के लिए वह पिछले दो साल से भटक रहा है।

‘‘मेरा भविष्य चौपट हो गया।’’ वह रो पड़ा था।

‘‘खुशी से कोई नहीं आता इस धंधे में, नौकरी मिलने पर खुद ही छोड़ देता यह सब...’’ वह अपने आप में बड़बड़ा रहा था।

उसकी बात सुनकर मेरा मन अनजानी आशंका से सिहर उठा।

‘‘सर जी, मेरी मां से ना बताना यह सब, वह तो सदमे से ही मर जाएगी...’’ वह गिड़गिड़ा रहा था।

‘‘ठीक है, नहीं बताएंगे, मगर तू हमें अपने सब साथियों और अड्डों का पता देगा, मंजूर?’’ दरवाजे की ओट से किसी की भारी-सी आवाज सुनाई दी।

‘‘हम किसी को नाम से नहीं जानते। इस धंधे में किसी की पर्सनल जानकारी शेयर नहीं की जाती है।’’ उसने हाथ जोड़ लिए।

मैं देख रहा था कि उसकी भाषा, उसका पहनावा, उसके पढ़े-लिखे और भले घर का होने के सबूत थे।

वह बता रहा था, ‘‘हमारे मोबाइल पर कोई नंबर नहीं आता, बस ‘जी-मेल’ लिखा होता है।”

“जी मेल, मतलब? ...गूगल मेल?” भारी आवाज जोर से दहाड़ी थी।

“जी का मतलब—जिगोलो, मेल मतलब—लड़का,” उसने जवाब दिया, “मैसेज से ही हमें समय और जगह की जानकारी दे दी जाती है। इससे ज्यादा हम अपने क्लाइन्ट के बारे में कुछ नहीं जानते।’’ उसने अपना फोन अधिकारी की ओर बढ़ा दिया।

फोन लेकर वह व्यक्ति गलियारे से बाहर निकल आया। उसके पीछे-पीछे वह लड़का भी बाहर आ गया।

उनके बाहर निकलते ही पहलवान ने मुझे बाईं बांह से पकड़कर उठा दिया। लगभग घसीटते हुए वह मुझे गलियारे पार वाले कमरे में ले गया और एक कुरसी पर पटक दिया। पलक झपकते ही इतना सब हो गया कि मैं अपने होशोहवास खो बैठा।

‘‘क्यों पकड़कर लाए हो मुझे यहां...?’’ मैं चीखना चाहता था मगर मेरी घिग्घी बंध गई थी।

‘‘छोड़ दो इसे!’’ मैंने देखा, मेज की दूसरी तरफ मुझे यहां लाने वाले व्यक्ति के अलावा दो व्यक्ति और बैठे थे जिनके चेहरे इतने खूंखार थे कि देखते ही दहशत होती थी।

पहलवान ने मेरी बांह छोड़ दी थी, मगर उसकी जकड़ अब भी महसूस कर रहा था।

‘‘इसे ही खोज रहा था?’’ यह वही भारी आवाज थी, जिसे अभी बाहर से सुन रहा था।

मैंने हैरानी से देखा, उसके हाथ में वही नीली डायरी थी जिसे देखने के लिए कुछ देर पहले मैं व्याकुल था। मगर इन्होंने कैसे जाना कि मैं इसे तलाश रहा था?

‘‘ये तेरी डायरी है?’’ उसने दोबारा पूछा।

‘‘हां। ...मेरा मतलब है, नहीं।’’

‘‘हां या नहीं?’’ पहलवान का हाथ मेरे गिरेबान तक आ पहुंचा था।

जब तक मैं कुछ कहता तब तक दूसरे व्यक्ति का सवाल सिर पर हथौड़े की तरह पड़ा, ‘‘क्यों बे जी-मेल, तू कितनी फी-मेल के संपर्क में रहा है?’’

‘‘कब से चल रहा है ये जिगोलो धंधा?’’

‘‘...और कौन-कौन है तेरे साथ?’’

उन तीनों ने मुझे घेर लिया था और मुझ पर सवालों के कोड़े बरसा रहे थे। किसी ने मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए थे, तो किसी ने मेरा गिरेबान खींच रखा था।

‘‘कुछ बताता क्यों नहीं, बे?’’ एक ने मेरा मुंह पकड़कर ऊपर को उठा दिया।

उन तीनों की पकड़ से मैं कसमसा रहा था और अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश कर रहा था।

‘‘तू तो ऐसे कर रहा है जैसे अब से पहले किसी ने तेरा हाथ ही न पकड़ा हो?’’ उसने मेरा हाथ छोड़ दिया और बेहयाई से हंसने लगा।

मैं समझ गया, मैं इन्वेस्टीगेशन टीम द्वारा धर लिया गया हूं।

उस रोज छापे के दौरान जब्त की गई चीजों में यह डायरी भी इनके हाथ लग गई होगी और मेरी दराज से पाई जाने के कारण ये मुझे पकड़ लाए थे।

‘‘जी, इस डायरी का इस केस से कोई संबंध नहीं...’’

