बहीखाता
आत्मकथा : देविन्दर कौर
अनुवाद : सुभाष नीरव
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समझौता
उनके एक्सीडेंट ने मुझे बहुत तंग किया। कुछ दिन तक मैं सोचती रही कि उनकी ख़बर लेने जाऊँ या न जाऊँ। मेरा आधा मन रोक रहा था और दूसरा आधा मन जाने के लिए कह रहा था। विवाह के अनुभव वाला पक्ष यह कह रहा था कि नहीं जाना चाहिए। मानवीय पक्ष कह रहा था - जाना चाहिए। आखि़र मैं उन्हें देखने अस्पताल चली गई। निरंजन सिंह ढिल्लों मेरे साथ थे। अस्पताल में चंदन साहब पट्टियों में लिपटे लेटे हुए पडे थे। टांगों और बांहों को ऊपर करके बांधा हुआ था। सिर पर भी पगड़ी जितनी पट्टियाँ थीं। काफ़ी गंभीर हालत थी। एक टांग टूट गई थी और कुछ हड्डियाँ भी क्रेक हो गई थीं। मुझे देखकर वह बहुत खुश हुए। वह सभी को बड़े चाव से बताने लगे कि मेरी पत्नी आई है। आसपास के मरीज़ों को भी और अस्पताल के स्टाफ को भी। मुझे भी यह अच्छा लगा, पर फिर मेरी आँखों के सामने वही चंदन आ गया जिसने मुझे घर से निकाला था, जो मुझे दिल्ली में छोड़ आया था, जो रोज़ शराब पीकर मेरा अपमान किया करता था। जैसे वे मेरी ओर बढ़ रहे थे, मैंने वैसी कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई।
मैं वापस आई तो इनके रोज़ ही फोन आने लग पड़े। एक ही बात कि वापस आ जा। मेरी माँ भी मुझे वापस चले जाने के लिए उत्साहित करती, पर मेरा मन नहीं था। मेरी ज़िन्दगी बदल चुकी थी, ज़िन्दगी की अपेक्षा सोच बदल चुकी थी। मेरी ज़िन्दगी में कई दोस्त आ चुके थे, कई नये रिश्ते बन चुके थे। भाई की मौत ने, माँ के दुख ने मुझे घर से, भाभी के दुख से, उसकी जिम्मेदारियों से इतना जोड़ दिया था कि शेष सबकुछ मेरे लिए वर्जित बाग की गाथा बनकर रह गया था। मेरी चाहतों के गुलाबी गेंदे मेरे अंदर ही तड़पने लगे। मैं कई तरह की दुविधाओं में घिर गई। कुछ भी मेरे वश न रहा, सब कुछ हालात ने निगल लिया। मैं कोई दृढ़ फैसला न ले सकी।
चंदन साहब कुछ सप्ताह अस्पताल में रहकर घर आ गए। अस्पताल में देखने के लिए भी बहुत लोग नहीं जाया करते थे, पर घर आकर तो वह बिल्कुल ही अकेले हो गए थे। शायद अलका कुछ दिन के लिए आ गई थी, पर उसको भी त्वचा का कोई रोग था, इसलिए अधिक नहीं रह सकती थी। टिककर बैठना उसके स्वभाव में भी नहीं था। एक तो चंदन साहब की टांग टूट हुई थी और दूसरे लगातार बैठे रहने के कारण कुछ और ज़ख़्म हो गए। वे ज़ख़्म भी उन्हें तंग करने लगे। उनकी टांग की हड्डी तो जुड़ गई थी, पर प्लास्तर लगे रहने के कारण चमड़ी बहुत खराब हो गई। वह बार बार फोन करके मुझे सारी बात बताते रहते थे। एक दिन उन्होंने फोन किया तो मेरी माँ ने उठा लिया। वह बोले -
