Zee-Mail Express - 21 in Hindi Fiction Stories by Alka Sinha books and stories PDF | जी-मेल एक्सप्रेस - 21

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जी-मेल एक्सप्रेस - 21

जी-मेल एक्सप्रेस

अलका सिन्हा

21. मरीना की याद के साथ दिल्ली की वापसी

ये दिन हवा के झोंके की तरह गुजर गए।

हमारी वापसी की टिकट शनिवार शाम की थी, हमारे पास दिन का समय खाली था।

‘‘मरीना बीच पर चलें?’’ विनीता के स्वर की आतुरता के साथ मेरे भीतर भी मरीना से दोबारा मिलने की इच्छा तीव्र हो गई।

लगभग तीस वर्षों बाद दोबारा यहां आया था, इससे पहले कॉलेज ट्रिप के साथ आया था।

मरीना बिलकुल वैसी ही थी उन्मुक्त... उद्दाम... उच्छृंखल...

सफेद झाग के बीच हलकी-सी मलिनता... पाश में भर लेने के आवेश के साथ अपनी अजान बाहें फैलाए मरीना हमारा स्वागत कर रही थी। मुझे क्लेमेंट की याद आने लगी। वे यहां होते तो मरीना की हर लहर पर गीत लिखते, उसके हर उफान को सितार की तरह बजाते। हो सकता है कि इन लहरों के पीछे दौड़ते हुए, वे अपनी पत्नी का साथ अनुभव करते।

मैंने विनीता की ओर देखा, आह्लाद में डूबी वह भी सागर की लहर-सी बहे जा रही थी। हर उफान को छेड़ती, उसे हथेलियों में समेटती, उसकी ढिठाई से टक्कर ले रही थी... उल्लास में चिहुंक भरती, खिलखिलाती, जैसे वह हर लहर से संवाद कर रही थी...

सागर रोष से कुछ प्रश्न उछालता और वह गर्वीली नायिका-सी उसके रोष को अपनी हथेलियों के स्पर्श से चूम लेती, सागर का आवेश शिथिल पड़ जाता। वह इस शोख प्रेमिका की निश्छलता पर स्वयं को न्योछावर कर देता।

इधर, विनीता समर्पित भाव से सौगात में आई सीपियां बटोरने लगती।

‘‘उतनी आगे न जाओ, विनीता।’’ मैंने उसे आगाह करना चाहा, मगर वह खिलखिलाती रही।

वह कोई सत्रह-अठारह वर्ष का लड़का रहा होगा। पीले रंग की टी-शर्ट पहने, चेहरे पर मासूमियत और हथेलियों में सीपियां समेटे वह विनीता के पास आ खड़ा हुआ। कुछ संकोच के साथ उसने वो सीपियां विनीता की ओर बढ़ा दीं।

‘‘इन्हें तुम क्यों नहीं रखते? तुमने इकट्ठा की हैं।’’ विनीता ने पूछा।

‘‘अपने लिए तो हमेशा ही चुनता हूं, आज तो आपके लिए चुनी हैं।’’ वह मासूमियत से बोला था।

“ऐसा क्यों?”

“मेरा मन किया...” उसके पास कोई ठोस जवाब नहीं था मगर विनीता को सीपियां देते हुए वह बेहद खुश था।

‘‘तुम यहां रेगुलर आते हो?’’ विनीता आश्चर्य भरी खुशी के साथ मेरे रूमाल में उसकी दी हुई सीपियां संभालने लगी। अपने दुपट्टे की सीपियां भी उसने उसी में मिला दीं।

‘‘अकसर छुट्टी वाला दिन यहीं बिताता हूं।’’

‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’

‘‘सद्दाम।’’

‘‘क्या करते हो?’’

‘‘नजदीक के ही एक होटल में काम करता हूं।’’ उसने सकुचाते हुए बताया।

‘‘तुम तो अकसर ही आते हो यहां, क्या इन लहरों में कोई शंख भी मिला है कभी?’’

‘‘वह तो बहुत ‘लकी’ लोगों को ही मिलता है।’’

‘‘तब तो मुझे मिलना चाहिए।’’ विनीता ने आश्वस्त भाव से कहा तो वह मुस्करा दिया।

‘‘क्या आप मेरे साथ एक तस्वीर खिंचवाएंगी?’’ वह अचानक ही पूछ बैठा।

‘‘हां, हां, क्यों नहीं?’’ विनीता ने सहर्ष हामी भर दी, ‘‘मगर अभी नहीं, चलते समय। फिलहाल कुछ और देर रुकना चाहती हूं, तब तक शंख भी मिल जाएगा मुझे।’’

विनीता की बात पर वह अपनी मासूम मुस्कराहट लिए दोबारा सीपियां बटोरने लगा।

विनीता समंदर किनारे धंसकर बैठ गई। सलवार के पांयचे घुटनों तक खिसकाकर पैरों पर रेत का पहाड़ बनाने लगी।

‘‘इसको सैंड थेरेपी कहते हैं,’’ उसने कहा, ‘‘इससे पैरों के दर्द में आराम मिलता है...’’

