Darmiyana - 13 in Hindi Moral Stories by Subhash Akhil books and stories PDF | दरमियाना - 13

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दरमियाना - 13

दरमियाना

भाग - १३

तभी वे बोले, "इसे किसी कुशल डॅाक्टर ने ही ऑपरेट किया है...क्योंकि इसके गुप्तांग पर जिस प्रकार की शल्यक्रिया की गई थी, उससे जाहिर है कि यह काम कोई अनाड़ी आदमी इतनी सफाई से नहीं कर सकता था । मगर वह शायद नहीं जानता था कि इसे हेमोफिलिया है । ...लगता है, वह हैवान इसी कार्य में दक्ष है... " उनके इस सटीक आकलन पर मैं हतभ्रम था ।

वे बोले, "यह पुलिस केस ही था...मगर आपसे बात होने के बाद ऐसा नहीं किया गया, पर अब भी आप ऐसा कुछ नहीं चाहेंगे ?"

"नहीं डा'क सा'ब ...मैं अपने लेवल पर इस मामले को देखूँगा । मीडिया या पुलिस में आ जाने के बाद वे लोग सतर्क हो जाएंगे । ...प्लीज आप समझें...वैसे भी, इसके परिवार वाले परेशान हो जाएंगे ।... " मैंने उनसे ऐसा न करने का आग्रह किया ।

"नो प्रॅाब्लम ! आप जैसा कहें ।..."

"थैंक्स सर... " मैंने आभार जताया ।

फिर उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिख दिया था कि पेशेंट हेमोफिलिया से पीड़ित था...और चोट लग जाने के कारण काफी रक्तस्राव हो चुका था । पेशेंट को अस्पताल लाये जाने तक उसका हेमोग्लोबिन भी काफी गिर गया था । ...काफी प्रयास किये जाने के बाद भी इसे बचाया नहीं जा सका ।...और यह भी कि पेशेंट उभयलिंगी था ।

माँ, संध्या और सचिन उसी के पास थे । जब तक मैं रिपोर्ट लेकर उनके पास पहुँचा -– अंधेरा बढ़ने लगा था ...यह ‘संध्या’ तो संध्या में ही समाहित हो गई थी -– एक गहन अंधकार की ओर बढ़ते हुए । पीछे अँधेरा ही छूट गया था, उस परिवार के लिए । ...मेरे सामने सवाल था कि क्या किया जाए । वह तो चाहती थी... और जैसा कि उसने कहा भी था कि उसे उसकी गुरू रेशमा को सौंप दिया जाए । किन्तु इसमें भी अभी दो सवाल मेरे सामने खड़े थे -– एक तो यही कि अब इनका फैसला क्या होता है ...और दूसरा, रेशमा ...क्या रेशमा इसकी अंतिम इच्छा और मेरे आग्रह को स्वीकार करेगी ?

फिर भी मैंने पहले माँ पर ही छोड़ा था, "अम्मा ! ...बताएँ, अब क्या करना है ?... कैसे करना है ?"

"ठीक है बेटा, " वे कुछ सोच कर बोलीं, "अब कर दो -– जैसा कह कर गया है । ...शायद इसकी यही गती लिखी थी ।" फिर उन्होंने सीधे सपाट मुझी से पूछा था, "तुम जानते हो उसे ?... ये रेशमा कौन है ?"

"जी," मैं अचकचा गया था । क्या बोलूँ मगर फिर संभाला, "जी हाँ एक बार इसी ने बताया था ।...बताया क्या, मिलवाया था । नंबर भी दिया था ।... कहा था –- गुरू है मेरी । ...पर वो तो ‘उन्हीं’ में से हैं ... " मैंने स्पष्ट नहीं किया था, मगर वे शायद समझ गई थीं ।

"सो, ठीक है बेटा ...हम भी इसे लेकर कहाँ जाएंगे । ...यहाँ तो हमारा कोई है भी नहीं ...मेरा मतलब है रिश्तेदारी ! सब आगरा में हैं, मगर वहाँ इसे ले जाना ठीक नहीं । ...तुम तो समझते ही हो !" मैं समझ रहा था कि आगरा में इसे लेकर इनके सामने काफी परेशानी खड़ी हो जाती । बिरादरी का मामला होता, तो संध्या और सचिन के लिए भी परेशानी का सबब बन जाता । ...यूँ भी ये लोग इसे लेकर परेशान ही रहे हैं । लिहाजा मैंने महसूस किया कि इसी फैसले में सभी की मूक सहमति थी । शायद जब तक मैं डॅाक्टर शिनॅाय के पास था – ऐसा निर्णय ले ही लिया गया होगा । ...इस निर्णय का मर्म भी कम से कम मैं तो समझ ही सकता था ।

"जी अम्मा, मैं रेशमा को फोन करता हूँ ।...फिर यही ठीक है ।" फिर कुछ रूक कर कहा था, "हाँ, सचिन, तुम ऐसा करना कि जब वो लोग इसे ले जाएँ, तो तुम माँ और संध्या को घर ले जाना । ...वैसे मैं चलता, मगर कल से यहाँ हूँ –- मधुर परेशान हो रही होंगी ।"

"हाँ भैया, ठीक है । आप चिंता न करें । बस, कल थोड़ा समय मिले तो घर आ जायें, माँ आपसे कुछ बात करना चाहेंगी ।" सचिन ने कहा ।