“माता, तू मेरी माता ही है। मुझे इस वक्त रानी की बहुत ज़रूरत है। रब का वास्ता, दुबारा कभी इसे तंग नहीं करूँगा। जैसा कहेगी, वैसा ही करूँगा। मेरी विनती है कि इसको भेज दे।”
मेरी माँ उनकी बातें सुनकर पसीज गई। मैं करीब ही बैठी थी। वह बोली-
“देख धीए, मैंने सारी उम्र दुख देखा हैं। तेरा दुख अब देखा नहीं जाता। मैं तुझे खुश देखना चाहती हूँ। जब मर्द इतना गिरकर आने के लिए कहे तो न नहीं करते।”
“माँ, तू इस बंदे को नहीं जानती। मैं इसके साथ खुश नहीं रह सकती।”
“मैं तुझे तो जानती हूँ न। तू इस तरह अकेली भी कितनी खुश है।”
“मैं खुश ही हूँ माँ। जैसे मैंने तेरे पति के चले जाने पर घर की जिम्मेदारी को महसूस किया था, आज जसविंदर के सर पर वही विपदा पड़ गई है। वह मेरी जीवनदायिनी है। मैं उसको बीच में नहीं छोड़ सकती। पता नहीं उसने किस घड़ी में यह सोचा था कि वह मेरे सहारे ज़िन्दगी काट सकती है। आज वह सोच हकीकत बनकर सामने खड़ी है। आज फिर मेरी परीक्षा की घड़ी है। मेरी जिम्मेदारी मुझे उसके पास वापस जाने की आज्ञा नहीं दे रही।“
माँ चंदन का पक्ष लेती मेरे साथ लड़ने तक चली गई। बात करते हुए उसकी आँखें भर आईं। चंदन साहब दोस्तों को फोन करके मिन्नतें करने लगते कि वे मेरे साथ बात करें और मुझे वापस आने के लिए मनायें। शायद ही कोई ऐसा दरवाज़ा बचा हो जो चंदन साहब ने न खटखटाया हो।
असल में, मैं वुल्वरहैंप्टन में रम गई थी। मैं इस शहर का हिस्सा बन चुकी थी। इस शहर ने मुझे सब कुछ दिया था - नौकरी, फ्लैट, मित्र। छिंदे जैसा भाई मिल गया था। उसकी पत्नी दलजीत मेरे लिए बहनों से भी बढ़कर थी। यहाँ प्रगतिशील लेखक सभा की मैं सदस्य थी। हम कई प्रोग्राम भी करवा चुके थे। सब मेरा आदर करते थे। मैं कार्यक्रमों में पेपर पढ़ती, बहसों में खुलकर हिस्सा लेती। चंदन साहब की कै़द में दोबारा जाने से डरती थी। यूँ भी मेरी ज़िन्दगी के हालात बदल चुके थे, पर चंदन साहब मुझ पर चारों ओर से दबाव बना रहे थे। मैंने चंदन साहब को अपने दिल की बात बताई। वह कहने लगे, “दिल्ली वाले तेरे परिवार की जिम्मेदारी हम दोनों मिलकर उठाएँगे।” सोचा चंदन साहब शायद बदल गए हैं। एक्सीडेंट ने शायद उनकी सोच में परिवर्तन ला दिया है। मैंने मित्रों से परामर्श किया और एक महीने की छुट्टी ले ली। मेरे कहने पर दर्शन धीर मुझे पुनः चंदन साहब के घर छोड़ आए। मुझे देखकर चंदन साहब बागोबाग हो गए।
घर में से अजीब-सी गंध आ रही थी। कुछ दवाइयों की और कुछ अन्य चीज़ों की भी। इनकी टांग की हालत बहुत बुरी थी। टांग के अलावा इनके बम (नितंब) भी गले पड़े थे। ऐपीड्यूरल लगने के कारण तथा अधिक देर बैठे रहने के कारण बड़े बड़े घाव हो गए थे। घाव दिखाते हुए यह उल्टा हुए और बोले -
“राणो, वो दवाई उठाकर ला ज़रा।”