मैं उसके बचपने पर हंस पड़ा।

‘‘अरे, तुम्हें यकीन नहीं होता?’’ उसने हैरानी से मेरी ओर देखा।

मैं जब तक कुछ कहता कि एक शरारती लहर हड़बड़ाती हुई आई और उसकी चुन्नी खींचती हुई चली गई...

विनीता के पैर रेत के ढूह में कैद थे, जो लहर की इस अठखेली से बिखरा तो था, मगर जब तक विनीता उठकर उसके पीछे दौड़ी तब तक वह लहर बहुत दूर निकल चुकी थी। विनीता की चुन्नी सागर को सौंपकर वह लहर तो कहीं खो गई, मगर बीच-बीच में झलक पड़ता चुन्नी का लाल रंग जैसे सागर की जीत का परचम बनकर विनीता को चिढ़ा रहा था।

विनीता समंदर की इस अनधिकार हरकत पर खीजे या रीझे, कुछ ठीक-ठीक समझ नहीं पा रही थी।

‘‘मेरी निशानी संभालकर रखना... तुम भी अपनी कोई निशानी भेजो।’’

विनीता ने दोनों हथेलियों के बीच से आवाज को भरसक तेज करते हुए सागर से संवाद किया, ‘‘सुनो, मुझे शंख चाहिएsss’’

जैसे कोई जिद्दी बच्चा बस अपनी ही कहता है, दूसरे की बात से उसे कोई मतलब नहीं होता।

अब सागर से विनीता की दोस्ती औपचारिक नहीं रह गई थी। वह लहरों के साथ चुहल करने लगी थी। कभी उसकी लहर को हाथों से थपथपाती, तो कभी उसके उफान को बांहों में भर लेने को ललकती।

सागर की बलिष्ठ भुजाएं हमें अपने आगोश में भरती रहीं...

पैरों के नीचे की रेत लगातार धंसती रही...

समंदर छोटी-छोटी सीपियों से गोद भरता रहा...

मगर विनीता संतुष्ट न हुई, जैसे भीतर-ही-भीतर जिद ठानकर बैठी हो कि जब तक सागर उसे शंख नहीं भेजेगा, वह तब तक नहीं उठेगी।

‘‘अरे, शंख तो जाल डालकर निकाला जाता है, जैसे मछली निकाली जाती है... शंख पाना कोई आसान बात है क्या?’’ मैंने उसे समझाया, ‘‘चलो, वहां से खरीद लेते हैं तुम्हारी पसंद का शंख।’’

मैंने दूर-दूर तक फैले पटरी बाजार की ओर इशारा किया।

‘‘समंदर के पास आकर भी खरीदकर ही शंख लिया तो क्या लिया, मुझे तो तोहफा चाहिए...’’ मेरा सुझाव उसे रास नहीं आया।

‘‘अब उठो विनीता।’’

मैंने घड़ी देखते हुए कहा, तो वह धीरे से उठ खड़ी हुई, मगर सूनी निगाहें फिर भी लहरों का आंचल टटोल रही थीं।

‘‘थोड़ा और रुको न, समंदर किसी को खाली नहीं लौटाता।’’

‘‘खाली कहां लौट रहे हैं विनीता, कितना कुछ तो दिया है...’’ मैंने उन रुपहली सीपियों की ओर इशारा किया जो उसने मेरे रूमाल में बांधकर रख ली थीं।

‘‘अरे, वह बच्चा कहां गया? तुम्हारा दोस्त सद्दाम! उसे तुम्हारे साथ फोटो खिंचवाना था न!’’

मेरे प्रश्न से उसका ध्यान भटका।

‘‘पता नहीं कहां है, लगता है वह लौट चुका।’’

निगाहें कुछ दूर तक जाकर बैरंग लौट आईं।

हम अभी चार कदम ही बढ़े होंगे कि जाने कहां से सद्दाम आ खड़ा हुआ, ‘‘यह आपके लिए।’’

उसके हाथ में एक शंख था।

‘‘तुम इसे खरीदकर लाए हो?’’ विनीता ने आपत्ति की, ‘‘...मुझे तोहफा चाहिए था, सागर की ओर से।’’

‘‘तोहफा ही है, सद्दाम की ओर से...’’ उसने मासूमियत से अपना हाथ आगे बढ़ाया तो विनीता जैसे एकाएक अपने यथार्थ में लौटी।

ठीक ही तो है, सागर किसी भी रूप में आया, मगर मिला तो उसे तोहफा ही, उसने खरीदा तो नहीं।

‘‘थैंक्स!’’ उसके हाथ से शंख लेकर विनीता ने माथे से लगा लिया।

सद्दाम खुश हो गया, ‘‘अब तस्वीर खिंचवाएं? मैं फोटोग्राफर भी पकड़ लाया हूं...’’

