इक्क ट्का तेरी चाकरी वे माहिया...
जयश्री रॉय
(2)
इन्हीं यात्राओं के दौरान भूख और ऊब से जन्मी ऊंघ और टूटती-जुड़ती नींद के बीच कश्मीरा बार-बार अपने गाँव, रिश्तों की सुरक्षा और जमीन की ओर लौटता, सबका वही बुद्धू, नाकारा सिरा बन कर...
लोहड़ी के कितने दिन पहले से उनका मुहल्ला-मुहल्ला फेरा शुरू होता था! तब सिबों उससे गज भर लंबी हुआ करती थी। इसलिए खूब रौब भी गाँठती थी। लंबी और सिंक जैसी पतली। गले की डंठल पर हांडी जैसा सर, मोटी-मोटी काजल लिसरी आँखें! मैदे-सा सफ़ेद रंग! आगे-आगे नाक सिनकती शुतुरमुर्ग-सी चलती थी। जैसे कहाँ की महारानी। बात-बात पर गाली। वो भी माँ-बहनों वाली! सब चिढ़ाते थे उसे- काली जुबान तेरी सिबों, तुझे जोगी चुरा ले जाएगा, बेच देगा अरब के बाज़ार में! सेख ऊंट गाड़ी खिंचवायेगा फिर! सिबो बेपरवाह खुरदरी आवाज में ‘सुंदरी-मुन्दरी’ का नाम ले कर ‘दुल्ला-भट्टी’ गाती, साथ वह और बच्चों के साथ कोरस में चिल्लाता-‘हो’। अपनी फ्राक को कमर तक उठा कर सिबो झोली बनाती और उसमें तिल, मूँगफली, मिसरी, फुलिया, गज्जक बटोरती, और अधिक के लिए गृहस्थों से गला चढ़ा कर झगड़ती। ना मिलने पर अक्सर उसे ही गृहस्थों पर कुत्ते-सा छोड़ दिया जाता। सिबो अपनी बांस फटी आवाज में चिल्लाती- ओय सिरा, फोड़ इनकी मटकी, डाल तंदूर पर पानी... मगर कश्मीरा अपना राख़ मला मुंह और गले में रस्सी का फंदा लिए अकबकाया-सा खड़ा रह जाता। बाद में लौटते हुये सारे बच्चे उसे चिढ़ाते, सिबो उसके बाल खींचती- डरपोक कहीं का! ज़नानी है तू! उन दिनों उसके बाल कंधे तक लंबे हुआ करते थे। बीबीजी ने कोई मन्नत मांग रखी थी।
सतनाम उसे बार-बार टहोका लगाता है, फुसफुसा कर कहता है, अबे उठ, गाँजा चढ़ा रखी है क्या! मगर कश्मीरा कुनमुना कर करवट बदल लेता है। अभी वो बादशाह है, किसी की चाकरी नहीं करेगा! पाँच नदियों के पानी से सींची अपनी हरी-भरी जमीन पर शान से खड़ा है- दिल वालों का पंजाब! उसका पंजाब! उसकी सोंधी, अलबेली महक से लबरेज! आग की लपटों में धधकती गोबर से बनी देवी लोहड़ी की मूरत, तिल, गुड, मिसरी, रेवड़ी की बरसात के साथ सबका नाचना-गाना- “कंडा कंडा नी लकडियो कंडा सी, इस कंडे दे नाल कलीरा सी, जुग जीवे नी भाबों तेरा वीरा सी… ” फिर सरसों का साग, मक्के की रोटी की दावत, मूली, मूँगफली, गुड, गज्जक के साथ... कंपकंपाती शीत ऋतु के लंबे, ठिठुरे दिनों के बाद गर्म, चमकीले दिनों की शुरुआत का मीठा वादा... बीबीजी जलती आग के चारों तरफ दूध, पानी उढेल कर सूरज भगवान को प्रणाम करतीं, हाड़ कँपाती ठंड में ऊष्मा का वरदान मांगतीं। कहती थीं, आज से सूरज भगवान उत्तरायण को जाएँगे।
तब कश्मीरा को लगता था, उत्तरायण कोई देश होगा, सूरज भगवान का जगमग-जगमग देश! सूरज के देश में कितनी रोशनी होगी! वहाँ कभी अंधेरा नहीं होता होगा! रोशनी के उस देश में वह भी जाना चाहता था। अपने ऊपर किसी मोटे कंबल-से पसरे अंधकार को देखते हुये उसने अपनी आँखें मूँद ली थी। भीतर भी उतना ही घना अंधकार! काजल काली रात, इस छोर से उस छोर तक पसरी हुई। जैसे ज़मीन में गहरे दफन किसी ताबूत में बन्द कर दिया गया हो! उसकी साँसे चढ़ती जातीं- उफने चनाव के हरहराते जल-सा। उसके कान बजते हैं- कोई दीवाना बारिश की आधी रात टूटते-बहते किनारे पर खड़ा विरहा गाता- हर जमाने में मुहब्बत का हासिल, वही चढ़ता दरिया, कच्चा घड़ा है, सोहनी सुन, री सोहनी सुन... दूर धुयें से कजलायी दो आँखें दीये की बुझती लौ-सी काँपती है- रोशनी की तलाश में वह किस अंधेरे के देश में चला आया- जहां तक नज़र जाय, ठंडी, अंधी गुफा में लटके हुये भय के स्याह चमगादड़ और उनकी निरंतर फड़फड़ाहट... डर का एक गोला उसके गले में फिर सनसना कर उठता है जिसे वो किसी तरह घुटकता है। आँखों की कोर जल उठती है, वो उन्हें भींचता है- बीबी! चेहरा डबडबाता है जल भरे मेघ-सा...
