Darmiyana - 19 in Hindi Moral Stories by Subhash Akhil books and stories PDF | दरमियाना - 19

Featured Books
Categories
Share

दरमियाना - 19

दरमियाना

भाग - १९

यह तो अब खुद रुखसाना बी को भी याद नहीं कि वे जिन बच्चों को इस धरती पर उतार लार्इं, उनमें से कितने हिन्दू थे और कितने मुसलमान!... और क्यूँकि वे पेशेवर दायी नहीं थीं, इसलिए उन्होंने इस काम के लिए किसी से कोर्इ पैसा भी कभी नहीं लिया। हक-हकूक का पैसा तो वे मंगौड़ी और पापड़ का ही माँगतीं। उसमें मोलभाव की गुंजाइश कतर्इ नहीं थी। थोड़ी-बहुत छूट वे देतीं भी, तो केवल उन्हीं को –- जो या तो बेचने के लिए ले जाते... और या फिर जिनके पास पैसे होते ही नहीं थे! शायद ही कोर्इ ऐसा दिन जाता होगा, जब वे बिना पैसा लिए अंजुली-भर मंगौड़ी या पापड़ किसी को सौगात के तौर पर न दे देती रही हों।

लगभग यही समय रहा होगा, जब पीपल महादेव मोहल्ले का एक लड़का बीबी से मंगौड़ी लेने आया और बहुत देर तक उनसे दुनिया-जहान की बातें करता रहा। रुखसाना बी को पता चल गया था कि लड़का पीपल महादेव मोहल्ले की किसी ‘मिसरा फैमिली’ का है। वह प्रायः आता और रुखसाना बीबी से ढेर सारी बातें करता। धीरे-धीरे वह रुखसार और फतह के साथ भी खेलने लगा था। ज्यादातर रुखसार के साथ। फतह को तो वह गोद में खिलाता, चूमता और कभी-कभी उसे प्यार करने को लेकर वह रुखसार से भी लड़ जाता। बीबी को कभी भी नंद लाल मिश्रा का इस तरह घर आना बुरा नहीं लगा। वह रुखसार से छोटा और फतह से बड़ा होने के कारण अपने बच्चों जैसा ही लगा था।

अगर उसकी माँ उसे एक दिन वहाँ से मार-पीट कर न ले जाती, तो शायद रुखसाना बी इस नंदू से इतना प्यार कभी न कर पातीं। वह समझ नहीं पार्इं कि ‘मिसरानी’ ने ऐसा क्यों किया? नंदू तो उसके अपने बच्चों की तरह था -– फिर ऐसा क्या हुआ?... क्या हिन्दू-मुसलमान?... छिः- क्या सोचने लगी थी वह?

कुछ समय ऐसे ही -– बूझने अबूझने के बीच हिचकोले लेता रहा!... मगर न तो नंद लाल ने वहाँ आना बंद किया... और न ही रुखसाना बी ने उसे वहाँ से चले जाने को कहा।... धीरे-धीरे बीबी को समझ आने लगा कि जिसे खुदा ने ही न समझा हो, उसे इतनी आसानी से समझने की बिसात किसकी भला?... रुखसाना बी समझने लगी थीं कि यह नंदू नहीं नंदा है!

खुद इसी ने तो बताया था तार्इ को। उस रात यह बहुत फूट-फूट कर रोया था। रुखसाना बी पहले-पहल कुछ समझ नहीं पार्इ थीं। इसी ने इस गुत्थी को सुलझाया था। बता दिया था -– जो तुम समझती हो, मैं वो नहीं हूँ। मेरे घर वाले इसी लिए तुमसे नफरत करते हैं, क्योंकि तुम मुझसे प्यार करती हो! भले ही मैं कुछ भी रहूँ -- ‘नंदू या नंदा! करती हो न मुझसे प्यार... तार्इ?’

रुखसाना बी की छाती में जैसे दूध उतर आया। उन्होंने इसे अपनी बाँहों कस लिया था।

***

मैं उठा और मैंने उनकी आँखों से छलक आये ‘गंगा जल’ को पोंछ दिया। एक प्रवाह निकल जाने के बाद उन्होंने गहरी साँस ली। यूँ भी, रुदन नेत्रों से एक विरेचन की प्रक्रिया है -- जब धीरे-धीरे सब कुछ शांत हो जाता है।

तार्इ अम्मा ने फिर पीड़ा को शब्द देने का प्रयास किया।... मैं जानता हूँ कि अपने अतीत को पुनः खोदना कितना कष्टकारक होता है -- वह प्रिय रहा हो तो भी... और अप्रिय रहा हो, तब तो और भी। फिर अभी तो ये प्यार के ही क्षण थे।

उस दिन पिटने के बाद भी उसने रुखसाना बीबी के यहाँ आना बंद नहीं किया। बीबी ने भी उसे आने से कभी नहीं रोका। वह रोकतीं भी क्यों? उन्हीं दिनों उसने अपनी तार्इ से बता दिया था कि वह उसे नंदा ही पुकारें, नंदू नहीं। नंदू तो वह उनके लिए था, जिन्होंने जन्मा था। वही उसे इस रूप में समझने को तैयार नहीं थे। अपनी माँ से भी वह जो बात नहीं कह पाता, यहाँ आकर कह देता था। यहीं वह साज-श्रृंगार की कोशिश भी करता और पूछ बैठता -- तार्इ अम्मा, मैं कैसी लग रही हूँ?

