Aaghaat - 25 in Hindi Women Focused by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | आघात - 25

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आघात - 25

आघात

डॉ. कविता त्यागी

25

रात-भर तथा अगले दिन भी पूजा सोचती रही कि वह रणवीर से अपनी शंका प्रकट करे ? या न करे ? करे तो किस प्रकार करे ? कि साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे ! दो दिन-रात ऊहापोह में बीत गये । तीसरे दिन रणवीर बहुत सवेरे घर से निकल गया। उसने घर पर नाश्ता भी नहीं किया था और रात में लगभग साढे़ दस बजे घर पर लौटा । उस रात पूजा के धैर्य का बाँध टूट गया । उसे संदेह था कि दिन-भर रणवीर ने वाणी के साथ समय बिताया है। शाम से ही आज उसके बेटे पिता की प्रतीक्षा कर रहे थे और प्रतीक्षा करते-करते भूखे ही सो गये। अतः रणवीर के घर में प्रवेश करते ही पूजा ने उसकी कुशल-क्षेम और पानी-भोजन की बात पूछे बिना अपना प्रश्न उस पर दाग दिया -

‘‘कहाँ थे इस समय तक? बच्चे आपकी प्रतीक्षा करते-करते भूखे ही सो गये !’’

पूजा का प्रश्न रणवीर के कानों में तीर की तरह चुभा ! एक तो उसकी प्रकृति स्वच्छन्द थी, प्रश्नों का उत्तर देना उसका स्वभाव नहीं था । दूसरे, उसने उस समय शराब का सेवन भी किया हुआ था । उस स्थिति में रणवीर ने पूजा के प्रश्न का उत्तर देना आवश्यक न समझा और पूजा की ओर घूर कर देखने लगा । इससे पूजा का क्रोध और बढ़ गया। उसने पुनः रणवीर से प्रश्न किया -

‘‘आपको अब घर की याद आयी है ? और अब भी शराब में डूब कर घर में आना था !’’

पूजा के तीखे व्यंग्य बाणों से रणवीर का खून खौलने लगा -

‘‘मैं सुबह से अब घर में घुसा हूँ ! एक बार पानी के लिए भी नहीं पूछा, सवाल पर सवाल दाग रही है ! मैं स्वयं को तेरे प्रश्नों का उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं समझता हूँ ! न ही मैं तेरे किसी सवाल का जवाब देना चाहता हूँ और न ही तेरे साथ कोई बात करना चाहता हूँ !’’

‘‘बात मैं भी नहीं करना चाहती हूँ, फिर भी मुझे करनी पड़ती है !’’

‘‘तुम मुझसे बातें करना नहीं चाहती हो, तो क्यों करती हो ? मत करो !’’

‘‘मुझे तुमसे बातें करनी पड़ती है, क्योंकि मैं तुम्हारी पत्नी हूँ और तुम्हारे दो बेटों की माँ हूँ ! और तुम... तुम परायी स्त्री के साथ इश्कबाजी करते फिरते हो !’’

‘‘तेरे पास क्या सुबूत है कि मैं परायी स्त्री के साथ इश्कबाजी करता फिरता हूँ ?... तेरे पास इस बात का भी क्या प्रमाण है कि ये दोनों बच्चे मेरे हैं ? बोल ! अब बोलती क्यों नहीं ? ध्यान रखना ! जब तू मेरे ऊपर जैसे आरोप लगाएगी, तब मैं भी वैसे ही आरोप लगा सकता हूँ ! अपने लिए ऐसे आरोप सुनकर तुझे मुझसे अधिक पीड़ा पहुँचेगी !’’ पूजा पर आरोप लगाते हुए भविष्य के लिए चेतावनी देकर रणवीर निर्लज्जतापूर्वक हँसने लगा।

पति द्वारा लगाया गया झूठा लांछन सुनकर पूजा का अन्तःकरण तपड़ने लगा। अब धैर्य ने उसका साथ छोड़ दिया था और अब तक के उसके अपने मन में संग्रह करके रखे गये सारे संदेह विश्वास में परिवर्तित होकर प्रकट होने लगे -

‘‘तुम्हें क्या लगता है ? तुम्हारी सारी करतूतें मुझसे छिपी हुई हैं ? मुझे तुम्हारे एक-एक कुकर्म का पता है ! हफ्ता-भर मनाली में उस निर्लज्ज के साथ रंगरेलियाँ मनाकर मुझसे कह दिया कि माँ के पास थे !... मुझसे कहते रहे, नया काम शुरू किया है और नये-नये काम को अधिक समय देना आवश्यक है ! जब उसके साथ हनीमून मनाने जाते हो, तब काम का ध्यान नहीं आता ?’’

