आघात
डॉ. कविता त्यागी
26
अंधेरा हो गया था और बच्चे रोते रोते थक गये थे । सुधंशु तो रोते-रोते सोने लगा था। प्रियांश ने चिन्तित स्वर में माँ से पूछा -
‘‘मम्मी जी ! अब हम कहाँ रहेंगे ? हम सारी रात बाहर ही रहेगे ? हम सोएँगे कहाँ ? मम्मी जी, हम खाना कहाँ खायेगें ?
बेटे के प्रश्नों से पूजा का हृदय कराह उठा । छोटा-सा बच्चा है और उसका नन्हा मस्तिष्क कितनी चिन्ताओं-प्रश्नों में डूबा है ! जिन्हें इस आयु में पिता के स्नेह और दुलार की आवश्यकता है, वे घर के बाहर खडे़ रो रहे है ! घर में जाने के लिए नींद और भूख से तडप रहे है और इनका निष्ठुर पिता स्वयं आराम से घर के अन्दर बैठा है ! अपने बच्चों के लिए उसके हृदय में न दया है, न प्रेम और न ही उनके भरण-पोषण के दायित्व का अहसास !
अंधेरा गहराता जा रहा था। पूजा ने रोते हुए एक बार पुनः दरवाजे पर दस्तक दी । उसने क्षमायाचना के स्वर में द्वार खोलने का आग्रह किया, पर निराशा ही हाथ आयी । द्वार नहीं खुला । सुधांशु सो चुका था और प्रियांश को भी नींद के झटके आने लगे थे । निराशा में डूबी पूजा किंकर्तव्यविमूढ-सी कुछ क्षण तक वहीं खड़ी रही । तत्पश्चात् उसने सुधांशु को गोद में उठाकर अपने कंधे से लगा लिया और प्रियांश का हाथ पकड़कर घर के द्वार से विपरीत दिशा में सड़क की ओर चल दी । कुछ ही देर में वह बच्चों के साथ सडक के किनारे पहुँच गयी । माँ का हाथ पकड़कर खड़े हुए प्रियांश ने पूछा -
‘‘मम्मी! हम कहाँ जा रहे है ?’’
‘‘बेटा, पता नहीं, हम कहाँ जाएँगे ! जहाँ भाग्य ले जाएगा, चले जाएँगे !’’
प्रियांश ने माँ का उत्तर सुना, किन्तु उसका अर्थ-बोध उसकी समझ से बाहर था । फिर भी, वह उस उत्तर में छिपी माँ की पीड़ा को भली-भाँति अनुभव कर सकता था । इसलिए शब्द के अर्थ-ग्रहण को अनावश्यक समझकर वह चुप रह गया और अगले क्रियाकलाप की प्रतीक्षा करने लगा कि उस विषम परिस्थिति में माँ कहाँ जाएँगी ? पाँच मिनट प्रतीक्षा करने के बाद प्रियांश ने देखा कि एक बस आयी और माँ ने थोड़ा-सा आगे बढ़कर उसे रोकने के लिए हाथ से संकेत दिया । बस रुक गयी, पूजा दोनों बच्चों को लेकर उस बस में चढ़ गयी। प्रियांश माँ के साथ उस में चढ़ तो गया, लेकिन अपने भविष्य तथा मंजिल को लेकर वह चिन्तित भ्रमित-सा इधर-उधर देख रहा था और सोच रहा था कि आखिर वे जा कहाँ रहे है ? अपनी माँ से वह पुनः इस प्रश्न को पूछकर उसकी पीड़ा को और बढ़ाना नहीं चाहता था । अतः उसने परिचालक से पूछ लिया -
‘‘अंकल यह बस कहाँ जाएगी ?’’ परिचालक ने एक बार पूछने पर प्रियांश की बात का उत्तर नहीं दिया, तो उसने पुनः पुनः वहीं प्रश्न दोहराया । कई बार पूछने के बाद उसने प्रियांश की ओर लापरवाही से देखा और बोला -
‘‘तुम्हें कहाँ जाना है ?’’ परिचालक का प्रश्न सुनकर प्रियांश सहम गया ।
‘‘पता नहीं !’’ अगले ही पल उसके मस्तिष्क में एक विचार कौंधा । उसने पूजा की ओर उन्मुख होकर कहा -
‘‘मम्मी जी ! अंकल पूछ रहे है, हमें कहाँ जाना है ?’’ पूजा ने चेहरा ऊपर उठाये बिना ही उदासीन स्वर में कहा -
‘‘जहाँ बस जाएगी !"
