Darmiyana - 14 in Hindi Moral Stories by Subhash Akhil books and stories PDF | दरमियाना - 14

Featured Books
Categories
Share

दरमियाना - 14

दरमियाना

भाग - १४

जिस्म और जज्बात का संतुलन

जाहिर है कि ‘इन जैसों’ से यह मेरा पहला परिचय नहीं था। सुनंदा मेरे लिए नयी जरूर थी, मगर मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि आखिर मैं ही क्यों -– क्यों मैं ही ‘इन जैसों’ के संपर्क में रह-रहकर आ जाता हूँ।... नहीं मालूम कि ऐसा क्या था, जो अपने बचपन से मैं एक बार तारा के संपर्क में आया, तो फिर यह सिलसिला ही बन गया। कह सकते हैं कि एक संपर्क से दूसरा संपर्क... और दूसरे परिचय से तीसरा -– मगर बात केवल इतने भर से खत्म नहीं हो जाती। कुछ तो था, जो मुझे ‘इनकी’ ओर खींचता था, पर था क्या?... आखिर वह क्या था, जो बार-बार मुझे ‘इनके’ या फिर ‘इन जैसों’... और इनसे जुड़े मुद्दों-मसलों के पास ले आता था!

कोर्इ आकर्षण? लगाव-खिंचाव? जानने की जिज्ञासा? कोर्इ कुतुहल?... या फिर कोर्इ ऐसा कारण, जो मुझे समझ नहीं आता हो और मेरे किसी अतीत, प्रारब्ध, या मात्र संयोग से जुड़ा रहा हो ! कुछ भी हो, तारा माँ से लेकर रेशमा... और रेशमा से होते हुए संध्या -– और अब यह सुनंदा !

सुनंदा के बारे में सीधे-सीधे या इतनी जल्दी कुछ भी कहना कठिन था, जब तक मैं उसे कुछ और बेहतर नहीं जान लेता। शुरू में ही मुझे लगा था कि यह बहुत जटिल चरित्र है। वैसे अब तक मैं इतना तो समझ ही गया था कि ‘ये सभी’ उतने सहज-सरल नहीं होते। अनेक तरह की जटिलताओं में गड्ड-मड्ड होते हैं, जहाँ इनके व्यक्तित्व और जीवन को समझ कर इनकी जटिलताओं के सिरे पकड़ पाना वाकर्इ कठिन होता है।... मगर क्या हम अपने आसपास या अपने बहुत करीब के लोगों की जटिलताओं को सहजता से समझ पाते हैं?... फिर इनके भीतर तो र्इश्वरीय जटिलताएँ भी होती हैं -– जिन्हें न तो र्इश्वर ने ही ठीक से समझा और न ‘ये’ खुद ही समझ पाते हैं !...

इतने वर्षों तक ख़ाक छानने के बाद मैं इतना तो समझने लगा था कि जैसे-जैसे ये आपको समझ आने लगते हैं -– दूसरों से ज्यादा सहज लगते हैं –- अपने भीतर, अपने समाज की सभी विद्रूपताओं के बावजूद !... सुनंदा भी ऐसी ही लगी थी, मैं जैसे-जैसे उस तक पहुँचने का पुल पार कर रहा था।... मुझे हमेशा लगा था कि वह एक जटिल चरित्र है। उसे सुनने से ज्यादा जरूरी लगा था चुपचाप देखते रहना... और बोलने से ज्यादा जरूरी लगा -- सुनते रहना। मुझे लगा था कि यदि मैं इतना कर पाया, तो उस तक जरूर पहुँच जाऊँगा। सच पूछें तो उस तक पहुँचने का यह रास्ता भी मुझे उसी ने समझा दिया था –- कुछ भी न कहकर।

इतना धीर-गंभीर व्यक्तित्व कि प्रायः ‘हम जैसों’ में भी नहीं मिलता, जो खुद को सहज-सुगम्य मानते हैं।... इतनी सौम्यता थी उसमें कि उसके चेहरे का लावण्य देखते ही बनता था।... गोल चेहरा, रंग सांवला, तराशे हुए नयन-नक्श, भवें कमान-सी -- जो गहरी, कजरारी, झील-सी आँखों के तटबंध लगती थीं। काजल उन्हें और गहरा बना जाता था।... पलकों की सादगी ऐसी कि अगर उठतीं, तो बिना कहे बहुत कुछ कह जातीं... और अगर झुकतीं, तो बहुत सारे सवाल छोड़ जातीं!