‘‘मैं जानता हूँ, तुझे सब कुछ पता है !... बस इतना पता नहीं है, पति क्या होता है और प्यार क्या होता है ? तभी तो उस नेहा की बातों पर विश्वास करके अपने घर में क्लेश कर रही है ! मैं दिन-भर काम करता हूँ और तेरे मन में घर में खाली बैठे-बैठे शक का कीड़ा पलता रहता है !’’ रणवीर की वाणी में नम्रता आने लगी थी । वह अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिए पूजा पर मधुर शब्दों में प्रेमयुक्त व्यवहार का जाल डालने लगा । लेकिन, इस बार पूजा उसके कपटपूर्ण व्यवहार में और बातों में आने वाली नहीं थी । वह अपने हृदयस्थ सन्देह को आवेश के वशीभूत होकर रणवीर के समक्ष प्रकट कर चुकी थी। प्रत्युत्तर में रणवीर अपने भावावेश में किये गये संवाद के प्रति सतर्क होकर विनम्र-मधुर शब्दों से पूजा को संयत करने का प्रयास कर रहा था ।

परन्तु, पूजा का क्षोभ अब और भी अधिक बढ़ गया था । उसके मन को जो शान्ति मिलनी चाहिए थी, वह उसको नहीं मिल पा रही थी । एक अदृश्य शक्ति जैसे उसे संचालित कर रही थी । उसकी मनःस्थिति अत्यन्त विचित्रा हो चली थी। एक ओर, वह इस बात को सोचकर क्षुब्ध थी कि उसने रणवीर के समक्ष अपना सन्देह प्रकट क्यों किया ? उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था ! रणवीर द्वारा स्वयं को प्रियांश और सुधांशु का पिता होने पर सन्देह व्यक्त करते हुए छोड़े गये शब्द-बाण पूजा के हृदय को अब तक चुभ रहे थे और शायद सदैव ही चुभते रहेंगे ! उन शब्दों ने पूजा के अन्तःकरण को छलनी कर दिया था । वह सोचने लगी -

‘‘कीचड़ में ढेला फेंकने से अपने ऊपर ही छींटें पड़ते हैं ! जिसका चरित्र पतन की ओर चलायमान होता है, वह दूसरों के चारित्रिक-पतन की बातें ही कर सकता हैं!’’

दूसरी ओर, पूजा इस बात को सोचकर क्षुब्ध थी कि अब उसकी गृहस्थी बद से बदतर हो जाएगी ! वाणी के साथ सम्बन्धों की बात प्रकट हो जाने पर उसको रणवीर के साथ सामंजस्य करना कठिन हो जाएगा ! रणवीर के व्यवहार में विनम्रता देखकर उसका क्षोभ और भी बढ रहा था -

‘‘जिस इंसान में इंसानियत ही न हो उसकी विनम्रता ढोंग है ! ऐसे मनुष्य का प्यार क्या ? व्यवहार क्या ? सब-कुछ धोखा ही तो है !’’

रणवीर के विरुद्ध सोचते-सोचते उसकी पीड़ा-व्यथा के बादलों के बीच बिजली की चमक की भाँति एक क्षीण-सा विचार अचानक उसके मस्तिष्क में उठता और विलुप्त हो जाता था -

‘‘मेरी ही गलती है कि इस बिगड़े हुए आदमी को मैं सुधरने के सपने देखती हूँ ! किसी मनुष्य की जैसी प्रकृति होती है, वह वैसे ही कर्म करता है ! वह कभी नहीं बदल सकता !... मुझमें इतना धैर्य नहीं था कि मैं अपने पति पर किसी अन्य स्त्री का अधिकार स्वीकार कर लेती ! लेकिन,... अब मुझे ऐसा ही करना पडे़गा ! ’’ अपने विचार-जगत में यात्रा करतै-करते अगले ही क्षण वह चीखने लगी -