परिचालक ने पूजा से पुनः प्रश्न किया -
‘‘बहन जी, कहाँ जाना है ?’’ परिचालक ने यह कहकर पूजा से टिकट लेने के लिए संकेत करते हुए उसकी ओर हाथ बढ़ा दिया। अपनी ओर परिचालक का बढ़ा हुआ हाथ देखकर पूजा की आँखों में आँसू भर आये और वह सिसकने लगी। सिसकते हुए उसने अपना हाथ कानों की ओर बढ़ाया, ताकि कान में पहना हुआ आभूषण निकाल सके और उसके भर्राये गले से आर्त-स्वर फूट पड़ा - ‘‘मेरे पास पैसे नहीं हैं, ये ले लो !’’
‘‘तीस रुपये के टिकट के लिए कानों के बून्दे दोगी ? पागल हो क्या तुम ?’’ कंडक्टर ने पूजा से कहा ।
पूजा और परिचालक का संवाद सुनकर सभी यात्रियों का ध्यान उधर खिंचने लगा । एक महिला यात्राी ने अविशवासपूर्वक कहा -
‘‘नकली होगा ! इस महँगाई में रत्ती-भर के गहने बनवाना मुश्किल है, यह इतने भारी झुमके तीस रुपये के किराये के बदले में देने की कह रही है !’’ महिला यात्राी की बात सुनकर सभी यात्री आपस में कानाफूसी करने लगे । पूजा की सिसकियाँ बन्द हो गयी थी, लेकिन आँखों से निरन्तर पानी बह रहा था । परिचालक संवेदनशील प्रकृति का था । वह शायद पूजा की पीड़ा को अनुभव कर सकता था, इसलिए आगे बढ़कर अन्य सवारियों का टिकट बनाने लगा । लौटकर पुनः परिचालक ने पूजा से टिकट के पैसे नहीं माँगे और न ही उसको आने वाले किसी स्टाॅप पर उतरने के लिए कहा । बस तेज गति से चल रही थी । बीच-बीच में रास्ते में पड़ने वाले बस-स्टाॅपेज पर यात्रियों को उतारने चढ़ाने के लिए कुछेक क्षणों के लिए बस रुकती थी । कई स्टाॅपेज से गुजरने के बाद पूजा ने परिचालक को किराया देने तथा अपनी ईमानदारी को सिद्ध करने का पुनः प्रयास करते हुए कहा -
‘‘भैया, ये झुमके असली सोने के बने हैं ! मेरे पास पैसे नहीं है ! तुम इन्हें लेकर अपना किराया काट लो, शेष जितने रुपये तुम ठीक समझो, मुझे दे दो !’’
‘‘कोई बात नहीं ! भैया कहा है, तो बहन बनकर आराम से यात्रा करो ! टेंशन लेने की जरूरत नहीं है बहना !’’ परिचालक ने सहानुभूतिपूर्वक उत्तर दिया।
परिचालक का उत्तर सुनकर प्रियांश ने अपनी अबोध-निश्छल वाणी से कहा -
‘‘मम्मी जी, मैं अपनी घड़ी दे दूँ ?’’
अभी तक परिचालक गम्भीर-शान्त मुद्रा में बातें कर रहा था, लेकिन प्रियांश की बाल-सुलभ चेष्टा ने उसके चित्त में वात्सल्य को जगा दिया। वह स्नेहपूर्वक मुस्कराता हुआ आगे बढ़ा और प्रियांश के सिर पर हाथ फेरते हुए बोला -
‘‘नहीं बेटा, यह घड़ी तुम्हारी कलाई में ही सुन्दर लग रही है ! वैसे भी, मेरी कलाई में यह घड़ी नहीं आएगी ! ठीक कहा ना मैने ?’’
