Darmiyana - 15 in Hindi Moral Stories by Subhash Akhil books and stories PDF | दरमियाना - 15

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दरमियाना - 15

दरमियाना

भाग - १५

मैं ऊपर चला आया था। सुनंदा के कमरे में। दालान और बाकी घर पर मैं एक निगाह डालना चाहता था, मगर संकोचवश मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। हाँ, सुनंदा के आने तक मैंने उसके कमरे का मुआयना जरूर कर डाला था।... कमरा क्या था, बमुश्किल उसे तरह-तरह की चीजों से सँवारने की कोशिश की गर्इ थी। गेट पर नकली सीपियों की झालर को वंदनवार की शक्ल में लटकाया गया था। कमरे के दायीं तरफ एक दीवान सलीके से बिछाया गया था। उसके सामने चार छोटी कुर्सियों के बीच एक छोटी-सी मेज। दीवान के ठीक सामने एक बड़ा-सा आला, जिसमें सुनंदा की आस्था के अनुसार भगवान बिराजमान थे। उसके नीचे-संदूक पर संदूक... और फिर एक संदूक के ऊपर ब्लैक एंड वाइट टी.वी!... मैं समझ गया था कि ये संदूक रोज नहीं खुलते। हालांकि हरेक संदूक को एक सुंदर-सा कपड़ा पहनाया गया था।

दरवाजे के ठीक सामने की दीवार पर सन् 1981 का कैलेण्डर टंगा था, जिसके कुछ महीनों की, कुछ तारीखों पर, कुछ निशान-से लगे थे। कैलेण्डर पर भगवान शंकर का सुंदर-सा चित्र था। ....मगर ध्यान से देखने पर पाया कि 1981 वाले कैलेण्डर के नीचे भी कुछ कैलेण्डर दबे हुए थे -– शायद 1980,1979 और 1978 के रहे होंगे.... और शायद उन पर भी गणेश जी, बाँके बिहारी या माता रानी के चित्र रहे होंगे... और शायद उन कैलेण्डरों के कुछ महीनों की, कुछ तारीखों पर भी, कुछ खास तरह के निशान लगे हों...और शायद इन्हीं वजहों से, उन पुराने, बीत गये दिनों, महीनों और वर्षों को फेंका नहीं गया था... या शायद भगवान के चित्रों की वजह से ।

बायीं तरफ के दरवाजे की ओर में बने एक आले में, कभी न मुरझाने वाले फूलों का एक गुलदस्ता रखा था।... मैंने सुना था कि बनावटी फूलों को मुरझाने का खौफ नहीं होता! माना कि वे फूल कभी मुरझाएंगे नहीं, मगर गाहे-बगाहे उन्हें धोया तो जा ही सकता था।... मगर मैं जानता हूँ कि जब खुद को ही ठीक से देखने-समझने की फुरसत न मिलती हो, तो अपने आसपास को सुधारने-संवारने का ख्याल भी मन में कैसे आ सकता है!

सुलतान मुझे उस कमरे में बैठा कर पानी ले आया था। 11-12 साल की उम्र रही होगी उसकी। नीचे पाजामा और ऊपर से एक लम्बी कमीज। बाल करीने से संवारे हुए।

"क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने जानबूझ कर पूछा था।

"जी... जी सुलतान..." वह हकला गया था। उसने शायद सोचा नहीं होगा कि जो ‘उनसे’ मिलने आया हो, वह उसका भी नाम पूछ सकता है! यूँ नाम तो मैं जान ही गया था, फिर भी कुछ बात आगे बढ़ाते हुए पूछा था, "पढ़ते हो?"

"जी... आठवीं क्लास में..." मुझे लगा कि उसे मुझसे छूटने की जल्दी थी। तभी तो पानी रखते-रखते उसने मुझे इतना ही वक्त दिया था।... या फिर शायद सुनंदा के आने की आहट पाकर वह जल्दी से लौट जाना चाहता था। इसीलिए क्लास भी उसने साथ ही बता दी थी, बिना मेरे पूछे।... शायद वह समझ गया था कि मेरा अगला सवाल यही होगा। फिर भी मैं सुनंदा से जुड़ी ‘तार्इ अम्मा’ और ‘सुलतान’ के बारे में ज्यादा कुछ नहीं समझ पाया था।

"माफ करना सर जी... आपको इंतजार करना पड़ा..." सुनंदा ऊपर चली आर्इ थी। जरी वाली साड़ी उतार कर उसने गाउन डाल लिया था। बाल खुले ही छोड़ दिये थे। दोनों हाथों की चूड़ियों की जगह दो कढ़े डाल लिये थे।... बिल्कुल मधुर की तरह। वह भी ऑफिस से आकर इसी तरह इजी हो जाती है -- एक झीना-सा गाउन, हाथों में दो कढ़े -– बाल या तो खुले छोड़े देती या फिर एक क्लिप लगा लेती।... कनखियों से उसके वक्ष के उभारों को भी मैंने महसूस किया -– तारा और रेशमा की ही तरह! मगर तब बच्चा था। कुछ समझ नहीं पाता था। किन्तु अब समझ रहा था कि हारमोन्स के इन्जेक्शंस से अपने सौन्दर्य के इन अवयवों को विकसित करना भी इनकी एक अतिरिक्त विवशता है।... अपनी अपूर्णता में कुछ जोड़ने का अभिशप्त प्रयास।... यही सब सुनंदा को एक औरत होने के करीब ला रहा था -– सुंदर सुनंदा!