‘‘मैं ऐसा नहीं होने दूँगी ! तुमने पूरे समाज के सामने मेरे साथ विवाह किया है ! तुम्हें मर्यादा में रहना होगा ! तुम्हारी मीठी-मीठी बातों का मुझ पर कोई असर नहीं होगा ! मैं तुम्हारी पत्नी हूँ ! तुम्हें मेरे साथ और इन बच्चों के साथ रहना होगा, उस वाणी के साथ नहीं ! ’’

पूजा के आवेशपूर्ण व्यवहार की प्रतिक्रियास्वरूप संयत व्यवहार की ओर बढते हुए रणवीर को भी क्रोध आ गया। उसने भरपूर घृणा से पूजा की ओर घूरकर देखा और अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए जल्दी-जल्दी दो जोड़ी कपडे़, जिसमें एक जोड़ी उसके पैंट-शर्ट तथा एक जोड़ी कुर्ता-पायजामा थे, उठाकर चल दिया । पूजा ने रणवीर का प्रतिरोध किया ; उससे कपड़े छीनते हुए उसको रोकने का अपनी सामर्थ्य-भर प्रयास किया, लेकिन रणवीर ने यह कहते हुए उसका हाथ झटक दिया -

‘‘अब मुझे तुम्हारे साथ नहीं रहना है ! देखते हैं कि तुम ऐसा व्यवहार करके मुझे कब तक अपने साथ रख सकोगी ?’’

रणवीर के इस अप्रत्याशित व्यवहार को देखकर पूजा में एक विचित्र-सा भय उत्पन्न हुआ । उसी भय से ग्रस्त होकर वह उसे रोकने के लिए दरवाजे की दोनों चौखटों पर हाथ फैलाकर खड़ी हो गयी। दोनों ओर हाथ फैलाकर वह चौखट को मजबूती से पकड़कर बड़बडाने लगी -

"चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए, मैं रणवीर को इस समय घर से नहीं जाने दूँगी !"

पूजा के प्रतिरोध का रणवीर पर और भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। वह शीघ्रतापूर्वक पूजा को धक्का देकर आगे बढ़ा और मुख्य द्वार से बाहर निकल गया। रणवीर के धकियाने से पूजा फर्श पर गिर पड़ी और उसकी कोहनी फूट गयी थी । सिर पर भी पीछे की तरफ चोट लगी थी, इसलिए उठकर खड़ी होने में थोड़ा-सा समय लग गया था । जब तक पूजा उठकर खड़ी हुई और मुख्य द्वार पर आयी तब तक रणवीर घर से बहुत दूर जा चुका था। वह पूजा को कहीं भी दिखाई नहीं दिया। वह शीघ्रता से दौड़कर घर के अन्दर आयी और फोन उठाकर रणवीर का नम्बर डायल करने लगी । रणवीर के मोबाइल पर घंटी जाती रही, लेकिन उसने मोबाइल पर बात करने की आवश्यकता नहीं समझी । बात करनी होती, तो घर से ही क्यों जाता ? परन्तु पूजा को धैर्य नहीं था ! इसी तनाव में वह रात भर नहीं सोयी। जब-जब उसकी उद्विग्नता बढ़ती, तब-तब रणवीर के मोबाइल का नम्बर डायल करती रही । हर बार घंटी बजती रही, पर रणवीर के साथ उसकी बातें न हो सकी।

अगले दिन भी पूजा ने कई बार रणवीर को फोन पर बातें करके घर बुलाने का प्रयास किया । परन्तुु न तो उससे पूजा की बातें हो सकी और न ही उसका चाहा हो सका। जबकि पूजा की इच्छा के विपरीत बहुत कुछ घटित हुआ । वह बहुत कुछ, जो न तो रणवीर और पूजा के गृहस्थ-जीवन के लिए शुभ था और न ही उनके बच्चों के भविष्य के लिए शुभ संकेत था । अगले दिन रणवीर शाम के लगभग छः बजे शराब के नशे में चूर होकर घर आया। उसके हाथ में तलाक के पेपर थे और जीभ पर अपमानजनक कटु शब्द। घर में प्रवेश करते ही रणवीर ने पूजा को तिरस्कारपूर्ण मुद्रा में कुछ अपशब्द कहते हुए उसके गाल पर थप्पड़ मार दिया। पूजा ने सोचा भी नहीं था कि ऐसा कुछ हो सकता है ! इसलिए थप्पड़ लगने के पश्चात् प्रत्युत्तर में उसके मुँह से एक शब्द भी न निकल सका । कुछ क्षणों तक वह चुपचाप किंकर्तव्यविमूढ़-सी खड़ी रही । वह कुछ सोचती और कुछ कह पाती, इससे पहले ही रणवीर ने दूसरा थप्पड़ मारकर -

‘‘इस पर अपना साइन कर !’’

