आघात
डॉ. कविता त्यागी
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कौशिक जी और रमा अपनी बेटी की स्थिति देखकर अत्यन्त व्याकुल हो गये। उन्होंने सांत्वना देते हुए उसको चुप कराया कि रोना किसी समस्या का समाधन नहीं होता है । उसे समझाया कि वह केवल अपने बच्चे सुधांशु के पालन-पोषण पर ध्यान केन्द्रित करे, अन्य किसी भी बात की चिन्ता न करे, क्योंकि समय में स्वयं इतनी शक्ति है कि वह धीरे-धीरे सभी समस्याओं का समाधन कर देता है । पिता का आश्वासन पाकर पूजा चुप हो गयी और दूसरे कमरे में, जहाँ उसका बेटा सुधांशु सोया हुआ था, चली गयी।
यश का अपने पिता के वक्तव्य से सन्तुष्ट हो पाना कठिन था ! उसने पिता से मुखातिब होकर कहा -
‘‘पूजा के बारे में आपका क्या विचार है ?’’
‘‘मुझे तो कुछ नहीं सूझ रहा इस समय !’’
‘‘कुछ तो सोचा ही होगा आपने ?’’
‘‘बेटा, मैं तेरी सुनता हूँ, तो तू ठीक लगता है ! जब पूजा को देखता-सुनता हूँ, तब वह भी कहीं गलत नहीं लगती ! बेहतर होगा कि अभी हम कुछ समय धैर्य के साथ परिस्थितियों का सामना करें। समय ही धीरे-धीरेे इन सभी समस्याओं का कोई-न-कोई समाधन करेगा और हम सबको रास्ता दिखाएगा !’’
यश अपने पिता के उत्तर से अल्पांश भी सहमत नहीं था, किन्तु उसने उनसे किसी प्रकार प्रतिवाद नहीं किया । पिता के साथ वाद-प्रतिवाद करना उसके स्वभाव के प्रतिकूल था । उसने आज तक कभी भी पिता के समक्ष अपने विचारों की सबल अभिव्यक्ति नहीं की थी । वह सदैव अपने पिता के समक्ष अपने मनोभावों को संक्षिप्त और सहज रूप से व्यक्त करता था । तत्पश्चात् अपनी उस अभिव्यक्ति के प्रति पिता की सकारात्मक या नकारात्मक प्रतिक्रिया की परवाह किये बिना अपने विचारों को क्रियान्वित करने में जुट जाता था । इस बार भी उसने अपने स्वभावानुकूल पिता के समक्ष अपना विचार व्यक्त किया था कि पूजा के विषय में यह निर्णय शीघ्र ही लिया जाना चाहिए कि उसके भविष्य की दिशा और दशा क्या है ; क्या होनी चाहिए ? उसके पिता ने उसकी सहज रूप से की गयी विचार-अभिव्यक्ति को सहजता से ग्रहण करते हुए सदैव की तरह अपने स्वभाव के अनुरूप उत्तर दे दिया था । अब इसके बाद हमेशा की ही तरह यश ने अपने विचारों के क्रियान्वयन का अगला कदम उठा दिया ।
यश के विचारों के क्रियान्वयन में उसके पिता ने कभी रोड़ा न अटकाया था, इसलिए उसको प्रायः किसी प्रकार के पारिवारिक विरोध का भय न रहता था । आज भी वह निस्संकोच तथा निर्भय होकर अपने विचार को कार्य-रूप में परिणत करने में जुट गया। अपनी बहन पूजा के स्वभाव और सोच से वह भली-भाँति परिचित था । वह जानता था कि पूजा अपने बच्चों से दूर-अलग होकर कभी सुखी और प्रसन्न नहीं रह सकेगी, इसलिए वह रणवीर से विवाह-विच्छेद भी नहीं करेगी और इसलिए पूजा का रणवीर के साथ उसके घर पर रहना ही उसके लिए अपेक्षाकृत बेहतर विकल्प है। यही उसके बच्चों के लिए और स्वयं उसके लिए उचित है।
