दास्ताँ ए दर्द !
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वह दिन प्रज्ञा के लिए यादगार बन गया था | वह अकेली लंदन की सड़कों पर घूम रही थी, किसी भी दुकान में घुसकर 'विंडो-शॉपिंग' करने में उसे बड़ा मज़ा आ रहा था |
वह एक आर्टिफ़िशियल ज्वेलरी की दुकान में घुस गई थी और वहाँ की सरदार मालकिन से बातें करने लगी थी जिसका पति टैक्सी चलाता था और वह स्वयं एक दुकान की मालकिन थी |
"कुछ ले लो बहन जी ----" काफ़ी शुद्ध हिंदी बोलती थीं वो, बता दिया उन्होंने, दिल्ली में जन्मी, बड़ी हुई थीं |शादी के बाद यहाँ आई थीं, पच्चीस बरस से ज़्यादा हो गए थे लंदन में उसे |इधर-उधर की बातें करते हुए वह बार-बार उससे कुछ खरीद लेने का आग्रह कर रही थीं | अपने हिसाब से नई-नई चीज़ें दिखाए जा रही थीं |
लेती क्या ? सब आइट्म्स भारत से आए हुए थे | भारतीय ज्वेलरी लंदन में पाउंड्स देकर खरीदने में बेवकूफ़ी ही थी | वह सारी चीज़ें देखती हुई, खूब देर तक दुकान-मालकिन से बातें करके बाहर निकल गई |इतनी सी देर में तो फ़ोन नं का आदान-प्रदान हो गया, दोस्ती के वादे हो गए | लगा, जाने कितने बरसों से जानती हों दोनों स्त्रियाँ !
अधिकांश स्त्रियाँ बड़ी मज़ेदार होती हैं, वे कहीं न कहीं अपनी पहचान निकाल लेती हैं, किसी से बहुत जल्दी दोस्ती भी कर सकती हैं | 'बेटा', 'भैया', 'दीदी' बनाकर अपना काम निकाल लेती हैं, जबकि पुरुष संकोच में ही रह जाते हैं| कभी अधिक स्मार्ट बनने में पिटने का डर भी तो बना रहता है, बेकार ही इज़्ज़त जाए, वो अलग !
'किसीका कुछ बुरा तो नहीं करतीं न ! बस, तब ठीक है न !' यह बात रीता उसके लिए कहा करती थी | हाँ, प्रज्ञा वाक़ई है भी ऎसी मुस्कुराती स्त्रियों में, ज़रुरत के समय अपना काम निकालना जानती है, समय आने पर वह सबके काम भी खूब आती है और अपना स्नेह बनाए रखती है |
उसे लंदन के बाज़ार में घूमते हुए इसलिए यह बात याद आ गई क्योंकि दस मिनट के अंदर ही उसकी उस ज्वेलरी की दुकान वाली महिला से मित्रता हो गई थी | उस समय कोई ग्राहक भी नहीं था उसकी दुकान में, सो वह उससे बतियाती रही |कुछ देर बाद 'बाय' हो गई और प्रज्ञा दुकान से बाहर निकल आई |
ऐसा ही तो था वह बाज़ार जैसे अपने देश में होते हैं | वह एक फ्रूट्स की दुकान पर रुकी, उस पर एक दृष्टि डाली | उसीके भीतर एक छोटी सी गली जैसी दिखाई दी जो तीन-चार दुकानों के बाद बंद हो गई थी | प्रज्ञा ने देखा दुकान के बाहर सब्ज़ियों के पत्ते बेतरतीबी से फैले हुए थे जिनको एक आदमी साफ़ कर रहा था |
थोड़ी आगे चलकर एक नुक्क्ड़ पर कपड़े की ऎसी दुकान दिखाई दी जैसी वह न जाने कितनी बार दिल्ली के 'मेन बाज़ारों' में देख चुकी थी | यानि सड़क के बड़े स्टोरों के साथ कोनों पर छोटी-मोटी दुकानें भी थीं |
और आगे चलकर दाहिने हाथ पर गुरुद्वारे के गुम्बद के दर्शन हुए, वह अंदर तो नहीं गई, बाहर से ही उसने शीश नवा दिया | थोड़ी गली सी पार करनी पड़ती थी, वहाँ तक पहुंचने के लिए, उसे लगा वह रास्ता न भूल जाए और नाक की सीध में चलती रही |
गुरुद्वारे के सामने वाली सड़क पर कई ठेले खड़े थे जिनमें भारत की चाट से लेकर, पास्ता-नूडल्स, पंजाबी --सभी खाद्य-पदार्थ थे | उसका मन हुआ, वह कुछ खा ले पर सात पाउंड्स की एक चाट की प्लेट के लिए उसने भारतीय करेंसी गिनी, छोड़ो, उसके मन ने कहा और आगे बढ़ गई |