"ठीक है, मैं कोशिश करूँगा ... " मैंने कहा और फिर रेशमा को फोन करने चल दिया ।

***

मेरा पहला प्रयास तो सफल हो गया था । अम्मा मेरा आग्रह और उसकी अंतिम इच्छा के अनुसार उसकी अंतिम विदाई मान गई थीं । ...यूँ सहज रूप से, जाने वाले के साथ हमारा सफर श्मशान पर जाकर समाप्त होता है । ...मगर इनके मामले में -- ‘संध्या’ की अपनी इच्छा के अनुसार बस यहीं तक हमारा उसका साथ था ।

बड़े ही अनमने मन से मैंने रेशमा को फोन किया था । जैसा कि मैं जान भी रहा था कि उसके साथ अब इसके संबंध वैसे नहीं रह गये थे । मगर फिर भी मैंने हिम्मत की थी । फोन किसी और ने उठाया था -– शायद सलमा ने । सलमा भी रेशमा की चेली थी और मुझे जानती भी थी । इसलिए जब मैंने अपना नाम बताया, तो उसने रेशमा को आवाज लगा दी थी ।

"अरे वाह, बाबू जी !...आज कैसे हमारी याद हो आई ?...तुमने तो गुरू के बाद उसका दालान ही छोड़ दिया !... गुरू न सही, मैं तो अभी जिंदा हूँ –- फिर ये बेरूखी कैसी ?... कभी हमें ही याद कर लेते... " मैंने महसूस किया, रेशमा मेरे साथ सहज थी ।

"वो... वो क्या है कि मुझे तुमसे कुछ काम था । ...काम क्या, वो तुमसे कुछ कहना था कि..." मैंने हिम्मत जुटाने की कोशिश की ।

"हाँ बोलो बाबू जी...भला मैं तुम्हारे किस काम की हूँ !"

"वो दरअसल, तुम्हारी चेली थी न संध्या, मैं उसके बारे में..."

"उस हरामजादी का नाम मत लेना बाबू जी ... " रेशमा एकदम बिफर उठी, "वो करमजली जिस दिन मेरे हाथ लग गई – वहीं मार दूँगी ...छिनाल की जनी ... "

मैंने तुरंत टोका, "तुम क्या मारोगी -– वो तो मर गई ।... "

"क्या ?..." अब उसकी बोलती बंद थी ।

"हां, संध्या मर गई... " मैंने बिना किसी लाग लपेट के कहा । साथ ही महसूस किया कि शायद रेशमा के मन में अभी भी उसके लिए कुछ शेष था । ऐसा मैं इसलिए भी सोच सकता था, क्योंकि मैं उसे बचपन से जानता था । ...और शायद वह भी मुझे । ...इसलिए उसने मेरी बात को मजाक नहीं समझा था ।

"तुम कैसे जानते हो ?" वह कुछ संभल गई थी ।

"संध्या मेरे पास है !... उसने मरने से पहले मुझसे वादा लिया था कि मैं उसे तुम्हारे सुपुर्द कर दूँ ।... " फिर मैंने संक्षेप में उसे सारा वृत्तांत बता दिया था ।

"माँ की जाई--छिबरवाने उस रंडी की औलाद के पास चली गई । ...अब मैं क्या करूँ ?... ले जाओ –उसे प्रताप के पास !" मैं रेशमा के आक्रोश को समझ सकता था । इसलिए खुद को शांत बनाए रखा । संध्या की आखिरी ख्वाहिश की बात सुन कर वह मान गई, "अच्छा, आप वहीं रुको –- मैं आती हूँ ... " वह ‘तुम’ से ‘आप’ पर आ गई थी, तो मैं उसकी स्वीकृति समझ गया था ।

रेशमा नगमा और दो अन्य के साथ ही आई थी । वे मुझे बाहर मिल गये थे । एक बड़ी सी गाड़ी पर ड्राइवर साथ था । मैं इन्हें साथ लेकर अम्मा के पास आ गया था । बॅाडी मैंने रिसीव कर ली थी । स्ट्रेचर पर ही संध्या और सचिन उसके पास खड़े थे । इन्हें देख कर वे अलग हो गये । दोनों ओर से मैंने ही परिचय कराया था । सभी ने हाथ जोड़कर एक-दूसरे का अभिवादन किया था ।

मैंने गौर से देखा था -– रेशमा की आँखों में लाल डोरे-से उभरे हुए थे । कुछ पल वह अपलक ‘संध्या’ को देखती रही थी । ...फिर धीरे-से उसने इसके माथे पर हाथ रखा और बालों को सहला दिया । तभी उसके साथ आए एक अन्य दरमियाने ने रेशमा के कंधे पर हाथ रख कर हल्के-से दबाया, "बड़ी बी, अबी देर नकी करो... बहुत काम बाकी है । ... " अपने हाथ में पकड़ी एक सफेद चादर उसने रेशमा को थमा दी ।

रेशमा ने फिर एक बार भर - नजर उसे देखा...और उसके शरीर को वे चादर में लपेटने लगे । मैंने भी अंतिम एक नजर उस पर डाली -- वह उसी तरह एक ढीले-ढाले पाजामे के साथ कुर्तानुमा कमीज पहने था, जब मैंने उसे आखिरी बार देखा था ।

*****