सच पूछें, तो मैं सुनंदा को ज्यादातर उसकी पलकों के आरोह-अवरोह से ही जानता हूँ। जब भी मेरी नजरें उसकी आँखों पर टिकतीं, मुझे वहाँ कुछ भीगा-भीगा-सा नजर आता -– वह भीतर की कोर्इ नमी नहीं थी –- उसके व्यक्तित्व की आर्द्रता थी। उसकी सादगी का गीलापन। शुरुआत में उससे कुछ भी पूछने का साहस नहीं कर पाया था। बस इतना ही जान पाया था कि उसमें ‘इनके’ जैसा छिछोरापन नहीं था -– एक गहरायी थी। उसकी यही सादगी मुझे भा गर्इ थी। मैंने हमेशा उसे सात्रे में ही देखा था -– यानी साड़ी के अलावा कभी कोर्इ भूषा नहीं -– हाँ, एक बार गाउन में देखा था -– तब भी वह जनाना ही लगी थी... किसी भी दूसरी सामान्य औरत की तरह।... बहुत कुछ मधुर की भी तरह -– ऑफिस से आकर वह भी गाउन डाल लिया करती है।

मगर यह सब तो मैंने बाद में देखा, समझा या जाना -– जब पहली बार देखा था, तो वे अनुभव कुछ अलग थे। उसकी इस सादगी को भी मैंने बाद में ही जाना था।... जब पहली बार उसे देखा था, तो वह मेरे एक मित्र के यहाँ बधार्इ पर आर्इ थी... और तब ऐसी नहीं लगी थी। ...करीने से बालों को बाँधकर उसने जूड़ा बना रखा था।... सिर की माँग के बीच एक प्यारा-सा टीका, गोल मोटी बिंदिया –- जो उसके चौड़े माथे पर खूब फब रही थी, नाक में लॉन्ग... होंठ -- एकदम रसीले-से गुलाबी।... होठों से थोड़ा-सा बायें-नीचे की तरफ एक काला-सा तिल, जो उसके साँवरेपन को और निखार रहा था।... मगर फिर भी उसके चेहरे पर जो सबसे अधिक आकर्षण था –- वह उसकी निमंत्रण देती-सी आँखें, जो सीढ़ियों-सी लग रही थीं। हाँ, आपमें वे सीढ़ियाँ उतरने का साहस होना चाहिए -– और इस सावधानी के साथ कि आप जब चाहें, तो बाहर भी आ सकें।

***

मुझे लगा था कि मुझमें वह साहस है। सो, सोचा -- चलो, देखते हैं, ये सीढ़ियाँ कहाँ तक जाती हैं!... कुछ देर मैं उसकी मंडली का नृत्य व गायन देखता रहा। वह पहले बैठी रही थी। कुछ युवा दरमियाने नाच-गा रहे थे। ज्यादातर ताजा फिल्मी गाने... मगर जब उसे लगा कि अब बधार्इ लेने का समय आ गया है, तो उसने घर की महिलाओं को चावल और गुड़ ले आने के लिए कहा था। गुड़ ना हो, तो चीनी ले आने की हिदायत दी थी।... साथ ही पाँच सौ रुपये और साड़ी-झम्फर ले आने का फरमान भी सुना दिया था। घर की महिलाओं में सुगबुगाहट होने लगी थी, जिससे बेपरवाह उसने ठोलकिये को गीत के बोल दिये थे, "अरे मास्टर जी, अब कंगना गवाओ!"

उसका संकेत पाकर बाकी दरमियाने बैठ गये। एक ने चावल-चीनी की प्लेट थाम ली और जच्चा-बच्चा पर चावल के कुछ दाने छिड़क कर मन ही मन कुछ बुदबुदाने लगी, जो मैं नहीं सुन पाया था। उधर, मास्टर जी की थाप पर सुनंदा ने थिरकना शुरू कर दिया था। अन्य की हथेलियों का समवेत स्वर, मास्टर जी की ढोलक और एक दूसरे दरमियाने की टल्लियों के साथ संगत बैठा रहा था। सुनंदा ने गीत का मुखड़ा कुछ यूँ उठाया था—

‘हीरों के नग से जड़ाऊ कंगना

मेरे मैके से आया –-

ये कंगना मेरे मैके से आया,

हाँ, ये कंगना मेरे मैके से आया!

