Zee-Mail Express - 20 in Hindi Fiction Stories by Alka Sinha books and stories PDF | जी-मेल एक्सप्रेस - 20

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जी-मेल एक्सप्रेस - 20

जी-मेल एक्सप्रेस

अलका सिन्हा

20. सरकारी दौरा

क्वीना ने निकिता के साथ कोई फेथ ग्रुप ज्वाइन किया है जहां वे मिलजुल कर एक-दूसरे के दुख-सुख बांटते हैं, हर सदस्य की बेहतरी के लिए प्रार्थनाएं करते हैं।

क्वीना लिखती है, एक परिवार वह है जिसमें हमने अपने कर्मों के आधार पर जन्म लिया है, उससे मिले रिश्ते ईश्वर प्रदत्त हैं, हमें उन्हें निभाना है मगर ‘फेथ परिवार’ हमारा अपना बनाया हुआ परिवार है। इन संबंधों को हमने स्वेच्छा से अपनाया है, इसलिए इनका निर्वाह करने में अद्वितीय खुशी मिलती है।

फेथ परिवार में शामिल होकर क्वीना बहुत खुश है।

यहां सभी अपने भीतर के विश्वास को पाने और जीने के लिए यत्न करते हैं।

एक-दूसरे की समस्याओं के समाधान के लिए वे सामूहिक रूप से प्रार्थना करते हैं। किसी की मनपसंद नौकरी के लिए प्रार्थना, किसी के बेहतर स्वास्थ्य तो किसी के मकान-दूकान के लिए प्रार्थना।

क्वीना लिखती है कि वह एक नई तरह की दुनिया से रूबरू हुई है जहां सभी को अपने भविष्य के प्रति भरपूर आश्वस्ति है। उन्हें विश्वास है कि उनकी प्रार्थना सुनी जाएगी, संदेह के लिए कोई स्थान नहीं।

क्वीना को ‘नम-म्योहो-रेंगे-क्यो’ के लोटस सूत्र पर अटूट विश्वास है।

क्वीना ने साफ-साफ और पूरी स्थिरता के साथ लिखा है, ‘पूरी दुनिया एक परिवार है... जिनके लिए मैं रोज प्रार्थना करती हूं और जिनकी रोज की प्रार्थनाओं में मैं शामिल होती हूं। जब भी किसी के लिए की गई कोई कामना पूरी होती है, हम और करीब आ जाते हैं और दुगुने विश्वास के साथ आगे बढ़ते हैं।’

मन में अजीब-सी उधेड़बुन हो रही है, ये कहां आ गई है क्वीना? कहीं वह किसी आश्रम-वाश्रम में तो नहीं आ पहुंची? नन वगैरह तो नहीं बन गई?

क्वीना ने लिखा है कि फेथ में आने के बाद से जीवन के प्रति उसका नजरिया काफी बदल गया है। वह जीवन को फिर से शुरू करना चाहती है मगर अब तक के जिये जीवन से भागकर नहीं, बल्कि अपनी भूलों को स्वीकार कर। क्वीना का मानना है कि अपनी गलतियों को स्वीकारने में हमें झिझकना नहीं चाहिए क्योंकि जब तक हम अपनी गलती मानेंगे नहीं तब तक उन्हें सुधारने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है।

क्वीना के तर्क से अपने भीतर एक प्रकार की खलबली महसूस कर रहा हूं। खुद को कटघरे में खड़ा देख रहा हूं। क्या मैंने कभी कोई गलती नहीं की? क्या अब तक की जिंदगी में कभी भी, किसी पल मैंने खुद को गलत और दूसरे को सही माना है? अपनी ही जिन्दगी का नए सिरे से आकलन करने लगा हूं।

जाने कैसे, चेन्नै में होने वाले सेल्फ डेवलपमेंट ट्रेनिंग प्रोग्राम के लिए मुझे भी नामित किया गया है। मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा कि यह बात कितना खुश होने वाली है? दरअसल, इतने लंबे कार्यकाल में मैंने यही पाया है कि ऐसे कार्यक्रम बड़े अधिकारियों के मनबहलाव के लिए होते हैं और वे अपने साथ प्रायः ऐसे ही सहयोगियों को ले जाना उचित समझते हैं जो उनके मनबहलाव के साधन बन सकें।

खैर! जो हो, मुझे अच्छा लगा। लगा, कुछ नया सीखने को मिलेगा। नया सीखना, पढ़ना, लिखना मुझे अच्छा लगता है।

धमेजा के कमरे में मजमा लगा है, नो स्मोकिंग जोन होने के बावजूद वह सिगरेट के कश खींच रहा है। वह बहुत खुश दिख रहा है, लोग उसे बधाई दे रहे हैं। बधाइयों से पता चला कि ऐसी ही एक ट्रेनिंग फ्रैंकफर्ट में भी हो रही है जिसमें उसे भेजा जा रहा है।

ओह! अब बात मेरी समझ में आई, विदेश भेजने के लिए धमेजा और देश में हो रही ट्रेनिंग के लिए मैं! खून फुंक गया।