मैं महीनाभर इनके पास रही। जितनी हो सकती थी, सेवा की। इसलिए नहीं कि वह मेरे पति थे, इसलिए कि इस समय वह ज़ख़्मी मरीज़ थे। केअरिंग की नौकरी करते समय मैं यह अनुभव प्राप्त कर चुकी थी। उस वक्त यही सोचा था कि यदि मैं उन बुजुर्गों की सेवा कर सकती हूँ तो चंदन साहब की क्यों नहीं? वहाँ यही सिखाया गया था कि मरीज़ या दुखी इन्सान की न जाति होती है, न धर्म। मरीज़ उस वक्त एक इन्सान होता है। केअरिंग वाली यह सोच मेरे नरम दिल को बहुत उपयुक्त बैठी थी और इसलिए मैंने खुशी खुशी इस नौकरी को अपना भी लिया था। चंदन साहब के पास भी मैं यही मानवीय फर्ज़ ही निभाने आई थी। यह भी बहुत खुश थे। इनकी टांग इन्हें बहुत तकलीफ़ दे रही थी। कई बार दर्द से ये कराहने लगते। अस्पताल की वैन आती और इनको चैकअप के लिए ले जाती। मैं भी संग ही होती। इनके सर्जन का नाम नाइजल था। यह बात बात पर नाइजल के साथ बहस करने लगते। एक दिन यह बोले -
“डॉक्टर, डू समथिंग। माय लैग इज़ बॉदरिंग माय माइंड।”
“चैंडन, आय एम बॉदर्ड अबाउट युअर लैग, नॉट माइंड।”
“डॉक्टर, हाऊ कैन यू सैपरेट लैग फ्राम दा माइंड ?” चंदन साहब ने कहा तो डॉक्टर बोला-
“चैंडन, यू आर ए वैरी डिफिकल्ट मैन !”
यह कहकर डॉक्टर चला गया। अब तक डॉक्टर इनके स्वभाव को समझ गया था। यह हर बार ही उसके साथ बातों में उलझने लगते थे। इतनी देर तक दर्द सहना इनके स्वभाव में नहीं था। मेरी छुट्टी खत्म हो रही थी। अब तक यह काफ़ी ठीक भी हो गए थे। इनकी टांग ठीक होना शुरू हो गई थी और बाकी घाव भी। मैं वापस आ गई। मुझे विदा करते समय यह बहुत उदास थे। इतने दिन हमने ढेर सारी बातें की थीं। इन्होंने अपनी सारी गलतियों को माना था और दोबारा ऐसा न करने का वायदा भी किया। मैं खुश थी। चंदन साहब ने एकबार फिर इक्ट्ठे होने के लिए कहा। बहुत सोचने के बाद मैंने फिर से एकसाथ रहने का फैसला कर लिया।
मैंने लौटकर अपना फैसला सारे मित्रों के साथ साझा किया। सभी खुश थे, खासकर मेरी माँ। मैं माँ को अब अपने पास स्थायी तौर पर रखना चाहती थी, इसके लिए मैंने होम-आफिस में आवेदन भी कर दिया था। मैं वापस आई तो पहले दिन से ही चंदन साहब के फोन की प्रतीक्षा करने लग पड़ी, क्योंकि फोन करना तो उनके स्वभाव में शामिल था। चाहे किसी के साथ प्यार की बात करें या गुस्से की, अधिकांश बातें वह फोन पर ही करते थे, पर उनका कोई फोन न आया। एक दिन देखा, दो दिन देखा, इस तरह दस दिन बीत गए। विवश हो, एक दिन मैंने स्वयं ही फोन कर लिया। उधर, अलका ने फोन उठाया। वह रूखे से स्वर में बोली -
“क्या काम है ?”
“कहाँ हैं चंदन साहब ?”
“क्या कहना है ?”
“वे दोबारा इकट्ठे होने की बात करते थे, पर उन्होंने फोन ही नहीं किया।”
“फोन इसलिए नहीं किया कि अब हालात बदल गए हैं !”
(जारी…)