जो घर फूंके अपना
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फ़ौजी ग्लेमर की दुनिया पर चीनी बमबारी
एक बूढ़े आदमी ने लाठी टेक टेक कर चलते हुए सारे देश में अहिंसा और स्वराज की ऐसी अलख जगाई कि अंग्रेजों को अंततः भारत छोड़ कर जाना ही पड़ा. वे खुद तो गए पर अपने पीछे देश भर में फ़ैली हुई छावनियों में अपनी अद्भुत और अमिट छाप छोड़ गए. इन छावनियों में फ़ौजी अफसरों की अपनी एक अलग ही दुनिया थी. एक शानदार ग्लेमर – चकाचौंध से भरी दुनिया. कैंटोनमेंट या फ़ौजी छावनियां भीडभाड भरे शहरी इलाकों से बाहर होती थीं जहां साधारण नागरिक को जाने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती थी. ये छावनियां अपने रख-रखाव, साफ़-सफाई के लिए दर्शनीय होती थीं. होती भी क्यूँ नहीं. जवानों को पहला सबक यही मिलता था कि जिस किसी चीज़ को हिलते देखो उसे सल्यूट ठोंक दो, जो एक जगह पर टिकी दिखे उसे पेंट कर दो. फिर जो कुछ पेंट किया हो उसके चारों तरफ सुर्खी और चूने से एक गोल घेरा बना दो, तो सोने में सुहागा हो जाएगा.
फ़ौज की इस ग्लेमर से भरी हुई दुनिया में बाहर से झांकने वाले को फ़ौजी अफसर का जो बिम्ब दिखाई पड़ता था वह एक बहुत स्मार्ट वर्दी पहने, जीप में बैठे हुए, अभिवादन स्वीकार करते हुए हवा में सल्यूटों को उछालते हुए किसी छरहरे नौजवान का होता था. वह नहीं, तो फिर शिकार के बाद शेर की लाश के पास एक हाथ से राइफल पकडे हुए और दूसरे हाथ से अपनी हैंडलबार मूंछों को मरोड़कर ताव देते हुए जांबाज़ का. और उससे भी ज़्यादा मनमोहक बिम्ब होता था फौजी बैंड की धुन पर डांसफ्लोर पर किसी सुन्दरी की नाज़ुक कमर थाम कर अंग्रेज़ी नाच नाचते हुए सजीले जवान का. शिकार, शराब, साकी और सैल्यूट से सजी हुई यह दुनिया एक बहुत सुन्दर सी मूर्ति थी जिसे चीनियों ने ऐसी बेरहमी से तोडा कि क्या बामियान की बुद्ध प्रतिमाओं को तालिबान ने तोडा होगा. इस मूर्तिभंजन में जो बची खुची कमी थी उसे पूरा कर दिया लता मंगेशकर की जादुई आवाज़ में गाई हुई इन दर्द भरी पंक्तियों ने –“ ऐ मेरे वतन के लोगों,ज़रा आँख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी, ज़रा याद करो कुर्बानी”
कहते हैं इस गीत को सुनकर पंडित नेहरु की आँखों में आंसू छलछला उठे थे. पर उसके बाद यह भी हुआ कि आगे से किसी विवाह योग्य कन्या के लिए किसी फ़ौजी का प्रस्ताव आता था तो तुरंत उसका बाप वतन पर मर मिटने वाले शहीदों की कुर्बानी याद करके रोने लगता था. चीन के साथ युद्ध में जितने सैनिकों ने शहादत दी थी उस संख्या से सैकड़ों अधिक संख्या में उस पीढी के फौजियों के विवाह की संभावनाएं अकेले इस गीत पर कुर्बान हो गयीं. संवेदनशील माता पिताओं के कानों में इस गीत के स्वर पड़ते ही उनकी आँखों के सामने लद्दाख के बर्फीले बियाबानों के बीच भूख प्यास से तड़पते, भयंकर ठण्ड में कांपते, अपनी पलटन से भटककर घर की राह तलाशते हुए फौजियों की ‘ हकीकत’ सामने आ जाती थी जो उस तिलमिला देने वाली हार पर बनी एक अविस्मरणीय फिल्म थी. अगर वह नहीं तो फिर इन कन्याओं के अभिभावकों को फ़ौजी कप्तान बने हुए देवानंद का चेहरा दिखता था- अपनी शानदार मूंछों को, जो ‘हम दोनों’ फिल्म के लिए उनके चिकने चेहरे पर चिपकाई गई थीं, मरोड़ते हुए, अपनी फ़िक्र को धुंए में उड़ाते हुए. पर क्या दमघोंटू सीन था वह कि देवानंद की अपनी फ़िक्र तो कम पर असली फौजियों की शादी की संभावनाओं को ज़रूर धुंए में उड़ा देता था.
