जी-मेल एक्सप्रेस
अलका सिन्हा
18. पिछले जन्म की बातें
क्वीना ने जिस तरह निकिता को संभाला था, वह सचमुच अचंभित करने वाला था। अचानक ही लगा कि हमलोग नई पीढ़ी की क्षमता और संवेदनशीलता पर गलत आरोप लगाते हैं। वे पर्याप्त संवेदनशील भी हैं और वक्त पड़ने पर स्थितियों को संभाल भी सकते हैं। क्वीना की भूमिका मुझे पूरी पीढ़ी की ओर से आश्वस्त कर रही थी। मैं देख रहा था कि क्वीना निकिता की तमाम गोपनीयताओं के साथ होकर भी, उसके अखंडित स्वाभिमान की रक्षा के लिए तत्पर थी।
रातभर जगे होने के कारण क्वीना अगली सुबह देर तक सोती रही। जब वह उठी, तो दिन काफी निकल आया था। समय देखने के लिए मोबाइल उठाया तो देखा, निकिता की तीन मिस्ड कॉल्स आ चुकी थीं। एक संदेश भी था जिसमें निकिता ने क्वीना को आज ‘डेट’ पर आमंत्रित किया था।
निकिता और ‘डेट’ पर! संदेश पढ़कर क्वीना के होंठों पर हलकी-सी मुस्कान तैर गई।
मैं देख रहा था कि उस रोज वे दोनों पूरे दिन एक-दूसरे की गलबहियां डाले साथ-साथ घूमते रहे, बात-बेबात हंसते रहे।
निकिता एकदम सहज थी। बीती रात की परछाईं तक उसके चेहरे पर नहीं थी, उलटा वह काफी रिलैक्स दिखाई पड़ रही थी।
उन्होंने बाहर ही खाना खाया, शॉपिंग की। घंटों हरी घास पर बैठे रहे, एक-दूसरे के मोबाइल्स से फोटो खींचते रहे। बिना कुछ कहे-सुने दोनों एक-दूसरे के हमराज बन गए थे।
निकिता अपने भीतर के दबाव से बरी होने के बाद कितना सहज लगने लगी थी।
कई बार कोई बात मन पर कितना गहरा दबाव पैदा करती है, यह उस दबाव से बाहर निकल आने के बाद ही पता चलता है।
क्वीना ने भी शायद अभिव्यक्ति के बाद के सुकून का अहसास कर लिया था, तभी तो उसने लिखा था कि उस वक्त उसके मन ने उकसाया कि वह भी अपने भीतर का गुबार निकिता के सामने निकल जाने दे। कह दे उससे वह सब जो उसने आज तक किसी से नहीं कहा और जिसका दबाव क्वीना को अपने सहज रूप में आने से वंचित करता है।
यानी क्वीना की जिंदगी में भी कोई राज है जिससे परदा उठना अभी बाकी है?
कुछ है ऐसा जो अभी उसने इस डायरी के हवाले भी नहीं किया?
कोई ऐसी बात, जो अभी तक किसी से नहीं कही? और जिसके दबाव में वह सहज जीवन नहीं जी पा रही?
मगर मैं तो उसे बहुत मस्त और कुछ हद तक लापरवाह भी समझता हूं?
क्या मैंने क्वीना को समझने में भूल की है?
जिज्ञासा से भरा मैं डायरी के पन्ने पलटता रहा, मगर ऐसी कोई बात टटोल नहीं पाया।
पता नहीं वह ऐसा क्या कहने जा रही थी कि जिसे होंठों पर आने से पहले ही उसकी चेतना ने लगाम खींच ली और उसकी तड़प तटस्थता में बदल गई।
मैंने महसूस किया कि क्वीना की लेखनी एक तरह की निर्लिप्तता से भर गई है। उसने लिखा है कि उस पल उसे अपनी जिंदगी बेहद निर्रथक और बेमानी लगी। उसने पाया कि उसने जिंदगी से कुछ भी हासिल नहीं किया, बल्कि गंवाया ही है।
मेरी निगाहें बेचैन-सी इधर-उधर भटकती रहीं, उंगलियां पन्ने पलटती रहीं, मगर धुंधलका साफ न हुआ। क्वीना ने लिखा है कि नींद के झोंकों में भी वह अपने बीते जीवन के पद्चिह्न टटोलती रही।
काश, मैं उसके सपनों के भीतर झांक पाता जहां पूरी बेबाकी के साथ वह घटना अपने होने का ऐलान कर रही होगी, मगर मेरी निगाहें उस दायरे से पूरी तरह निर्वासित थीं।
आखिर ऐसी भी क्या बात थी जो डायरी की कोड शैली में भी एक सुरक्षित स्थान नहीं बना पाई?