‘‘तुझे कैसे पता?’’ पहले वाले ने मुझे बीच में ही टोक दिया।

‘‘इस केस से संबंध नहीं है तो फिर किस केस से है?’’ दूसरा व्यक्ति।

‘‘प्रूव इट...’’ तीसरा व्यक्ति।

‘‘जी... यह डायरी तो मैं दरियागंज से उठाकर लाया था।’’

मेरा हलक सूखने को आया और आगे की बात गले में ही अटककर रह गई।

‘‘मुद्दे की बात पर आ साले, कहानी मत सुना।’’ कहते हुए तीसरे व्यक्ति ने पानी भरा जग इतनी जोर से मेरे सामने पटका कि ढेर-सा पानी छलक कर मेज पर बिखर गया।

मैंने थरथराते हाथों से जग उठा लिया और गटागट पानी गले में उतार लिया। मेरा गला तो तर हो ही गया था, कमीज भी अच्छी-खासी भीग गई थी।

खैर, थोड़ा संयत होकर मैंने दरियागंज से डायरी उठाकर लाने की घटना का संक्षेप में बयान किया।

प्रतिक्रिया में उनके चेहरे पर विश्वास-अविश्वास के बीच झूलती चवन्नी भर मुस्कान उभर आई जिसका मैं कोई बहुत ठीक अर्थ नहीं निकाल पाया।

उन्होंने आंखों-ही-आंखों में कुछ तय किया और फिर वही पहलवान मुझे बांह से घसीटकर वापस ले मुड़ा जो मुझे उठाकर लाया था। सीढ़ियों से नीचे उतरकर हम फिर उसी गाड़ी में सवार हुए और पलक झपकते ही उसने मुझे मेरे दफ्तर के गेट नंबर दो के सामने धकेल दिया।

एक पल को तो समझ नहीं पाया कि मैं कहां हूं और मुझे कहां जाना है। कुछ लंबी-गहरी सांस भरकर मैंने अपना खोया हुआ आत्मविश्वास लौटाने की कोशिश की। अब गेट के भीतर का रास्ता दिखाई देने लगा था। उनके स्पर्श के अहसास को दूर करने की कोशिश में मैंने जोर से अपने कंधे झटके और भारी कदमों से गेट के भीतर प्रवेश किया। गलियारा पार कर अंदर आया तो सबसे पहले चपरासी से सामना हुआ। उसकी गोल-गोल आंखें मुझे बींध गईं। सिर झुकाए मैं हॉल में दाखिल हुआ। मेरी निगाह नीची थी, मगर मैं महसूस कर रहा था कि सबकी निगाहें मेरे चेहरे पर कांटे की तरह गड़ी हुई थीं जैसे मैं भरी सभा में निर्वस्त्र कर दिया गया था। समझ नहीं पा रहा था कैसे सबका सामना करूं?

चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गया। विश्वास नहीं कर पा रहा था कि यह सब कुछ सच में घटा था। बाईं बाजू पर अभी भी जकड़न महसूस हो रही थी। इच्छा हुई एक बार कमीज की बाजू ऊपर उठाकर बांह को सहला लूं जो कमीज के भीतर बुरी तरह छिल चुकी थी, मगर ऐसा करके मैं खुद ही अपनी नुमाइश नहीं लगा सकता था, इसलिए दर्द को भीतर-ही-भीतर पी गया। कितना जलालत भरा अहसास था, लग रहा था जैसे तीनों मुझे घेरकर मेरे शरीर की बोली लगा रहे थे। मेरे साथ बहुत ज्यादती की गई थी। मैं भीतर तक टूटा हुआ अनुभव कर रहा था। सारी घटना फ्लैश बैक रील की तरह चल रही थी और मैं बहुत थक चुका था। विवशता इस बात की अधिक थी कि अपनी पीड़ा का जिक्र करना तो दूर, मैं अपनी तकलीफ किसी पर जाहिर तक नहीं कर सकता था।

किसी तरह दिन कटा और मैं अपना बैग उठाए घर की तरफ चल पड़ा। बार-बार लगता रहा, जैसे कोई मेरा पीछा कर रहा है।

घर पहुंचकर थोड़ी राहत महसूस हुई। घर चाहे अमीर का हो या गरीब का, वहां का इतमीनान ही उसे विशेष बनाता है। सारी दुनिया से थक-हारकर जब आदमी घर लौटता है तो वहां चैन की नींद सो सकता है, खुलकर हंस सकता है, जी चाहे तो रो सकता है, अपनी अंदरूनी बेचैनी उलीच सकता है।

मगर बेचैनी ने नींद में भी साथ नहीं छोड़ा।

देखा, मैं बाजार में घूम रहा हूं, खूब भीड़-भाड़ है। दीवारों पर बड़े-बड़े पोस्टर लगे हैं, लोग जिन्हें देख-देखकर हंस रहे हैं। मैंने पोस्टर की तरफ देखा, आधी हिंदी, आधी अंग्रेजी में वहां लिखा है--