बस में यात्रा करते हुए एक बस परिचालक में इतनी सहृदयता पाकर प्रियांश आश्चर्यचकित था । कुछ क्षणों के लिए वह अपनी विषम परिस्थिति की चिन्ता से मुक्त हो गया था । परन्तु अगले ही पल उसके मस्तिष्क में पुनः चिन्ता ने दस्तक दी, जब उसने देखा कि उसकी माँ चिन्ता के समुद्र में गोते लगाते हुए शारीरिक-मानसिक पीड़ा को ढो रही है । पूजा अपने दुर्भाग्य के विषय में सोचते-सोचते अतीत की स्मृतियों में इस प्रकार खो गई थी कि उसे यह भी ज्ञान न रहा था कि वह एक बस में बैठी हुई यात्रा कर रही है, जिसका कोई अन्तिम स्टाॅप होता है ! अपने अन्तिम स्टाॅप पर पहुँचकर बस रुक गयी। उसमें बैठे सभी यात्री नीचे उतर गये। केवल पूजा और उसके दोनों बेटे ही बस में बैठे रह गये थे । प्रियांश और सुधांशु तो सो चुके थे, किन्तु पूजा को न तो सोया हुआ कहा जा सकता था और न ही जागा हुआ । वह जाग्रतावस्था में होते हुए भी जाग्रत नहीं थी, क्योंकि अतीत में विचरण करते हुए भविष्य की चिन्ता में डूबी हुई पूजा को यह भी स्मरण नहीं था कि वह अपने दोनों बेटों को लेकर अंधेरी रात में घर से बाहर है ! पूजा को लेकर कुछ मिनटों तक चालक-परिचालक परस्पर बातें करते रहे । अन्त में उन्होंने पूजा से कहा -
‘‘बहन जी, लास्ट स्टाॅप आ गया है !’’
एक बार की आवाज से पूजा की चेतना नहीं लौटी, तो परिचालक ने उसके पास जाकर पुनः अपनी बात दोहरायी। इस बार पूजा हड़बड़ा कर चौंकते हुए उठ खड़ी हुई और बोली -
‘‘भैया, यह कौन-सी जगह है ?’’
‘‘आपको कहाँ जाना है ?’’ इस बार चालक ने सहानुभूतिपूर्वक पूछा ।
‘‘पता नहीं, भैया ! जहाँ ईश्वर ले जायेगा, वहीं चले जायेंगे ! पता नहीं भाग्य कहाँ ले जाकर छोडे़गा ?’’
पूजा के पीड़ा में डूबे हुए उत्तर को सुनकर बस-चालक ने पूछा -
‘‘बहन जी, आप बहुत दुःखी लग रही है ! बुरा न मानों, तो एक बात पूछूँ ? आप अपने घर से लड़ाई-झगड़ा करके आयी हो ?’’
‘‘मैं ?... मैं लड़ाई-झगड़ा करके आयी हूँ !’’ कहते हूए पूजा की आँखों से आँसू टपकने लगे । उसे रोता हुआ देखकर चालक पुनः संवेदना व्यक्त करते हुए बोला -
‘‘नहीं, मेरा मतलब था कि आप अकेले ही बच्चों के साथ रात में यात्रा कर रही हो, घर में पति से कुछ ............?’’
अब पूजा के मार्मिक घावों पर चालक-परिचालक की सहानुभूति का मरहम लगने से कुछ क्षण के लिए सो चुकी पूजा की पीड़ा पुनः जाग्रत हो गयी थी । उसने अपनी सारी कहानी उन दोनों को बतायी, जिससे उसकी पीड़ा अथवा समस्या का समाधन तो नहीं हुआ था, परन्तु दुःख बाँटने से कम होने की कहावत के अनुरूप उसको राहत का कुछ-कुछ अनुभव हो रहा था। यद्यपि अपनी पीड़ा व्यक्त करने के बाद भी उसकी समस्या ज्यों की त्यों थी। समस्या का समाधन इतना आसान नहीं था, जितनी आसान समस्या की अभिव्यक्ति ।
चूँकि सारी रात बस में बैठकर व्यतीत करना सम्भव नहीं था, इसलिए पूजा ने सुधांशु को गोद में उठा लिया और प्रियांश का हाथ पकड़कर धीरे-धीरे बस के द्वार की ओर बढ़ने लगी । बस के द्वार पर आते-आते बाहर फैले हुए अंधकार को देखकर वह ठिठककर रुक गयी। सड़क गहन अंधकार में डूबी हुई थी । केवल कुछ दुकानों से प्रकाश आ रहा था । अधिकांश दुकानें भी उस समय तक बन्द हो चुकी थीं । चालक और परिचालक दोनों ने ही पूजा के ठिठकते कदमों को देखकर उसकी मानसिकता का अनुमान लगा लिया था। इसलिए चालक ने पीछे से पुकारा -
‘‘बहन जी, रात बहुत हो गयी है, अंधेरा गहरा हो रहा है ! आप अकेले इस अंधेरे में कहाँ जायेंगी ? कोई रिश्तेदार आस-पास रहता है क्या ? यदि आपको ठीक लगे, तो रिश्तेदार को फोन करके यहीं बुला लो ! इस अँधेरी रात में आपका अकेले जाना ठीक नहीं होगा !’’