अपने इस विचार को यथार्थ रूप प्रदान करने के लिए यश ने सर्वप्रथम रणवीर के कुछ रिश्तेदारों और मित्रों से सम्पर्क स्थापित किया और उन्हें रणवीर द्वारा पूजा के प्रति किए गये दुव्र्यवहार के विषय मे बताया। यश ने रणवीर के कर्तव्य-बोध् पर प्रश्न लगाते हुए उसके रिश्तेदारों को बताया था कि अपने दायित्व का निर्वाह न करने वाला रणवीर इतना निष्ठुर और संवेदनाहीन हो गया है कि उसकी पत्नी तब से मायके में जीवन-यापन कर रही है, जब वह रणवीर के अंश को अपने गर्भ में धारण करके आयी थी। आज वह बच्चा घुटनों के बल सरकने लगा है, खड़ा होना सीख रहा है, किन्तु उसका पिता कहलाने वाले रणवीर को अभी तक उसकी सुधि नहीं आयी है। यश की कही हुई बातों का उन सब पर वैसा ही प्रभाव पड़ा जैसा उसने सोचा था और जैसा वह चाहता था।
संयोग से उन्हीं दिनों प्रेरणा का विवाह निश्चित हो गया। यश ने इस अवसर का लाभ पूजा के सन्दर्भ मे लेने की योजना बनायी। उसने रणवीर को रजिस्टर्ड निमंत्रण-पत्र भेजकर उसके उन मित्रों और सम्बन्धियों से विवाह में आने का विशेष आग्रह किया, जिनसे वह पहले ही रणवीर और पूजा के बीच की कटुता-भरी दूरी का वर्णन कर चुका था। यश ने उन सभी से यह भी आग्रह किया था कि विवाह में शामिल होने के लिए आये हुए रणवीर पर वे सभी इस बात के लिए दबाव डालें कि वह अपनी पत्नी तथा बच्चे को सप्रेम अपने साथ रखे ! इसी के साथ यश ने रणवीर के एक घनिष्ट मित्र से मिलकर आग्रह किया कि वह रणवीर को अपने साथ लेकर विवाह में अवश्य आए।
शीघ्र ही प्रेरणा के विवाह का निर्धरित समय आ गया। यश ने घर में सभी को अवगत करा दिया था कि रणवीर अपने मित्रों के साथ प्रेरणा के विवाह में सम्मिलित होगा ! उसने यह भी बता दिया था कि उसके प्रयत्नों के फलस्वरूप कुछ ऐसे रिश्तेदार भी विवाह में सम्मिलित होंगे, जो रणवीर के निकटवर्ती हैं और वे उस पर दबाव बनाएँगे कि वह अपने पति-धर्म और पिता-धर्म का निर्वाह करे ! यश की योजना को जानकर कौशिक जी नाराज हुए थे ! उन्होेनें अपनी अप्रसन्नता को व्यक्त करते हुए मात्र इतना ही कहा -
‘‘यश, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था ! यह सब करने से पहले कम से तुम्हें कम एक बार हमसे पूछना तो चाहिए था !’’ इससे अधिक उन्होंने कुछ नहीं कहा, ऐसा लगता था अपनी प्रकृति के अनुरूप उन्होंने यश के विचारों और आने वाली परिस्थितियों से सामंजस्य बनाने का मन बना लिया था। किन्तु, रमा में परिस्थितियों से सामंजस्य करने की क्षमता अपेक्षाकृत कम थी। रमा इस बात को सुनते ही कि यश ने पूजा को उसकी ससुराल भेजने के लिए रणवीर के साथ तथा उसके मित्रों सम्बन्धियों के साथ आग्रहपूर्वक सम्पर्क किया है, अत्यन्त व्यथित हो गयी। अपनी बेटी की पीड़ा का अनुभव करते हुए वे क्रोधित होकर यश से कहने लगी -
"अपनी पत्नी के प्रेम में पड़कर, उसके कहने पर ही तूने पूजा को उसके ससुराल भेजने की योजना बनायी है। पत्नी के प्रेम में अपने माता-पिता, भाई, बहन के सुख-दुख का तुझे बिल्कुल भी अनुभव नहीं करता है क्या ?"
माँ दुःख और क्रोध के मिले-जुले भावों को वहन करते हुए रोती रही और यश पर हुए-मनचाहे आरोप लगाती रही ! बेटा अविचलित भाव से माँ के सारे आरोपों को सुनता रहा, मानो माँ के सभी आरोप और सन्देह निर्मूल हैं, जिनका न तो कोई औचित्य है और न ही उनका यश पर कोई प्रभाव पड़ा है !