‘‘क्या है यह ?’’

‘‘इस बात को जानने-समझने की जरूरत नहीं है ! जितना कहा है, उतना कर !’’ कहते हुए रणवीर ने उन पत्रों को बलपूर्वक पूजा के हाथ में थमा दिया। पूजा ने पत्र के ऊपर मोटे अक्षरों में लिखा हुआ देखकर जाना कि उसके विवाह-विच्छेद से सम्बन्धित पत्र हैं। अतः उस विषय पर रणवीर के साथ विस्तार से बहस न करके उसने दृढ़तापूर्वक कहा कि वह उन पत्रों पर हस्ताक्षर नहीं करेगी ! पूजा का नकारात्मक उत्तर सुनकर रणवीर दानवी मुद्रा में उसकी ओर दहाड़ते हुए बोला -

‘‘मुझे ‘ना’ सुनने की आदत नहीं है ! मालूम है ना तुझे ?’’

‘‘मालूम है ! फिर भी मैं साइन नहीं करूँगी !’’

पूजा का दृढ़निश्चयपूर्वक नकारात्मक उत्तर सुनकर रणवीर का शराब का नशा उडनछू हो गया और उस पर अंहकार हावी हो गया। वह अपनी शक्ति के मद में आगे बढ़ा और पूजा की बाँह को कसकर पकड़कर घसीटते हुए उसको बाहर की ओर खींच लाया। उसने पूजा को दरवाजे से बाहर इस प्रकार फेंक दिया जैसे - एक बच्चा पुरानी गुड़िया से खेलते-खेलते ऊबकर नया खिलौना मिलने की आशा में उसे बेरहमी से फेंक देता है ! उस समय रणवीर के दानवी व्यवहार और तिरस्कार से त्रस्त पूजा की आँखें और हृदय चीख-चीख कर रो रहे थे । साथ ही साथ दोनों बच्चे माँ को रोते देखकर उसकी पीड़ा को अनुभव करके तथा पिता के विध्वंसात्मक रूप को देखकर भयभीत होकर ‘मम्मी-मम्मी’ चिल्लाकर रो रहे थे। सुधांशु बहुत छोटा था ; नादान था, इसलिए माँ के पास खड़ा हुआ निरन्तर रो रहा था । प्रियांश अपनी माँ के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के प्रति विद्रोह-भाव से भरा हुआ था । कुछ क्षणों तक वह पिता की ओर कातर दृष्टि से देखता रहा था, जैसे कह रहा हो कि अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके हमारी अबला माँ पर अत्याचार मत करो ! लेकिन, पिता के चेहरे पर कठोर भावों का साम्राज्य देखकर प्रियांश ने रोना-चिल्लाना बन्द कर दिया था । उसके रोना बन्द करते ही चेहरे की दयनीयता कठोरता में बदल गयी थी । वह अपने पिता की ओर घूरकर देखनेे लगा । उस समय प्रियांश को देखकर लगता था, मानो वह रणवीर का प्रतिबिम्ब है। कुछ क्षणों तक एक दृढ़, मजबूत व्यक्तित्व धारण करके पूर्ण आत्मविश्वास के साथ वह रणवीर की ओर घूरता रहा । तत्पश्चात् बिना कुछ बोले चुपचाप माँ का हाथ पकडा ओर बोला -‘‘चलो मम्मी !’’