कैसी अजीब बात है न, अभी तक जो मुझे खुशी की खबर लग रही थी, वही धमेजा की खबर के सामने फीकी पड़ गई।

एक मन हुआ, जाकर अपना नाम कटवा आऊं।

कल बात करूंगा, आज तो वैसे भी छुट्टी का समय हो रहा है और पहले यह भी तो पता लगाऊं कि फ्रैंकफर्ट के लिए कितने नाम भेजने हैं क्योंकि धमेजा का नाम काटकर तो वे मुझे भेजने से रहे।

‘‘एक खुशखबरी है, मगर दुखखबरी भी...’’ मैंने विनीता को बताया तो वह हंस पड़ी।

‘‘...क्या तुम्हारी प्रमोशन हुई है, मगर ट्रांसफर के साथ?’’ उसने अंदाजा लगाया।

‘‘खुशखबरी ये है कि मुझे ट्रेनिंग के लिए एक सप्ताह चेन्नै जाना है।’’ मैं खुद को ज्यादा देर रोक नहीं पाया।

‘‘अरे वाह, मगर इसमें दुख की क्या बात है?’’

‘‘ऐसी ही ट्रेनिंग के लिए मेरे दूसरे कलिग को फ्रैंकफर्ट भेजा जा रहा है।’’

मुझे लगा था कि विनीता सुनते ही भड़क जाएगी। कहेगी, तुम तो सदा से ही बचा-खुचा पाते रहे हो, तुम वो थोड़े ही हो जो चुनकर कुछ हासिल करो, तुम तो...।

मगर मेरी आशा के विपरीत वह संतुष्ट थी।

‘‘दुनिया में बहुतों को बहुत कुछ मिला है, बहुतों को कुछ नहीं। हमें उससे क्या, हमारी झोली में क्या आया, हमें तो उससे खुश होना चाहिए।’’

‘‘तो ये खुशखबरी है?’’

‘‘ऑफ कोर्स!’’

‘‘तो मैं कल इस बात पर नाराजगी न जताऊं कि मुझे फ्रैंकफर्ट क्यों नहीं भेजा जा रहा?’’

मेरी बात पर वह व्यंग्य से मुस्कराई। गोया उसने मेरी बेबाक बयानी पर प्रश्नचिह्न लगाया हो। मैं तुनकता, मगर उसने तुरंत बात बदल दी, ‘‘सुनो, मैं भी चलूंगी तुम्हारे साथ।’’

एकाएक समझ नहीं पाया कि उसके इस प्रस्ताव पर क्या प्रतिक्रिया दूं।

‘‘तुम्हें कभी इस बात की कमी महसूस नहीं हुई न कि हमने हनीमून नहीं मनाया?’’ विनीता की आवाज में उदासी थी, मगर आंखों में चमक या शायद थोड़ी कसक भी...

मैं विनीता को ठीक से समझ नहीं पाता। मुझे अकसर ऐसा लगता है कि वह मुझसे संतुष्ट नहीं है, या कहें कि मैं उसकी पसंद नहीं हूं। इसीलिए मेरे व्यवहार में अकसर एक ठंडापन बना रहता है। मगर कभी-कभार वह कुछ ऐसा कह देती है जिससे मेरा आकलन गलत सिद्ध हो जाता है। वैसे वह अकसर ही मुझे गलत सिद्ध करने में कामयाब रहती है और ऐसा गलत होना मुझे सुख देता है, संतुष्ट करता है।

मुझे हंसी आ रही है, जिंदगी में पहली बार सरकारी दौरे पर जा रहा था और वह भी बीवी के साथ, जबकि लोग प्रायः सरकारी दौरे इस लिए एंज्वाय करते हैं कि कुछ दिनों के लिए ही सही, मगर घर-परिवार और बीवी की चिक-चिक से छुटकारा मिलता है। बहरहाल, मैंने दफ्तर में इस बात की बहुत चर्चा नहीं की थी कि विनीता भी मेरे साथ जाएगी, न ही मैं यह जानता था कि मेरे अलावा दफ्तर से और कौन-कौन वहां जा रहा है। हालांकि यह जान लेना मुझे अब इसलिए जरूरी लग रहा था कि मैं अपनी पत्नी के साथ था। खैर! यह जानकर तसल्ली हुई कि चेन्नै में हो रहे प्रशिक्षण के लिए अपने दफ्तर से मैं अकेला ही नामित किया गया था, वरना अपने दफ्तर के साथियों को तो मैं इस काबिल भी नहीं समझता कि उनसे अपनी पत्नी या परिवार को इंट्रोड्यूस कराऊं।