(कोरस में)

इक कंगना मेरी सासुल को देना

हाँ, ये कंगना मेरी सासुल को देना --

लाला के करुए धरार्इ कंगना,

मेरे मैके से आया!

हीरों के नग से जड़ाऊ कंगना मेरे मैके से...

(कोरस में)

इक कंगना मेरी जिठनी को देना

हाँ, ये कंगना मेरी जिठनी को देना --

लाला के काजल लगार्इ कंगना,

मेरे मैके से आया!

हीरों के नग से जड़ाऊ कंगना मेरे मैके से...

(कोरस में)

इक कंगना मेरी ननदल को देना

हां, ये कंगना मेरी ननदल को देना --

ललना का पलना झुलार्इ कंगना,

मेरे मैके से आया!

हीरों के नग से जड़ाऊ कंगना मेरे मैके से...

(कोरस में)’

*****

कुछ इसी तरह वह घर की सभी महिलाओं को अपने मायके से आये हुए कंगने बाँटती रही। इस दौरान उसके बदन की थिरकन भी देखने लायक थी।... उसकी कमर के निचले भाग, लहरों के इस छोर से -- उस छोर आने और जाने की तरह, एक क्लासिक अंदाज में लहरा रहे थे।... तब पहली बार मुझे लगा था कि साहित्य में गजगामिनी (यानि जाती हुर्इ हथिनी) नायिका का इतना सुंदर वर्णन कवियों ने आखिर कैसे किया होगा! ...और वक्ष... वे तो ज्वार-भाटे की तरह -– कभी उभार के साथ, तो कभी सिमट कर... गीत की संगत कर रहे थे।

मेरे मित्र की पत्नी ने चीनी-चावल तो उन्हें पहले ही दे दिये थे। बाद में एक नर्इ साड़ी के ऊपर दो सौ इक्यावन रुपये रखकर आगे बढ़ा दिये, "अभी यही है बस!"

"न री बहना! देख चांद उतरा है तेरे आँगन में... और मैंने कौन से ज्यादा माँग लिए तेरे से -– पाँच सौ ही तो माँगे हैं।... हमारे पास भी कुछ और हो न हो, मगर पेट तो लगा है बहना!... बता, हम कहाँ जाएंगे?" सुनंदा ने ताली पीटी -– वही तारा और रेशमा वाला अंदाज!

"ठीक है, मैं देती हूँ," मित्र की पत्नी भीतर गर्इं और पाँच सौ रुपये ले आर्इ, "मगर अब कोर्इ और तो नहीं आएगा न माँगने?" उन्होंने पूछा था।

"न री बहना! कसम ले ले!... ये हमारा ही इलाका है। फिर और कोर्इ कैसे आ जाएगी।" सुनंदा ने फिर ताली पीटी। इस बार कुछ और जोर से, जैसे इलाके पर मुहर लगा रही हो।

तभी अचानक मैं पूछ बैठा था, "पन की (अपने इलाके में माँगने वाले) हो?... या खैरगल्ले (किसी के भी इलाके में घुस जाने वाले) की?"

उसने मुझे ऊपर से नीचे तक बड़े गौर से देखा। गोया, उसकी निगाहें मुझे कुछ समझने का प्रयास कर रही थीं। फिर कुछ ठिठक कर उसने कहा था, "कमस ले लो सर जी!... सुनंदा नाम है मेरा!... बिलकुल ‘पन’ की हूँ। मेरी गुरु का इलाका है सरोजिनी नगर।... मुनीरका में रहती हूँ, किसी से पूछ लेना!..." उसकी तालियों की टकराहट, उसका इलाका होने की गवाही दे रही थी। क्योंकि उस ’टंकार ’ में पूरा आत्मविश्वास था।

मैं कुछ और आगे बढ़ना चाहता था। उसके सौन्दर्य ने, सादगी ने, सच्चार्इ ने... और उसकी सहजता ने मुझे जैसे बाँध लिया था। थोड़ा साहस कर मैंने पूछ ही लिया था, " छिबरी हो? "

इस बार उसकी बड़ी औऱ गहरी-सी आँखें कुछ और बड़ी होकर मेरे चेहरे पर टिक गर्इ थीं। इलाके की जानकारी होना एक बात है... और ‘इतने भीतर’ तक की समझ, उसे कुछ और ही संकेत कर रही थी। मगर फिर भी मैं अपने पहनावे, हाव-भाव या किसी भी तरीके से, उनकी दुनिया के आसपास का नहीं लग रहा था। सो, उसने इतना-भर पूछा था, "आप!..."