"नहीं... नहीं, ऐसी कोर्इ बात नहीं।... आज कुछ समय था और तुम्हारी याद हो आयी, तो इस तरफ चला आया..." मैंने बातों का एक सिलसिला जोड़ने की कोशिश की।

"ठीक किया न सर जी... मैं भी तो उस दिन के बाद से आपके बारे में ही सोच रही थी।... दरअसल मैं कुछ समझ नहीं पार्इ थी... मेरा मतलब है कि –- वो कोती... कौन थी वो? क्या हुआ था उसे?... और आप?..." शायद कुछ और सवाल भी थे उसके पास, जो वह जानना चाह रही थी। इसलिए कुछ सवालों के बाद वह मुस्करा दी थी। शेष सभी सवाल उसकी मुस्कराहट और उन बड़ी-बड़ी खूबसूरत आँखों में छिपे थे।

कोती का जिक्र तो मैंने उस दिन ही कर दिया था। शायद बातों का सिलसिला आगे बढ़ाने के लिए।... मेरा अनुमान सही भी निकला क्योंकि परिचय कि यह शुरूवात उसने यही से कि थी... और ‘कोती के न रहने’ का जिक्र करने के पीछे, एक तो संध्या का स्मरण हो आया था और दूसरा, इस विषय में शायद कुछ अंतरंगता जताने का प्रयास।... यह एक काल्पनिक कथ्य था, जिसके सहारे मैं सुनंदा तक पहुँचना चाहता था।... और शायद यह बताना भी कि मैं कुछ ‘भीतर तक’ जुड़े रहने के अनुभवों से गुजर चुका हूँ।... बहरहाल, मेरे तर्इं यह भी स्पष्ट था कि ऐसे किसी निमंत्रण को मैं स्वीकारने की स्थिति में नहीं हूँ।

इसीलिए मैंने अपने परिचय में खुलासा कर दिया था, "मैंने बताया था न, मैं पत्रकार हूँ। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तुम मुझे शक की निगाहों से देखो -– या सोचो कि मैं किसी खास वजह से तुम्हारे पास आया हूँ।... इसीलिए मैंने अपनी कोती का जिक्र तुमसे किया था।... मगर अब मैं शादी शुदा हूँ और मेरी एक प्यारी-सी बीवी है -- मधुर!... हमारे दो बच्चे भी हैं।..."

सुनंदा ठठाकर खिलखिला उठी थी। उसने अपनी सवालिया निगाहें मुझ पर टिका दी थीं, "प्यारी-सी?..." मैंने भी तो यह विशेषण मधुर के साथ जानबूझ कर चस्पां किया था –- ताकि वह समझ सके कि ‘इस गली के रास्ते ज्यादा दूर तक नहीं जाते’।... शायद दोनों के बीच की मर्यादा भी, या कहें कि एक निषिध्द रेखा भी, इस ‘प्यारे-से’ शब्द ने निर्धारित कर दी थी।... इसलिये... और या फिर किसी अन्य अर्थ में, सुनंदा ने ठहाका लगाया था। मैं नहीं जानता कि क्यों।

मैं तब तक सुनंदा के बारे में भी कुछ विशेष नहीं जानता था, मगर इतना जरूर जानता था कि हमारा एक परिचय तो वह होता है, जो हम दे रहे होते हैं –- और एक परिचय वह भी होता है, जो दूसरा स्वयं ग्रहण कर रहा होता है।... ऐसा दो तरफा भी हो सकता है।

धीरे-धीरे मैंने तारा से लेकर रेशमा तक... और रेशमा से लेकर -– संध्या तक से हुए हालिया परिचयों के जरिये यह बताने का प्रयास किया था कि ‘इस तरफ’ मेरे कुछ संपर्क हैं... या कहिए कि परिचय हैं। रेशमा और संध्या से जुड़े अपने प्रसंगों को भी मैंने ज्यादा विस्तार नहीं दिया था। अलबत्ता -- तारा माँ का जिक्र मैंने उनके प्रति पूर्ण समर्पण के साथ किया था, जिसे सुनंदा ने भी उसी संजीदगी के साथ सुना था मैं अनुमान लगा सकता हूँ कि मेरे कहने की प्रक्रिया के दौरान सुनंदा मेरे संदर्भो को और मेरे व्यक्तित्व को भी, बेहतर ठंग से समझने की कोशिश कर रही थी।... मैंने कहा था न – उसकी यही खोमोशी, उस तक पहुँचने के लिए एक पुल का काम कर रही होती है। यदि वह भी आपको पूरी तरह से तौल कर, सही अर्थों में ग्रहण कर रही होती है तो! या फिर वह स्वयं आपको खुद तक पहुँचने का निमंत्रण देती हो, तो! सुनंदा यकीनन मुझ तक पहुँचने का ही प्रयास कर रही थी। ऐसा मुझे इसलिए लगा कि वह लगातार मेरे व्दारा खोली जा रही पर्तों को बहुत शिद्दत से समझ रही थी। वह खामोश जरूर थी, मगर ऐसा नहीं था कि उन्हीं पात्रों या घटनाओं में मुझे न तलाश रही हो! ऐसा मैं भी समझ पा रहा था।... औऱ ऐसा इस बात से भी स्पष्ट हो गया कि शायद और अधिक समझने की प्रक्रिया में ही उसने हाथ के इशारे से पूछा था, "लेते हो?"

उसके इस अप्रत्याशित निमंत्रण से मैं अचकचा जरूर गया था, मगर इतना भी समझ गया था कि वह निश्चित ही मुझ तक पहुँचने में रूची ले रही थी –- वरना पहले ही परिचय में कोर्इ इतना अनौपचारिक शायद नहीं होता।

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