नाम की जगह कोड लिख दिए, चलो समझ आता है, मगर सैन्सर ही कर के लिखना था तो डायरी लिखने की ही क्या जरूरत थी?
या फिर, मुझे भ्रम हुआ था, दरअसल कुछ हुआ ही नहीं था?
शायद ऐसा ही था क्योंकि उसके अलावा बाकी बातें फिर उसी रवानगी से लिखी गई हैं। घटनाक्रम कहीं टूटा नहीं था, बल्कि उस रोज समीर से मुलाकात का जिक्र तो खासा तफसील से किया है...
‘‘रीच्ड सेफ?’’ क्वीना के मोबाइल पर समीर का मैसेज था।
क्वीना इस वक्त निकिता के नए रूप के साथ कैफेटेरिया में बैठी थी। इस नई निकिता से वह समीर को भी मिलवाना चाहती थी, तभी तो वह जवाब में लिखने लगी, ‘‘आइ एम इन अंसल प्लाजा विद निकिता, सी इफ यू कैन ऑल्सो ज्वाइन अस...’’ लेकिन फिर मैसेज डिलीट कर दिया। दोनों उल्टी खोपड़ी के हैं। निकिता से जो थोड़ी सुलह हुई है, कहीं उसकी किरकिरी न हो जाए।
‘‘कोल्ड कॉफी पीयें?’’ निकिता के प्रस्ताव पर क्वीना ने मुस्कराकर देखा।
क्वीना ने उस पल निकिता की आंखों में अपनी जगह विशाखा की तस्वीर देखी।
“तू बैठ, मैं लेकर आती हूं।” निकिता के आदेश में प्यार बरस रहा था।
क्वीना महसूस कर रही थी कि निकिता का आत्मविश्वास लौट रहा है। उसके भीतर प्यार और विश्वास की कोंपलें फिर से हरी हो रही हैं।
कैफेटेरिया की कॉर्नर टेबल पर, हथेलियों में ठोड़ी टिकाए क्वीना उसे करीब आते देख रही थी-- हाथ में लाल रंग की ट्रे जिसमें रखे कोल्ड कॉफी के दो कप और कहीं छुपाया हुआ वह लव लेटर जो वह विशाखा को देने वाली थी।
‘‘अरे तू? यहां? अकेले? घर नहीं गई? मेरे मैसेज का जवाब भी नहीं दिया?’’
समीर सामने खड़ा सवाल-पर-सवाल कर रहा था। क्वीना ने घबराकर अपना मैसेज बॉक्स देखा, सेंट मैसेज... नहीं, उसने समीर को कोई मैसेज नहीं किया था कि वे यहां कैफेटेरिया में बैठे हैं।
‘‘मैं कुछ पूछ रहा हूं, देवी जी। आप यहां अकेले कैसे?’’
समीर ने प्रश्न दोहराया तो क्वीना ने हौले-से सामने आती निकिता की ओर इशारा किया, ‘‘निकिता के साथ आई हूं।’’
‘‘ओह! प्लीज कंटिन्यू।’’ समीर तेजी से मुड़ गया।
तब तक निकिता भी आ पहुंची थी, ‘‘कौन था?’’ उसने उसकी पीठ की ओर देखते हुए पूछा।
क्वीना समझ नहीं पा रही थी, क्या जवाब दे। उसका जवाब निकिता को न केवल दुखी करता बल्कि क्वीना के प्रति उसके जागते हुए भरोसे को फिर तोड़ डालता। मगर अगले ही पल क्वीना ने महसूस किया, आपसी समझ की जिस ऊंचाई पर वे दोनों आ पहुंचे हैं कि अब झूठ-सच, डर-भरोसा कुछ मायने नहीं रखता है। अब तो जैसा है, वैसा ही है, वाली स्थिति थी।
‘‘समीर था।’’ आखिर वह सपाट स्वर में बोल गई।
‘‘ओ! तो चला क्यों गया?’’