कितनों ने समझाया था! मामा ने- पुत्तर! ऐसे भी कोई जाता है! जाना हो तो सलीके से जाओ, कनूनी ढंग से। पंजाब के लाखों मुंडे आज दुनिया भर में फैले हैं। अपनी मेहनत और लगन से नाम, दौलत कमाई है। वो चिढ़ गया था- दूसरों का मैं नहीं जानता मगर हम जैसों का क्या? गरीब, अनपढ़... सुन कर मामाजी चुप रह गए थे। बीबी की मिन्नतें याद आती हैं, आते हुये बार-बार पीछे से टोकना, पुत्तरजी तुस्सी ना जाओ! घुटनों का दर्द लिए गाँव के दरवाजे तक चलती आई थी, घर में इतना तो है कि हम दो जनों का गुजारा हो जाय। विदेश में कहाँ भटकता फिरेगा कश्मीरा! तू मेरा इकलौता है... अंत तक वह खीज ही गया था, डपट कर बीबी को वापस भेजा था- बस दो जून की रोटी मिल गई तो हो गया? बीबी, मुझे भी ढेर सारी दौलत कमानी है, दुनिया देखनी है... उस दिन उसकी आँखें दौलत की चमक से चुंधियाई हुई थी। जाते हुये उसने मुड कर एक बार नहीं देखा था, पीछे क्या-क्या छूट रहा है! बीबीजी जाने कब लौट गई थीं, दुपट्टे से अपनी आँखें पोंछते हुये। वह अपनी उमंग में बेखबर बढ़ता गया था, इस अंधकार की तरफ! जिंदगी की कीमत पर अशर्फियां मोल लेने… हिसाब-किताब में हमेशा कमजोर था! इस बार तो हर सवाल गलत कर गया! माटसाब कहा करते थे- तेरा कुझ नी हो सकदा जिंदगी इच कश्मीरा! सच ही कहते थे!
तब यही लगता था कि गाँव में क्या बचा है उसके लिए। सारे जवान मर्द तो विदेश चले गए थे। पीछे रह गए थे बच्चे, बूढ़े और जनानियाँ। खेती-बाड़ी के काम बिहारी मजदूरों के भरोसे चल रहा था। बड़ी-बड़ी कोठियों वाला गाँव भूतैला लगता, शाम होते-होते हर तरफ सन्नाटा सायं-सायं कर उठता। तीज-त्योहारों में उदास आँखें, इंतजार करते बुजुर्ग, वेवक्त सयाने बनते जाते बच्चे! ऊब गया था कश्मीरा। गरीबी में पैदा हुआ था और गरीबी में ही अब तक जी रहा था। ना मन का खाना, ना मन का ओढ़ना-पहनना। हर बात के लिए मोहताज।
उसके आसपास के जाने कितने एक-एक कर विदेश चले गए और कुछ ही सालों में अमीर बन कर लौटे। उनके पास विदेशों की कैसी-कैसी कहानियाँ हुआ करती थी! सुन कर उसे लगता था, कोई परियों का देश होगा जहां हर तरफ खुशहाली और सुख-चैन होता होगा।
इंपोर्टेड स्काच की बोतल खोल कर उसके दोस्त वहाँ की रंगीन जिंदगी की कहानियाँ सुनाया करते, दारू, मुर्गा और गोरी... समझ लो जन्नत है! पंजाबी मुंडे की तो खूब क्रेज है गोरियों के बीच। बस डिस्को में जा और किसी को पटा ले। फिर तो लाइफ सेट है समझ। यानि शादी? वो हैरान हो कर पूछता। दोस्त कंधे उचकाते- अब जो कह ले। वहाँ रहने-कमाने के लिए लाइसेन्स तो चाहिए ना। सुन कर उसका मुंह उतर जाता- ना भई! गोरी लाया तो बीबी घर बाहर करेगी। सुन कर वे हँसते- तो फिर झूठ वाली शादी कर ले- पेपर मैरेज! वो क्या होता है? वो बुद्धू की तरह फिर पूछता। “अरे यार! पेपर मैरेज यानि... दिखावे की शादी, सिर्फ कागज पर। वहाँ की जरूरतमंद लड़कियां पैसे ले कर ऐसी शादी करती हैं। फिर विदेश में रहने-कमाने का हक मिल जाता है। रहने-कमाने के लिए... मगर इन्हें पटाना इतना आसान होता है क्या? कश्मीरा के सवाल खत्म नहीं होते-उनकी जुबान तो नहीं आती, फिर? जवाब में सब ठठा कर हँसते- एक जुबान सबको आती है मूरख! बस वो बोलना आना चाहिए... बस मर्द बन!