‘जी-Male के लिए संपर्क करें।’

‘प्ले-ब्वायज आर अवलेबल’,

नीचे मोटे अक्षरों में कुछ फोन नंबर लिखे हैं।

मैं उन नंबरों को ध्यान से पढ़ रहा हूं। एक नंबर जाना-पहचाना-सा लगता है, किसका है? मैं दिमाग पर जोर डालता हूं... अरे, यह तो मेरा मोबाइल नंबर है। ये नंबर किसने लिखा यहां? मैं परेशान हो गया हूं। मैं उसे रगड़कर मिटाने की कोशिश कर रहा हूं, मगर वह नंबर दीवार पर खुद गया है। मैं उसे गीली मिट्टी से पोतने की कोशिश कर रहा हूं कि सारा कीचड़ मेरे मुंह पर आ गिरा है।

मैंने मुंह घुमाया तो सिर पलंग से टकरा गया और धक् से नींद खुल गई। माथे की बाईं तरफ कोई एक नस जोर से चटक रही थी।

किसी तरह दोबारा सोने की कोशिश की तो देखा, मैं दफ्तर से लौट रहा हूं कि एकाएक तीन-चार लड़के मेरी गाड़ी के आगे आकर खड़े हो गए हैं। मैं हॉर्न पर हॉर्न दिए जा रहा हूं, मगर वे अपनी बातों में मगन हैं। मैं गाड़ी रोककर बाहर निकला तो उन चारों ने मुझे धर दबोचा। उनकी पकड़ से बाहर निकलने की कोशिश में मेरे कपड़े फट गए हैं। वे फटी हुई जगहों से दिख रहे मेरे शरीर को बेहयाई से सहला रहे हैं और भद्दी फब्तियां कसते हुए लगातार मुझ पर हंस रहे हैं। उनकी पकड़ कुछ ढीली पाकर मैंने निकल भागने की कोशिश की तो औंधे मुंह गिर पड़ा और नींद खुल गई।

रातभर मैं रहस्यमयी जगहों में भटकता रहा। कभी किसी गुम्बद से, तो कभी किसी खंडहर से बाहर निकलने के लिए छटपटाता रहा... कभी घुप्प अंधेरे में घिरा रहा तो कभी तेज रोशनी से अचकचाता रहा।

देखा, घुप्प अंधेरे को चीरती एक गाड़ी मेरी ओर बढ़ती चली आ रही है... गाड़ी की रोशनी ठीक मेरी आंखों पर पड़ रही है, मैं आंखों को ढकना चाहता हूं, मगर मेरे हाथ बंधे हैं। मैंने भरपूर ताकत से आंखें मींच रखी हैं मगर रोशनी है कि मेरी आंखों को बींधे जा रही है...

‘‘आज दफ्तर नहीं जाना क्या?’’ विनीता ने हिला कर जगाया तो देखा, पूरा दिन निकल आया था और खिड़की के रास्ते धूप की किरण ठीक मेरी आंखों पर पड़ रही थी।

समय के प्रति सावधान कर विनीता, रसोई की तरफ मुड़ गई। वह पूरी झन्नपट्ट के साथ अपनी तैयारियों में लगी थी।

शरीर टूट रहा था, दफ्तर जाने का मन नहीं किया। सोचा, आज छुट्टी ले लेता हूं। जागकर भी उठा नहीं, लेटा रहा। विनीता नहाने के लिए बाथरूम में जाने लगी तो मुझे बिस्तर पर पड़ा देख चौंक गई।

‘‘क्या बात है, अभी तक सो रहे हो?’’

‘‘आज छुट्टी लेने की सोच रहा हूं...’’

‘‘क्या हुआ...?’’ वह थोड़ा ठिठक गई।

‘‘कुछ नहीं, वैसे ही... छुट्टियां हैं मेरे पास...’’ मैंने उसे आश्वस्त करना चाहा पर पता नहीं कितना कर पाया, भीतर से मैं खुद ही बहुत डरा हुआ था।

‘‘सुनो, अगर सब ठीक है तो बेवजह छुट्टी मत करो। आजकल तुम्हारे ऑफिस का माहौल ठीक नहीं है, खामखा नोटिस में आओगे...’’ विनीता ने मेरी आश्वस्ति स्वीकार करते हुए मुझे समझाया।

विनीता की बात सुनकर मैं सकते में आ गया। यानी मैं नोटिस में आने वाली हरकतें करने लगा हूं। मन-ही-मन इस बात की भी समीक्षा की कि मुझे ऑफिस में न पाकर, जांच अधिकारी मुझे ढूंढ़ते हुए घर तक भी आ सकते हैं। यह सोचते ही मैं सिहर उठा और जल्दी से ऑफिस के लिए तैयार होने लगा।

किसी तरह अपने बेजान शरीर को उठाकर ऑफिस की ओर निकल पड़ा।

(अगले अंक में जारी....)