औसत से अधिक सिरफिरी कोई कन्या यदि इन सबके बावजूद किसी फ़ौजी से ब्याह करने की इच्छा प्रकट करती थीं तो कहते हैं उसे छोटे से कमरे में बंद करके उसके सामने तत्कालीन सुषमा,शमा,फ़िल्मी कलियाँ. रंगभूमि सरीखी सुन्दर-सुन्दर फ़िल्मी पत्रिकाएं रख दी जाती थीं. उनमे हकीकत जैसी फिल्मों का पूरा का पूरा डायलोग कलेजा हिला देने वाले युद्ध के दारुण दृश्यों की तस्वीरों के साथ छपा रहता था. कमरे के बाहर “ऐ मेरे वतन के लोगों “ वाले गाने का अखंड पाठ किया जाता था. कठिन से कठिन मामलों में भी इस इलाज से सफलता मिलने में चौबीस घंटे भी नहीं लगते थे. कन्या कमरे के अन्दर से दरवाज़े पर अपने कोमल हाथों से लगातार प्रहार करते हुए जब चीखने लगती थी “ बंद करो ये मनहूस गाना, नहीं करनी शादी मुझे किसी फ़ौजी के साथ. किसी दरिद्र के साथ, दीवालिये के साथ, यहाँ तक कि किसी हिन्दी लेखक के साथ शादी करने को तैयार हूँ पर फौजी का नाम न लेना मेरे सामने. ’’ तो कमरे का दरवाज़ा खोल दिया जाता था. कन्या के माँ बाप चैन की सांस लेते थे और भूत उतर जाने की खुशी में मिठाइयां बांटते थे.
यदि कन्या किसी कान्वेंट स्कूल में पढ़ी होने के कारण अंग्रेजी भाषा और अमेरिकन ऐक्सेंट घुट्टी में पिए हुए होती थी तो बजाय ‘फ़िल्मी कलियाँ‘ और ‘रंगभूमि’ आदि पत्रिकाये रखने के “वार एंड पीस”, ‘ब्रिज ऑन द रिवर क्वाई’ और ‘द फाल ऑफ़ बर्लिन‘ आदि उस ज़माने की युद्धसंबन्धी फिल्मों से सम्बंधित ज्वलनशील सामग्री इकट्ठा की जाती थी. फिर पीड़ित कन्या को उसका धुंआ देने से भी वांछित सफलता मिलती थी. चूँकि चीन के आक्रमण से सम्बंधित कोई भारतीय फिल्म अंग्रेज़ी में नहीं बनी थी अतः द्वितीय विश्वयुद्ध पर बनी अंग्रेज़ी फिल्मो से ही काम चलाना पड़ता था. पर समझदार के लिए इशारा ही काफी होता है. ये अंग्रेजीदां कौनवेंटिया कन्याएं तो पैदायशी समझदार होती थीं. वे फ़ौजी अफसरों से दोस्ती करने में परहेज़ नहीं करती थीं. उनके मेसो में डिनर डांस में शरीक हो लेती थीं, कभी कभी उनके साथ पिक्चर भी देख लेती थीं, पर शादी वे तत्कालीन ‘ बॉक्स वाला’ अर्थात बर्माशेल, आई सी आई, सीबा आदि विदेशी कंपनियों में कार्यरत या टी- एस्टेट्स और कॉफ़ी-एस्टेट्स में लगे हुए लड़कों से ही करती थीं. वैसे भी इनके रोमांस करने की प्रक्रिया एक तात्कालिक व्यवस्था ही होती थी. यह अस्थाई व्यवस्था तब तक चलती थी जब तक इनके पाइप या सिगार पीने वाले डैड या फ्रेंच परफ्यूम में रची बसी मॉम इनके लिए आई ए एस, आई एफ एस या ‘बोक्स-वाला’ लड़का ढूंढ न निकालें. अतः इस वर्ग की कन्याओं को अंग्रेज़ी फिल्मो का धुआं देने वाले इलाज की आवश्यकता कम ही पड़ती थी.
विवाह के बाज़ार में फौजियों की जो दुर्दशा चीनी सेना कर गयी थी उसे और भी बुलंदियों पर पहुंचाया पाकिस्तानियों ने. अक्टूबर 1962 के चीनी हमले की तीसरी सालगिरह मनाई जा सके इसके पहले ही अर्थात 1965 में पाकिस्तान ने जो राग अलापा उसके बोल थे “आ बैल मुझे मार. ” वैसे पाकिस्तान का इस बार भारतीय सेनाओं ने शुक्रिया अदा किया कि उसकी मेहरबानी से चीन से मार खाने की भड़ास निकल गयी. युद्ध इस बार भी लंबा नहीं खिंचा पर फौजियों को मज़े से अपना जौहर दिखाने का अवसर मिल गया. पाकिस्तान से कुछ क्षेत्रों में तो कांटे की लड़ाई रही पर अधिकाँश क्षेत्रों में भारतीय सेनाओं ने पाकिस्तानी टैकों का कब्रिस्तान खड़ा कर दिया. पुराने पापों के प्रायश्चित के लिए गंगा नहाने का प्रावधान है. फौजियों को लाहौर जा कर मत्था टेकने से तो भारत सरकार ने रोक दिया पर लाहोर के प्रवेशद्वार पर इछोगिल कैनाल में डुबकी लगाकर उन्होंने अपने पाप धो डाले.