उसकी बात पर विनीता हंसने लगी। विनीता को हंसता देख सद्दाम भी हंसने लगा...

मैं भी हंसने लगा...

हमारी हंसी सागर की लहरों पर थिरकने लगी...

हमने सागर तट पर दो तस्वीरें खिंचवाईं।

एक में हम तीनों साथ थे और एक में वह विनीता को शंख भेंट कर रहा था। फोटोग्राफर ने दस मिनट में ही उसकी दो-दो कॉपियां निकाल दीं।

‘‘मैं इसे अपने घर भेजूंगा, अम्मी-अब्बू के पास...।’’ उसके चेहरे पर बड़ी प्यारी-सी चमक थी।

‘‘कहां है तुम्हारा घर?’’ विनीता भी कुछ भावुक हो आई।

‘‘उड़ीसा के एक गांव में...’’

उसकी निगाहें धूलदार पगडंडियों से होती हुई लकड़ी के एक गुमसुम दरवाजे पर नरम हथेलियों की थाप दे रही थीं।

हमारे बोझिल कदम समंदर की दूसरी दिशा में बढ़ने लगे थे।

चलते हुए विनीता ने उसके हाथ पर एक सौ का नोट रख दिया, तो वह सकुचा गया, ‘‘यह क्यों?’’

‘‘ये मेरा आशीर्वाद है, मैं बड़ी हूं न तुमसे।’’ विनीता ने पूरे अधिकार से आदेश दिया।

‘‘इसे मैं कभी खर्च नहीं करूंगा।’’

उसने वह नोट संभालकर जीन्स की पिछली जेब में रख लिया।

कई तरह की रुपहली कहानियां सीपियों में बंद कर हम दिल्ली लौट आए, समुद्र के उफान-सी बढ़ती भीड़ के बीच... महानगर की शुष्कता और आपाधापी के बीच...

इतने दिनों बाद दफ्तर जाना अजीब-सा लग रहा था। एक सप्ताह की ट्रेनिंग और आगे-पीछे की छुट्टियां मिलाकर कुल नौ दिन बाद दफ्तर आ रहा था। इतने लंबे समय की तो मैंने शायद कभी छुट्टी भी नहीं ली थी।

सभी कुछ बदला-बदला-सा लग रहा था, नया-नया। हर सीट साफ-सुथरी, फर्श पर नई चमक, यहां तक कि कमरों के दरवाजे तक खूब साफ दिख रहे थे।

हॉल में घुसा तो वहां भी ताजगी का अहसास था। अभी दफ्तर पहुंचने वाला मैं अकेला ही था, इसलिए हॉल भी काफी खुला-खुला और खाली-खाली लग रहा था। अपनी सीट भी कुछ अपरिचित-सी, या कहो नई-नई-सी मालूम पड़ रही थी। कुछ देर बैठने के बाद भी अनचीन्हापन बना रहा।

मुझे खुद पर हंसी आ रही थी। जो अकसर ही दौरों पर जाते रहते हैं, संभव है, उन्हें इस तरह की अजनबियत नहीं महसूस होती होगी, मगर फिलहाल मैं इस नयेपन और परायेपन के बीच में झूल रहा था।

अपनी साइड टेबल से कुछ फाइलें उठाने को हाथ घुमाया तो वहां अजीब-सी खामोशी थी, जैसे मेज मेरी अनधिकृत हरकत पर मुझे घूरकर देख रही हो।

अरे, मेरी फाइलें होती थीं यहां! लगता है मेरी अनुपस्थिति में किसी ने छेड़ी है मेरी टेबल।

जाने दो, पीछे से किसी फाइल का कोई काम पड़ा होगा, मन के ही किसी हिस्से ने समझौता करना चाहा।

जरूरत पड़ी होगी तो कोई एकाध फाइल हटाई होगी और इस्तेमाल के बाद वापस रख भी देनी चाहिए।

मेरा मन थोड़ा सशंकित हो चला था।

मैं उठकर खड़ा हो गया, सचमुच वहां एक भी फाइल नहीं थी। मुझे आसपास की व्यवस्था भी बदली-बदली-सी मालूम पड़ी। कहीं मुझे ट्रेनिंग पर भेजने के बहाने, मेरी यहां से बदली तो नहीं कर दी? किसी और को रख लिया हो यहां, मेरी जगह?

(अगले अंक में जारी....)