चेन्नै का ट्रिप बहुत सुखद रहा। हमारे केंद्र में अहमदाबाद, पुणे, पांडिचेरी, भुवनेश्वर, गुवाहाटी और त्रिवेंद्रम के प्रतिभागी थे। हां, मेरी तरह दिल्ली से प्रिंट मीडिया के भी दो व्यक्ति यहां आए थे। विनीता ने खुद को बड़ी आसानी से वहां आई महिला प्रतिभागियों के साथ मिला लिया और बहुत जल्दी सहज हो गई। इतनी मित्रता तो मेरी भी वहां किसी से न हो सकी जितनी निकटता विनीता ने हासिल कर ली। मैं उसकी जगह होता तो शायद किसी आउटसाइडर की तरह कोने में खामोशी से बैठा रहता और सत्र समाप्त होने का इंतजार करता। मगर वह तो सभी प्रतिभागियों के साथ खूब भली प्रकार घुलमिल गई।

अहमदाबाद से आई मीडिया जगत की अश्विनी पटेल इस प्रशिक्षण की सबसे कम उम्र की प्रशिक्षु थी, तो त्रिवेंद्रम से आए वी.जी. क्लेमेंट तिरासी वर्ष वाले सबसे सीनियर प्रशिक्षु थे। क्लेमेंट किसी संस्था के स्पॉन्सरशिप पर नहीं आए थे बल्कि अपने खर्चे से आए थे। उनकी जिजीविषा देखने लायक थी।

कितनी अजीब बात थी कि जहां सबसे कम उम्र वाली अश्विनी, मेरी पत्नी के सबसे अधिक निकट आ गई थी और सिंगापुर निवासी, अपने ब्वायफ्रेंड के अंतरंग संबंधों को विनीता के साथ शेयर कर रही थी, वहीं मेरी घनिष्ठता सबसे वरिष्ठ प्रतिभागी क्लेमेंट के साथ हो गई थी। उसी हद तक कि वे अपने समय के असफल प्रेम की कहानी मुझे सुना रहे थे। उन्होंने बताया था कि अपने जमाने में, यानी कोई साठ-पैंसठ वर्ष पूर्व उनके साथ पढ़ने वाली उनकी एक मित्र से उनकी गहरी आत्मीयता थी। मगर घरवालों को यह घनिष्ठता पसंद नहीं थी और ‘वह’, उसका नाम उन्होंने नहीं लिया, घरवालों के खिलाफ जाने को तैयार न थी। लिहाजा, दोनों को अलग-अलग गृहस्थियां बसानी पड़ीं।

यों उन्होंने कहा कि उन्हें जिंदगी में कोई मलाल नहीं, सिवाय इसके कि उनकी पत्नी उन्हें संभलने का मौका दिए बगैर रोड एक्सीडेंट में अचानक चल बसीं, मगर उनके भीतर का अकेलापन एक अलग तरह के शेड में सामने आ रहा था और एक अनकही कहानी उनकी प्रस्तुत जिंदगी पर हावी हो रही थी। उन्होंने अपना लिखा एक गीत भी सुनाया जिसमें एक स्त्री अमूर्त रूप में उनके साथ थी, हर मोड़ पर, हर उतार और चढ़ाव पर। उन्होंने जो लिखा था उसके बोल इस प्रकार थे ...

लिखी है जो तुम्हारे नाम चिट्ठी

उसे भेजूं भी तो कहां

तुमने अपना पता भी तो नहीं दिया

ओ प्रिया...

हालांकि उन्होंने यह गीत अपनी पत्नी की याद में लिखा बताया, मगर पता न होने की कसक, मुझे उनके खोए प्रेम का आभास दे रही थी। या क्या पता, धीरे-धीरे पत्नी ही उस अभाव को पूरने लगती हो और तब प्रिया और पत्नी का चेहरा एक-सा लगने लगता हो।

खैर! जो कहो, जिंदगी की पहेली बड़ी अनूठी है। जिंदगी के दो छोर-- अश्विनी और क्लेमेंट अपनी-अपनी तरह से एक जैसे भावुक पलों को जी रहे थे।

रात में विनीता मुझे अश्विनी की कहानी सुना रही थी और मैं उसे क्लेमेंट का इतिहास बता रहा था।

‘‘तुम्हारी दोस्ती हमेशा अपने से बड़ी उम्र के लोगों से होती है... ‘सीनियर सिटिजन’!’’ विनीता हंस रही थी।

मैं समझ नहीं पा रहा था कि वह सहज हंस रही थी या मेरा मजाक उड़ा रही थी।

‘‘मैं क्या करूं राम, मुझे बुड्ढा मिल गया...’’ वह गुनगुना रही थी।

मैं चाहता था उसे लाजवाब कर दूं, मगर मुझे कुछ खास सूझ नहीं पाया, मैं अकबक बैठा रहा जबकि उस पर अश्विनी की उम्र हावी हो रही थी, ‘‘मैं गुड़िया हसीन, मेरी मोरनी-सी चाल है...’’

होटल के बंद कमरे में उसने अपना गाउन घुटनों तक उठा लिया और जो मोरनी-सी चाल दिखाई तो मैं सच में झटका खा गया।

यों लगा जैसे मैं भी अपनी उम्र के बीते रास्तों की तरफ जा पहुंचा हूं जहां अमलतास की पीली टहनियां हल्दी का उबटन लगाए मेरी ही प्रतीक्षा में खड़ी हैं...

(अगले अंक में जारी....)