सच पूछें, तो तार्इ को भी यह अजीब ही लगता... मगर सात्रे में कमबख्त लगता भी तो सुंदर था। तार्इ अपनी आँखों के काजल से एक टीका ले उसके बालों के भीतर लगा कर छिपा देतीं। मगर पूछतीं भी जरूर –- बेटा, तू ये सब क्या करता रहता है।... अच्छा-भला खुदा ने तुझे मर्द जना है और तू है कि...!

यह बिलख उठता कि कम से कम तुम तो ऐसा न कहो! धारे-धीरे रुखसाना बी समझने लगीं थीं कि यह अपने घर से कड़े ताल में आता और यहीं आकर वह सात्रे में तब्दील हो जाता। शुरू में रुखसार के कपड़े ही इसके काम आते, मगर फिर इसने अपना साजोसामान भी यहाँ लाकर रख छोड़ा था। एक दिन यह बात भी रुकसाना बीबी के सामने आ ही गर्इ कि जब यह सात्रे में होता, तो कुछ इसके जैसे ही छिप कर इससे मिलने आते और यह उनके साथ बाहर कहीं चला जाता।... मुँह अँधेरे लौटता और फिर कड़े ताल में अपने घर चला जाता। यह सब इसी ने तार्इ को बताया था... और उन्होंने भी अनमने मन से स्वीकार कर लिया था।

'मिसरा फैमिली' भी यूँ तो इस सब से अनजान नहीं थी, मगर करती भी तो क्या -– जब अपना ही सिक्का 'खोटा' था। फिर भी एक दिन मिसरानी और रुखसाना बी में जमकर हो गर्इ। मिसरानी अपने लड़के के 'बिगड़ने' का दोष रुखसाना बी पर रख रही थीं और बीबी यह समझाने की बहुत कोशिश करती रहीं कि उनका लड़का बिगड़ा नहीं है -– उसे समझने की कोशिश करो! हालाँकि 'सब कुछ' तो किसी को भी समझ नहीं आ रहा था। न तो उन्हें, जिन्होंने इसे जना था... और न ही उन्हें जिन्होंने इस जैसे कितने ही बच्चों को जन्मने में अपना योगदान दिया था -- और न ही खुद इसे, जो जना तो गया था, मगर ठीक से समझ नहीं पा रहा था कि वह नंदू है या नंदा?

इसी बीच, बीसेक साल की उम्र रही होगी इसकी। तब जो कुछ भी हुआ, सभी से छुपते-छिपाते ही हो गया। रुखसाना बी को भी पहले से कुछ नहीं पता था। तार्इ तो वह कहता ही था। एक दिन बुरी हालत में इसके कुछ साथी इसे यहाँ छोड़ गये थे। रुखसाना बीबी छुपते-छुपाते जल्दी से भीतर ले गर्इ इसे। तब पहली बार इसने बीबी को 'अम्मा' कहा था। यूँ 'तार्इ' तो पहले भी कहा ही करता था।

उस दिन इसने सीधे-सपाट कहा था -– तार्इ अम्मा! मैं छिबरवा के आ गयी!... जो मेरे काम का ही नहीं, उसे लटकाये रखने से क्या फायदा?

***

ऐसा नहीं कि मियां फजल अहमद ने शुरू में विरोध न किया हो। उन्होंने भी बेगम को कर्इ दफा समझाया कि हमें इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए। यूँ भी मामला कटघर गाड़ी खाना और पीपल महादेव मोहल्ले के बीच का है, यानी 36 का आंकड़ा। हम क्यों खामहखां अपने गले में मुसीबत मोल लें? किन्तु बेगम की जिद और इस 'नामुराद' की मासूमियत के आगे उनकी एक न चली।... और फिर, रुखसार की दलीलें और फतह का प्यार क्या कम था! सो, यूँ समझो कि नंदा यहीं की होकर रह गर्इ।

मिसरा फैमिली ने संबंध तोड़ लिये थे। नंदा से बी और बीबी से भी। एक दिन छोटी ने चोरी से आके बता दिया था -- 'भैया!... सॉरी... आप जो भी हो -– आपके नाम का संस्कार कर दिया।... मटकी फोड़ दी उन्होंने।' नंदू मर गया था।

*****