पूजा पर यश की बातों का अनेकशः प्रभाव पड़ा था। वह दुःखी थी, क्योंकि अपने भाई के प्रति उसके विश्वास को चोट पहुँची थी। अब तक जिस घर को वह अपना मानती रही थी, अब उस घर का एकमात्र अध्किारी उसका भाई था। वह भाई जिसे वह अपना रक्षा-कवच समझती थी, आज वही भाई उसे पराई वस्तु बताकर घर से निष्कासित करने की योजना बना रहा था । दूसरी ओर, वह प्रसन्न भी थी, क्योंकि भाई के प्रयास से ही अपने बडे़ बेटे प्रियांश के लिए उसके हृदय की तड़प शान्त होने का समय आने वाला था और एक बार फिर उसकी बिगड़ी बात बनने की सम्भावना थी ! लगभग टूटने के कगार पर पड़े हुए उसके दाम्पत्य-सूत्र को एक बार पुनः जुड़ने की सम्भावनाएँ बनने लगी थी ! इसी के साथ उसके मन में एक अव्यक्त-सा भय व्याप्त हो रहा था कि उस घर में पुनः लौटकर अपने चिर-परिचित कष्टकारक जीवन को वह कैसे जी पाएगी ? कैसे उस यातना को भोगेगी, जिसे सहन न कर सकने के कारण ही उसे मायके में आने के लिए विवश होना पड़ा था ? लेकिन, अगले ही क्षण उसके चित्त में सन्तोष उपजने लगता था कि जो भी होगा, अच्छा ही होगा ! ससुराल, जहाँ उसके सभी कानूनी-सामाजिक अधिकार सुरक्षित हैं, वही उसका वास्तविक घर है ! उसे वहाँ जाना ही चाहिए ! वहीं रहना चाहिए ! मायके में बोझ बनकर रहना न्यायोचित नहीं है !"
इस प्रकार विविध भावों के द्वन्द्व-सागर में गोते लगाती हुई पूजा अपने पति की प्रतीक्षा करने लगी । इसी प्रतीक्षा में बार-बार उसकी आँखे अनायास ही द्वार तक जाकर ठहर जाती थीं और शीघ्र ही बचाव की मुद्रा में कि कहीं कोई देख न ले, उसकी भावना का कोई अनुमान न कर ले, वापिस लौट आती थी।
शाम के लगभग पाँच बजे पूजा की प्रतीक्षा समाप्त हुई, जब यश ने आकर सूचना दी कि रणवीर अपने मित्रों के साथ आ पहुँचा है। रणवीर के आने की सूचना पाते ही पूजा का चित्त अस्थिर हो गया था । कभी उसको लगता था कि उसके हृदय की धड़कनें रुक गयी हैं और कभी लगता था कि उसका हृदय सामान्य से अधिक तीव्र गति से धड़कने लगा है । उसका शरीर अपनी छोटी बहन प्रेरणा के विवाह-सम्बन्धी कार्यों में व्यस्त था, लेकिन उसका चंचल चित्त कभी वैवाहिक उत्सव की ओर जाता था, तो कभी वह अपने और रणवीर के सम्बन्धों के विषय में सोचने लगती थी । अपने अतीत-भविष्य की दुनिया में विचरती पूजा पीछे की ओर मुड़ी, तो अचानक एक झटके के साथ यथास्थान ऐसे रुककर खड़ी हो गयी, मानो उसका कोई अंग अग्नि से छू गया हो ! सूचना देने के बाद से अब तक यश वहीं पर खड़ा था । पूजा ने यथाशीघ्र स्वयं को संयमित करके यश से निस्संकोच सहजतापूर्वक पूछा - ‘‘भैया, क्या प्रियांश इनके साथ नहीं आया है ?’’
‘‘आया है ! मैं उसे यहाँ लाना चाहता था, लेकिन कार्य में व्यस्तता के चलते ला नहीं सका था ! अब उधर जा रहा हूँ, शीघ्र ही प्रियांश को लेकर मैं आ जाऊँगा या उसे लेकर रणवीर को यहाँ भेज दूँगा !’’