बेचारे भोले भाले फ़ौजी जीत की खुशी में ये समझ भी नहीं पाए कि उनकी गोटी जो शादी के बाज़ार में 1962 से ही पिटी हुई थी तीन साल के अन्दर ही इस दूसरे अल्पकालिक लेकिन घमासान युद्ध से बिलकुल ही घिस पिट जायेगी. हुआ यह कि चीनियों ने तो केवल थलसेना के ही जवानों और अफसरों का बाज़ार ठंढा किया था. इस बार वायुसेना और नौसेना भी चपेट में आ गयीं. पहले जो कन्याएं किसी नेवी या एयरफोर्स के अफसर को दिल दे बैठती थीं वे अपनी रोती कलपती मम्मी को ये कहकर समझा लेती थीं कि “तुम्हे तो कुछ पता ही नहीं है. वे तो एयर फ़ोर्स ( या नेवी ) में हैं जिनके अफसर तो केवल अफसरी करते हैं. लड़ाई थोड़ी लड़ते हैं “ पर वही कन्याएं अब खुद भी सयानी हो गयीं. जानबूझकर मक्खी कौन निगले. अब तो पता चल गया कि मुई लड़ाई ज़मीन पर ही नहीं, आसमान पर भी होती है और समंदर में भी. कौन इस ज़रा सी स्मार्टनेस और कसरती बदन के चक्कर में अपनी जान का बवाल पाले. यह थी तस्वीर उस समय के शादी के बाज़ार की जिसमे सिर्फ कई कन्याओं के पिता फौजी अफसर की बोली लगाते वह भी तब जब अपनी दो और बेटियों के लिए एक फ़ौजी अफसर के साथ दो आई आई टी, आई आई एम् वाले मुफ्त मिलें.
मैं उस पीढी के अफसरों में था जिनके देखते देखते क्या से क्या हो गया. हमें कमीशन तो मिला सन 1962 और 1965 की लड़ाइयों के बाद पर एन डी ए ( राष्ट्रीय प्रतिरक्षा अकादेमी )में हम भरती हुए थे चीनी आक्रमण से पहले वाले स्वर्णिम युग में- यानी 1961 में. हमारी आँखों में वही जीप पर सवार, आंखों पर रेबैन का धूप का चश्मा लगाए, हवा में तैरकर आते सैल्युटों को दाहिने हाथ से वापस उन्ही हवाओं में लौटाते हुए और बाएं हाथ से अपनी गर्ल फ्रेंड को संभालते हुए फ़ौजी अफसर की तस्वीर डोल रही होती. नेवी में जाने वाले कैडेटों को आईने में सफ़ेद निकर और सफ़ेद आधी बांह की शर्ट पहने अपनी रंगरूटी शकल नहीं दिखाई पड़ती. उसके बदले दीखता सीरिमोनियल ड्रेस में अर्थात बंद गले का सफ़ेद शार्क स्किन का कोट, वैसी ही चमचमाती टिनोपाली सफ़ेद पैंट पहने, सीने पर झिलमिलाते हुए तमगे लगाए,और बगल में टीपू सुलतान मार्का तलवार लटकाए एक खूबसूरत जवांमर्द जिसकी शकल उसके हीरो कमांडर नानावती के जैसी होती थी. इससे भी जियादा फड़कता हुआ मूड हुआ तो उस तस्वीर में यह जवांमर्द अपनी सर्विस रिवाल्वर से उस सिविलियन विलेन को भूनता हुआ नज़र आता था जिसने विदेशी क्रूज़ से लाई हुई उसकी सती साध्वी मेम को बुरी नज़र डालकर बरगला दिया था. एयरफोर्स के कैडेटों का तो कहना ही क्या. उन्ही दिनों एन डी ए, खडकवासला में राज कपूर की ‘संगम’ फिल्म की शूटिंग हुई थी. फिल्म में स्क्वाड्रन लीडर बने राजकपूर को एक छोटे से टू सीटर हवाई जहाज़ को डाइव मारकर हिरनी की तरह कुलांचें भरती हुई वैजयंतीमाला के एकदम कानों के पास से निकालने वाले सीन में उन्हें दिनभर एन डी ऐ के हवाई अड्डे पर ‘ बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं?’ जैसे मासूम प्रश्न के उत्तर में वैजयंतीमाला “ नहीं, नहीं. नहीं “ चीखती हुई दिखाई पडी थी. पर रात को उन कैडेटों के सपनों में वैजयंतीमाला से यही प्रश्न राजकपूर की जगह उनका हमशक्ल हीरो पूछता था तो शर्म से लाल गालों की सुर्खी अपनी कजरारी लटों से ढंकते हुए वह हौले से मुस्कराकर कहती “ हाँ- हाँ- हाँ “
क्रमशः ---------