"हाँ, मेरी एक ‘कोती’ थी... जो अब नहीं रही, " मैंने यह झूठ बोला था, ताकि मैं किसी तरह उस तक पहुँच सकूँ, "वैसे मैं पत्रकार हूँ..." एक बार फिर उसकी नजरों ने मुझे टटोल कर देखा था।

शायद उसने मेरे बारे में अब तक कोर्इ अंतरंग परिचय पा लिया था।... या शायद मेरी सहजता ने भी उसे आकर्षित किया हो, "क्या हम मिल सकते है?" सुनंदा ने सीधा सवाल मुझसे किया था... और मेरी सहमति के बाद अपने घर तक पहुँचने का पता उसने बता दिया था, "कभी आना... मिल-बैठ कर बात करेंगे!..." मैंने भी जल्दी ही मिलने का वादा किया था।

***

उस दिन तो बात आर्इ-गर्इ हो गर्इ, मगर उसने मेरे भीतर कोर्इ जगह जरूर बना ली थी। एक दिन शाम को खाली था और सुनंदा का अहसास हो आया था। मुनीरका यूँ भी मेरे घर से ज्यादा दूर नहीं था। सो, मैंने उसके घर की तरफ का रुख किया। पता तलाशने में मुझे दिक्कत नहीं हुर्इ -– वह इलाका मेरा देखा हुआ ही था।... बड़े पीपल के पास से होते हुए पंडित वाली गली में 212 नंबर का मकान। मकान कुछ पुराना-सा लगा था। यूँ आसपास मेरे अनेक परिचित रहते थे, मगर किसी से पूछना मैंने ठीक नहीं समझा था।

दस्तक दी तो एक अधेड़ उम्र महिला ने दरवाजा खोला था। मैंने उनकी सवालिया निगाहों के जवाब में सुनंदा का नाम लिया था, मगर वे कुछ समझतीं या किसी को बतातीं –- उससे पहले ही भीतर से एक आवाज आर्इ थी, "कौन है, तार्इ अम्मा!..." मैंने अपना परिचय उन्हें दिया, जो उन्होंने भीतर जाकर सुनंदा तक पहुँचा दिया। आवाज से मैंने सुनंदा का अनुमान लगा लिया था और उसके पुकारे जाने से ‘तार्इ अम्मा’ के सम्बोधन को भी समझने का प्रयास कर रहा था। इस बीच निगाह घुमा कर मैंने उस मकान और माहौल को समझने का प्रयास किया था। एक पुराना-सा मकान, जिसकी दीवारें पपड़ी छोड़ रही थीं, शायद सीलन की वजह से। मुख्य द्वार उत्तर की तरफ से था और मकान की बनावट कुछ ऐसी थी कि लगा -– सूरज यहाँ उतरे बिना ही चला जाता है। आसपास के ऊँचे मकान भी धूप को यहाँ तक नहीं पहुँचने देते। दरवाजे के ठीक सामने एक दालान था और दायें-बायें एक-एक कमरा। दायें कमरे के पास रसोर्इ घर... औऱ उसके बगल से सीढ़ियाँ ऊपर की तरफ चली गर्इ थीं।

"अरे आप!..." सुनंदा पूरे साज-श्रृगांर के साथ सजी-धजी थी। लग रहा था कि अभी-अभी कहीं बाहर से लौटी थी। मुझे भीतर लिवाने के लिए वह खुद दरवाजे तक चली आर्इ थी। जरी वाली सिल्की साड़ी, जो शायद वह अभी खोल ही रही थी, उसी को जैसे-तैसे लपेट कर वह मेरे सामने आ गर्इ थी। मुझे अंदर आने का इशारा करते हुए उसने किसी को पुकारा था, "सुलतान..." एक किशोर वय लड़का दौड़ता हुआ–सा चला आया था। सुनंदा ने उसे हुक्म दिया था, "सर जी को ऊपर ले जाओ... मेरे कमरे में बैठाना!..." फिर मुझसे बोली, "आप चलिए, मैं आती हूँ..."

*****