कुछ कदम ही चली होगी कि हल्के से मोड़ पर एक मंदिर दिखाई दिया, वह उस मोड़ पर मुड़ गई | वहाँ से उसे रास्ता तलाशने में अधिक परेशानी नहीं होगी इसलिए मंदिर की ओर जाना सुरक्षित लगा |
प्रज्ञा को बहुत मज़ा आ रहा था, कभी इस तरह अकेली घूमी नहीं थी | पहले कुछ डर तो था लेकिन जब लगभग डेढ़ घंटे भर से ऊपर हो गया अकेले आवारागर्दी करते हुए तो उसका 'कॉन्फिडेंस लेवल' बढ़ गया | उसे लगा वह सीटी बजाकर एक मस्तमौला की तरह झूमते हुए लंदन की सड़कों पर डोलती-डालती चले | पर, भीतर के संकोच ने उस पर पाबंदी लगा दी |
प्रज्ञा को विश्वास हो गया कि वह यहाँ पर खोएगी तो नहीं --बस, उसके पैर उस मंदिर के पास जाकर रुक गए जो मोड़ पर ही था | चलने से उसके शरीर में चुस्ती और गर्माहट भर उठी थी |
" दीदी ! आप कहाँ हैं ?" रवि का फ़ोन था |
प्रज्ञा ने बताया दिया, यह भी कि वह उस मंदिर में जाना चाहती थी | रवि आश्वस्त से हुए | उन्होंने प्रज्ञा को वहीं ठहरने के लिए कहा, यह भी बताया कि उनका काम जल्दी ख़त्म हो जाएगा और वे उसे वहाँ से पिक कर लेंगे, वह मंदिर में उनका नाम बता दे कि रवि की दीदी है |
बस ---प्रज्ञा मंदिर में पहुँच गई और जैसे ही रवि का नाम बताया, वहाँ के युवा पंडित का चेहरा खिल गया | उसने प्रज्ञा को आदर सहित बुलाकर पूरे मंदिर के दर्शन करवाए और प्रसाद के साथ उसके चाय-नाश्ते का इंतज़ाम भी कर डाला, बाहर सड़क पर खड़ी लारी से चाट भी मंगवा दी | प्रज्ञा को बेहद भूख लगी थी सो पेट महाराज की क्षुधा शांत हुई, तृप्ति हुई, आनंद आ गया |
'अगर इस समय और कुछ सोचती तो वह भी मिल जाता पर पेट के आगे कुछ सूझा ही नहीं था|'अपने पगले विचार पर उसे मुस्कुराहट आ गई | वैसे, कुछ भी सोचकर मुस्कुराना उसकी आदत थी |
मंदिर में धीमे स्वरों में भजन चल रहे थे | बंद हॉल में से बाहर आवाज़ नहीं जाती थी | शायद वह साउंड-प्रूफ़ हॉल था |सुदर्शन युवा पंडित का नाम सुरेश था, उसने पूछा --
"दीदी ! भजन गाएंगी ?"रवि ने सुरेश को बता दिया था कि दीदी भजन लिखती और गाती भी हैं|
अब तो यह कथा भी चरितार्थ हो गई थी, 'भूखे पेट न हो भजन गोपाला ---"
अब तो तोंद भी भरी थी, वातावरण भी ख़ूबसूरत और गायन का निमंत्रण भी !
अँधा क्या चाहे दो आँखें ! समय गुज़ारने का वहाँ इससे अच्छा उपाय और क्या हो सकता था ? कुछ थकान सी भी होने लगी थी |खूब भरे पेट ने आँखों में नींद के शरारती झोंको को आने का निमंत्रण भी दे दिया था पर सोना तो था नहीं, गायन उसका अंतर प्रसन्नता से भर देता था सो प्रज्ञा उन लोगों में जा बैठी जहाँ भजन चल रहे थे | बाहर से छोटा सा दिखने वाला मंदिर भीतर से ख़ासा बड़ा था, प्रज्ञा के मन में पॉज़िटिव भाव भरने लगे थे | वहीं बैठे-बैठे उस ने कई भजन सुनाए और सुने | बड़ी जल्दी मित्रता हो गई थी उसकी सबसे !आवाज़ ठीक ठाक होने कारण सबकी प्रशंसा की दृष्टि उस पर थी |वहाँ बैठने में उसे आनंद आने लगा था | भजन-मंडली के लोगों ने उसे संगत दी और वह सुरों में खोती चली गई | मंदिर में भजन गाने वालों की टोली में शनैः शनैः वृद्धि होती जा रही थी | प्रज्ञा ने देखा, उसके सुरों में सुर मिलाने की चेष्टा करते हुए सब झूमने लगे थे | वह आनंद से रस-विभोर हो उठी |
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