अजीब लड़की है निकिता भी। अब वह क्वीना के पीछे पड़ गई कि वह समीर को बुलाकर लाए। वह ऐसे चोरी से क्यों चला गया। क्वीना ने उसे समझाना चाहा कि वह यहां नहीं आएगा, वह ऐसा कोई काम नहीं करेगा जिससे निकिता को बुरा लगे।
‘‘पर मुझे बुरा क्यों लगेगा? अच्छा, चल मैं खुद बुलाकर लाती हूं।’’ निकिता लगभग दौड़ती हुई उसके पीछे चल दी।
समीर कैश काउंटर के साथ रखे डोनेशन बॉक्स में कुछ पैसे डालकर निकलने ही लगा था कि निकिता ने उसे घेर लिया, ‘‘ऐसे कैसे जा रहे हो, हैव कॉफी विद अस।’’
मगर समीर नहीं रुका।
निकिता ने क्वीना को दुख और हैरानी के साथ बताया कि समीर ने न केवल उसकी बात अनसुनी कर दी बल्कि वह ऐसे निकल गया जैसे उसे पहचानता भी न हो। उसने दोबारा भी पुकारा, मगर उसने मुड़कर देखा तक नहीं और आगे बढ़ गया।
‘‘चल जाने दे, तूने भी तो उसके साथ कितना बुरा सलूक किया है।’’ क्वीना ने निकिता को समझाने की कोशिश की।
‘‘मैंने? बुरा सलूक?’’
निकिता ऐसे बात कर रही थी जैसे ये सब पिछले जन्म की बातें हों और उसे अपना पिछला जन्म याद नहीं।
क्वीना ने सोचा, यह भी ठीक ही है। क्या पता, अब वह पुरुष पात्र को भी सामान्य इन्सान की तरह स्वीकार कर सके। उसने निकिता को विश्वास दिलाया कि वह समीर से बात करेगी, मगर फिलहाल वे उसका प्रसंग छोड़कर और बातें करें।
सोनिया आज खूब इतरा रही है। टूर से लौटने के बाद उसका आत्मविश्वास और भी बढ़ गया है, जैसे टूर के दौरान धमेजा के साथ उसका कोई समझौता हो गया हो।
वह खजुराहो में की गई शॉपिंग बड़े चाव से सभी को दिखा रही है। सभी चटकारे ले रहे हैं, ‘‘तेरी च्वाइस तो बड़ी मस्त है... पूरी दूकान खरीद लाई है क्या?’’
उधर, धमेजा से भी द्विअर्थी सवाल पूछे जा रहे हैं, ‘‘खाली शॉपिंग ही कराता रहा या कुछ और भी किया? खजुराहो तो ‘देखने लायक’ जगह है।’’
‘‘अरे, जिसके साथ जीवंत खजुराहो हो, वह बेजान पत्थरों में क्यों भटकने जाएगा।’’ धमेजा बेहयाई से हंस रहा है।
लोग कितने निर्लज्ज हो गए हैं आजकल। होता तो पहले भी रहा होगा यह सब, मगर तब कम-से-कम परदे की ओट तो रखते थे, अब तो उसकी भी जरूरत नहीं। उलटे, यह सब इतने सहज ढंग से स्वीकार कर लिया जाता है, जैसे कह रहे हों कि तुम किस संकोच में पड़े हो, तुम भी लूट लो मजे।
मैं कौन से जमाने का हूं? मैं भी क्या इसी जमाने का नहीं? मेरी और धमेजा की उम्र में कोई बहुत अधिक फर्क तो नहीं, फिर भी, धमेजा तन और मन दोनों से अभी भी युवा है।
(अगले अंक में जारी....)