प्रियांश के शब्द कानों में पड़ते ही रणवीर ने दरवाजे की ओर बढ़ती हुई पूजा को सुधांशु सहित बाहर की ओर धक्का दिया और एक झटके से दरवाजा बन्द कर दिया । दरवाजा बन्द होते ही सुधंशु और भी जोर-जोर से रोने लगा । वह दरवाजा पीटते-खटखटाते हुए चिल्लाने लगा -

‘‘पापा ! पापा ! दरवाजा खोलो ! पूजा भी दरवाजा खुलवाने के लिए कातर वाणी में रोने-गिड़गिड़ाने लगी । रणवीर पर पत्नी और बच्चों के रोने-चीखने गिड़गिड़ाने का कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा। केवल एक-दो बार उस पाषाण हृदयी के मुख से कर्कश-कठोर वाणी दरवाजे के बारह खडे़ हुए बच्चों तक पहुँची थी - ‘‘कह दिया ना, दरवाजा नहीं खुलेगा ! एक बार का कहा हुआ समझ में नहीं आता है क्या ? प्यार की भाषा तो समझ में आती ही नहीं है !’’

पारिवारिक कलेश तो पूजा के वैवाहिक जीवन में आरम्भ से ही था। इस घर में आने के पश्चात् भी उसका कई बार ऐसी विषम परिस्थिति से साक्षात्कार हो चुका था । परन्तु इस बार घर की बात घर से बाहर आ गयी थी । आज से पहले उनका मतभेद घर की चारदीवारों के बाहर नहीं आया था । आज, रात के समय, जबकि सभी लोग अपने-अपने घरों में सोेने की तैयारी कर रहे थे या सो चुके थे, रणवीर और पूजा का मनमुटाव परिवारिक मर्यादा की सीमा लाँघकर दहलीज के बाहर आ गया था ।

पूजा के प्रति रणवीर के अमानवीय व्यवहार की सूचना पास-पडोस में तत्काल ही जंगल की आग की भाँति फैल गयी। दस-बीस मिनट तक पड़ोसियों ने रणवीर के पारिवारिक कलेश को मनोरंजन के रूप में ग्रहण किया । उन्होंने सोचा कि इन दोनों के बीच झगड़ा होना कोई नयी बात नहीं है, यह तो इनके दैनिक जीवन का अंग बन गया है। लेकिन, जब घंटा-भर तक उन्होंने पूजा को बच्चों सहित घर के बाहर खड़े हुए दरवाजा खुलवाने के लिए रोते -बिलखते देखा, तो उनका माथा ठनक गया। उन सभी पडोसियों ने तुरन्त मकान मालिक से सम्पर्क किया और इस विषय पर परस्पर विचार-विमर्श करने की आवश्यकता प्रकट की । मकान मालिक उनके विचार से सहमत हो गया । उस रात सभी पड़ोसियों ने अपनी नींद को त्यागकर एक साथ मिलकर विचार-विमर्श किया कि रणवीर के परिवार का मतभेदपूर्ण असामान्य व्यवहार और उनके व्यवहार की उग्रता यहांँ पर रहने वाले अन्य परिवारों के बच्चों पर बुरा प्रभाव डालते हैं । सामूहिक विचार-विमर्श का निष्कर्ष निकालते हुए उन्होंने योजना बनायी कि रणवीर का परिवार सभ्य समाज में रहने योग्य नहीं है, इसलिए मकान मालिक रणवीर से जाकर दो टूक बात करे और उसको शीघ्रतिशीघ्र मकान छोड़कर अन्यत्र कहीं चले जाने के लिए कहे ! मकान-मालिक भी उस सामूहिक विचार निष्कर्ष से शत-प्रतिशत सहमत था । उसने उन सभी को आश्वस्त किया कि वह इस समय रणवीर के घर जाकर उसके पारिवारिक झगडे़ में फँसना उचित नहीं समझता है । सवेरे जाकर उससे बात करेगा कि वह शीघ्र ही अपने लिए कोई दूसरा मकान ढूँढ ले।

मकान-मालिक के शीघ्र ही दूसरा मकान तलाशने की बात पर उग्र प्रकृति के एक पडोसी ने प्रश्न-चिह्न लगाया और कहा कि उसे कल ही मकान छोडने के लिए विवश करना चाहिए ! दूसरे पडोसी ने कहा कि कल तो नहीं, पर एक निश्चित समय-सीमा के अन्दर उसको यहांँ से जाने के लिए कहने में कोई हर्ज नहीं है ! मकान मालिक दूसरे व्यक्ति की बात से सहमत था, अतः वह उन सभी को वचन देकर चला गया कि कल सवेरे उसे एक माह के भीतर मकान छोड़ने के लिए कह दिया जाएगा !

डॉ. कविता त्यागी

tyagi.kavita1972@gmail.com