परिचालक द्वारा किये गयेे सभी प्रश्नों को पूजा चुपचाप खड़ी हुई सुनती रही । उसके प्रश्नों का तत्काल कोई उत्तर न देकर वह कुछ मिनट पश्चात् इस प्रकार बोली, जैसे, परिचालक से नहीं स्वयं से ही बातें कर रही हो -
‘‘कहाँ जाऊँगी ? कुछ भी तो नहीं पता कि कहाँ जाना है !... मेरे भाग्य में जितना अंधेरा छाया है, यह रात और इस रात का अंधेरा सभी उससे कम है ! रिश्तेदारों से कब तक सहायता लूँगी ?’’ स्वयं से बातें करते-करते पूजा की आँखों से पानी बरसने लगा और सिसकियाँ फूट पड़ी । पूजा को रोते देखकर परिचालक थोड़ा-सा आगे बढ़कर बोला -
‘‘बहन जी, रोने से कुछ नहीं होने वाला ! यहाँ बहुत अंधेरा है ! हम जानते हैं, यहाँ आप सुरक्षित नहीं रह सकती हैं ! मैने आपको बहन कहा है, इसलिए कह रहा हूँ,अपने किसी रिश्तेदार को फोन करके यहीं बुला लो !
‘‘यहाँ पर मेरा कोई रिश्तेदार नहीं है ! मुझे तो यह भी नहीं पता कि यह कौन-सी जगह है ?’’ पूजा ने दयनीय भाव से कहा ।
पूजा का उत्तर सुनकर परिचालक और चालक दोनों एक-दूसरे की ओर देखने लगे । उन्होंने आँखों से संकेत करके आपस में कुछ बातें की और दोनों की सहमति होने पर परिचालक ने कहा -
‘‘बहन जी, यहाँ से कुछ ही दूरी पर रेलवे जंक्शन है । हम आपको वहाँ छोड़ दें ? वहाँ सारी रात लाइटें जलती रहती हैं और चहल-पहल रहती है ! वहाँ आप सुरक्षित भी रहेंगी और आपका ध्यान बँटा रहेगा, तो मन का दुःख थोड़ी देर के लिए भूल जाओगी ! सवेरा होने पर जो भी आपको ठीक लगे, कर लेना ; जहाँ जाना चाहोगी, वहाँ चली जाना!’’
पूजा ने उसकी बात का उत्तर शब्दों में नहीं दिया। शायद वह कुछ निर्णय नहीं कर पा रही थी या शायद वह कुछ बोलना-कहना ही नहीं चाहती थी । लेकिन उसने परिचालक की ओर सकारात्मक दृष्टि से देखते हुए सहमति में सिर हिला दिया। पूजा की सहमति पाकर बस का चालक अपनी सीट पर बैठा और बस को स्टार्ट करते हुए बोला -
‘‘बच्चों को लेकर सीट पर ठीक से बैठ जाओ, खड़े रहोगे, तो गिर जाओगे !’’ चालक के निर्देशानुसार पूजा अपने दोनों बेटों को लेकर सीट पर बैठ गयी । बस चल पड़ी और दस मिनट बाद रेलवे जंक्शन पर जाकर रुक गयी। परिचालक ने पूजा को बस से उतारकर संकेत करते हुए बताया कि वहाँ पर रेलवे के प्रतीक्षा-कक्ष में वह सुरक्षित रहेगी । पूजा ने सहमति तथा धन्यवाद की मुद्रा में गर्दन हिलाकर एक बार परिचालक की ओर देखा और फिर स्टेशन की तरफ घूम गयी।
डॉ. कविता त्यागी
tyagi.kavita1972@gmail.com