उसी समय यश वहाँ से चला गया और कुछ समय पश्चात् ही वह प्रियांश को पूजा के पास छोड़कर विवाह के कार्यों में व्यस्त हो गया। अपने बेटे प्रियांश को गोद में लेकर उसका स्पर्श करते ही पूजा का कई महीने का वात्सल्य उमड़ आया। कई महीने से बिछुडे़ हुए पुत्र पर वात्सल्य-वर्षा करके उसका मन कुछ इस प्रकार निर्मल हो रहा था, जैसे वर्षा होने के पश्चात् आकाश स्वच्छ और निर्मल हो जाता है। अब उसके हृदयस्थ सभी भावों पर वात्सल्य और ममता का सहज साम्राज्य हो गया था और वह पूरे तन-मन से वैवाहिक कार्याें का निर्वाह करने में जुट गयी।
सभी मित्रों-सम्बन्धियों के सहयोग और आशीर्वाद से प्रेरणा का विवाह सम्पन्न हो गया। यश ने प्रेरणा की विदाई के पश्चात् रणवीर के मित्रों-सम्बन्धियों सहित उसके साथ चर्चा करने का जो कार्यक्रम बनाया था, उसमें पूजा की उपस्थिति अनिवार्य नहीं थी । रणवीर भी यह नहीं चाहता था कि उसके किसी मित्र-रिश्तेदार के समक्ष उसके पारिवारिक सम्बन्धों में आयी कटुता की विस्तार से चर्चा हो और उसके परिवार - माँ, बहन, भाई आदि के दोष या पूजा के प्रति किये गये उनके दुर्व्यवहार किसी को ज्ञात हों ! इसलिए उसने सहज ही स्वीकार कर लिया कि जो कुछ हुआ था, वह अनुचित था । साथ ही अपने परिवार को निर्दोष सिद्ध करते हुए उसने यह भी कहा कि जो कुछ हुआ, वह नितान्त स्वाभाविक है और प्रायः सभी परिवारों में थोडा-बहुत मतभेद होता ही रहता है। अपने परिवार को निर्दोष सिद्ध करके अन्त में रणवीर ने अपने निकट सम्बन्धियों की बात का मान रखते हुए उसने स्वीकार किया कि वह सुधांशु तथा पूजा को अपने साथ रखकर अपने दायिव का निर्वहन करेगा और भविष्य में ऐसी विषम परिस्थितियों पर नियन्त्रण रखने का प्रयास करेगा, जिससे किसी को कष्ट या परिवार में तनाव होने की संभावना बने ! रमा और कौशिक जी तत्काल पूजा की विदाई के लिए सहमत नहीं थे। अतः सभी ने निश्चय किया कि रणवीर दो दिन पश्चात् पूजा को अपने साथ लेकर जायेगा।
पूर्व निश्चय के अनुसार दो दिन पश्चात् रणवीर पुनः आ पहुँचा। चूँकि पूजा को उसकी ससुराल भेजने का निश्चय कई रिश्तेदारों के समक्ष किया जा चुका था, इसलिए उस विषय में अब कुछ भी चर्चा करना व्यर्थ था । इसीलिए रणवीर ने आते ही अपनी चिर-परिचित अहं निमज्जित मुद्रा में निर्देश दिया कि उसके पास रुकने के लिए अधिक समय नहीं है, बेहतर होगा कि पूजा शीघ्रातिशीघ्र तैयार हो जाए। !
पूजा की विदाई के लिए तैयारियाँ तो पहले ही हो चुकी थीं, रणवीर के आने के पश्चात् केवल आतिथ्य-सेवा-सत्कार करने का मुख्य कार्य था । अतः पूजा की माँ रमा रसोईघर में दामाद के लिए स्वादिष्ट व्यंजन बनाने में व्यस्त हो गयी तथा पूजा चलने की तैयारी करने लगी।
रणवीर के आने के लगभग दो घंटे पश्चात् तक रमा दामाद को नाश्ता-भोजन आदि कराकर रसोईघर से निवृत्त हो गयी। तब तक पूजा अपने बेटे सुधांशु सहित अपनी सभी तैयारियाँ कर चुकी थी, जो ससुराल के लिए प्रस्थान करते समय अत्यावश्यक थी। उसके पश्चात् पूरी तैयारियों के साथ चिन्ता और उदासी के वातावरण में पूजा को विदा कर दिया गया। एक बार फिर पूजा अपने सुखी घर-संसार की आशा लेकर रणवीर के साथ चल पड़ी कि शायद इस बार उसका भाग्य उसका साथ दे दे और वह अपने घर-संसार में अपने पति-बच्चों के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सके ! कौशिकजी ने पूजा को विदा करते हुए कहा -
‘‘बेटी, आशा में ही जीवन है ! जब तक जीवन है, सदा सकारात्मक सोचना ! कभी नकारात्मक भाव मन में मत लाना !"
डॉ. कविता त्यागी
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