सुन कर वह अपने दोस्तों की किस्मत पर रश्क से भर उठता- उसे भी चाहिए यह सब! कोई नई गाड़ी खरीद रहा तो कोई गाँव का दरवाजा बना रहा, गुरुद्वारे में लंगर खिला रहा। गुरमीत ने तो तीन साल में खेत के बीचोबीच पाँच कमरों की कोठी खड़ी कर ली! संगमरमर की सीढ़ियाँ दूर से चमकती दिखाई देतीं। पूरा ताज महल लगता! जिसके निखट्टू बड़े भाई के लिए कोई अपनी बेटी देने को तैयार ना हुआ, उसके छोटे भाई के लिए दरवाजे पर लड़की वालों की भीड़ लग गई। सब पैसे का खेल है। पैसा है तो इज्जत है, गाँव में पूछ है।
हरमिंदर पैसा भेजता तो हर महीने उसके घर दारू, मुर्गे की पार्टी होती, तंदूर सुलगता। आस-पड़ोस के यार-दोस्त नशे की मस्ती में टुन्न हो कर नाचते हुये हरमिंदर को विडियो कॉल कर बार-बार उसकी तस्वीर को चूमते, उसका बूढ़ा बाप हाथ उठा कर ज़ोर-ज़ोर से उसे असीसता- ओय जिंदा रह पुत्तर! जिंदा रह! बाद में हरमिंदर ने लौट कर उसे एक बार पी कर रोते हुये बताया था, यहाँ सब समझते हैं वे वहाँ मजे में है मगर अपनी क्या हालत है हम ही जानते हैं। चाइनिज रेस्तरा में बड़ी-बड़ी भट्टियों के बीच घंटों काम करना पड़ता है। कई बार लगता है, गर्मी और तनाव से दिमाग फट जाएगा। एक हाथ से भारी वॉक उठा कर फ्राइड राइस भूनते हुये हाथ सुन्न पड़ गया है, खड़े रह-रह कर पैरों में वेरिकोस वेन का प्रोब्लेम हो गया है, रस्सी जैसी गांठ पड़ी, तनी नसें... इन विदेशों की रंगिनियों के पीछे की असली कहानी का पता काश यहाँ के लोगों को होता!
मगर कश्मीरा ने तब इन बातों पर ध्यान नहीं दिया था। वह तो किसी तरह विदेश जाना चाहता था। औरों की तरह नशा करके वहाँ खत्म नहीं होना चाहता था। उसके साथ का वीरा, जोगी ड्रग्स ले कर एड़ियां रगड़ते हुये मर गया। बड़ी दर्दनाक मौत मिली उन्हें। आखिरी दिनों में ड्रग्स के लिए पैसे जुटाने के लिए अपनी माँ की जान ली, भाई पर चाकू चलाया, चोरियाँ की, जमीन-जायदाद बेचे... उनकी हालत देख कर कश्मीरा बहुत डर गया था। लगा था, वहाँ रहा तो उसे भी नशे की लत लग जाएगी।
स्कूल के दिनों में उस पर भी जाल फेंका गया था। कुछ दिन के लिए वह उस में फंसा भी था। स्कूल के बाहर चाट-पकौड़े के ठेले लगाने वाले बच्चों में नशे की पुड़ियाँ बांटते और जैसे ही उन्हें इसकी लत लगती, उनसे पैसा वसूलना शुरू कर देते। फिर ड्रग के लिए बच्चों जुर्म की दुनिया में दाखिला हो जाते। वे इसके लिए पहले घर में छोटी-मोटी चोरियाँ करते फिर बाहर अपराध शुरू होता।
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